दीर्घकालीन भारत का निर्माण
वर्तमान भारत महत्वाकांक्षी और साहसिक है, जो वैश्विक उत्तर की आंख में आंख मिला रहा है. यह एक ऐसा देश है जो बड़े सपने देख रहा है और उन्हें साकार करने के लिए कड़ी मेहनत भी कर रहा है. यह खंड उस भारत के प्रति एक सम्मान है, जिसने 75 वर्ष का लंबा सफर तय किया है और जो और भी ऊंचाइयों पर पहुंचने की अभिलाषा रखता है. यह सम्मान है उस मिलेनियल इंडिया का जो अपनी प्राथमिकताओं को समझता है और उनका सामना कर इन चुनौतियों से पार पाने की तैयारी कर रहा है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगले 25 वर्षो में भारत के विकास पथ की रूपरेखा खींचने के लिए ‘अमृत काल’ शब्द का उल्लेख किया. उन्होंने कहा, ‘‘इस अमृत काल में हमारे संकल्पों की पूर्ति हमें गर्व के साथ भारतीय आज़ादी की 100वीं वर्षगांठ तक लेकर जाएगी.
आजादी का अमृत महोत्सव भारत की आजादी के 75 साल और इसके लोगों, संस्कृतियों और उपलब्धियों के गौरवशाली इतिहास को मनाने और गुणगाण करने के लिए सरकार की पहल है. यह भारत चुनौतियों से पार पाने की तैयारी कर रहा है. फिर भी, यह केवल पुराने भारत का उत्सव नहीं है, बल्कि वर्तमान और भविष्य के आकांक्षापूर्ण और महत्वाकांक्षी भारत का उत्सव है. इसी संदर्भ में यह सारांश ऐसी 10 नीतियों की चर्चा करता है, जो दीर्घकालीन भारत के भविष्य को तय करेंगी. 2021 को स्वतंत्रता दिवस समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगले 25 वर्षो में भारत के विकास पथ की रूपरेखा खींचने के लिए ‘अमृत काल’ शब्द का उल्लेख किया. उन्होंने कहा, ‘‘इस अमृत काल में हमारे संकल्पों की पूर्ति हमें गर्व के साथ भारतीय आज़ादी की 100वीं वर्षगांठ तक लेकर जाएगी.’’[1] यह किताब, ‘अमृत महोत्सव: दीर्घकालीन भारत का निर्माण करने वाली 10 नीतियां’ का उद्देश्य भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) को मनाना है और उस भारत का सम्मान करना है जो महत्वपूर्ण नीतियों से लैस होकर अगले 25 वर्षो की विकास यात्रा को पार करते हुए, स्थायी चुनौतियों का समाधान करते हुए देश और उसके लोगों के लिए एक दीर्घकालीन भविष्य का निर्माण करेगा.
पिछले कुछ वर्षो में अहम नीतियों के हस्तक्षेप की वजह से देश में विकासात्मक शासन प्रणाली ने कुछ बदलाव देखे हैं. यह हस्तक्षेप काफी हद तक सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) में अंतर्निहित है, जिन्हें आजकल न केवल वैश्विक विकासात्मक शासन प्रणाली स्तर पर, बल्कि सभी स्तरों पर शासन प्रणाली का आधार अथवा मूल सिद्धांत माना जाता है. इस किताब के लेख इस परिकल्पना पर आगे बढ़ते हैं कि 5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था के रूप में विकसित होने की भारतीय आकांक्षा को मज़बूत बुनियादी सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए, जो देश की मानव और भौतिक पूंजी को मज़बूत करने वाली नीतियों के माध्यम से बनायी जा रही है.
2024-25 तक पांच ट्रिलियन अमेरिका डॉलर वाली अर्थव्यवस्था बनने के लक्ष्य को कोविड-19 की महामारी के कारण तगड़ा झटका लगा था. इसके बावजूद जीडीपी वृद्धि के आंकड़ों पर नजर डालें (देखें फिगर 1) तो आर्थिक बहाली साफ दिखाई दे रही है. जहां सकल घरेलू उत्पाद 2019 में 2.68 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से घटकर 2020 में 2.51 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया, वहीं अब यह 2021 में 2.73 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया है. दरअसल, भारतीय अर्थव्यवस्था में वित्त वर्ष 2026-27 तक 5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर वित्त वर्ष 2033-34 तक 10 ट्रिलियन के स्तर को छूने की अपार क्षमता है.[2]
चित्र 1 : भारत की जीडीपी विकास दर (2010 से 2021)
स्त्रोत : विश्व बैंक की जानकारी से लेखक द्वारा परिकलित [3]
इसके साथ ही, “जीडीपी आर्थिक गतिविधियों का सबसे खराब पैमाना है लेकिन अन्य सभी के लिए…क्योंकि आप जो कुछ भी लेते हैं वह अपनी सीमाओं और गंभीर व्यक्तिपरकता के साथ आता है.”[4] भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार का यह कथन मानदंड संबंधी दृष्टिकोण से आंशिक रूप से सत्य भी है और विवादास्पद भी. यह सच है कि जीडीपी आर्थिक गतिविधियों को मापने का एक वस्तुनिष्ठ उपाय है, लेकिन जीडीपी को एकमात्र सर्वशक्तिमान पैमाना मान लेना संभवत: सबसे गंभीर चूक होगी. इस विकास के खेल में जिस बात को स्वीकार नहीं किया जाता वह है, ‘विकास की लागत’.
भारत की विकास गाथा और विकासात्मक विरोधाभास
ऐतिहासिक रूप से भारत ने खुद को विकासात्मक विरोधाभास के रूप में प्रस्तुत किया है – ‘‘पर्याप्त संसाधन, पर्याप्त गरीबी,’’ जिसे कुछ लोग तथाकथित ‘‘संसाधन अभिशाप’’ की अभिव्यक्ति के रूप में संदर्भित करेंगे.[5] संसाधन अभिशाप परिकल्पना को प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक संसाधनों की मौजूदगी के बावजूद ‘विकास घाटा’ अर्थात कम आय, कम आर्थिक विकास, कमजोर लोकतंत्र और कम समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों वाली अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में विकास संकेतकों में खराब प्रदर्शन करने वाली अर्थव्यवस्थाओं की स्थिति में वर्णित किया जा सकता है. लेकिन भारतीय स्थिति इस तरह की एक रेखा वाली सैद्धांतिक रचना की तुलना में बयान नहीं की जा सकती, क्योंकि यह उससे कहीं अधिक जटिल है. भारत के संपूर्ण इतिहास में, हमेशा से ही अविकसित और विकास के क्षेत्र रहे हैं,[6] जो लगभग एक रेखीये और निकटस्थ अंदाज में स्थित हैं.
संसाधन अभिशाप परिकल्पना को प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक संसाधनों की मौजूदगी के बावजूद ‘विकास घाटा’ अर्थात कम आय, कम आर्थिक विकास, कमजोर लोकतंत्र और कम समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों वाली अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में विकास संकेतकों में खराब प्रदर्शन करने वाली अर्थव्यवस्थाओं की स्थिति में वर्णित किया जा सकता है.
साथ ही, यह समझने की आवश्यकता है कि वितरणात्मक न्याय या समान हिस्सेदारी और प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र की स्थिरता की चिंताओं पर विचार किए बिना आर्थिक विकास का बेलगाम और अंधा पीछा ‘‘विकास की लागत’’ के रूप में एक जैविक परिणाम को साथ लेकर आता है. वे अक्सर कम समय यानी अल्पावधि में महसूस नहीं होते, लेकिन लंबे समय में दिखाई देने लगते हैं. या तो ये भौतिक बुनियादी ढांचे के निर्माण की वजह से आजीविका को होने वाले नुकसान और पुनर्वास की बढ़ती समस्याओं के रूप में हो सकते हैं, या मानव आवास को प्रभावित करने वाली इकोसिस्टम की सेवाओं को पहुंचने वाले नुकसान के रूप में हो सकते हैं.[7]
आजादी के बाद से विशेषत: 1990 की शुरुआत में हुए आर्थिक उदारीकरण के बाद से भारतीय विकास की गाथा इसी वर्गीकरण में आती है. आर्थिक उन्नति में बड़े पूंजीगत व्यय के माध्यम से नई पूंजी का निर्माण हुआ. कई मामलों में, समाज को आजीविका और इकोसिस्टम सेवाओं में होने वाले जो नुकसान वहन करने पड़ते हैं उसकी कीमत लंबे समय में होने वाले आर्थिक लाभ से ज्यादा भारी होती है. लंबे समय तक किए गए इस तरह के निवेश की फलोत्पादकता पर अधिक व्यापक विश्लेषण के माध्यम से दिखाई देने वाला नकारात्मक लाभ-लागत अंतर ऐसे निवेश पर सवालिया निशान लगा देता है.[8] इस प्रकार, जबकि रेखीये बुनियादी ढांचे, कृषि, उद्योग और शहरी बस्तियों के लिए बड़े पैमाने पर भूमि-उपयोग परिवर्तन और संरचनात्मक हस्तक्षेपों के माध्यम से जल विज्ञान व्यवस्था के प्राकृतिक प्रवाह में परिवर्तन आर्थिक प्रगति के लिए लागू किए गए थे. इन्हें भी पुनर्वास से जुड़ी सामाजिक कीमत अथवा पुनर्वास की कमी से जोड़कर देखा गया है, जो संघर्ष को जन्म देता है. इसके बावजूद भौतिक पूंजी की आर्थिक उन्नति को बढ़ावा देने में जो अहम भूमिका है उसे नकारा नहीं जा सकता. भले ही कारोबारी माहौल और आर्थिक प्रतिस्पर्धात्मकता को दीर्घ स्तर पर बढ़ावा देने में भौतिक बुनियादी ढांचे के पर्याप्त अनुभवजन्य साक्ष्य उपलब्ध हैं.[9] इस मायने में यह एक आवश्यक बुराई थी, जिसे भारतीय सामाजिक-अर्थव्यवस्था को विशेषत: आजादी के बाद के विकास के प्रारंभिक चरणों के दौरान झेलना पड़ा.
आर्थिक विकास की बदलती दृष्टि
विकास को ही उन्नति अथवा आर्थिक प्रगति के एकमात्र पैमाने के रूप में देखे जाने की कोशिशों को दशकों से विश्व स्तर पर चुनौती दी गई है. युद्ध के बाद के दशकों में यूरोपीय पुनर्निर्माण और उपनिवेश से बाहर आने वाले देशों, जिसे उस समय थर्ड वर्ल्ड अर्थात तीसरी दुनिया कहा जाता था, में विकास को लेकर यह सोच कि विकास केवल पूंजी निर्माण के माध्यम से ही हो सकता था, उस सोच को चुनौती दी गई और अब विकास में मानवीय चेहरा प्रमुख प्रतिमान में हो गया.[10] समय के साथ, रोम की प्रलय के दिन की मान्यता को मानने वाले क्लब ने इस माल्थुसियन मत पर फिर से विचार किया कि मानवजनित हस्तक्षेपों के कारण प्राकृतिक संसाधनों की कमी भविष्य में मानव आर्थिक विकास की महत्वाकांक्षाओं को बनाए रखने में सक्षम नहीं होगी.[11]
भारत के विकास की राह परंपरागत रूप से इस सोच के अनुरूप नहीं रही है. हालांकि, अब यह सोच बदल रही है. सरकार ने महामारी की वजह से लगाई गई तालाबंदी के दौरान कमज़ोर आबादी को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने का प्रयास किया. लेकिन सरकार के सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद एक बड़ा वर्ग यह लाभ पाने से वंचित रह गया.
ऐसे में अनेक सम्मेलन, वैज्ञानिक आकलन और वैश्विक घोषणाएं हुई हैं, जो सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों सहित विकास के लिए एक अधिक समग्र दृष्टिकोण को बढ़ावा देने की मांग करती हैं, और जिन्हें अंतत: 2015 में एसडीजी द्वारा बनाई गई अधिक व्यापक कार्यसूची से प्रतिस्थापित किया गया है. 17 लक्ष्यों के माध्यम से विकासात्मक शासन के लिए एक पर्याप्त विस्तारित और व्यापक कार्यसूची प्रस्तुत करते हुए एसडीजी, अर्थशास्त्री मोहन मुनसिंघे के ‘सस्टेनोमिक्स’ में एक सैद्धांतिक आधार पाते हैं जो एक ट्रांसडिसप्लिनरी ज्ञान के आधार पर तैयार किया गया है.
ऐसे में अनेक सम्मेलन, वैज्ञानिक आकलन और वैश्विक घोषणाएं हुई हैं, जो सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों सहित विकास के लिए एक अधिक समग्र दृष्टिकोण को बढ़ावा देने की मांग करती हैं, और जिन्हें अंतत: 2015 में एसडीजी द्वारा बनाई गई अधिक व्यापक कार्यसूची से प्रतिस्थापित किया गया है. 17 लक्ष्यों के माध्यम से विकासात्मक शासन के लिए एक पर्याप्त विस्तारित और व्यापक कार्यसूची प्रस्तुत करते हुए एसडीजी, अर्थशास्त्री मोहन मुनसिंघे के ‘सस्टेनोमिक्स’ में एक सैद्धांतिक आधार पाते हैं, जो एक ट्रांसडिसप्लिनरी ज्ञान के आधार पर तैयार किया गया है. यह निर्माण आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय लक्ष्यों को जोड़ता है, जिससे समानता, दक्षता और स्थिरता के तीन मानक उद्देश्यों को संबोधित किया जाता है.[12] कई मामलों में, ये उद्देश्य ऐसे उभरते हैं, जिनके साथ समझौता नहीं किया जा सकता.
भारत के विकास की राह परंपरागत रूप से इस सोच के अनुरूप नहीं रही है. हालांकि, अब यह सोच बदल रही है. सरकार ने महामारी की वजह से लगाई गई तालाबंदी के दौरान कमज़ोर आबादी को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने का प्रयास किया. लेकिन सरकार के सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद एक बड़ा वर्ग यह लाभ पाने से वंचित रह गया. ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि देश में अनौपचारिक क्षेत्र से जुड़ी आबादी अपंजीकृत है और इस कारण वितरण की समस्या उपजती है. इसके अलावा सरकारी रिकॉर्ड में अब भी बड़े पैमाने पर प्रवासी श्रमिकों को दर्ज नहीं किया जा सका है. ऐसे में यह स्पष्ट है कि यह बाजार की ताकतें ही हैं, जिन्होंने अब तक गरीबों और कमज़ोर लोगों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान की है. लॉकडाउन, मूलभूत बाज़ार की ताकतों को बंद करने जैसा ही था, जिसकी वजह से अनौपचारिक श्रम शक्ति को अधर में छोड़ दिया गया. इसी वजह से एसडीजी, भारतीय विकास नीति तंत्र के समक्ष शासन प्रणाली संबंधी चुनौती पेश करते हैं.
एसडीजी और समावेशी संपत्ति के बीच तालमेल
एसडीजी कार्यसूची मुख्यत: पूंजी की चार शक्तियों पर आधारित है – मानव पूंजी (एसडीजी 1-5), भौतिक पूंजी (एसडीजी 8 और 9), प्राकृतिक पूंजी (एसडीजी 14 और 15) तथा सामाजिक पूंजी (एसडीजी 10 और 16). संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की रिपोर्ट, ‘इन्क्लूसिव वेल्थ’ अर्थात ‘समावेशी धन’ इन तीन पूंजीगत संपत्तियों अर्थात प्राकृतिक, मानवीय और उत्पादित या भौतिक पूंजी के सामाजिक मूल्यों में 1990 और 2014 के बीच आए परिवर्तन पर चर्चा करती है. इस रिपोर्ट के अनुसार, 1990 और 2014 के बीच, यद्यपि भारत में मानव और भौतिक पूंजी में वृद्धि के कारण ‘समावेशी संपत्ति’ में प्रति वर्ष 1.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई, लेकिन प्रति व्यक्ति समावेशी संपत्ति 1990 में यूएस डॉलर 368 से घटकर 2014 में यूएस डॉलर 359 (2005 की कीमतों पर) रह गई. यदि समावेशी संपत्ति को विकास के कारक या मौलिक आधार के रूप में लिया जाता है, तो इस तरह की गिरावट विकास प्रक्रिया की स्थिरता पर गंभीर सवाल उठाती दिखाई देती है. हालांकि, 2014 के बाद मानव और भौतिक पूंजी क्षेत्र में अर्थपूर्ण नीतिगत हस्तक्षेप हुए हैं, जिनकी वजह से भारत ने विकास कार्यक्रम को गति देने में अहम भूमिका अदा की है. इन नीतियों को इस संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है.
भारत का विकास गिरावट अर्थात डीग्रोथ की दिशा में नहीं हो सकता है. गिरावट को लेकर एक स्पष्ट आह्वान एक ऐसी दुनिया से निकल रहा है जो न केवल पहले ही विकसित हो चुकी है, बल्कि यह आर्थिक दृष्टि से भी ज्यादा सक्षम है (आय या धन समानता के पैमाने पर) और न्याय वितरण के परिप्रेक्ष्य से अधिक न्यायसंगत. और जहां सामाजिक सुरक्षा ने कल्याणकारी राज्य विकसित करने में मदद की है.
इसके साथ ही, पश्चिमी देशों, शिक्षाविदों और वैश्विक दक्षिण में उनके समर्थकों ने अक्सर ‘गिरावट’ की ही दुनिया के संकटों के समाधान के रूप में वकालत की है. गिरावट की मान्यता नकारात्मकता को बढ़ावा देकर जीवन जीने के मौजूदा तरीकों से पीछे हटने की हिमायती है. यह वैश्विक उत्तर में आर्थिक गतिविधियों के संकुचन और विकास की अंधभक्ति के प्रमुख न्यूनीकरणवादी मिसाल से मुक्ति पर जोर देती है. गिरावट अर्थात डीग्रोथ, इकोसिस्टम को विकास की वजह से जो व्यापक क्षति हुई है और जो होगी उस पर चर्चा करते हुए, मानव कल्याण और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के विघटन को रेखांकित करती है. उदाहरण के लिए, अमेरिका (यूएस) जैसी समृद्ध अर्थव्यवस्थाओं में उन देशों की तुलना में खराब वितरण प्रणाली मौजूद है, जिनकी प्रति व्यक्ति आय कम है, मसलन स्पेन. और स्पेन के पास इसके बावजूद बेहतर स्वास्थ्य प्रणाली उपलब्ध है. फिनलैंड में उनकी वर्तमान जीडीपी का महज 10 प्रतिशत हिस्सा ही उनके यहां वर्तमान में उपलब्ध तंदुरुस्ती के स्तर को बरकरार रखने के लिए काफी है. बस इसके लिए बेहतर समान साझेदारी और पुनर्वितरण से जुड़ी प्रक्रियाओं की आवश्यकता है.[13] वैश्विक उत्तर में आर्थिक गतिविधियों में सकुंचन की प्रक्रिया को हम यदि विकास के ‘विकास विरोधी’ दृष्टिकोण से देखें तो ऐसी स्थिति में हम वैश्विक दक्षिण के सामाजिक संगठनों के लिए एक ज्य़ादा स्वपरिभाषित मार्ग की जगह बनाने में सहायक हो सकते हैं.
हालांकि, भारत का विकास गिरावट अर्थात डीग्रोथ की दिशा में नहीं हो सकता है. गिरावट को लेकर एक स्पष्ट आह्वान एक ऐसी दुनिया से निकल रहा है जो न केवल पहले ही विकसित हो चुकी है, बल्कि यह आर्थिक दृष्टि से भी ज्यादा सक्षम है (आय या धन समानता के पैमाने पर) और न्याय वितरण के परिप्रेक्ष्य से अधिक न्यायसंगत. और जहां सामाजिक सुरक्षा ने कल्याणकारी राज्य विकसित करने में मदद की है. भारत अभी उस मुकाम तक नहीं पहुंचा है. 1.3 बिलियन से ज्यादा की आबादी वालों के बीच जहां समान हिस्सेदारी और वितरण से जुड़ी समस्याएं खड़ी हैं, वहीं एक हालिया विश्लेषण में तर्क दिया गया है कि कैसे आय और धन को लेकर असमानताएं भारत की दीर्घकालीन विकास क्षमताओं की राह में बाधा डाल रही हैं, विशेषत: जब खपत की मांग ही विकास की मुख्य चालक है.[14] हाल ही में श्रीलंका के अचानक जैविक खेती को अपनाने के बदलाव के परिणास्वरूप देश की खाद्य सुरक्षा पर पड़े हानिकारक प्रभाव इसका ताजा उदाहरण हैं : गिरावट के आदर्शों को लागू नहीं किया जा सकता है और न ही एक अर्थव्यवस्था को एक ऐसे परिप्रेक्ष्य में फेंका जा सकता है जिसके लिए वह तैयार नहीं है.
इस किताब के बारे में: भारतीय प्राथमिकताएं
भारत ने पिछले आठ वर्षो में विकास के क्षेत्र में देश की मानवीय और भौतिक पूंजी में सुधार के लिए प्राथमिकता के साथ महत्वपूर्ण नीतिगत हस्तक्षेप किए है. महामारी की वजह से वैश्विक आर्थिक और विकास के क्षेत्र को तगड़ा झटका लगा और इसकी वजह से एसडीजी हासिल करने की राह में रोड़े आए. इसमें कोई शक नहीं है कि भारत का विकास में पांच और 10 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने का सपना एसडीजी द्वारा सक्षम की गई मजबूत बुनियादों पर खड़ा होना चाहिए.
इस किताब में अनेकों नीतिगत हस्तक्षेपों में से दस ऐसे चुनिंदा नीतिगत हस्तक्षेपों को प्रस्तुत किया गया है, जिनके सहयोग से दीर्घकालीन और सतत भारत को आकार मिल सकेगा. ये निम्नलिखित हैं:
पोषण अभियान, स्टंटिंग अर्थात बौना होने के स्तर को न्यूनतम करने, अल्पपोषण, एनीमिया और जन्म के समय कम वजन वाले बच्चों के स्तर को कम करने का प्रयास करता है. इस अध्याय में, शोभा सूरी ने इस कार्यक्रम के महत्व, अब तक की उपलब्धियों और सामाजिक-आर्थिक कारकों के परिणामों और महामारी के इसके ऊपर पड़े प्रभाव पर उचित विचार के साथ संरचित, समयबद्ध और स्थान-विशिष्ट रणनीतियों के रूप में इसकी अनिवार्यता की रूपरेखा तैयार की है.
- प्रधानमंत्री जनआरोग्य योजना, को दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य गारंटी संबंधी योजना कहा जा रहा है, इसका उद्देश्य गरीब और कमजोर परिवारों को प्रति वर्ष 5 लाख रुपए प्रति परिवार की स्वास्थ्य सुरक्षा मुहैया करवाना है. उम्मन सी. कुरियन इसकी चर्चा करते हुए एक छोटी केस स्टडी के साथ इसके लाभकारी प्रभाव की बात करते हुए बताते हैं कि कैसे इस योजना का दुनिया के अनेक दूसरे क्षेत्रों में अनुकरणीय मॉडल के रूप में उपयोग किया जा सकता है.
- जलजीवन मिशन, जिसका उद्देश्य 2024 तक सभी आवासों तक सुरक्षित और पर्याप्त पेय जल की आपूर्ति करना है. सायनांगशु मोदक विभिन्न स्वास्थ्य और उत्पादकता से संबंधित परिणामों को लेकर इस मिशन के संबंध और कारणात्मक संबंध के साथ इस बात पर चर्चा करते हैं कि राष्ट्र की समग्र प्रगति पर इसका कैसे प्रभाव पड़ेगा.
- समग्र शिक्षा अभियान, स्कूली शिक्षा क्षेत्र के लिए एक अतिमहत्वपूर्ण और व्यापक कार्यक्रम है, जिसका व्यापक लक्ष्य स्कूल प्रभावशीलता, जिसे स्कूली शिक्षा के समान अवसरों और समान सीखने के परिणामों के संदर्भ में आंका जाता है, में सुधार करना है.[15] मलांचा चक्रबर्ती, इस योजना की व्यापक रूपरेखा का वर्णन करते हुए यह तर्क देती हैं कि कैसे यह मानव पूंजी से संबंधित एसडीजी की उपलब्धि को सुविधाजनक बनाने में मदद करता है. वे भारतीय बुद्धिजीवियों की सोच के साथ इसकी प्रतिध्वनि को रेखांकित भी करती हैं.
- राष्ट्रीय कौशल विकास मिशन, का उद्देश्य भारतीय अर्थव्यवस्था में मौजूद ‘कौशल की कमी’ को दूर करना है. सुनैना कुमार ने भारतीय आर्थिक महत्वाकांक्षा और उपलब्धि के बीच के अंतर को दूर करने के लिए कुशल मानव पूंजी की मांग और आपूर्ति के बीच व्यापक अंतर की चर्चा करते हुए इस कार्यक्रम के महत्व पर प्रकाश डाला है. वे एक स्थायी भारत के निर्माण के लिए इस कार्यक्रम को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए क्या किए जाने की जरूरत है, इसे अधोरेखित करती हैं.
- महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी, जिसका उद्देश्य प्रत्येक परिवार के कम से कम एक सदस्य, जिसका वयस्क सदस्य स्वेच्छा से मानवीय शारीरिक श्रम करना चाहता है, को एक वित्त वर्ष में कम से कम 100 दिनों का वेतन रोज़गार प्रदान करके ग्रामीण क्षेत्रों में आजीविका सुरक्षा को बढ़ाना है. सौम्या भौमिक की पड़ताल ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि कैसे इसने महामारी समेत अन्य संकटों के वक्त कमजोर समुदायों को राहत पहुंचाने का काम किया है. वे दोहराते हैं कि कैसे यह गरीबी उन्मूलन और खाद्य सुरक्षा से संबंधित एसडीजी को संबोधित करने में मदद करता है.
- राष्ट्रीय स्मार्ट सिटी मिशन, जो एक शहरी नवीनीकरण और पुन:संयोजक अभियान है, का उद्देश्य देशभर में स्मार्ट शहरों को विकसित कर उन्हें नागरिक-अनुकूल और टिकाऊ बनाना है. अपर्णा रॉय ने मूल्यांकन किया है कि कैसे यह मिशन शहरी केंद्रों को भविष्य के क्षेत्रीय विकास और आर्थिक विकास के केंद्र के रूप में उभरने में सहायता कर सकता है. और कैसे इसकी वजह से शहर जलवायु परिवर्तन के झटके के प्रति लचीले हो सकते हैं.
- प्रधानमंत्री गति शक्ति मिशन, आर्थिक विकास और दीर्घकालीन विकास को ध्यान में रखते हुए गतिशीलता को बदलने के लिए एक क्रांतिकारी दृष्टिकोण पर बल देता है. अक्तूबर 2021 में शुरू किया गया यह मिशन विभिन्न आर्थिक क्षेत्रों को मल्टीमॉडल कनेक्टिविटी इंफ्रास्ट्रक्चर प्रदान करने के उद्देश्य पर काम कर रहा है. देबोस्मिता सरकार बताती हैं कि कैसे यह मिशन देशभर में कनेक्टिविटी की समस्या को दूर करने में सहायक साबित हो सकता है और कनेक्टिविटी क्षेत्र में गेम-चेंजर के रूप में उभरने के साथ आर्थिक विकास हासिल करने में उपयोगी हो सकता है.
- स्वच्छ भारत अभियान, एक महत्वपूर्ण स्वच्छता अभियान है जिसका उद्देश्य खुले में शौच को खत्म करना और ठोस अपशिष्ट प्रबंधन के क्षेत्र में सुधार करना है. मोना ने दुनिया के इस सबसे बड़े स्वच्छता अभियान पर चर्चा करते हुए इसकी उपलब्धियों पर प्रकाश डाला है.
- आधार, जो दुनिया की सबसे बड़ी बायोमेट्रिक प्रणाली है, को सफलता की एक और कहानी कहा जा सकता है. अधिकांश भारतीय वयस्क आधार धारक और विशिष्ट और सुरक्षित पहचान का वाहक हैं. इस आंदोलन ने राष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक, आर्थिक और तकनीकी समावेश को बढ़ावा दिया है. अनिर्बन सरमा और बसु चांडोला ने अपने अध्याय में इसी बात पर जोर दिया है. लेखकों ने एक केस स्टडी के रूप में आधार का उपयोग किया है कि कैसे इसकी वजह से सामाजिक और आर्थिक प्रगति लाने में सूचना और संचार प्रौद्योगिकियों की भूमिका अहम रही है. जब सरकारें समानता और वितरणात्मक न्याय की चिंताओं को दूर करने के लिए कड़ी मेहनत कर रही हैं, तो वे दुनिया के कई हिस्सों के लिए इसकी प्रतिकृति को रेखांकित करते हैं.
ये चुनिंदा 10 नीतियां समावेशी संपत्ति में मुख्यत: मानवीय और प्राकृतिक पूंजी के महत्वपूर्ण सिद्धांतों को संबोधित करती हैं. चूंकि असमानता की वजह से आर्थिक प्रगति, प्रभावित हो सकती है, अत: भविष्य के विकास को एसडीजी द्वारा संचालित एक अधिक न्यायसंगत और दीर्घकालीन स्थायी दुनिया द्वारा प्रेरित किया जाना चाहिए.
ये चुनिंदा 10 नीतियां समावेशी संपत्ति में मुख्यत: मानवीय और प्राकृतिक पूंजी के महत्वपूर्ण सिद्धांतों को संबोधित करती हैं. चूंकि असमानता की वजह से आर्थिक प्रगति,[16] प्रभावित हो सकती है, अत: भविष्य के विकास को एसडीजी द्वारा संचालित एक अधिक न्यायसंगत और दीर्घकालीन स्थायी दुनिया द्वारा प्रेरित किया जाना चाहिए. ऐसे में भारत का विकास, मुख्यत: दो कारकों पर निर्भर होना चाहिए: प्राकृतिक पूंजी की स्थिरता से समझौता किए बिना स्वास्थ्य और शिक्षा से प्रेरित मानव और भौतिक पूंजी में एक साथ वृद्धि; और कम असमानता के सहयोग से वितरणात्मक न्याय के उद्देश्य की सेवा करने वाला एक अधिक सक्षम भारत.
यह प्रस्तावनारूप अंश ‘‘एसडीजी एजेंडा पर आधारित 10-ट्रिलियन-डॉलर की भारतीय अर्थव्यवस्था की ओर’’ (‘‘टूवर्ड्स अ 10-ट्रिलियन-डॉलर इंडियन इकॉनॉमी बेस्ड ऑन द एसडीजी एजेंडा’’), लेखक द्वारा ओआरएफ़ की श्रृंखला, इंडिया75: आकांक्षाओं, महत्वाकांक्षाओं और दृष्टिकोणों के हिस्से के रूप में लिखे गए लेख का एक संशोधित और विस्तारित संस्करण है.
[1] Prime Minister’s Office, “The Prime Minister, Shri Narendra Modi addressed the nation from the ramparts of the Red Fort on the 75th Independence Day,” August 15, 2021.
[2] “India would become $5-trillion economy by 2026-27: CEA V Anantha Nageswaran”, Economic Times, June 14, 2022.
[3] World Bank, “GDP growth (annual %) – India,” World Bank Group.
[4] “India would become $5-trillion economy by 2026-27”
[5] Behera Bhagirath and Pulak Mishra, “Natural Resource Abundance in the Indian States: Curse or Boon?”, Review of Development and Change. 17(1) (2019):53-73. doi:10.1177/0972266120120104
[6] Jayanta Bandyopadhyay and Nilanjan Ghosh, ““Holistic Engineering and Hydro-diplomacy in the Ganges-Brahmaputra-Meghna Basin”, Economic and Political Weekly, 44 (45) (2009): 50-60.
[7] Rodney van der Ree, Daniel J. Smith, and Clara Grilo, “The Ecological Effects of Linear Infrastructure and Traffic: Challenges and Opportunities of Rapid Global Growth”, in Handbook of Road Ecology, ed. Rodney van der Ree, Daniel J. Smith and Clara Grilo (New Jersey: Wiley-Blackwell, 2015).
[8] Nilanjan Ghosh, “Promoting a GDP of the Poor‟: The imperative of integrating ecosystems valuation in development policy”, Occasional Paper No. 239, March 2020, Observer Research Foundation.
[9] T. Palei, “Assessing the impact of infrastructure on economic growth and global competitiveness”, Procedia Economics and Finance (2014): 1-8.
[10] Nilanjan Ghosh, “(2017): “Ecological Economics: Sustainability, Markets, and Global Change”, in Mukhopadhyay, P., et al (eds.) Global Change, Ecosystems, Sustainability. (New Delhi: Sage).
[11] Dennis Meadows, Donella Meadows, Jørgen Randers, and Willian Behrens III (Eds), A Report for the Club of Rome’s Project on the Predicament of Mankind. New York: Universe Books, 1972.
[12] Mohan Munasinghe, “Addressing Sustainable Development and Climate Change Together Using Sustainomics.” WIRES Climate Change 2(1) (2010): 7–18.
[13] Jason Hickel, Less Is More: How Degrowth Will Save the World (New York: Penguin Random House, 2020)
[14] Nilanjan Ghosh, “Is increasing wealth inequality coming in the way of economic growth in India?”.
[15] Department of School Education & Literacy, Ministry of Education, Government of India, “About Samagra Shiksha”.
[16] Nilanjan Ghosh, “Is increasing wealth inequality coming in the way of economic growth in India?”.
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