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मौजूदा इतिहास में पहली बार लगता है कि अमेरिका का आधिपत्य कमज़ोर हो रहा है, भारत और विकासशील देशों के लिए ये अनुकूल समय है कि वो वैश्विक आर्थिक शासन में अपनी आवाज़ मज़बूत करें.
25वीं वर्षगांठ के मौक़े पर विश्व व्यापार संगठन (WTO) को एक ख़राब, लेकिन शायद पूरी तरह से अप्रत्याशित नहीं, उपहार मिला. ये उपहार था उसके काम-काज में बड़े पैमाने पर रोक लगना. लंबे समय तक WTO को अपारदर्शी और कॉरपोरेट के लालच से भड़की बातचीत कहा जाता रहा लेकिन WTO के अंदर के लोग कम-से-कम इस बात से ख़ुश थे कि संगठन की विवाद निपटारा प्रणाली (DSS) न सिर्फ़ अच्छे ढंग से काम कर रही थी बल्कि इस्तेमाल और इंसाफ़ के मामलों में अपने समकक्ष संस्थानों जैसे इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस (ICJ) और इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट (ICC) से आगे बढ़ गई है. लेकिन DSS की अपील प्रणाली के पूरी तरह दम घुटने के साथ 11 दिसंबर 2019 के बाद ये अच्छाई भी चली गई. अब व्यापार संबंधों में ‘क़ानून के राज’ के भविष्य को लेकर पूरी तरह से सर्वव्यापी चिंता है. कुछ लोगों को शक है कि हम लोग ‘GATT युग’ की तरफ़ जा रहे हैं जहां क़ानून के राज के बदले पावर पॉलिटिक्स तय करेगी कि कौन सही है.
इन हालात में WTO के अधिकारियों ने नरम और सख़्त दोनों आवाज़ में उचित सुधार की मांग की है. वैसे तो WTO की कई समस्याएं हैं लेकिन इस लेख का मक़सद परेशानियों में जकड़े WTO की समस्याओं को सामने लाना नहीं है. लेख का मक़सद अभी तक दो बड़े खिलाड़ियों के द्वारा की गई कार्रवाई के बारे में बताना है- जैसे मांग की गई और सलाह को आगे भेज दिया गया- पहला भारत जो ‘ग्लोबल साउथ’ की स्वयंभू आवाज है और दूसरा यूरोपियन यूनियन जो न सिर्फ़ स्वतंत्र बल्कि निष्पक्ष व्यापार को बढ़ावा देने के लिए ख़ुद पर गर्व करता है. दोनों खिलाड़ी WTO के फ़ायदे को जानते हैं और उम्मीद रखते हैं कि WTO अपना काम-काज जारी रखे. दोनों इस बात पर सहमत हैं कि ऐसा होने के लिए व्यापक बदलाव करने की उम्मीद है. इसमें एकमात्र दिक़्क़त ये है कि वो इस बात पर असहमत हैं कि बदलाव क्या होने चाहिए.
विकासशील देशों की आवाज़ के तौर पर भारत ने विकासशील देशों की परिभाषा को बदलने की अमेरिका जैसे देशों की कोशिशों का मज़बूती से विरोध किया
भारत के लिए सबसे बड़ा वास्तविक मुद्दा दोहा के वादों को भुलाना बना हुआ है. WTO के संरक्षण में आयोजित एकमात्र बातचीत के दौर से उम्मीद थी कि विकासशील देश जिन दिक़्क़तों का सामना कर रहे हैं उन पर ध्यान दिया जाएगा लेकिन अलग-अलग वजहों से (और दोनों पक्ष एक-दूसरे पर आरोप लगाते हैं) विकसित और विकासशील देशों के बीच सहमति नहीं बन पाई. इसके बदले विकसित देशों ने नये मुद्दों जैसे ई-कॉमर्स और निवेश की सहूलियत पर बातचीत का प्रस्ताव रखा जिसका भारत आम तौर पर विरोध करता रहा है. भारत का कहना है कि जब तक पुराने मुद्दे हल नहीं होते नये समझौतों पर दस्तख़त नहीं हो सकते. 2013 में बाली में इस रुख़ का उदाहरण दिया गया जब भारत ने क़रीब-क़रीब पक्के हो चुके ट्रेड फैसिलिटेशन एग्रीमेंट (TFA) को रोकने की धमकी दी जब तक कि खाद्य सुरक्षा के ऊपर उसकी चिंता का समाधान नहीं किया गया. इसका नतीजा ‘शांति के अनुच्छेद’ के रूप में निकला मतलब कुछ फसलों को लेकर भारत सब्सिडी देने की सीमा को पार कर सकता है (कोरोना वायरस की वजह से बने हालात को लेकर हाल में पहली बार इसे लागू किया गया) और दूसरे देश DSS के तहत इसे चुनौती नहीं दे सकते.
विकासशील देशों की आवाज़ के तौर पर भारत ने विकासशील देशों की परिभाषा को बदलने की अमेरिका जैसे देशों की कोशिशों का मज़बूती से विरोध किया. विकासशील देशों को आम तौर पर नियम लागू करने में थोड़ी ढील दी जाती है. अमेरिका की तरफ़ से देशों की योग्यता को तय करने के लिए ऑब्जेक्टिव क्राइटेरिया को शामिल करने के जवाब में भारत (चार और देशों के साथ मिलकर) ने दर्जा स्वयंघोषित रखने पर ज़ोर दिया. भारत ने प्रति व्यक्ति आय और क्षमता की कमी का आंकड़ा पेश किया और आरोप लगाया कि विकसित देश सीढ़ी (विकास की) को हटा रहे हैं. ख़ास तौर पर तब जब विकसित देशों ने पहले रिवर्स छूट हासिल की. बातचीत के तौर-तरीक़े के रूप में भारत सर्वसम्मति के सिद्धांत के लिए मज़बूती से वचनबद्ध है (एक सदस्य, एक वोट और फ़ैसले सिर्फ़ आम राय से लिए जाएं) और ट्रेड इन सर्विसेज़ एग्रीमेंट (TiSA) और इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी एग्रीमेंट- 2 (ITA 2) को लेकर बहुपक्षीय बातचीत का हिस्सा नहीं रहा है. इसे लेकर भारत ने उन लोगों की भी परवाह नहीं की जो कहते हैं कि इन क्षेत्रों में भारत की मज़बूती को देखते हुए नतीजों पर असर डालने के लिए उसे कम-से-कम बातचीत में शामिल होना चाहिए.
आख़िर में DSS को लेकर भारत अमेरिका के रुख़ का कड़ा आलोचक रहा है क्योंकि वो फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील को बदनीयती से रोकता रहा है. साथ ही भारत ने सर्वसम्मति के लिए दिल्ली में मंत्रियों की मिनी बैठक भी आयोजित की है
आख़िर में DSS को लेकर भारत अमेरिका के रुख़ का कड़ा आलोचक रहा है क्योंकि वो फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील को बदनीयती से रोकता रहा है. साथ ही भारत ने सर्वसम्मति के लिए दिल्ली में मंत्रियों की मिनी बैठक भी आयोजित की है. 2018 में भारत, यूरोपियन यूनियन के सामने दो निवेदनों का सह-प्रायोजक बना. इसमे भारत ने अपनी मुख्य चिंता के साथ-साथ न्यायिक अतिसक्रियता और विवाद के फैसलों को जारी करने में देरी के संभावित समाधान का ज़िक्र किया. लेकिन जिस चीज़ को कुछ लोग भेद खोलने वाला बयान बता सकते हैं, व्यापार मंत्री ने हाल में संसद में कहा कि भारत अपने ख़िलाफ एक ताजा फ़ैसले को लागू करने के लिए बाध्य नहीं है क्योंकि अपील सिस्टम काम नहीं करता है: लोग इस बात पर हैरान हो सकते हैं कि किस हद तक ये नेकनीयती में कहा गया.
EU भले ही अमेरिका की तरह ज़िद्दी न हो लेकिन EU एक जैसे विकासशील देश के दर्जे का समर्थन नहीं करता है. उसने सदस्यों से आगे बढ़ने का भी अनुरोध किया है ताकि ज़रूरत और प्रमाण आधारित रियायत दी जा सके
जहां तक EU की बात है तो लगता है कि ये मुख्य रूप से DSS को बरकरार रखने में तल्लीन है. इस मक़सद के लिए EU सक्रिय रूप से प्रस्ताव देता रहता है, उसे उम्मीद है कि वो अमेरिका को रचनात्मक बातचीत के लिए तैयार कर लेगा. लेकिन EU व्यापार युद्ध रोकने के लिए अमेरिका और चीन के बीच हुए समझौते को लेकर चौकन्ना भी है. और जब उसे लगा कि अपील की प्रणाली को कोई बचा नहीं सकता (जैसा कि शुरुआत में इरादा था) तो उसने अपील की समानांतर प्रणाली को स्थापित करने के लिए एक बेहद कम इस्तेमाल, कम ही लोगों को मालूम WTO के प्रावधान के ज़रिए कानूनी समाधान ढूंढ़ लिया. शुरुआत में कनाडा और नॉर्वे के साथ साझेदारी करके EU इस समझौते को 15 देशों की मंज़ूरी के लिए लाया है (भारत इसमें शामिल नहीं है लेकिन मज़े की बात है कि चीन है). सच ये है कि EU ई-कॉमर्स और निवेश पर चर्चा का ज़ोरदार समर्थक है और अक्सर विकासशील देशों की इस बात के लिए आलोचना करता है कि वो बातचीत में शामिल (कभी-कभी बातचीत मंज़ूर नहीं करना भी) नहीं होते हैं. इससे भी बढ़कर उसकी बड़ी चिंता है सरकारी सब्सिडी. उसे लगता है कि मौजूदा नियम सरकारी (चीन) सब्सिडी को काबू में रखने के लिए पर्याप्त नहीं हैं. WTO के आधुनिकीकरण को लेकर 2018 के EU के विचारों के मुताबिक़ उसने निचले स्तर की सब्सिडी अधिसूचना पर निराशा जताई. यहां तक कि ये सलाह भी दी कि बार-बार नहीं मानने वालों पर पाबंदी लगे. आख़िर में, EU भले ही अमेरिका की तरह ज़िद्दी न हो लेकिन EU एक जैसे विकासशील देश के दर्जे का समर्थन नहीं करता है. उसने सदस्यों से आगे बढ़ने का भी अनुरोध किया है ताकि ज़रूरत और प्रमाण आधारित रियायत दी जा सके.
कुल मिलाकर अच्छी तरह काम करने वाला WTO जो सभी पक्षों की देखभाल करे, सभी देशों के लिए प्राथमिकता है. और कुछ नहीं तो कम-से-कम इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि आधुनिक वैश्विक अर्थव्यवस्था को एक अंपायर की ज़रूरत है. भारत और EU- दोनों के लिए ये प्राथमिकता होनी चाहिए कि सिस्टम को ठीक करें और इसे गिरने न दें. EU जहां आम तौर पर पारदर्शी और व्यापार नीतियों में सुसंगठित है वहीं भारत पूर्व में बिना समन्वय के फ़ैसले लेने को लेकर आलोचना का सामना कर चुका है. ये उस वक़्त दिखा जब हाल में आख़िरी मिनट पर भारत क्षेत्रीय व्यापक और आर्थिक साझेदारी (RCEP) की बैठक से बाहर हो गया. लेकिन ये देखते हुए कि मौजूदा इतिहास में पहली बार लगता है कि अमेरिका का आधिपत्य कमज़ोर हो रहा है, भारत और विकासशील देशों के लिए ये अनुकूल समय है कि वो वैश्विक आर्थिक शासन में अपनी आवाज़ मज़बूत करें. जैसा कि एक पुरानी कहावत में है, ‘किसी भी संकट को बेकार न जान दें’, WTO की समस्या एक बेहतर वैश्विक संगठन बनाने का अवसर है. साथ ही भारत और यूरोपियन यूनियन के लिए ज़िम्मेदार, आगे बढ़कर भूमिका निभाने की है जो असली वैश्विक नेता के तौर पर उनकी स्थिति को मज़बूत करे.
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Akhil Raina is a Marie S. Curie Fellow and PhD candidate at the Leuven Centre for Global Governance Studies (GGS) KU Leuven. He is an ...
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