Author : Sunjoy Joshi

Published on Apr 29, 2020 Updated 0 Hours ago

वास्तव में तेल का खेल भू-राजनीति से शुरू हुआ था जो बाद में मार्केट का खेल बन गया, जिसमें सब लोग उल्टे फंसे, जिसको फायदा होना था, उनको नुक़सान हुआ. इस वजह से सभी लोगों की स्थिति काफी ख़राब है.

कोरोना की मार पर दुनिया के मशहूर तेल बाजार

कोविड-19 की वजह से दुनिया एक तरह से ठहर सी गई है, सभी लोग अपने घरों में है, सड़कें बंद पड़ी हैं, गाड़ियां खड़ी है, हवाई जहाज़ रन-वे पर हैं. इस तरह से देखा जाए तो बाज़ारों में तेल की ख़पत है ही नहीं. यदि हम भारत की बात करें तो इसकी डिमांड 50% तक गिर गई है. इन वजहों से तेल कंपनियां संकट में है. इसके अलावा कोविड-19 की वजह से दुनिया के देशों के सामने अब यह चुनौती है कि वह अपनी अर्थव्यवस्था कैसे वापस पटरी पर लेकर आएं. और यही समस्या भारत के सामने भी खड़ी है. सरकार की मीटिंग्स हो रही है कि किस तरह से रिलिफ़ फंड देने चाहिए? क्या यह कई चरणों में हो या इकट्ठा हो या इंडस्ट्रीज़ को खोल दिया जाए, उसके बाद रिलिफ़ दिया जाए. इस लेख के माध्यम से हम तेल के इस खेल को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास करेंगे. 

COVID-19 के कारण तेल उद्योगों पर मार 

160 से 170 वर्ष के पुराने इस तेल के इतिहास में पहली बार कोविड-19 की वजह से ऐसा हुआ है कि तेल की कीमतों में नकारात्मक प्रभाव पड़ा यानी तेल खरीदने के लिए पैसे दिए जा रहे थे. हालांकि, यह बहुत क्षणिक था और एक विशेष क्षेत्र में ही था वह क्षेत्र था— अमेरिका. अमेरिका की तेल कंपनी — वेस्ट टेक्सास इंटरमीडिएट एक बहुत बड़ा ट्रेड है जिसका ज्य़ादा व्यापार अमेरिका में ही होता है. इस वजह से इस पर ज्य़ादा असर पड़ा. लॉकडाउन की वजह से सब कुछ बंद होने से तेल की ख़पत नहीं हो रही है. तेल का लगातार प्रोडक्शन चालु रहता है. तेल एक फ़्यूचर मार्केट का क्षेत्र है यहां लोग बोली लगाकर बैठे हुए थे कि अगले दो-तीन महीने में तेल की क्या कीमत होगी. उसपर शर्तें लगती हैं. तो जो लोग शर्त लगाकर बैठे हुए थे कि अप्रैल और मई माह के लिए, उनकी जब डिलीवरी का समय आया तो उन्होंने पाया कि खरीदार थे ही नहीं. उन्हें अपनी डिलीवरी खुद लेनी पड़ेगी. लेकिन वो डिलीवरी लेंगे कैसे, जब डिमांड है ही नहीं. यदि तेल का प्रोडक्शन चालु रहता है और इसे निकाला नहीं जाता तो इसकी वजह से एनवायरमेंटल डिज़ास्टर्स होने की संभावना होती है. अगर ऐसी कोई दुर्घटना होती है तो उसकी अलग कीमत चुकानी पड़ जाती, इसलिए इससे अच्छा है लोगों को पैसा दे दिया जाए, तेल ले जाओ. तो इस वजह से वेस्ट टेक्सास इंटरमीडिएट एक तरह से घाटे में गया. लेकिन जहां तक ब्रेंट का सवाल है, बाकि अन्य जगहों पर भी जैसे कि ओमान क्रूड आयल वो अब भी और तब भी करीब $20 से $25 के आसपास ही रही. एक समय बस $15 तक गया था.

जहां से भारत तेल खरीदता है तो उसकी कीमत वापस फ़िर से वही $20 के आस-पास घूम रही है. इस प्रकार भारत को तो फ़र्क जरूर पड़ेगा क्योंकि वह जो कच्चा तेल पहले $50 के आस-पास खरीदता था उसकी कीमत आज आधे से कम हो गई है

अगर इंडियन क्रूड आयल बास्केट को देखें— जहां से भारत तेल खरीदता है तो उसकी कीमत वापस फ़िर से वही $20 के आस-पास घूम रही है. इस प्रकार भारत को तो फ़र्क जरूर पड़ेगा क्योंकि वह जो कच्चा तेल पहले $50 के आस-पास खरीदता था उसकी कीमत आज आधे से कम हो गई है. लेकिन हमारी भी रिफ़ाइनरी के पास खपत कम हो गई है, उनकी भी टैंकर फुल हो चुकी हैं, रिफ़ाइनरी में जो तेल प्रोसेस किया जा रहा है उसमें 50% की गिरावट लानी पड़ी, क्योंकि ख़रीदार नहीं है, तेल का करेंगे क्या? तो जितना उनका स्टोरेज है वह भरा हुआ है तो इस स्थिति में उनको भी फायदा नहीं हुआ है, नुकसान हुआ है, बहुत भारी मात्रा में इन्वेंटरी नुकसान हुआ है. एक अनुमान के मुताबिक फ़र्स्ट क्वार्टर में लगभग 25000 करोड़ का इन्वेंटरी लॉसेज होने वाले हैं.

तेल का भू-राजनीतिक दांव-पेंच

एक स्थिति ऐसी आती है किसी के हाथ में कंट्रोल नहीं रहता और तेल के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. यदि हम थोड़ा-सा पीछे देखें लगभग तीन चार महीने पहले, जब तेल की कीमत घट करके $50-$55 से $35 तक आया तो उसका कारण कोरोना नहीं था. उसका कारण था तेल के प्रमुख उत्पादन करते देशों के बीच हुई असहमति. सऊदी अरब कहता था कि तेल के प्रोडक्शन में कमी की जाए. रूस इसे मानने को तैयार नहीं था. और इस वजह से दोनों के बीच लड़ाई शुरू हो गई कि कौन कितना ज्य़ादा तेल निकालकर मार्केट में भेज सकता है. इस वजह से तेल की कीमतों में कमी आनी शुरू हो गई.

अमेरिका दुनिया में तेल का सबसे बड़ा उत्पादक देश बन गया. इसलिए कोविड-19 की वजह से इसको और भी मार झेलनी पड़ रही है. लेकिन जैसे ही कोविड-19 की वजह से तेल की ख़पत में कमी आनी शुरू हुई तो तुरंत अमेरिका सऊदी अरब और रूस ने बातचीत किए जिसके बाद डोनाल्ड ट्रंप का बयान आया कि हमने सबसे बातचीत की और 10 मिलियन बैरल प्रति दिन तेल की प्रोडक्शन घटाने के समझौते पर हस्ताक्षर करवा दिया है. लेकिन खपत जो गिरी थी वो 10 मिलियन बैरल की खपत नहीं गिरी थी, खपत गिरी थी 30 से 40 मिलियन बैरल की. इसी वजह से तेल की कीमतों में इतनी भारी गिरावट आई. वास्तव में तेल का खेल भू-राजनीति से शुरू हुआ था जो बाद में मार्केट का खेल बन गया, जिसमें सब लोग उल्टे फंसे, जिसको फायदा होना था, उनको नुक़सान हुआ. इस वजह से सभी लोगों की स्थिति काफी ख़राब है.

सरकार को क्या करने चाहिए 

अंतरराष्ट्रीय बाजारों में तेल की कीमतों में गिरावट से भारत के लोगों को किस तरह से फायदा पहुंचेगा. यह काफी हद तक सरकार के नज़रिये पर निर्भर करता है. इसको देखने के कई ढंग है. पहला यह कि कोविड-19 की वजह से केंद्र और राज्य सरकारों को बहुत भारी मार झेलनी पड़ी है. जिससे अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुआ है. भारत का अनुभव यह रहा है कि तेल कीमतों में गिरावट से – भारतीय जनता को कोई फायदा नहीं पहुंचा है. ऐसा इसलिए क्योंकि तेल से केंद्र और राज्य सरकारों को टैक्स वसूलना बड़ा आसान होता है. इसलिए तेल की कीमतों में जितनी गिरावट होती है उसमें उतना ही टैक्स का इज़ाफा करके हमारी सरकारें हमसे टैक्स वसूलते हैं.

एनर्जी एक ‘इनपुट कॉस्ट’ है. इनपुट कॉस्ट पर टैक्स लगाने की वजह यदि ‘आउट ऑफ प्रॉफिट्स’ पर टैक्स लगाया जाए तो वह ज्य़ादा बेहतर होता है इकोनामी के रिवाइवल के लिए

लेकिन इस संकट की घड़ी में यदि दूसरे तरह की सोच अपनाई जाए जो आज समय की  मांग भी है तो अच्छा रहेगा. एनर्जी एक ‘इनपुट कॉस्ट’ है. इनपुट कॉस्ट पर टैक्स लगाने की वजह यदि ‘आउट ऑफ प्रॉफिट्स’ पर टैक्स लगाया जाए तो वह ज्य़ादा बेहतर होता है इकोनामी के रिवाइवल के लिए. अगर कम तेल की कीमतों का फायदा उपभोक्ताओं को और इंडस्ट्री को मिलने लगता है, एनर्जी प्राइस में गिरावट से उनका उत्पाद सस्ता होता है. उत्पाद सस्ता होता है तो उनकी क्षमता बढ़ती है, उनकी क्रेडिट लेने की क्षमता बढ़ती है, बैंकों की क्रेडिट देने की क्षमता बढ़ती है. तो एक तरीका होता हैं इकोनोमिक रिवाइवल का. यह भी एक सोचने की विषय है कौन-सा दृष्टिकोण सरकार को अपनाना चाहिए, क्योंकि अगर तेल की खपत नहीं बढ़ेगी तो सरकार को टैक्स वैसे भी नहीं मिलने वाला है. अगर हमें अपनी जीडीपी बढ़ाना है तो हमको ‘लो एनर्जी प्राइस’ अपनाना चाहिए, अपनी इंडस्ट्री को पास आउट करना चाहिए जिससे कि उनकी जो ‘कॉस्ट आफ प्रोडक्शन’ है वह कम हो.

सरकार कौन-सी इकोनॉमिक पैकेज लेकर आती है. इसके कौन से घटक होगे? यह एक बड़ा प्रश्न है. जिसमें यह एक कंपोनेंट हो सकता है. हो सकता है सरकार के कुछ लोग सोचे कि पेट्रोल और डीजल पर टैक्स बढ़ाना चाहिए और इससे पैसा कमाना चाहिए

वास्तव में मुमकिन सब कुछ है यह निर्भर करता है सरकार पर, सरकार के नज़रिए पर. सरकार कौन-सी इकोनॉमिक पैकेज लेकर आती है. इसके कौन से घटक होगे? यह एक बड़ा प्रश्न है. जिसमें यह एक कंपोनेंट हो सकता है. हो सकता है सरकार के कुछ लोग सोचे कि पेट्रोल और डीजल पर टैक्स बढ़ाना चाहिए और इससे पैसा कमाना चाहिए. तो यह भी एक नज़रिया हैं. इसे लाने में सरकार अपना कौन सा टैक्सेशन मॉडलिंग करती है. पर यह भी ऐसा रास्ता हो सकता है इसके बारे में और विस्तार से चर्चा करना अवश्य ज़रूरी है.

कोविड-19 का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव

दुनिया भर की प्रतिक्रियाएं देखें, तो राष्ट्रों में लॉकडाउन लागु करके जगह-जगह इकॉनोमी को  रोक दी गई है. अब समस्या यह हैं कि आज जब बाहर निकनले की बात करते है तो विश्व भर में जितनी सरकारें हैं उनके पास जो कुछ भी है वो इससे निकलने के लिए सब कुछ कर रहे हैं. इस क्रम में कोई परमाणु अस्त्र जैसा कदम उठा रहा है, तो कोई सिर्फ तमंचा और पिस्तौल जैसा कदम उठा रहा है और जिसके पास कुछ नहीं है वह जादू-टोना-टोटका कर करके काम चला रहा हैं. तो अभी दुनिया अभी इन तरह के उपायों से किसी तरह काम चला रही है. अमेरिका को देखें तो उसे जितने परमाणु अस्त्र चलाने थे, उसने चला दिए. उसने जल्दी-जल्दी करीब ढाई से तीन ट्रिलियन डॉलर का पैकेज अनाउंस कर दिया.

अमेरिका के जो पैकेज आ रहे हैं उनका अपना प्रभाव है. यह कोई कोऑर्डिनेटेड रिस्पांस नहीं है. उनका अपना प्रभाव ग्लोबल इकोनामी पर पड़ने वाला है. कई देशों पर बुरा प्रभाव भी पड़ सकता है. जो कैपिटल है वह वापिस विकासशील देशों से निकाल करके अमेरिका की तरफ जाने लगे हैं. उसका परिणाम यह हो सकता है हमारी करेंसी में फिर से गिरावट आ सकती है तो इस तरह के इसके कई परिणाम होंगे. इस प्रकार सभी देशों के इन सभी चीजों को ध्यान में रख करके अपने इकोनामिक पैकेज का निर्माण करना चाहिए. तो इस तरह के कई रिस्पांस सामने आ सकते हैं. यह विचार करने की बात है कि हमारे पास किस तरह विकल्प हैं और हम इसमें क्या कर सकते हैं.

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