Author : Sunaina Kumar

Published on Mar 30, 2021 Updated 0 Hours ago
महिलाओं के मालिक़ाना अधिकार वाले उद्यम: थोड़ी मदद से बन सकते हैं आर्थिक विकास के इंजन

दिसंबर 2019 में ओडिशा के सतरंग गांव में रहने वाली प्रज्ञा मिश्रा ने एक फोटो कॉपी की दुकान शुरू करने के लिए स्टार्टअप विलेज आंत्रप्रेन्योरशिप प्रोग्राम (Startup Village Entrepreneurship Programme) के तहत लोन लिया. इस सरकारी प्रोग्राम का उद्देश्य ग्रामीण इलाके में उद्यमों की सहायता करना है. यह उनके गांव में अपनी तरह की पहली दुकान थी, लेकिन दुकान खुलने के कुछ ही महीने के भीतर लॉकडाउन लग गया और उस दौरान जब स्कूल और कॉलेज बंद हो गए तो सभी ग्राहक ग़ायब हो गए. परिवार के लिए पैसा कमाने के उद्देश्य से उन्होंने स्नैक्स बेचना शुरू कर दिया और इस तरह से वह अपना व्यापार दुबारा शुरू करने की कोशिश करने लगीं.

प्रज्ञा मिश्रा भारत में उद्यमिता की सबसे अधिक अनदेखी की जाने वाली श्रेणी से आती हैं, जिसे सूक्ष्म उद्योगों में लगी महिलाओं का नाम दिया गया है. एक व्यापार शुरू करने के उनके संघर्ष को लीड (LEAD) के एक अध्ययन में दर्ज किया गया है. लीड (LEAD) क्रेया यूनिवर्सिटी (Krea University) का एक शोध संस्थान है, जिसने कोविड-19 का, महिलाओं के स्वामित्व वाले उद्यमों पर प्रभाव का विश्लेषण किया है. इस अध्ययन में पाया गया कि सूक्ष्म उद्यम क्षेत्र कोविड-19 के बाद सबसे अधिक प्रभावित हुआ है और इसके साथ-साथ अन्य क्षेत्रों में भी पुरुषों की तुलना में महिलाओं की स्थिति सबसे ज़्यादा ख़राब हुई है. लॉकडाउन के बाद हर तीन में से एक महिला उद्यमी को अपना व्यवसाय अस्थाई या फिर स्थायी रूप से बंद करना पड़ा. ऐसे में पहले से ही घरेलू काम और देखभाल का बोझ सह रही महिलाओं पर यह दोहरी मार थी.

सूक्ष्म उद्यम क्षेत्र कोविड-19 के बाद सबसे अधिक प्रभावित हुआ है और इसके साथ-साथ अन्य क्षेत्रों में भी पुरुषों की तुलना में महिलाओं की स्थिति सबसे ज़्यादा ख़राब हुई है.

आंकड़ों में महिला-स्वामित्व

भारत में महिलाओं के स्वामित्व वाले उद्यमों के आंकड़े- सभी उद्यमों में से केवल 20 फीसदी का स्वामित्व महिलाओं के पास है, जिसमें भी एक व्यक्ति वाले अनौपचारिक उद्यम (single-person informal enterprises) ही अधिक हैं, स्वत: अपनी कहानी कहते हैं कि महिला उद्यमियों को पहचानने और उनकी सहायता की समस्या को किस तरह नज़रअंदाज़ किया जाता है. उदाहरण के लिए सावित्री साहू की ही मामला देखिए. वह पिछले पांच साल से ओडिशा के गोपालपुर में एक सिलाई केंद्र चलाती हैं. उनको और उनकी तरह की अधिकतर महिलाओं को कपड़े सिलकर अपने परिवार की आय में योगदान देने वाली महिला के रूप देखा जाता है, लेकिन उनको उद्यमी नहीं माना जाता. उन्हें लॉकडाउन के बाद अपने केंद्र से सात मजदूरों को हटाना पड़ा. देखने-सुनने में यह बहुत छोटी बात लगती है, लेकिन बहुत अहम है. जो महिलाएं अपना क़ारोबार चलाती हैं उनको जीवनयापन करने के नज़रिये से देखा जाता है, न कि एक उद्यमशीलता के नज़रिये से. इस तरह वे सामाजिक और संरचनात्मक बंधनों को लेकर और अधिक असुरक्षित हो जाती हैं.

साल 2010 से 2015 के बीच जिस दौरान निर्णायक आंकड़े मौजूद है, उसमें यह बात सामने आती है कि महिलाओं के स्वामित्व वाले उद्यमों की हिस्सेदारी नहीं बढ़ी है. महिलाओं के स्वामित्व वाले उद्यम छोटे और कम उत्पादक हैं. तीन या उससे अधिक मज़दूर वाले महिलाओं के स्वामित्व वाले उद्यमों की हिस्सेदारी 2.7 फीसदी है. पुरुषों के लिए तुलनात्मक नंबर 6.3 है. घर से किए जाने वाले कारोबार (home-based businesses) और पारंपरिक सेक्टर जैसे तंबाकू, पेपर, कपड़े, टेक्सटाइल और प्लास्टिक के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी सामान्य से ज़्यादा (overrepresented) है. अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी और ग्लोबल अलायंस फॉर मास आंत्रप्रेन्योरशिप (Global Alliance for Mass Entrepreneurship) द्वारा 2019 में भारत के सूक्ष्म उद्योगों (microenterprises) को लेकर किए गए अध्ययन के कुछ नतीजे निम्न हैं.

अनुमान है कि साल 2030 तक देश में केवल महिलाओं के लिए ही 40 करोड़ रोज़गार की ज़रूरत पड़ेगी. इस के साथ ही अगर समाधान नहीं ढूंढा गया तो महिलाओं और पुरुषों के बीच आर्थिक और रोज़गार के मोर्चे पर खाई और चौड़ी होगी.

अगर सूक्ष्म उद्यम में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाई जाती है तो इससे देश की दो अहम समस्याओं- रोजगार वृद्धि और कामकाजी महिलाओं की घटती भागीदारी– का निदान हो जाता. कंसल्टेंसी कंपनी ब्रेन एंड कंपनी (Bain & Company) की 2019 में आई एक रिपोर्ट में अनुमान जताया गया है कि भारत में महिला उद्यमियों द्वारा 2030 तक 15 से 17 करोड़ रोज़गार पैदा करने की क्षमता है. साथ ही यह भी अनुमान है कि साल 2030 तक देश में केवल महिलाओं के लिए ही 40 करोड़ रोज़गार की ज़रूरत पड़ेगी. इस के साथ ही अगर समाधान नहीं ढूंढा गया तो महिलाओं और पुरुषों के बीच आर्थिक और रोज़गार के मोर्चे पर खाई और चौड़ी होगी.

देखा जाए तो भारत में पिछले दो दशक से सूक्ष्म उद्योग (microenterprise) काफ़ी हद तक स्थिर या सुस्त हैं. ऐसे में जो महिलाएं उद्यम लगाती हैं वे पुरुषों की तुलना में ज़्यादा प्रभावी हैं. वे सामाजिक बाध्यता के साथ-साथ पूंजी तक पहुंच, टेक्नोलॉजी और बाज़ार दोनों मोर्चों पर प्रभावी हैं. अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के मुताबिक क़ारोबार बढ़ाने में महिलाओं के सामने सबसे बड़ी बाधा पर्याप्त पूंजी तक उनकी पहुंच की है. यह तथ्य सूक्ष्म लोन की व्यवस्था के उलट है.

आपदा के दौरान मज़बूती से खड़े

पिछले साल सरकार की ओर से मुहैया करवाए गए आंकड़ों के मुताबिक प्रधानमंत्री मुद्रा योजना के तहत लिए गए कुल लोन में से करीब 70 फीसदी महिलाएं हैं. यह योजना महिलाओं को आसानी से उधार मुहैया कराने के मामले में सफल रही है लेकिन अधिकतर लोन अग्रिम राशि (advanced) के रूप में ‘शिशु’ या सूक्ष्म श्रेणी (50,000 रुपये तक) के हैं. उनकी उधार लेने के लिए लोन या फाइनेंस तक पहुंच ज्यादा दिक्कत भरी होती है क्यों उनके पास उनकी अपनी कोई संपत्ति जैसे जमीन नहीं होती. ऐसे में सवाल यह उठता है कि इन एकल महिला उद्यमियों (women solopreneurs) और छोटा क़ारोबार करने वाली महिलाओं को कैसे सक्षम बनाया जाए जिससे कि वे आर्थिक विकास में योगदान देने के साथ उसमें तेज़ी लाएं

महिलाओं के स्वामित्व वाले उद्यम, जो जुलाई में बंद हो चुके थे उनमें से 73 फीसदी नवंबर तक फिर से शुरू हो गए. 

एक नई परियोजना से इन सवालों के कुछ जवाब और सीख मिल सकते हैं. राष्ट्रीय ग्रामीण आर्थिक रूपांतरण परियोजना (The National Rural Economic Transformation Project) का उद्देश्य महिलाओं के नेतृत्व वाले उद्यमों को प्रोत्साहन देना है. इसके लिए परियोजना के तहत महिलाओं को वित्त मुहैया कराने, बाज़ार तक पहुंच स्थापित करने और नेटवर्क बनाने में मदद दी जाती है. इस प्रोजेक्ट को भारत सरकार का सहयोग और विश्व बैंक से धन प्राप्त हुआ है. इस प्रोजेक्ट को संक्षेप में एनआरईटीपी (NRETP) नाम दिया गया है जिस का 13 राज्यों में क्रियान्वयन किया जा रहा है. इसका लक्ष्य जून 2023 तक 80 हजार ग्रामीण उद्यमों को सहायता उपलब्ध कराना है. यह 2011 में स्थापित राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका परियोजना (National Rural Livelihoods Project) का हिस्सा है. इसका उद्देश्य जनी स्तर पर महिलाओं के लिए स्वयं सहायता समूह बनाना है.

महिलाओं के नेतृत्व वाले उद्यमों (भले ही वह कितना ही छोटा क्यों न हो) के बारे में एक बड़ी बात यह है कि आर्थिक आपदा के वक्त भी उसमें खुद को खड़ा रखने की क्षमता होती है. एक निश्चित सैम्पल साइज़ के आधार पर, महामारी के प्रभाव को लेकर, क्रेया यूनिवर्सिटी (Krea University) द्वारा किए गए एक अध्ययन के मुताबिक, महिलाओं के स्वामित्व वाले उद्यम, जो जुलाई में बंद हो चुके थे उनमें से 73 फीसदी नवंबर तक फिर से शुरू हो गए.

मुमकिन है कि प्रज्ञा मिश्रा ने भी अपनी फोटोकॉपी का व्यापार फिर से शुरू कर लिया हो.

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