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नवीकरणीय बिजली पर सरकारी समर्थन पर ध्यान केंद्रित करना और हरित हाइड्रोजन के साथ-साथ CCUS इको-सिस्टम के विकास में निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करना व्यावहारिक क़दम है.
नेट ज़ीरो की ओर जाने वाला रास्ता ना सिर्फ़ लंबा है बल्कि इसके घुमावदार, पहाड़ी रास्तों की तरह टेढ़ा-मेढ़ा होने की भी आशंका है. ये मार्ग अनिश्चितताओं से भरा और महंगा होने के साथ-साथ जोख़िम भरे विकल्पों वाला हो सकता है. इस रास्ते में अक्सर क़दम पीछे खींचने की भी ज़रूरत पैदा होती है. इसके अलावा तकनीकों में फेरबदल करने और भू-राजनीतिक बाधाओं से फुर्ती से बच निकलना भी आवश्यक हो जाता है.
वैज्ञानिक, तकनीकी विशेषज्ञ और कारोबार जगत इस क़वायद के अगुवा हैं, जिन्हें न्यूनतम लागत वाले परिवर्तन और ऊर्जा सुरक्षा के टकराव भरे उद्देश्यों के बीच मध्य मार्ग की तलाश करनी होगी. राजनेताओं को कमज़ोरों को आगे बढ़ाना होगा, थके-हारों को मरहम लगाकर राहत देनी होगी और विजेताओं पर टैक्स लगाकर इस परिवर्तन के लिए रकम जुटानी होगी. अगर परिवर्तनकारी क़वायदों को राजकोषीय तौर पर ज़िम्मेदारी के साथ फंड करना है तो GDP के साथ कर राजस्व के अनुपात को 2022-23 (RBI) में हासिल 16.7 प्रतिशत के आंकड़े से आगे बढ़ाना होगा. परिवर्तनकारी क़वायदों के लिए पहले दशक में GDP के कम से कम 2 प्रतिशत के बराबर लागत आने की उम्मीद है. सिर्फ़ अंतरराज्यीय ट्रांसमिशन प्रणाली (ISTS) को मज़बूत करने में ही 2022 से 2030 के बीच 3 खरब रुपये से ज़्यादा का ख़र्च होने का अनुमान है (CEA 2023). ये कुल ट्रांसमिशन और वितरण प्रणाली का बस एक छोटा सा हिस्सा है.
अगर परिवर्तनकारी क़वायदों को राजकोषीय तौर पर ज़िम्मेदारी के साथ फंड करना है तो GDP के साथ कर राजस्व के अनुपात को 2022-23 (RBI) में हासिल 16.7 प्रतिशत के आंकड़े से आगे बढ़ाना होगा.
जुलाई 2018 के बाद से महंगाई अर्थव्यवस्था में रच-बस गई है. दिसंबर 2020 और जनवरी 2021 के सिर्फ़ दो महीनों में ये 4 प्रतिशत के मानक से नीचे थी. ऊंची ब्याज़ दरें यहां बरक़रार रहने वाली हैं, जो ऊर्जा परिवर्तन के लिए आवश्यक बड़े निवेशों की व्यवहार्यता के लिए अशुभ संकेत है. इसकी ज़्यादातर लागत निजी क्षेत्र द्वारा वहन की जाएगी लेकिन सरकार को न्यायसंगत परिवर्तन को सहारा देने के लिए तैयार रहना चाहिए, जो इससे सबसे ज़्यादा प्रभावित लोगों को स्थायी नुक़सान से बचाती है. नई उभरती तकनीकों को बाज़ार तक लाने के लिए अंतरों को पाटने की क़वायद के लिए इसे नेतृत्वकारी भूमिका निभानी चाहिए. इनमें सोडियम जैसे रसायनों पर आधारित ग्रिड-स्केल बैटरी शामिल हैं, जिसको लेकर आश्वस्तकारी घरेलू आपूर्ति श्रृंखला मौजूद है.
सरकार द्वारा घोषित जलवायु कार्रवाइयों की ग़ायब कड़ी ये सवाल है कि आख़िर उत्सर्जन कब शिखर पर पहुंचेगा. विश्व बैंक के मुताबिक 2010-2018 के कालखंड में वास्तविक अर्थव्यवस्था में 5.9 प्रतिशत की वृद्धि के मुक़ाबले उत्सर्जन 5 प्रतिशत के CAGR से आगे बढ़ा. इस कालखंड को 2010-2020 तक विस्तृत करने पर उत्सर्जनों का CAGR 2.9 प्रतिशत तक घट जाता है. ऐसा प्रमुख रूप से कोविड-19 महामारी के दौरान आर्थिक सुस्ती आने के चलते हुआ. अगर बेलगाम बढ़ने की छूट दे दी गई तो 2047 तक उत्सर्जन दोगुने से ज़्यादा हो जाएगा और 2070 तक नेट ज़ीरो हासिल करने की उपलब्ध मियाद आधी घट जाएगी. 2020 के बाद हमने नवीकरणीय बिजली क्षमता में 37 गीगावाट जोड़ा है, जो कुछ हद तक उत्सर्जन को कम करता है. हालांकि अभी काफ़ी कुछ किया जाना बाक़ी है.
निम्न स्तर पर सकल कार्बन उत्सर्जनों का लाभ उठाने के लिए शुरुआती दौर में परिवर्तनकारी क़वायदों की ऊंची लागतों और हाइड्रोजन में पहला क़दम रखने के फ़ायदे हासिल करने के बीच एक ट्रेड-ऑफ या अदला-बदली है. इसे हासिल करने के लिए प्रदर्शन मेट्रिक, 2030 के दशक तक जल्दी या शुरुआती रूप से शिखर पर जाने का है. विलंबित परिवर्तन से 2050 के दशक तक उत्सर्जनों के शिखर पर जाने के साथ ऐसा ही सिलसिला बदस्तूर जारी रहने वाला है. हालांकि विपरीत परिस्थितियां चुनौती भरी होंगी. सर्वप्रथम, हम 2047 तक दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने का लक्ष्य रखे हुए हैं और निश्चित रूप से इसमें जलवायु से जुड़ी अहम ज़िम्मेदारी स्वीकार करने का मसला शामिल है. दरअसल, जलवायु के मोर्चे पर यूरोपीय संघ (EU) के पूर्व-सक्रियता भरे रुख़ के चलते हमारे हाथ बंधे रहेंगे. EU 2026 से सभी आयातों पर कार्बन सीमा कर आयद करने की योजना बनाए हुए है. अन्य विकसित अर्थव्यवस्थाएं भी इस रास्ते पर जा सकती हैं. जब तक हमारे धातु उत्पादों को कार्बन-मुक्त या डिकार्बनाइज़ नहीं कर दिया जाता तब तक वो विकसित बाज़ारों के लिए ग़ैर-प्रतिस्पर्धी रहेंगे. इस पहेली से बाहर निकलने का एक तरीक़ा ये है कि कोयले और पेट्रोलियम पर घरेलू कार्बन टैक्स लागू कर दिया जाए और फ़िलहाल इन पर केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा उगाहे जान वाले सभी करों को सम्मिलित कर दिया जाए.
कार्बन टैक्स आयद करने का लाभ (भले ही इससे सरकार को कोई शुद्ध राजस्व ना मिले) राजस्व की निश्चितता और लेवी की स्पष्ट प्रकृति है, जो अन्य क्षेत्राधिकारों में सरहदी कार्बन करों के ख़िलाफ़ निर्यातों का एक आसान प्रारूप दिलाती है. इसका नकारत्मक पक्ष ये है कि राजस्व को ऊर्जा परिवर्तन से जुड़े ख़र्च के लिए सुरक्षित रखे जाने की बजाए आम उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किए जाने की आशंका रहती है. इसके साथ ही राज्य सरकारों के साथ इस नए कर के बारे में बातचीत करने की प्रक्रिया GST वार्ताओं जैसी लंबी खिंचने की आशंका रह सकती है, क्योंकि बदली व्यवस्था में राज्य पेट्रोलियम उत्पादों की बिक्री पर कर लगाने से जुड़े मौजूदा अधिकार गंवा देंगे. जो विकल्प सरकार पहले ही चुन चुकी है वो है कार्बन उत्सर्जनों में ऊर्जा दक्षता पर परफॉर्म अचीव ट्रेड स्कीम का मौजूदा प्रारूप लागू करना. हरेक उद्योग के लिए या उद्योगों के एक समूह के लिए उत्सर्जन मानकों का निर्धारण किया जाएगा और निर्धारित मानक से बेहतर प्रदर्शन करने वालों को व्यापार योग्य उत्सर्जन प्रमाण पत्र जारी किए जाएंगे. उद्योग इन प्रमाण पत्रों की मांग उपलब्ध कराएंगे.
हरेक उद्योग के लिए या उद्योगों के एक समूह के लिए उत्सर्जन मानकों का निर्धारण किया जाएगा और निर्धारित मानक से बेहतर प्रदर्शन करने वालों को व्यापार योग्य उत्सर्जन प्रमाण पत्र जारी किए जाएंगे. उद्योग इन प्रमाण पत्रों की मांग उपलब्ध कराएंगे..
उद्योग जगत कोयले का प्रमुख उपयोगकर्ता है. कोयला-आधारित बिजली के नवीकरणीय विकल्पों की तुलना में हरित हाइड्रोजन जैसे निम्न-कार्बन विकल्प काफ़ी दूर खड़े हैं. कार्बन कैप्चर और उपयोग या भंडारण (CCUS) अब भी महंगे हैं, उपयोग के विकल्प सीमित हैं और भंडारण के स्थान बहुत दुर्लभ हैं. नवीकरणीय बिजली पर सरकारी समर्थन को केंद्रित करना और हरित हाइड्रोजन के विकास में अगुवाई करने के लिए निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करना यथार्थवादी रुख़ है. साथ ही प्रमाण पत्रों की ख़रीद टालने के लिए CCUS इकोसिस्टम लागू करना भी व्यावहारिक है. भरोसेमंद, सस्ती नवीकरणीय ऊर्जा (RE) की आपूर्ति हरित हाइड्रोजन के विनिर्माण में प्राथमिक इनपुट हैं. ऊर्जा के भूखे इलेक्ट्रोलाइज़र्स के ज़रिए इस क़वायद को अंजाम दिया जाता है- एक टन हरित हाइड्रोजन के लिए 50 MWh नवीकरणीय बिजली की दरकार होती है. वैसे तो सरकार पहले से ही प्रोत्साहन उपलब्ध करा चुकी है, लेकिन इलेक्ट्रोलिसिस में सिर्फ़ सामग्री और प्रक्रिया दक्षता ही ग्रीन हाइड्रोजन की लागत को किफ़ायती स्तरों तक कम कर सकती है, जिसकी उम्मीद केवल 2030 के बाद ही की जा सकती है.
कार्बन की लागत के ख़ुलासे का एक फ़ायदा ये है कि अंतिम उपभोक्ता या मध्यवर्ती विनिर्माता को इसके लिए भुगतान करना होता है, जिससे कार्बन की लागत पर बहुत ज़रूरी प्रकाश पड़ता है. एक बार कार्बन के लिए बाज़ार क़ीमतें अस्तित्व में आ जाने के बाद ये लागत-लाभ आधारित निर्णयों में शामिल हो जाते हैं. मान लीजिए अगर बिजली क्षेत्र कार्बन उत्सर्जन घटाने या उत्सर्जन प्रमाण पत्र ख़रीदने के लिए बाध्य हो जाए तो 50 गीगावाट की नई कोयला क्षमता स्थापित करने की वास्तविक लागत (जैसा सरकार द्वारा योजना बनाई गई) में भारी बढ़ोतरी हो जाएगी. ये क़वायद सरकार को घाटे में चल रही कोयला खदानों (जिनमें से ज़्यादातर भूमिगत हैं) को बंद करने के लिए प्रेरित कर सकती है. उन्हें लंबे अर्से तक यूं ही पड़े रहने देने से वैसी भूमि परिसंपत्तियां बिना उपयोग के रह जाती हैं जिन्हें मुद्रीकृत किया जा सकता था और नए रोज़गार पैदा किए जा सकते थे.
फ़िलहाल, सरकार स्केल्ड-अप नवीकरणीय ऊर्जा को विकसित करने पर ध्यान केंद्रित कर रही है. वित्तीय रूप से कमज़ोर डिस्कॉम (वितरण और खुदरा आपूर्ति कंपनियां) द्वारा भुगतान डिफॉल्ट के जोख़िम को वहन करने के लिए सार्वजनिक स्वामित्व वाली कंपनी भारतीय सौर ऊर्जा निगम (SECI) की बैलेंस शीट का उपयोग करके इस क़वायद को अंजाम दिया जाता है. इनमें से निजी क्षेत्र की सभी 12 और सार्वजनिक स्वामित्व वाले 56 में से 18 डिस्कॉम मुनाफ़े में हैं. अफ़सोस की बात है कि मुनाफ़े में बने रहने के लिए सभी डिस्कॉम राज्य सरकारों द्वारा शुल्क सब्सिडियों के समय पर भुगतान किए जाने पर निर्भर हैं. ये हालात उन सभी को बिजली के उच्च-जोख़िम ख़रीदार के रूप में एक ही रंग में रंग देते हैं. SECI को निजी कंपनियों द्वारा उत्पादित संपूर्ण सौर और पवन ऊर्जा की ख़रीद करने का ज़िम्मा सौंपा गया है. साथ ही उन्हें वितरण कंपनियों के साथ बिजली विक्रय समझौते में भी जुड़ना होता है. ये नवीकरणीय ऊर्जा में वृद्धि को राजकोषीय जोख़िम उठाने को लेकर केंद्र सरकार की सीमित जोख़िम प्रवृति के बंधन में बांध देती है. अगर 2045 तक तक़रीबन 7 खरब रुपये मूल्य की 1500 TWh सौर और पवन ऊर्जा का व्यापार किया जाना है तो बेहद निकट अवधि में एक उपयुक्त व्यवस्था स्पष्ट रूप से उपलब्ध नहीं है.
नवीकरणीय ऊर्जा में क्षमता वृद्धि को सरकारी गारंटियों की बैसाखी से अलग करने की क़वायद वितरण कंपनियों को उनके क्रेडिट रिस्क रेटिंग में सुधार लाने के लिए अनुशासित करने से सीधे तौर पर जुड़ी हुई है. बिजली मंत्रालय ने डिस्कॉम द्वारा उत्पादकों को देर से भुगतान किए जाने पर अधिभार (सरचार्ज) लगाए जाने के रूप में बजट में सख्त रुख़ अपनाया है, जिस पर डिस्कॉम ने प्रतिक्रिया दी है. लगातार डिफॉल्ट के चलते ग्रिड आपूर्तियों में कमी आई. नतीजतन उत्पादकों को देय योग्य रकम जून के 1.39 खरब रुपये की तुलना में अक्टूबर 2023 के अंत तक घटकर 0.27 खरब रुपये हो गई है.
ऊर्जा संक्रमण में प्राकृतिक गैस की भूमिका पर भी स्पष्टता ज़रूरी है. चूंकि नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता वृद्धि के लिए भंडारण बेहद अहम है लिहाज़ा व्यवहार्यता अंतराल फंडिंग प्रणाली के ज़रिए भंडारण की लागत में 40 प्रतिशत सब्सिडी देने की योजना है. बैटरी ऊर्जा भंडारण प्रणालियों (BESS) के साथ दिक़्क़त ये है कि ये आयातित बैटरियों पर निर्भर है. यहां लिथियम और ग्रेफाइट की रिफाइनिंग पर चीनी दबदबा और नियंत्रण है. बैटरी के ये दो प्रमुख घटक पहले ही ऊर्जा सुरक्षा मीट्रिक को “अपनी सरज़मीं” पर लाने की क़वायदों का उल्लंघन करते हैं. इसकी बजाए, BESS के लिए क़ीमतों में गिरावट आने तक ग्रिड सहायता के लिए आयातित प्राकृतिक गैस का उपयोग करना व्यावहारिक होगा. 25 गीगावाट की निष्क्रिय गैस उत्पादन क्षमता 500 गीगावाट की परिवर्तनीय नवीकरणीय ऊर्जा को सहारा दे सकती है. अगर कार्बन मूल्यांकन आधारित दायित्वों को सभी बिजली उत्पादकों पर लागू किया जाए तो इसे हासिल किया जा सकता है. कोयला आधारित उत्पादकों को अपने अतिरिक्त उत्सर्जन की भरपाई के लिए उत्सर्जन प्रमाण पत्रों की ख़रीद करने की दरकार होगी. इसके उलट, सौर, पवन और गैस उत्पादक अपनी कम कार्बन आपूर्ति को प्रदर्शित करने के लिए कार्बन उत्सर्जन क्रेडिट कमाएंगे.
सरकार द्वारा विजेताओं के चयन के साथ सक्रिय औद्योगिक नीति की जानी-मानी सीमाओं से बचने के लिए ये बाज़ार-उन्मुख समाधान हो सकता है. इसके नतीजतन बिजली की खुदरा क़ीमत में होने वाली बढ़ोतरी को डिस्कॉम में बेहतर और संशोधित प्रदर्शन मापदंडों द्वारा बेअसर किया जा सकता है. केंद्र सरकार की 3 खरब मूल्य की महत्वपूर्ण संशोधित वितरण क्षेत्र योजना (RDSS) के तहत इस क़वायद को अंजाम दिया जा सकता है. ग्रिड बिजली आपूर्ति के लिए समय पर भुगतान को लेकर बजट की मुश्किल बाधाओं पर डिस्कॉम ने प्रतिक्रिया जताई है. इस सिलसिले में पर्याप्त प्रोत्साहनों का उपयोग हो चुका है, अब कठोरता बरतने की बारी है.
संजीव अहलूवालिया आब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सलाहकार हैं.
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Sanjeev S. Ahluwalia has core skills in institutional analysis, energy and economic regulation and public financial management backed by eight years of project management experience ...
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