Author : Rakesh Sood

Expert Speak Raisina Debates
Published on Jul 04, 2024 Updated 0 Hours ago

पश्चिमी ताकतों का नए परमाणु युग की वास्तविकता से बेखबर रहना आज परमाणु शक्ति को लेकर फ़ैल रही निराशा का मुख्य कारण है.

नए परमाणु युग के यथार्थ से बेखबर पश्चिम

डूम्सडे क्लॉक की स्थापना शिकागो में 1947 को अमेरिकी वैज्ञानिकों द्वारा की गई थी जो पहले परमाणु बम बनाने वाली परियोजना से जुड़े थे. आजकल हर साल प्रख्यात वैज्ञानिकों का एक अंतरराष्ट्रीय समूह दुनिया में अंधाधुंध हो रही वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति से मानवता के लिए पनप रहे ख़तरों का आकलन करने के बाद इस घडी को फिर से सेट कर डूम्सडे तक के समय को कम या ज़्यादा करता है. 1991 में जब शीत युद्ध समाप्त हुआ तब इस घड़ी के कांटो को आधी रात से पीछे कर दिया था जो कयामत के दिन से अब तक सेट की गई सबसे ज़्यादा दूरी है. 1991 के बाद धीरे-धीरे घड़ी का कांटा और करीब आ गया है और अब भयावह स्तर वह आधी रात से सिर्फ दो मिनट की दूरी पर है. 

 

क्या परमाणु निराशावाद न्यायसंगत है?

 

पहली नज़र में देखा जाए तो इस निराशावाद को ज़मीनी बातों से जोड़ कर देखना मुश्किल लगता है. क्योंकि 1945 के बाद परमाणु हथियारों का उपयोग अब तक कभी नहीं किया गया है हालांकि यह भी सच है बहुत बार स्थिति काफी गंभीर अवस्था तक पहुंची है. परिस्थितियों के चलते तनाव की जानबूझकर की गई वृद्धि (जैसा कि 1962 के क्यूबा मिसाइल संकट में हुआ) या गलत धारणाओं और गलत गणनाओं के कारण उत्पन्न हुआ (जैसा कि 1983 एबल आर्चर संकट में हुआ)[1] फिर भी यह बात उल्लेखनीय है कि परमाणु हथियारों को न उपयोग करने की प्रथा 75 वर्षों से कायम है और यह तथ्य परमाणु शक्ति को लेकर कायम विसंगतियों को कमज़ोर करते है. 

 

पचास देशों के समूह द्वारा 1970 में लागू हुई परमाणु अप्रसार संधि (NPT) को 1995 में अनिश्चित काल के लिए बिना शर्त बढ़ा दिया गया और अब तक 190 देशों ने इस पर हस्ताक्षर किए हैं. इस NPT संधि में हस्ताक्षर करने को अब केवल चार देश बचे है जिसमे भारत, पाकिस्तान और इजरायल शामिल हैं जिन्होंने कभी इस पर हस्ताक्षर नहीं किए और उत्तर कोरिया जिसने इस पर पहले एक बार हस्ताक्षर किया था वह 2003 में इससे अलग हो गया था. 

  इस NPT संधि में हस्ताक्षर करने को अब केवल चार देश बचे है जिसमे भारत, पाकिस्तान और इजरायल शामिल हैं जिन्होंने कभी इस पर हस्ताक्षर नहीं किए और उत्तर कोरिया जिसने इस पर पहले एक बार हस्ताक्षर किया था वह 2003 में इससे अलग हो गया था. 

"दूसरे परमाणु युग" की संज्ञा देने वाले शब्द गढ़ने वाले कई पश्चिमी विद्वानों ने भी भयावह भविष्यवाणियां की थी जो अब तक कभी भी सत्य नहीं साबित हुई हैं. पॉल ब्रेकन के अनुसार, "1998 में (जब भारत और पाकिस्तान ने परमाणु परीक्षण किया) एक महत्वपूर्ण मोड़ आया." पॉल ब्रेकन ने आगे कहा है कि "यह द्वितीय परमाणु युग है क्योंकि इसमें पहले परमाणु युग के शीत युद्ध जैसा कोई केंद्रीय बिंदु नहीं है." हालांकि यह अवलोकन बहुत हद तक सही था लेकिन इससे निकाले गए निष्कर्ष शायद सही नहीं थे. ब्रेकन ने इस मौके पर "परमाणु बम पर प्रमुख शक्तियों के एकाधिकार के टूटने"[2] की भविष्यवाणी की थी. वहीं केनेथ वाल्ट्ज का मानना था कि परमाणु हथियारों का और तेज़ी से प्रसार होगा[3] जबकि जॉन मियरशाइमर ने यूरोप में परमाणु शक्तियों के फ़ैलाव का अनुमान लगाया था.[4] यह उम्मीद लगाई गई थी कि परमाणु शक्ति का प्रसार होना चूँकि लगभग तय है इसलिए पश्चिमी देशों को स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए इस पूरी कवायद को प्रबंधित करने की क्रमिक तौर पर कोशिश करनी चाहिए. उत्तर कोरिया द्वारा 2003 में NPT से औपचारिक रूप से बाहर चले जाने के बाद ग्राहम एलिसन ने आगाह किया कि "दक्षिण कोरिया और जापान उस दशक के अंत तक अपने स्वयं के परमाणु जखीरे बना लेंगे."[5]

 

लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. भारत और पाकिस्तान के परमाणु परीक्षणों का परिस्थिति पर कोई व्यापक प्रभाव नहीं पड़ा. असली बात तो यह है कि परमाणु प्रसार तो पहले ही हो चुका था लेकिन पश्चिमी देशों की सोच ने इसे स्वीकार नहीं किया था और उन्होंने इस विषय पर अपनी धारणा पर कायम रहना ज़्यादा सुविधाजनक समझा था. इसी तरह उत्तर कोरिया की सरकार ने क्षेत्र में बढ़ती पश्चिमी सैन्य हस्तक्षेपों को चिंताजनक रूप से लिया और एक दशक पहले NPT से हटने का नोटिस देने के बाद अंततः 2003 में NPT से अपने आप को अलग कर लिया. राष्ट्रपति बुश द्वारा उत्तर कोरिया को 'एक्सिस ऑफ़ ईविल’ कहे जाना इस कदम का तत्कालीन कारण बना. यह बात तो स्पष्ट है कि पश्चिमी विश्लेषकों ने गैर-पश्चिमी देशों के राजनीतिक व्यवहार को तय करने वाले कारणों का गलत तरीके से आकलन किया.

 

एक अन्य पश्चिमी सोच यह थी कि परमाणु निरोध के पुराने नियम अब नए परमाणु शक्ति से लैस देशों में लागू नहीं होंगे क्योंकि वे देश "उन्मादी राष्ट्रवाद" से चलते हैं और जो उनके प्रेरक बिंदु हैं वे पुराने परमाणु शक्तियों से कम पारदर्शी और तर्कसंगत हैं.[6] पश्चिमी देशों के तर्क के अनुसार अमेरिका का जखीरा तो रक्षात्मक उद्देश्यों के लिए बना था लेकिन नए परमाणु देशों के हथियार आक्रामक उद्देश्यों के लिए उपयोग में लाने के लिए संभावित तौर पर इस्तेमाल करने के लिए तैयार किये गए थे. उदाहरण के लिए इराक के मामले में कार्यवाही को युद्ध रोकने और परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकने के उद्देश्य के रूप में प्रस्तुत किया गया.[7] इसके अलावा गैर शासकीय शरारती तत्वों तक इस वेपंस ऑफ़ मास डिस्ट्रक्शन के पहुँच जाने की संभावना जताई गई. इसके साथ साथ पुख़्ता प्रतिरोधक शक्ति को तैयार करने के लिए मिसाइल रक्षा में अधिक निवेश को भी “उचित ठहराया” गया.[8] पॉल ब्रेकन ने बड़े निराशापूर्ण तरीके से यह सवाल खड़ा किया कि क्या दुनिया के देश दूसरे परमाणु युग से बचकर पार लग पाएंगे.[9]

 

लेकिन एक बार फिर असलियत अलग तरीके से सामने आई है

 

किम जोंग-उन के नेतृत्व में उत्तर कोरिया ने अपने परमाणु और मिसाइल कार्यक्रम को और तेज़ी प्रदान की लेकिन इस बात से उत्तर कोरिया को अपने क्षेत्र में अधिक आक्रामक नहीं बनाया है. JCPOA के मौसेदे के सफ़लता से मंजूर होने से पहले तक कई पश्चिमी विश्लेषकों को इस बात पर संदेह था कि क्या ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम पर किसी प्रकार के अंकुश को स्वीकार करेगा? लेकिन वक़्त ने कुछ और ही साबित किया. आज भी ईरान संयम पाले हुए है जबकि अमेरिका ने इसके ठीक विपरीत JCPOA से अपने आप को अलग थलग कर लिया है.

 अब जब शीत युद्ध काल की तुलना में परमाणु हथियारों के भंडार कम हो गए हैं और परमाणु तकनीकों का प्रसार भी कुछ ज़्यादा नहीं हुआ है और NPT का दुनिया भर में लगभग सही ढंग से पालन हो रहा है तो फिर इतनी बेचैनी की भावना क्यों है?

पश्चिमी विश्लेषणों और दूसरे परमाणु युग की वास्तविकताओं के बीच इतने अंतर का क्या कारण समझा जा सकता है? अब जब शीत युद्ध काल की तुलना में परमाणु हथियारों के भंडार कम हो गए हैं और परमाणु तकनीकों का प्रसार भी कुछ ज़्यादा नहीं हुआ है और NPT का दुनिया भर में लगभग सही ढंग से पालन हो रहा है तो फिर इतनी बेचैनी की भावना क्यों है? इस सोच का क्या कारण समझा जा सकता है कि शीत युद्ध के दौरान प्रतिरोध अधिक स्थिर था? क्या यह मान लिया जाए कि चूंकि शीत युद्ध का अंत पश्चिमी शक्तियों के विजय के रूप में हुआ था इसलिए पश्चिमी धारणाओं को ज़्यादा तवज्जो दी जा रही है. क्या पश्चिमी शक्तियों के ख्वाब शीत युद्ध की स्थिति की वापसी के प्रति झुकाव रखते हैं या ये चाहते हैं कि एकात्मक वर्चस्व यानी यूनिपोलर स्थिति बने जैसा कि USSR के विघटन के बाद कुछ समय के लिए के बनी थी? जिस प्रकार यूनिपोलर काल बीत गया क्या हम दूसरे परमाणु युग से नए परमाणु युग में प्रवेश कर गए हैं?

 

अतीत के खूंटे से बंधे

 

इस बात को समझने के लिए हमें शीत युद्ध और प्रतिरोध की कुछ मूलभूत अवधारणाओं को फिर से भली भांति जानना होगा. शायद शीत युद्ध के ख्वाब पश्चिमी देशों को इसलिए सताते है क्योंकि उस ऐतिहासिक दौर में सारा ध्यान 'सर्टिनिटी’ या निश्चितता के रंगों से रंगा था. जबकि हकीकत यह थी ऐसा कभी था ही नहीं और नुक्लेअर बटन बहुत हद तक कुछ गैर भरोसेमंद हाथों में रहा. 1970 के दशक की शुरुआत में वाटरगेट जांच के अंतर्गत यह पता चला कि राष्ट्रपति निक्सन अक्सर ख़राब मूड में रहते थे और शराब पीने की आदत से लिप्त थे और यही कारण था कि अमेरिका के तब के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA) हेनरी किसिंजर और रक्षा सचिव श्लेसिंगर ने रणनीतिक संगठनों को व्हाइट हाउस से मिलने वाले किसी भी आदेश को पहले अच्छी तरह जांचने और परखने का आदेश दिया हुआ था. दूसरी ओर सोवियत संघ में जनरल सेक्रेटरी लियोनिद ब्रेझनेव को भूलने की बीमारी थी और संभवतः मनोभ्रंश भी था जबकि फ्रांसीसी राष्ट्रपति जॉर्जेस पोम्पीडो एक अज्ञात कैंसर के लिए उपचार से गुजर रहे थे जिसमे उन्हें सेडेटिव का सेवन करना होता था. वहीं चीन के बारे में कहा जाए तो परमाणु युद्ध के बारे में माओ का विचार था अगर परमाणु युद्ध होता है तो उसके नुक़सान की भरपाई के लिए चीन के कुछ सौ मिलियन लोगों की जान जाने से चीन को कुछ फ़रक नहीं पड़ेगा लेकिन परमाणु युद्ध कम से कम पूंजीवाद का तो ख़ात्मा कर देगा.

 

पॉल ब्रेकन ने शीत युद्ध को पहले परमाणु युग के प्रमुख बिंदु के रूप में सही परिभाषित किया है. इसका तार्किक अर्थ यह है कि जैसा कि बाइपोलरिटी ने पहले परमाणु युग को नियंत्रित किया, उसने परमाणु स्थिरता के लिए रणनीतिक स्थिरता को भी कम किया. और नतीजतन, हथियारों के नियंत्रण का एक निश्चित मॉडल उभर कर सामने आया जिसमें पारस्परिक आक्रामकता और पारस्परिक रूप से आश्वस्त विनाश पर आधारित प्रतिरोध स्थिरता पर बल दिया. यह हथियारों की दौड़ से उभरी स्थिरता थी क्योंकि दोनों परमाणु महाशक्तियों ने परमाणु समानता और समरूपता की स्थिति हासिल की थी और किसी भी संकट से निपटने के प्रबंधन तंत्र तैयार किए थे जिसका समय समय पर परीक्षण भी किया गया था. लेकिन इसे सौभाग्य ही माने कि शीत युद्ध किसी परमाणु उपयोग से दूर रहा. हालांकि यह तब माना जा रहा है जबकि उस स्थिति को 'स्थिरता' कहना बेमानी है लेकिन शायद यह पश्चिमी दृष्टिकोण ही था जो ऐसा मानता था. कई पश्चिमी परमाणु विशेषज्ञ इस बात पर भी जोर देते हैं कि डेटेरेन्स यानी आपसी प्रतिरोध ने परमाणु शांति बनाए रखी. बेशक यह भी सदियों से चले आ रहे उस दार्शनिक विरोधाभास का ही हिस्सा है जो किसी बात की अनुपस्थिति को नकारात्मकता की वास्तविकता साबित करने की कोशिश करता है. 

 

दूसरा परमाणु युग यूनिपोलर दुनिया के मॉडल पर टिका है और इस एक ध्रुवीय स्थिति से ही नए परमाणु युग की शुरुआत होती है. यह एक ऐसी स्थिति है जहां अमेरिका न तो आपसी भेद्यता (शायद रूस को छोड़कर) और न ही पारस्परिक रूप से आश्वस्त विनाश को स्वीकार करता है. अब समस्या यह है कि बाइपोलर मॉडल हथियार नियंत्रण का एकमात्र मॉडल है जिसे पश्चिमी विश्लेषक समझते है क्योंकि पश्चिम के लिए यह सोच स्थिरता प्रदान करने और जीत सुनिश्चित करने में कारगर सिद्ध हुई थी. लेकिन अब इसी सोच को अक्सर 21वीं सदी की उभरती रणनीतिक प्रतिद्वंद्विता से जोड़ कर देखा जाता है जो कि इस पूरी सोच को नए परिवेश में थोपने जैसा है. 

अगर आज बड़े पैमाने पर कम हो रहे परमाणु जखीरे किसी प्रकार का सकारात्मक आश्वासन नहीं देते हैं तो इसका प्रमुख कारण यह है कि ये जो कटौती हुई है ये केवल हथियारों की दौड़ को नियोजित करने के लिए बनाए गए कुछ उपाय मात्र थे और ये सब अमेरिका और सोवियत संघ की सुरक्षा के प्रावधानों का हिस्सा है लेकिन दोनों ने परमाणु हथियारों की प्रमुखता को कम करने के लिए कुछ नहीं किया. हालांकि यह एक मिथक फ़ैलाया गया कि हथियारों के नियंत्रण या हथियारों की सीमा में कमी से परमाणु निरस्त्रीकरण होगा और परमाणु हथियार को पूरी तरह ख़त्म करना मुश्किल है. आज, संख्या में कमी के बावजूद परमाणु हथियारों की बढ़ती प्रमुखता एक सच्चाई है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता है. 

 अब समस्या यह है कि बाइपोलर मॉडल हथियार नियंत्रण का एकमात्र मॉडल है जिसे पश्चिमी विश्लेषक समझते है क्योंकि पश्चिम के लिए यह सोच स्थिरता प्रदान करने और जीत सुनिश्चित करने में कारगर सिद्ध हुई थी.

विषमता के इस युग में लॉन्चर और वार हेड की गिनती काम नहीं आएगी. परमाणु हथियारों की संख्या की असलियत जानना भी अब चुनौतीपूर्ण काम है क्योंकि यह सैद्धांतिक विषमता अस्पष्टता पर निर्भर होती है. परमाणु स्थिरता और रणनीतिक स्थिरता के बीच का संबंध टूट सा गया है. SALT और START प्रक्रियाओं का नेतृत्व करने वाले पुराने दृष्टिकोण शीत युद्ध के दौरान मददगार साबित हुए थे लेकिन आज की वैश्विक राजनैतिक हक़ीक़त बहुत बदल गई है. यह बदलाव अमेरिका और उसके रणनीतिक प्रतिद्वंद्वियों रूस और चीन के बीच भी काफ़ी आया है. 

 

पश्चिमी ताकतों ने 2002 में एंटी बैलिस्टिक मिसाइल संधि को निरस्त करने को यह कहकर उचित ठहराया कि आतंकी या शरारती शासकों के ख़तरों का मुकाबला करने के लिए मिसाइल सुरक्षा प्रावधान की आवश्यकता है. हालाँकि, रूस ने इस कदम की कमज़ोर प्रतिरोध के संकेत के रूप में व्याख्या की. इसी कड़ी में, अमेरिका ने परमाणु हथियारों पर निर्भरता को कम करने के लिए पारंपरिक त्वरित वैश्विक हमला करने वाली क्षमताओं का विकास किया लेकिन रूस और चीन ने इस कदम को अमेरिका के तकनीकी वर्चस्व को कायम रखने के लिए उठाये गए कदम के रूप में देखा. इन्ही सब कारणों से यह कहा जा सकता है कि हथियारों के नियंत्रण की पुरानी मान्यताओं को पीछे छोड़ने का अब समय आ गया है. 

 

वे 120 गैर-परमाणु हथियार वाले देश जिन्होंने 2017 में परमाणु हथियार निषेध संधि (NWPT) पर बातचीत को आगे बढ़ाया वे ही NPT के हस्ताक्षरकर्ता भी थे. इन देशों ने यह निष्कर्ष निकाला था कि लगभग पूरी तरह पालन के बावजूद NPT कभी भी परमाणु निरस्त्रीकरण का कारण नहीं हो सकता जो NPT के घोषित उद्देश्यों में से एक है. NPT ने परमाणु प्रसार को तो अमान्य करार कर दिया था लेकिन वह परमाणु हथियारों को अवैध बनाने में असमर्थ रहा. और ऐसा लगता है कि NPT अपनी कार्यक्षमता की सीमा हासिल कर चुका है. NWPT का नेतृत्व उन देशों ने किया जिनके पास परमाणु हथियार नहीं थे और उसका बहिष्कार उन देशों ने किया जो परमाणु हथियारों से लैस थे, यह साधारण तथ्य ही काफ़ी है NPT के अंदर व्याप्त तनाव को उजागर करने के लिए. 

 

यूनीपोलर दौर के उस कुछ समय के अलावा पश्चिम के लिए परमाणु ख़तरे हमेशा से प्रखर रहे हैं. लेकिन उल्लेखनीय बात यह है कि वे ख़तरे अब वापिस उजागर हो रहे हैं. इन ख़तरों से निपटने के लिए बदलती वैश्विक राजनैतिक वास्तविकताओं को मद्देनज़र रखते हुए मौजूदा हथियार नियंत्रण की रूप रेखाओं को नए सिरे से गढ़ने की ज़रूरत है. इसके ठीक विपरीत पश्चिम शीत युद्ध के समय की पाषाण कालीन स्थिरता की सोच में डूबा हुआ है. इसलिए यह मान लेना बिलकुल सही है कि नए परमाणु युग की वास्तविकता से बेखबर रहना आज परमाणु शक्ति को लेकर फ़ैल रही निराशा का मुख्य कारण है. 


[1]https://www.chathamhouse.org/sites/default/files/field/fielddocument/20140428TooCloseforComfortNuclearUseLewisWilliamsPelopidasAghlani.pdf

[2]Paul Bracken, Fire in the East (New York: Harper Collins, 1999) and The Second Nuclear Age (New York, Henry Holt, 2012)

[3] Scott D Sagan and Kenneth Waltz, The Spread of Nuclear Weapons: A Debate (New York, W W Norton, 1995)

[4] https://mearsheimer.uchicago.edu/pdfs/A0017.pdf

[5] Graham Allison, Nuclear Terrorism: The Ultimate Preventable Catastrophe (New York, Henry Holt, 2004)

[6] Bracken, Fire in the East

[7] Days before the Iraq invasion in 2003, Vice President Dick Cheney stated, “We believe he (Saddam Hussein) has, in fact, reconstituted nuclear weapons”.

[8] http://archive.defense.gov/pubs/pdfs/QDR20060203.pdf

[9] Bracken, The Second Nuclear Age

 

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