Author : Ramanath Jha

Expert Speak India Matters
Published on Mar 30, 2024 Updated 0 Hours ago

जब तक शहरी योजना को कुशल कामगारों और धन के मेल के साथ प्रोत्साहित नहीं किया जाता है, तब तक विकास योजनाएं कागजों पर ही रह जायेंगी.

शहरों से जुड़ा मास्टर प्लान हमेशा ‘फेल’ क्यों हो जाता है?

केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने जबसे राष्ट्रीय बजट 2022-23 के अपने वार्षिक प्रस्तुति के दौरान, शहरी मामलों पर अपनी बात रखते ही, सदन का सारा ध्यान शहरी नियोजन की ओर आकर्षित किया, तब असल में शहरी शिक्षा विमर्श के मसले पर एक बहु-उपेक्षित विषय को केंद्र के पटल पर रखा जा रहा था. तब तक, शहर संबंधी विमर्श, मुख्य तौर पर 74वीं संशोधन के अमलीकरण एवं नगर निकायों में आवश्यक सुधार, खासकर  पारदर्शिता, जवाबदेही, स्थानीय क्षमता, और म्युनीसिपल निकायों में महापौर के नेतृत्व की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया. तब तक, 74वें सुधार के अमलीकरण और शहरी शासन व्यवस्था संबंधी विषय, खासकर पारदर्शिता, जवाबदेही, स्थानीय क्षमता, और नगरपालिका निकाय में महापौर के नेतृत्व की आवश्यकता संबंधी सुधार पर ही विशेष तौर पर ध्यान दिया जा रहा था, जो शहर संबंधी हर वार्ता पर हावी हो रहे थे. शहरी योजना को नज़रअंदाज़ किये जाने के मायने ये थे कि शहर जंगली खरपतवार की तरह अव्यवस्थित एवं असंगठित तौर पर बढ़ने लगेंगे. आशा है कि आने वाले वर्षों में, शहरी नियोजन अथवा प्लानिंग  पर वित्तमंत्री द्वारा दिया जा रहा विशेष ज़ोर संभवतः इसी दयनीय स्थिति में सुधार की शुरुआत साबित होगी, जिससे शहरी प्लानिंग आज खुद को असहाय पाता है.  

राष्ट्रीय उन्नति के लिए बेहतर शहरी विकास काफी महत्वपूर्ण है. इसलिए, इन महानगरों को आर्थिक विकास के जीवंत हब के तौर पर विकसित होने की ज़रूरत है.  

अपने बजट के भाषण में बोलते हुए, वित्तमंत्री ने आशा जतायी कि वर्ष 2047 आते-आते, जब भारत अपनी आज़ादी के 100 वर्ष पूरा कर चुका होगा, तब तक भारत की आधी से ज्य़ादा आबादी शहरी हो चुकी होगी. इसलिए, राष्ट्रीय उन्नति के लिए बेहतर शहरी विकास काफी महत्वपूर्ण है. इसलिए, इन महानगरों को आर्थिक विकास के जीवंत हब के तौर पर विकसित होने की ज़रूरत है. इसके अलावे, टियर-2 एवं टियर-3 शहरों को विशेष तौर पर हैंडहोल्ड किए जाने की आवश्यकता थी ताकि वे भविष्य में वे और भी बड़ी भूमिका अदा कर पाने के लिये तैयार रहे. ये तभी साकार होगा जब इस शहरी नियोजन की आमूल-चूल परिकल्पना होगी. पुनर्निर्माण की इस संपूर्ण प्रक्रिया के उचित देखरेख एवं निगरानी के लिए, शहरी योजना और उसके डिजाइन, निर्माण के उप-नियमों, और पाठ्यक्रमों की पढ़ाई, जैसे मुद्दों को देखने के लिए एक उच्च-स्तरीय कमिटी का प्रस्ताव किया गया था. वित्तमंत्री ने प्रस्ताव दिया कि ऐसे सभी केंद्रों को 250 करोड़ रूपये की आर्थिक मदद दी जायेगी जिसके आधार पर देशभर में शहरी प्लानिंग के क्षेत्र में उत्कृष्टता के केंद्र स्थापित किए जायेंगे.    

शहरी निकाय की स्थिति

भारतीय संविधान की 12वें अनुसूची में सबसे ऊपर शहरी नियोजन या प्लानिंग को रखा गया है, जो नगरपालिका कार्यों को क्रमवार तरीके से सूचीबद्ध करता है. इससे भी ज़्यादा, सभी राज्य नगरपालिका कानून में, सभी शहरी स्थानीय निकायों को भविष्य में किए जाने वाले विकास कार्य योजना (डीपी), देश के अन्य जगहों पर जिसे मास्टर प्लान भी कहा जाता है, तैयार कर के रखनी चाहिए, ये शहर के स्थानिक विकास से जुड़ा ब्लू प्रिंट है, जिसे 20 साल के समय सीमा में अमल में लाया जाना है. आमतौर पर ये प्रस्तावित भूमि उपयोग योजना, जो शहरी डेटा और जनसांख्यिकी (डेमोग्राफी), विकास नियंत्रण विनियम (डीसीआर) मौजूदा भूमि उपयोग योजना (पीएलयू), जिन्हें विकास नियंत्रण और संवर्धन विनियम (डीसीपीआर) भी कहा जाता है, उसपर आधारित है और ये सब ही मिलकर तैयार सिद्धांतों, उद्देश्यों एवं लक्ष्यों की व्याख्या करते हैं जिनपर ये योजना आधारित होती है. इसमें किसी शहर को अपने अनुमान के मुताबिक जनसंख्या के अनुपात में देने योग्य कई सुविधाओं एवं सेवाओं के लिए तय मानक भी शामिल हैं. उदाहरण के लिए, यदि तय मानक, प्रति व्यक्ति/नागरिक 10 वर्ग मीटर के खुले मैदान का है, तो दस लाख की आबादी वाली 100 वर्ग मीटर क्षेत्र को हरे, गैर निर्माण योग्य क्षेत्र के लिए 10 वर्ग किलोमीटर भूमि अलग से रखे जाने का प्रावधान होना चाहिए. भारत द्वारा संचालित ‘शहरी और क्षेत्रीय  विकास योजना निर्माण एवं कार्यान्वयन (यूआरडीपीएफआई) दिशानिर्देशों’ की मौजूदगी के बावजूद, ये मानक न ही समान और न ही राष्ट्रीय स्तर पर अनिवार्य है. राज्य नगर योजना निदेशालय, राज्य यूएलबी के लिए मानक निर्धारण के लिए जवाबदेह है. कभी कभार मुंबई जैसे बड़े शहर अपने खुद के मानक स्वयं तय कर लेते हैं. 

 जहां एक तरफ हम कुशल मास्टर प्लान बनाने की तैयारी कर रहे हैं और बदलते हालातों के कारण इनमें लगातार बदलाव लाने की ज़रूरत पर चर्चा करते हैं, तो वही ज़मीनी सच्चाई यह है कि शहरी प्लानिंग एक बेहद ही खेदजनक स्थिति में है.   

शहर एवं नगर सदा गतिशील हैं और समय-समय पर वे अपना आकार, साइज़ एवं बनावट को बदलते रहते है. वे कई बार विज्ञान, प्रौद्योगिकी, तकनीकी नवाचार या इनोवेशन, डिजिटलीकरण और जिस प्रकार से शहरी दुनिया व्यापारिक लेनदेन करती है उससे  प्रभावित होती है. चूंकि, किसी शहर की प्रमुख विशेषता आर्थिक है, इसके बावजूद, बाहरी दुनिया में होने वाले नित नए परिवर्तनों पर ध्यान नहीं दिए जाने से शहरी योजना में भारी कमी उत्पन्न होगी, जिस वजह से शहरें अपने यहाँ रोजाना उत्पन्न होने वाली ज़रूरतों और बढ़ती अक्षमता, शहरों को अनुत्तरदायी बनने पर विवश कर देगी. इन सारी परिवर्तनों को गम्भीरतापूर्वक लिया जाना चाहिए और उनकी योजनाओं में ये तेज़ गति से नज़र भी आनी चाहिए. हालांकि, जहां एक तरफ हम कुशल मास्टर प्लान बनाने की तैयारी कर रहे हैं और बदलते हालातों के कारण इनमें लगातार बदलाव लाने की ज़रूरत पर चर्चा करते हैं, तो वही ज़मीनी सच्चाई यह है कि शहरी प्लानिंग एक बेहद ही खेदजनक स्थिति में है.   

शहरी नियोजन की वर्तमान स्थिति ये है कि ज़्यादातर शहरों के पास डीपी नहीं है. अपने रिपोर्ट ‘भारत में शहरी योजना की क्षमता सुधार’ में नीति आयोग ने यह पाया कि भारत के शहरी स्थानीय निकाय की कुल 7.933 भाग का 63 प्रतिशत हिस्से के पास डीपी नहीं है और इसलिए उनके पास विकास की चुनौतियों का सफलतापूर्वक निपटारा कर आगे बढ़ने का कोई उचित अथवा ठोस रोडमैप नहीं है. उन शहरी स्थानीय निकायों ने, जिन्होंने ऐसा कुछ तैयार करने की पहल की भी है वे आमतौर पर समयबद्ध सीमा के भीतर उसे तैयार कर पाने में असफल रहे हैं. और बाकी जो कुछ लोगों ने किसी तरह से तैयार कर भी लिया, उनमें किसी भारतीय शहरी के अनुरूप ज़रूरी गुणवत्ता की काफी कमी थी. स्पष्टतः ऐसे कई चीज़ें है जो शहरी योजना गलत है, और बड़े स्तर पर इस बात पर सहमति है कि स्वतंत्र भारत की शहरी योजना संबंधी रणनीतियां, देश के सामाजिक–आर्थिक ज़रूरतों एवं तकनीक़ी नवाचारों संग ज़रूरी तालमेल बिठा कर साथ साथ चल पाने में असमर्थ रहे हैं. परंतु इससे भी बड़ी चिंता की बात ये है कि जो योजना तैयार भी है, वो 20 वर्षों के लंबे समय-सीमा में भी तैयार योजनाओं को काफी हद तक लागू कर पाने में असफल रहे हैं. 

डीपी की तैयारी एवं उसके अमलीकरण की राह में कई कारक बाधा बनकर खड़े हैं. सबसे पहले तो ये है कि यूएलबी के पास आंतरिक स्थानिक योजना क्षमता नहीं है और डीपी को एक साथ रखने और पूरी प्रक्रिया के ज़रिये उनका मार्गदर्शन करने के लिए बाहर से पेशेवर टीम नियुक्त करने की ज़रूरत पड़ेगी. आंतरिक तौर पर इस चुनौती को स्वीकार करने के उद्देश्य से, देश में काफी कम यूएलबी उपलब्ध हैं. ज़्यादातर यूएलबी जो किसी कुशल पेशेवर मास्टर प्लानर की तलाश के लिए जब ज़रूरी ‘बोली’ प्रक्रिया चलाते हैं, उन्हें इस काम के लायक सही एजेंसियों की पहचान कर पाने में दिक्कत आती है. इस प्रक्रिया में ‘बोली’ के कई दौर शामिल होते हैं. इसके अलावा, ये काम काफी महंगा भी होता है और कई यूएलबी को इसकी तैयारी के लिए ज़रूरी संसाधनों को अलग रख पाना मुश्किल होता है.  

इस बात को लेकर कोई दो मत नहीं है कि शहरों के बेहतर स्वास्थ्य एवं कल्याण के लिए मास्टर प्लान का होना मुख्य बिंदु है. हालांकि, जब तक शहरी प्लानिंग को बेहतर और कौशलयुक्त व्यक्तियों एवं धन का प्रोत्साहन नहीं मिलता है, तब तक कुछ भी अलग हो पाने की संभावना कम है.

यूएलबी द्वारा मास्टर प्लान को तैयार करने के बाद, उनके हाथों में एक दस्तावेज़ होता है जो इस वित्तीय पहाड़ की चढ़ाई करता है. चूंकि यह एक स्थानिक व्यवस्था है, स्वाभाविक तौर पर नागरिकों को नगरपालिका द्वारा प्रदत्त समस्त सुविधाओं एवं सेवाओं के लिए काफी बड़ी मात्रा में भूमि का अधिग्रहण करना पड़ेगा. दुर्भाग्यवश, भूमि अधिग्रहण कानून, और भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्वास कानून के तहत दिए जाने वाले उक्त मुआवजे एवं पारदर्शिता के अधिकार 2013 के तहत भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया निषेधात्मक तौर पर काफी महंगी है. यूएलबी को वार्षिक गणना या सर्कल दर का दोगुना शुल्क देने का आदेश दिया गया है. किसी मास्टर प्लान में शामिल अधिग्रहण के स्तर/पैमाने को देखते हुए, देश के भीतर किसी भी यूएलबी को इन सभी ज़मीनों को सीधे तौर पर खरीदने का सपना तक देखने का अधिकार नहीं है. भूमि उपकरणों का इस्तेमाल जो किसी यूएलबी को ज़मीन के स्वामी को एफएसआई (फ्लोर स्पेस इंडेक्स), टीडीआर (ट्रांसफर ऑफ डेवलपमेंट  राइट्स) या आवासीय आरक्षण (एआर) द्वारा होने वाले नुकसान की अनुमति देता है, ये सब एक ऐसी वैकल्पिक व्यवस्था है, जिनका अलग नुकसान है. कई संदर्भों में, भूमि के मालिक पैसों के अलावा, भुगतान के किसी भी अन्य वैकल्पिक माध्यमों को स्वीकार करने को तैयार नहीं होते हैं जिस वजह से वे यूएलबी को न्यायालय तक घसीट लेते हैं. ऐसे मामलों में, मुकदमे बाज़ी कहीं न कहीं ग़ैर-ज़रूरी देरी उत्पन्न करता है और डीपी को लागू करने में देर करती है.   

आगे की राह 

डीपी को लागू करने को लेकर स्वयं यूएलबी द्वारा की जाने वाली लापरवाहियां भी समान रूप से दोषी हैं. वो ज़मीन जो कि नगरपालिका के अधीन है अथवा सरकारी ज़मीन हैं, वहां  तो मात्र सेवा के उपयोग में आने वाले भवन के निर्माण लागत को ही वहन करने की आवश्यकता है. हालांकि, प्रति वर्ष बजट के प्रावधानों के लिए, वैधानिक रूप से DP को एक ज़रूरी दस्तावेज नहीं माना जाता है. इसके बावजूद वार्षिक बजट की तैयारी करने के दौरान, ULB द्वारा डीपी को लागू करने के लिए व उसके अनुसार डीपी के कामों के लिए बजट में उपयुक्त प्रावधान हो इसको लेकर कोई विशेष प्रयास नहीं किये गए हैं. वार्षिक बजट में कोई प्रावधान न किये जाने की सूरत में ज़ाहिर है सेवाएं अविकसित एवं अप्रदत्त रह जाएंगी, जिससे शहरी जीवन की गुणवत्ता प्रभावित एवं दयनीय हो जाएगी.  

इस पृष्ठभूमि के विरुद्ध, जहां उपर लिखे गये कुछ उपायों की वजह से यूएलबी का एक बड़ा प्रतिशत, अपने यहाँ डीपी बनाने को बाध्य हो सकेगा, फिर भी इस बात की आशंका है कि इनके बड़े स्तर पर काग़ज़ों में ही रह जाने की संभावना होगी. ऐसा इसलिये क्योंकि कि इसे लागू करने के लिये यूएलबी पूरी तरह से समर्थ नहीं है. इस बात को लेकर कोई दो मत नहीं है कि शहरों के बेहतर स्वास्थ्य एवं कल्याण के लिए मास्टर प्लान का होना मुख्य बिंदु है. हालांकि, जब तक शहरी प्लानिंग को बेहतर और कौशलयुक्त व्यक्तियों एवं धन का प्रोत्साहन नहीं मिलता है, तब तक कुछ भी अलग हो पाने की संभावना कम है. 

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