Author : Manoj Joshi

Published on Oct 06, 2021 Updated 0 Hours ago

चीन के प्रभाव को रोकने के लिए ऑस्ट्रेलिया ने ऑकस में शामिल होने का फैसला किया, भले ही इस वजह से फ्रांस के नाराज होने का डर था

फ्रांस की अनदेखी कर आख़िर ऑकस में क्यों शामिल हुआ ऑस्ट्रेलिया?

ऑकस में शामिल होने के बाद जो परिस्थितयां बनीं, उन्हें संभालने में ऑस्ट्रेलिया की ओर से गलती हुई. लेकिन उसके पास कोई और रास्ता नहीं था. असल में, इस फैसले को शी जिनपिंग की विदेश नीति की एक और ‘उपलब्धि’ मानना ठीक होगा. तीन देशों के बीच जो नया सैन्य समझौता ऑकस के रूप में हमारे सामने आया है, उसकी मुख्य वजह चीन ही है. यूं तो वह ‘साझी नियति वाले समुदाय’ की बात करता है, लेकिन असल में चीन ने अपनी विदेश नीति में देशों का वर्गीकरण किया हुआ है. इस बात पर उसका काफी ज़ोर भी रहा है. इसके तहत वह अमेरिका के साथ किसी भी बातचीत में बराबरी की आशा रखता है तो भारत, ऑस्ट्रेलिया और जापान को वह दूसरे दर्जे में रखता है. उसे लगता है कि ये देश चीन के बुनियादी हितों की राह में बाधा हैं.

उधर, ऑस्ट्रेलिया ने अपने दम पर मध्यम दर्जे की ताकत बनने की योजना बनाई थी. वह हिंद-प्रशांत क्षेत्र में जापान, भारत और फ्रांस जैसे देशों के साथ रिश्ते मजबूत करने पर काम कर रहा था. ANZUS समझौते के तहत ऑस्ट्रेलिया के अमेरिका और ब्रिटेन के साथ ऐतिहासिक संबंध रहे हैं. वहीं, फाइव पावर डिफेंस एग्रीमेंट (FPDA) के तहत उसके ताल्लुकात ब्रिटेन, मलेशिया, सिंगापुर और न्यूजीलैंड के साथ रहे हैं. इसके साथ यह भी कहना गलत नहीं होगा कि ऑकस के ज़रिये अमेरिका और ब्रिटेन के साथ ऑस्ट्रेलिया के रिश्ते अब कहीं अधिक मज़बूत हो गए हैं. आयात और निर्यात की बात करें तो चीन, ऑस्ट्रेलिया का प्रमुख व्यापारिक साझेदार रहा है. 2019 में उसने चीन को 103 अरब डॉलर का निर्यात किया, जिसमें पार्टनर शेयर 38.67 प्रतिशत था. इसी साल ऑस्ट्रेलिया ने चीन से 57 अरब डॉलर का आयात किया, जिसमें पार्टनर शेयर 25.71 प्रतिशत रहा. निर्यात के लिहाज़ से जापान दूसरा प्रमुख साझेदार है. उसके साथ पार्टनर शेयर सिर्फ 15 प्रतिशत और आयात के मामले में अमेरिका के साथ पार्टनर शेयर 12 प्रतिशत है.

 इसके साथ यह भी कहना गलत नहीं होगा कि ऑकस के ज़रिये अमेरिका और ब्रिटेन के साथ ऑस्ट्रेलिया के रिश्ते अब कहीं अधिक मज़बूत हो गए हैं. आयात और निर्यात की बात करें तो चीन, ऑस्ट्रेलिया का प्रमुख व्यापारिक साझेदार रहा है.

ऑस्ट्रेलिया में चीन के प्रभाव में दिन-दुनी, रात चौगुनी बढ़ोतरी हुई है. चीन ने ऑस्ट्रेलिया में निवेश शुरू किया और इसके साथ बड़ी संख्या में वहां पर्यटक और छात्र भेजने शुरू किए. स्थिति यहां तक आ पहुंची कि ऑस्ट्रेलियाई यूनिवर्सिटी के बजट का बड़ा हिस्सा चीनी संपर्कों पर आश्रित हो गया. इनमें से कई तो चीनी भाषा और संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए कन्फ्यूशियस इंस्टीट्यूट तक खोलने को राजी हो गए. 2018 में ऑस्ट्रेलिया के विक्टोरिया सूबे ने तो बेल्ट और रोड इनीशिएटिव को प्रमोट करने के लिए चीन के नेशनल डिवेलपमेंट और रिफॉर्म कमिशन (NDRC) के साथ सहमति पत्र पर दस्तखत भी किए. एक और खतरनाक बात यह हुई कि चीन से जुड़े कारोबारी समूहों ने ऑस्ट्रेलिया में राजनीतिक दलों को चंदा देना शुरू कर दिया.

इन सबके बीच ऑस्ट्रेलिया की दुविधा बढ़ रही थी, लेकिन चीन को लगा कि वह उस पर दबाव डालकर अपनी मनमानी कर सकेगा. तब ऑस्ट्रेलिया मध्यम दर्जे की ताकतों का साथ हासिल करने में सफल रहा, जिनके पास इस क्षेत्र के लिए अपना एजेंडा था और वे अमेरिका-ब्रिटेन की छाया से बाहर आ रहे थे. अब वह फिर से अमेरिका पर आश्रित हो गया है. 

क्या है पूरा मामला?

1990 के दशक के बाद से ऑस्ट्रेलिया जहां एक और चीन के साथ अपने ताल्लुकात बढ़ा रहा था, वहीं उसने अमेरिका और उसके सहयोगियों के साथ किसी गलतफहमी की आशंका भी नहीं रहने दी थी. इसी वजह से 2008 में वह ओरिजिनल क्वाड से बाहर निकल गया था. चीन की अर्थव्यवस्था तब तेजी से तरक्की कर रही थी और इससे ऑस्ट्रेलियाई व्यापार बढ़ रहा था और वहां की कंपनियों के लिए चीन में निवेश के मौके भी बन रहे थे

2014 तक ऑस्ट्रेलिया चीन के साथ एक बड़ा व्यापारिक समझौता कर चुका था. दोनों देशों के बीच रिश्ते किस मुकाम पर पहुंच गए थे, इसका संकेत शी जिनपिंग के ऑस्ट्रेलियाई संसंद के संयुक्त सत्र को संबोधित करने के रूप में भी सामने आया. 

इसी बीच, दुनिया में 2008 के वित्तीय संकट ने दस्तक दी. तब चीन का रुतबा और बढ़ गया. हालांकि, असली बदलाव शुरू हुआ 2012 में शी चिनफिंग के सत्ता में आने के साथ. दोनों देशों के बीच सबकुछ ठीक चल रहा था. ऑस्ट्रेलिया ने 2012 में एक श्वेत पत्र पेश किया, जिसमें ‘एशियाई सदी’ में देश के लिए ऑस्ट्रेलियाई नजरिया रखा गया था. उसने हिंदी और अन्य एशियाई भाषाओं के साथ मंदारिन की पढ़ाई को बढ़ावा देने की बात कही. इसमें चीन और भारत जैसे देशों के साथ मजबूत रिश्तों का भी जिक्र था. श्वेत पत्र में इस बात का भी जिक्र था कि पिछले दो दशकों में ‘ऑस्ट्रेलिया में चीन का प्रभाव तेजी से बढ़कर अमेरिका की बराबरी तक पहुंच गया है.’

2014 तक ऑस्ट्रेलिया चीन के साथ एक बड़ा व्यापारिक समझौता कर चुका था. दोनों देशों के बीच रिश्ते किस मुकाम पर पहुंच गए थे, इसका संकेत शी जिनपिंग के ऑस्ट्रेलियाई संसंद के संयुक्त सत्र को संबोधित करने के रूप में भी सामने आया. 2015 में ऑस्ट्रेलिया ने डार्विन बंदरगाह एक चीनी कंपनी को 99 साल की लीज़ पर देकर अमेरिकियों को हैरान कर दिया. यह बात इसलिए काफी मायने रखती थी क्योंकि यह बंदरगाह सामरिक महत्व का था. इन सबके बीच चीन का दबदबा बढ़ता जा रहा था. पहले तो उसने दक्षिण चीन सागर पर कृत्रिम द्वीपसमूह और मिलिट्री बेस बनाकर अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश की. ऐसा करते वक्त चीन ने आसियान में शामिल पड़ोसी देशों की आपत्तियों का खयाल तक नहीं किया. ऑस्ट्रेलिया के लिए आसियान एशिया का वह भू-भाग है, जो उसे दूसरे हिस्सों से अलग रखता है. इस भौगोलिक क्षेत्र में हो रहे घटनाक्रमों का उसकी सुरक्षा पर असर हो सकता है.

ऑस्ट्रेलिया और फ्रांस

तब तक ऑस्ट्रेलिया ने खुद को अमेरिकी नुमाइंदे की भूमिका से अलग नजरिये से देखना शुरू कर दिया था. उसे लगा कि वह खुद को अपने बूते मध्यम दर्जे की ताकत रखने वाले स्वतंत्र देश के रूप में स्थापित कर सकता है. इसी वजह से उसने इंडोनेशिया के साथ रक्षा संबंधों को मजबूत करने के साथ अमेरिका-ब्रिटेन के प्रभाव से बाहर फ्रांस, जापान और भारत जैसे देशों के साथ संपर्क बढ़ाने की कोशिश शुरू की. दक्षिण प्रशांत और दक्षिण-पश्चिम हिंद महासागर में फ्रांस और ऑस्ट्रेलिया की समुद्री सीमाएं साथ लगती हैं. 2014 तक दोनों देशों के बीच कई क्षेत्रों में सहयोग स्थापित हो चुका था. वे गोपनीय सूचनाएं साझा कर रहे थे और आपदा राहत के क्षेत्र में भी मिलकर काम कर रहे थे. न्यू कैलेडोनिया और फ्रेंच पॉलिनेशिया के रूप में दुनिया को सबसे बड़े एक्सक्लूसिव इकॉनमिक ज़ोन में से एक मिला.

ऑस्ट्रेलिया के पास यूं तो पनडुब्बियां बनाने का तज़ुर्बा था, लेकिन स्विस डिज़ाइन पर आधारित उसकी कॉलिन क्लास की पनडुब्बियां कामयाब नहीं थीं. वह नई पनडुब्बियां चाहता था. इसके लिए ऑस्ट्रेलिया ने फ्रांस, जर्मनी और जापान के साथ 2010 के दशक के मध्य में बातचीत शुरू की. 

ऑस्ट्रेलिया के पास यूं तो पनडुब्बियां बनाने का तज़ुर्बा था, लेकिन स्विस डिज़ाइन पर आधारित उसकी कॉलिन क्लास की पनडुब्बियां कामयाब नहीं थीं. वह नई पनडुब्बियां चाहता था. इसके लिए ऑस्ट्रेलिया ने फ्रांस, जर्मनी और जापान के साथ 2010 के दशक के मध्य में बातचीत शुरू की. उसने 2016 में जब फ्रांस की पनडुब्बियां खरीदने का फैसला किया तो उसमें हैरानी की कोई बात नहीं थी. हालांकि, इस समझौते से जापान खुश नहीं था. उसका मानना था कि पनडुब्बियों को लेकर ऑस्ट्रेलिया के साथ उसका अनौपचारिक समझौता पहले ही हो चुका था.

इससे हिंद-प्रशांत क्षेत्र में फ्रांस और ऑस्ट्रेलिया जैसी दो मझोली ताकतों की नीतियों में सामंजस्य बढ़ा. जब फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों 2018 में ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर आए तो हिंद-प्रशांत क्षेत्र में फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया और भारत के बीच सामरिक समझौते तक की चर्चा चल रही थी. सितंबर 2020 में तीनों देशों ने विदेश सचिव स्तर की त्रिपक्षीय वार्ता भी शुरू की, जिसे मई 2021 में बढ़ाकर मंत्रिस्तर का किया गया. अब ऑकस को लेकर अगर फ्रांस नाराज है तो इसके लिए ऑस्ट्रेलिया ही दोषी है. उसने पनडुब्बियों को लेकर उसके साथ जो समझौता तोड़ा, उसे ठीक से संभाला नहीं गया. लेकिन इसके साथ यह भी कहना होगा कि जिस आधार पर ऑस्ट्रेलिया ने यह फैसला किया है, उसमें कुछ भी गलत नहीं है.

मजबूरियां

चीन के पश्चिम प्रशांत क्षेत्र में आक्रामक होने से एक चेन रिएक्शन शुरू हुआ. इसका असर क्षेत्रीय और इससे बाहर के देशों पर पड़ा, जिनके हित इस इलाके से जुड़े हुए थे. शुरुआत में अमेरिका ने चीन के जापान और आसियान देशों के साथ कई द्वीपों को लेकर विवाद से खुद को दूर रखा. उसने निष्पक्ष रुख अपनाया. हालांकि, इसके साथ दक्षिण चीन सागर में उसने कई फ्रीडम ऑफ नेविगेशन ऑपरेशंस (FONOPS) यानी जहाज़ों की मुक्त आवाजाही के अभियान चलाए. इसी बीच, 2017 में डोकलाम में भारत का चीन के साथ टकराव हुआ. इस घटना के कारण दोनों देशों के बीच समूची वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तनाव बढ़ गया.

याद रहे कि 2017 के आसियान सम्मेलन के दौरान चार देशों का एक शुरुआती समूह बनाया गया. यह समूह 2004 की सुनामी के कारण पैदा हुई चुनौतियों से निपटने के लिए बनाया गया था. इस समूह में जो देश शामिल थे, उन्होंने दावा किया कि इसकी स्थापना चीन को ध्यान में रखकर नहीं की गई है, जबकि सच्चाई यही थी कि इसे चीन की आक्रामकता का जवाब देने के लिए खड़ा किया गया था. चीन और ऑस्ट्रेलिया के रिश्तों में खटास के संकेत पहले से ही मिल रहे थे और तब इसने संकट का रूप ले लिया, जब ऑस्ट्रेलिया ने 2018 में 5जी नेटवर्क से चीनी कंपनी हुवावे को बाहर कर दिया.

चीन को शायद लगा कि क्वॉड में सबसे कमज़ोर कड़ी ऑस्ट्रेलिया है क्योंकि वह व्यापार के लिए उस पर काफी हद तक आश्रित है. दूसरी तरफ, ऑस्ट्रेलिया के अंदर भी चीन का प्रभाव बढ़ रहा था. ऑस्ट्रेलिया में 6 प्रतिशत लोग चीनी मूल के हैं और वहां चीनी भाषा में मीडिया की भी सशक्त मौजूदगी है. 

चीन को शायद लगा कि क्वॉड में सबसे कमज़ोर कड़ी ऑस्ट्रेलिया है क्योंकि वह व्यापार के लिए उस पर काफी हद तक आश्रित है. दूसरी तरफ, ऑस्ट्रेलिया के अंदर भी चीन का प्रभाव बढ़ रहा था. ऑस्ट्रेलिया में 6 प्रतिशत लोग चीनी मूल के हैं और वहां चीनी भाषा में मीडिया की भी सशक्त मौजूदगी है. चीन ने इस मीडिया का इस्तेमाल ऑस्ट्रेलिया पर हमले के लिए किया. उस दौरान ऐसी खबरें भी आईं कि ऑस्ट्रेलियाई राजनीतिक व्यवस्था को चीनी पैसों के प्रभाव से प्रभावित किया जा रहा है. 2020 तक चीन के देश में प्रभाव बढ़ाने के खिलाफ ऑस्ट्रेलिया का प्रतिरोध तेज होने लगा. कन्फ्यूशियस इंस्टीट्यूट बंद कर दिए गए. विक्टोरिया ने बेल्ट और रोड इनीशिएटिव के लिए चीन के साथ जिस सहमति पत्र पर दस्तख़त किए थे, उसे रद्द कर दिया गया. चीन ने जवाबी कार्रवाई करते हुए ऑस्ट्रेलियाई वाइन और जौ पर आयात शुल्क बढ़ा दिया. इसके साथ उसने ऑस्ट्रेलिया से कोयले, लकड़ी, रेड मीट और कपास के निर्यात पर भी कई बंदिशें लगा दीं. हालांकि, लौह अयस्क को ज्यों का त्यों रहने दिया, जिसका ऑस्ट्रेलिया से चीन को सबसे अधिक निर्यात होता है. चीन के इन आक्रामक तेवरों की वजह भी थी. कोरोना वायरस के फैलने की शुरुआत हुई तो चीन ने स्थिति को संभालने के लिए क्या किया, इसकी जांच के लिए तब एक अंतरराष्ट्रीय मांग उठी. इस मांग का ऑस्ट्रेलिया ने समर्थन किया था, जिससे चीन का गुस्सा भड़क उठा.

इसके बाद ऑस्ट्रेलिया में चीन के साथ संबंधों को लेकर पुनर्विचार शुरू हुआ. भारत और अमेरिकी प्रभाव वाले देशों में एक फर्क है. जहां भारत किसी संकट के दस्तक देने पर हरकत में आता है, वहीं अमेरिकी प्रभाव वाले देश ‘रणनीतिक’ तौर पर सोचते हैं. वे भविष्य को ध्यान में रखकर योजनाएं बनाते हैं. इसलिए ऑस्ट्रेलिया को लगा कि 2012 के श्वेत पत्र में जिस साझेदारी की बात कही गई थी, उसके बजाय भविष्य में चीन का रुख़ उसे लेकर आक्रामक हो सकता है.

दूसरी तरफ, चीन दक्षिण प्रशांत क्षेत्र में कूटनीति तेज कर चुका था और आसियान में भी जगह बना चुका था. 2040 तक ऑस्ट्रेलिया के आसपास के क्षेत्रों में चीन का कूटनीतिक प्रभाव काफी बढ़ चुका होगा. इस रणनीति में वह नौसेना का भी इस्तेमाल करेगा. नौसेना इस इलाके में 6 बड़े एयरक्राफ्ट करियर तैनात कर सकती है. इनमें से एक दक्षिण प्रशांत और एक हिंद महासागर में तैनात किया जा सकता है. उसके पास 16 परमाणु ऊर्जा से संचालित पनडुब्बियां भी होंगी और बड़ी संख्या में दूसरे युद्धपोत भी. ऐसे में जापान, भारत या फ्रांस जैसे मध्यम दर्जे के देशों का मिलकर उसे रोकना संभव नहीं होगा. ऐसी सूरत में सिर्फ़ अमेरिका ही चीन के विरुद्ध एक संतुलन कायम कर सकता है. इसलिए 2010 के दशक में अमेरिका के साथ रिश्तों में फिर से जान डालने के बाद ऑस्ट्रेलिया ने अब उसका दर्जा बढ़ाने का फैसला किया. इसके लिए पहले उसने ब्रिटेन से संपर्क किया. उसने इस साल की शुरुआत में ब्रिटेन से परमाणु पनडुब्बी तकनीक के लिए बातचीत शुरू की. ऑस्ट्रेलिया के लिए यह कोई आसान फैसला नहीं था क्योंकि उसे अपने दम पर मझोली ताकत बनने का इरादा भी छोड़ना पड़ता. पनडुब्बी डील के साथ अब अमेरिका के साथ लंबे वक्त तक वह बंधा रहेगा. उसकी वजह यह है कि इस परियोजना के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करना होगा, जो अमेरिका की निगरानी और कुछ मामलों में उसके नियंत्रण में ही संभव है.

भारत का परमाणु ऊर्जा से संचालित पनडुब्बी प्रोग्राम भी आखिरी दौर में है. अगर उसे जरूरत है तो वैसी तकनीक की, जिसने भारतीय नौसेना और वायुसेना को पीपल्स लिबरेशन आर्मी के मुकाबले में बढ़त हासिल हो सके. 

एक और बड़ा मुद्दा परमाणु पनडुब्बी डील है. अमेरिका के रुख़ को देखते हुए ऑस्ट्रेलिया यह बात समझ चुका है कि जब तक वह अपनी रक्षा तैयारियों को मजबूत करने का संकेत नहीं देता, अमेरिका में उसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाएगा. अमेरिका के लिए अब ऐसी किसी साझेदारी में उसकी लागत का महत्व बढ़ गया है. जापान ने यह बात काफी पहले समझ ली थी और न सिर्फ़ उसने रक्षा बजट बढ़ाना शुरू किया बल्कि वह सम्मिलत रक्षा खर्च का बोझ उठाने को भी तैयार हो गया. इसके साथ, जैसा कि 2013 की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति से संकेत मिलता है, उसने भारत, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और आसियान में शामिल देशों के साथ रिश्तों को मजबूत बनाने की भी पहल शुरू की. 

भारत के लिए सबक

वैश्विक स्तर पर एक मझोली ताकत के रूप में चीन के साथ भारत खुद कई मुश्किलात का सामना कर रहा है. उसने भी पश्चिम प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका के साथ चलने की रणनीति अपनाई है. हालांकि, ऑस्ट्रेलिया के उलट भारत के पास अपने परमाणु हथियार हैं. एक बड़ी सेना भी है. इसलिए भारत अपने दम पर चीन से मुकाबला करने का हौसला रखता है. भारत का परमाणु ऊर्जा से संचालित पनडुब्बी प्रोग्राम भी आखिरी दौर में है. अगर उसे जरूरत है तो वैसी तकनीक की, जिसने भारतीय नौसेना और वायुसेना को पीपल्स लिबरेशन आर्मी के मुकाबले में बढ़त हासिल हो सके. भारत, अमेरिका के साथ औपचारिक सैन्य समझौता जरूरी नहीं समझता या उसे यह मुनासिब नहीं लगता. उसकी वजह यह है कि ईरान और पाकिस्तान को लेकर दोनों देशों का नजरिया अलग है. भारत के लिए क्वाड सही विकल्प है. इस समूह का आधार असैन्य नीतियों को बनाने का इधर सुझाव दिया गया है.

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