जब से चीन ने परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) में भारत की सदस्यता की राह में अड़ंगे लगाना शुरू किया है तभी से भारत में चीनी वस्तुओं का बहिष्कार करने की मांग नियमित रूप से जोर पकड़ती जा रही है। एक रोचक बात यह है कि इस तरह की अनगिनत अपीलें चीन निर्मित फोन का ही इस्तेमाल करते हुए सोशल मीडिया पर की जा रही हैं, जो वैश्वीकृत दुनिया के आपस में जुड़े होने का एक अच्छा उदाहरण है। भारत भले ही ‘दुनिया का औषधालय’ हो, लेकिन जिन दवाओं के लिए भारत मशहूर है उन्हें बनाने में इस्तेमाल की जाने वाली थोक दवाओं का एक बड़ा हिस्सा चीन से ही आता है। जैसा कि ग्राफ 1 से पता चलता है, चीन से थोक दवाओं का आयात वर्ष 2000 में लगभग 23 प्रतिशत का हुआ था जो वर्ष 2007 में 59 प्रतिशत के शिखर पर पहुंच गया था और फिलहाल यह 52 प्रतिशत के स्तर पर टिका हुआ है। यही नहीं, कुछ विशेष प्रकार की बल्क ड्रग्स में तो चीन से आयात का अनुपात इससे भी कहीं अधिक है। दोनों देशों के बीच तनावपूर्ण रिश्ते को देखते हुए अतीत में इस असाधारण निर्भरता की ओर नीति निर्माताओं का ध्यान गया है। ऐसे में चीन से थोक दवाओं के आयात में कमी करना सरकार के भीतर और मीडिया में होने वाली नीतिगत चर्चाओं के केंद्र में रहा है।
हालांकि, इन चिर-परिचित आंकड़ों का उल्लेख करते वक्त अक्सर भारत के फार्मास्यूटिकल क्षेत्र की ताकत को नजरअंदाज कर दिया जाता है। इससे भी अहम बात यह है कि भारत भी थोक दवाओं का प्रमुख निर्यातक है। ग्राफ 2 से पता चलता है कि वर्ष 2000 और 2016 के बीच भारत से थोक दवाओं के निर्यात में कई गुना वृद्धि हुई है। अपने समस्त कच्चे माल की आवश्यकताओं के लिए चीन पर निर्भर भारत दरअसल दवाओं का कोई असहाय निर्माता नहीं है, बल्कि हमारा देश वास्तव में खुद भी थोक दवाओं एक बड़ा निर्यातक है। दरअसल, नवीनतम आंकड़ों से पता चलता है कि थोक दवाओं के मामले में भारत की भुगतान संतुलन संबंधी स्थिति अनुकूल है। दूसरे शब्दों में, भारत थोक दवाओं(बल्क ड्रग्स) के आयात के मुकाबले इसका कहीं ज्यादा निर्यात करता रहा है। यह अंतर वर्ष 2016 में 247,647, 000 अमेरिकी डॉलर का रहा है। वर्ष 2000 और 2016 के बीच के 17 वर्षों में से नौ साल ऐसे रहे हैं जिस दौरान भारत ने आयात के मुकाबले बल्क ड्रग्स का कहीं अधिक निर्यात किया है। मुख्यतः बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा बल्क ड्रग्स के उत्पादन की आउटसोर्सिंग किए जाने से ही ऐसा संभव हो पाया है।
भारत का दवा उद्योग
पिछले तीन दशकों में भारत ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है। हालांकि, समग्र रूप से यह स्तर अब भी कम है। तुलनात्मक रूप से दवा की कीमतें अत्यंत कम रहना ही वह प्रमुख कारक (फैक्टर) है जिससे भारत स्वास्थ्य क्षेत्र में मामूली सार्वजनिक खर्च के बावजूद अपनी आबादी के स्वास्थ्य की स्थिति में बेहतरी सुनिश्चित करने में समर्थ हो पाया है। अनुसंधान से पता चलता है कि देश की आजादी के समय भारतीय फार्मास्युटिकल उद्योग का उत्पादन स्तर कम था, आयात पर भारी निर्भरता थी, विदेशी कंपनियों ने अपना वर्चस्व स्थापित कर रखा था और दवाओं की कीमतें ऊंची थीं। आज भारत के दवा उद्योग को भी दुनिया के सबसे बड़े फार्मास्युटिकल उद्योगों में शुमार किया जाता है। भारत मात्रा के लिहाज से दवाओं का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक और मूल्य के लिहाज से दवाओं का 14वां सबसे बड़ा उत्पादक है। भारतीय फार्मास्युटिकल उद्योग की शानदार प्रगति, जो ग्राफ 3 में दर्शाई गई निर्यात वृद्धि में परिलक्षित होती है, विभिन्न स्तरों पर बड़े ध्यान से उठाए गए नीतिगत कदमों से ही संभव हो पाई है। भारत से फार्मास्युटिकल उत्पादों का जो कुल निर्यात होता है, अकेले उसका वर्तमान मूल्य बल्क ड्रग्स के कुल आयात मूल्य का लगभग छह गुना है। कुल मिलाकर वर्तमान में ज्यादातर निर्यात फॉर्मूलेशंस का होता है, जबकि अधिकतर आयात बल्क ड्रग्स का होता है।
अग्रणी फार्मास्यूटिकल बाजार संयुक्त राज्य अमेरिका को फॉर्मूलेशंस के निर्यात के मामले में भारत मात्रा के लिहाज से शीर्ष व्यापार साझेदार और मूल्य के लिहाज से चौथा सबसे बड़ा व्यापार साझेदार है। वहीं, दूसरी तरफ चीन मात्रा के लिहाज से सातवां सबसे बड़ा व्यापार साझेदार और मूल्य के लिहाज से 18वां सबसे बड़ा व्यापार साझेदार है। संयुक्त राज्य अमेरिका के बाहर यूएसएफडीए अनुमोदित सर्वाधिक संयंत्र भारत में ही हैं। वर्ष 2016 में पूरे विश्व में यूएसएफडीए अनुमोदित समस्त संयंत्रों में से 22 प्रतिशत संयंत्र भारत में ही थे। वहीं, दूसरी ओर चीन में यूएसएफडीए अनुमोदित संयंत्रों की संख्या केवल आधी ही है।
यूएसएफडीए अनुमोदित संयंत्रों की ऊंची संख्या को देखते हुए विदेशी कंपनियां अपने उत्पादन को भारत को आउटसोर्स कर देती हैं ताकि वे अपनी लागत को नियंत्रण में रख सकें। वैश्विक वैक्सीन उत्पादन का 60 प्रतिशत, यूनिसेफ की वार्षिक आपूर्ति का 30 प्रतिशत, एआरवी ड्रग्स की वैश्विक आपूर्ति का 60 प्रतिशत और संयुक्त राष्ट्र द्वारा वैक्सीन की वार्षिक खरीद का 80 प्रतिशत तक भारत ही पूरा करता है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार सांख्यिकी वार्षिक पुस्तिका 2016 के मुताबिक, वर्ष 2014 और वर्ष 2016 के बीच मूल्य के लिहाज से भारत की शीर्ष 10 निर्यात वस्तुओं में दवाएं चौथे नंबर पर रहीं।
भारत की दवा नीति में चीन का स्थान
इस तथ्य पर अक्सर चर्चा नहीं की जाती है कि चीन के आक्रामक रुख के चलते दवाओं की कीमतों को पहली बार भारत में ही वैधानिक नियंत्रण के दायरे में लाया गया। यह कदम वर्ष 1962 में चीन के साथ भारत के युद्ध के मद्देनजर उठाया गया था। जहां तक बल्क ड्रग्स का सवाल है, अकेले मंडराते युद्ध को ही जोखिम वाले कारक के रूप में नहीं देखा जा रहा है क्योंकि कई चीजें गलत दिशा में जा सकती हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि वर्ष 2008 में बीजिंग ओलंपिक के दौरान चीन ने पर्यावरणीय प्रदूषण को नियंत्रण में रखने के लिए कई बल्क ड्रग्स उत्पादन इकाइयों को बंद कर दिया था जिसके चलते भारत में कीमतें लगभग 20 प्रतिशत बढ़ गई थीं।
ऐसी भारतीय कंपनियां जो अपनी ज्यादातर आयात आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए महज एक देश पर निर्भर हैं उन्हें इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं होना चाहिए कि भारत में भी बल्क ड्रग्स का तेजी से फलता-फूलता विनिर्माण उद्योग है। सिप्ला ने काफी पहले वर्ष 1960 में प्रथम भारतीय बल्क ड्रग तैयार की थी। जैसा कि ग्राफ 4 से पता चलता है कि भारतीय कंपनियों को भी लागत के लिहाज से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सर्वाधिक प्रतिस्पर्धी कंपनियों में शुमार किया जाता है। चीनी संयंत्रों की इकाई रूपांतरण लागत 60 प्रतिशत है जो भारतीय संयंत्रों की तुलना में अधिक है।
हालांकि, कुछ कमोडिटीकृत बल्क ड्रग्स के मामले में बड़े पैमाने पर उत्पादन और अच्छी-खासी सरकारी सहायता की बदौलत चीनी कंपनियों ने कीमतों की दृष्टि से अपनी अगुवाई सुनिश्चित कर ली। भारत में व्यापार के उदारीकरण के परिणामस्वरूप, जिसके तहत औद्योगिक लाइसेंस को समाप्त कर दिया गया, आयात पर से पाबंदियां हटा दी गईं और बल्क ड्रग्स के स्थानीय उत्पादन की अनिवार्यता समाप्त कर दी गई, भारत में कंपनियां स्वाभाविक रूप से बल्क ड्रग्स का उत्पादन करने से पीछे हट गईं क्योंकि इसके लिए थोड़ा-बहुत नवाचार की आवश्यकता होती थी और मुनाफा मार्जिन बेहद कम होता था। बिजली की लागत एवं श्रम लागत कम बैठने के साथ-साथ सरकार से सब्सिडी (कर अवकाश और कम ब्याज वाले ऋण) मिलने और बेहतर तकनीक की बदौलत चीनी कंपनियां अपने किफायती उत्पादों के मद्देनजर स्वाभाविक पसंद थीं। बल्क ड्रग्स की अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किसी दिग्गज देश पर एक असहाय उत्पादक के रूप में अत्यधिक निर्भर रहने के बजाय भारतीय कंपनियों को संभवत: एक ऐसी चुस्त औद्योगिक ताकत के रूप में सामने आना चाहिए जो फिलहाल उपलब्ध कम लागत से अधिकतम लाभ उठाने के लिए प्रयासरत है।
किफायती चीनी बल्क ड्रग्स की उपलब्धता उन भारतीय कंपनियों के काफी काम आई जो एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में ‘कम मात्रा-उच्च कीमत’ वाले अपने परंपरागत बाजारों को बनाए रखते हुए ‘कम मात्रा-उच्च कीमत’ वाले विनियमित बाजारों में स्थानांतरित करने के अवसर तलाश रही थीं। कम मार्जिन वाली बल्क ड्रग्स के निर्माण से पीछे हट जाना ऐसे समय में सर्वाधिक समझदारी भरा कदम था, जब एक मजबूत सरकार मौद्रिक प्रोत्साहनों और सब्सिडी के जरिए उसके प्रतिद्वंद्वियों की भरपूर सहायता कर रही थी।
बल्क ड्रग्स के क्षेत्र में चीन की व्यापक सब्सिडी वाली व्यवस्था का माकूल भारतीय जवाब यह नहीं है कि ठीक इसी तरह की व्यवस्था भारत में भी कायम कर दी जाए। इसके अलावा, फार्मास्युटिकल उद्योग को उपलब्ध अत्यंत किफायती कच्चे माल को एक सिरे से नकार देने और महंगे विकल्पों जैसे कि अनिवार्य स्थानीय उत्पादन को अपनाने से विश्व स्तर पर भारत की प्रतिस्पर्धी क्षमता प्रभावित हो सकती है, दवाओं की घरेलू कीमतें बढ़ सकती हैं और ऐसे में इन तक लोगों की पहुंच प्रभावित हो सकती है। दूसरे शब्दों में, प्रतिस्पर्धी क्षमता के वर्तमान स्तर को प्रभावित करने वाली इस तरह की किसी भी ऐसी नीति से अवसर गंवाने के रूप में भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।
वर्तमान स्थिति: संकट या क्रमिक विकास?
जोखिमों में विविधीकरण एक महत्वपूर्ण नीतिगत उद्देश्य है। हालांकि, फार्मास्यूटिकल क्षेत्र के भीतर बदलाव के एक हिस्से को स्वयं भारतीय उद्योग के स्वाभाविक क्रमिक विकास के रूप में देखा जाना चाहिए। भारत में फार्मास्यूटिकल उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा विकसित देशों में स्थित बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा बल्क ड्रग्स के उत्पादन की आउटसोर्सिंग करने की बदौलत ही संभव हो पा रहा है क्योंकि यह एक कम मार्जिन वाला व्यवसाय है और इसके तहत पर्यावरणीय नियंत्रणों में भारी-भरकम निवेश करने की आवश्यकता पड़ती है। यहां पर यह तर्क दिया जा सकता है कि भारतीय फार्मास्यूटिकल उद्योग ठीक इसी तरह से इन विकसित देशों की नकल कर रहा है और उच्च मूल्य वाली ‘विशेष’ बल्क ड्रग्स और फॉर्मूलेशंस पर अधिक फोकस करने के उद्देश्य से कम मूल्य वाली बल्क ड्रग्स के उत्पादन को चीन में स्थानांतरित कर रहा है।
उद्योग ने यह बात मान ली है कि चीन पर निर्भरता का मुख्य कारण कोई और नहीं, बल्कि लागत संबंधी फायदा ही है क्योंकि चीनी बल्क ड्रग्स भारतीय उत्पादों की तुलना में लगभग 50 से 60 प्रतिशत सस्ती बैठती हैं। दरअसल, यदि मार्जिन इतना ज्यादा है तो ऐसे में बल्क ड्रग्स का घरेलू उत्पादन आर्थिक दृष्टि से कतई फायदेमंद नहीं है। उद्योग की रिपोर्टों से यह संकेत मिलता है कि जहां एक ओर उत्पादन के लिहाज से कठिन मानी जाने वाली बल्क ड्रग्स के आपूर्तिकर्ता मोल-भाव करने में काफी सक्षम होते हैं, वहीं कमोडिटीकृत एवं कम मार्जिन वाली बल्क दवाओं के उत्पादक मोल-भाव करने में इस हद तक सक्षम नहीं होते हैं। ज्यादा शुद्ध लागत पर समान उत्पाद का उत्पादन करने में संसाधनों को बर्बाद करने के बजाय किसी भी निर्यातोन्मुख उद्योग द्वारा फॉर्मूलेशंस का उत्पादन करके तुलनात्मक लाभ हासिल करना निश्चित रूप से उचित है।
सीमा पर शांति की नाजुक स्थिति को देखते हुए बल्क ड्रग्स आपूर्ति के एक बड़े हिस्से के लिए चीन पर निर्भरता कम करना आगे चलकर आवश्यक प्रतीत हो सकता है, लेकिन सरकार की ओर से प्राप्त भारी-भरकम सहायता एवं सब्सिडी का उपयोग करके एक जवाबी रणनीति के रूप में आयात का प्रतिस्थापन करने पर अवश्य ही पुनर्विचार किया जाना चाहिए। चीन और भारत द्वारा अपने-अपने बल्क ड्रग्स उत्पादकों को गैर-बाजार लाभ देने के लिए आपस में होड़ करते हुए प्रतिस्पर्धी प्रावधान करना आत्मघाती साबित होगा।
भारतीय फार्मास्यूटिकल्स क्षेत्र दरअसल खुले दिमाग वाला निर्यातोन्मुख उद्योग है जिसे वैश्विक बाजार की चुनौतियों का सामना करना चाहिए। चूंकि चीन को मुख्यत: लागत के मामले में ही बढ़त हासिल है, इसलिए अपेक्षाकृत कम समय में भारत में या अन्य जगहों पर बल्क ड्रग्स का उत्पादन आधार विकसित करना भारत के लिए कोई बड़ी चुनौती नहीं है जैसा कि अक्सर बताया जाता है। हालांकि, ऐसा तभी करना चाहिए जब लागत चिंता का विषय नहीं हो। विशेष रूप से, प्रमुख भारतीय जेनेरिक कंपनियां अब भी अपने प्रमुख उत्पादों के लिए अपने यहां ही बल्क ड्रग्स का उत्पादन करती हैं और उन्होंने केवल कमोडिटीकृत बल्क ड्रग्स ही चीन को आउटसोर्स की हैं। इसके अलावा, जिस तरह से चीन भारत में बल्क ड्रग्स का एक प्रमुख विक्रेता है, ठीक उसी तरह से भारत चीनी उत्पादों का भी एक बड़ा बाजार है। अत: ऐसे में कोई भी एकतरफा कार्रवाई दोनों ही व्यापार भागीदारों पर बहुत भारी पड़ेगी।
संयुक्त राष्ट्र की अंतर्राष्ट्रीय व्यापार सांख्यिकी वार्षिक पुस्तिका (2017) के अनुसार, वर्ष 2016 में चीन वाणिज्यिक आयात के लिए भारत का शीर्ष साझेदार था और भारत के कुल आयात में उसका योगदान 14.9 प्रतिशत था। सिर्फ 6 प्रतिशत के योगदान के साथ भारत का अगला सबसे बड़ा साझेदार सऊदी अरब था। इस आलेख की शुरुआत में दिए गए टेलीफोन के उदाहरण पर फिर से गौर करते हें। भारत में काफी तेजी से फैल रही सूचना क्रांति और डिजिटल समावेश पहल की बदौलत महज लगभग दो दशकों में ही मोबाइल फोन के आयात में चीन की हिस्सेदारी 8 प्रतिशत से ऊंची छलांग लगाकर 71 प्रतिशत के अत्यंत उच्च स्तर पर पहुंच गई है। क्या इस बारे में कोई शिकायत दर्ज करा रहा है?
बेशक चीन के साथ मौजूदा संबंधों में आत्मसंतुष्टि की कोई गुंजाइश नहीं है, लेकिन चीनी वस्तुओं का एक बड़ा बाजार होने के नाते इस नजरिए को भारत द्वारा अपने फायदे के लिए चीन का इस्तेमाल करने में आड़े नहीं आना चाहिए।
आगे की राह
हैदराबाद में आयोजित क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) से जुड़ी वार्ताओं के दौरान दवाओं तक लोगों की पहुंच पर ध्यान केंद्रित किया गया। भारत में बल्क ड्रग्स के उत्पादन का एक प्रमुख केंद्र हैदराबाद दवा संबंधी प्रदूषण और सुपरबग के उत्पन्न होने से जुड़ी गलत सूचनाओं के कारण भी चर्चाओं में था। उद्योगों द्वारा फॉर्मूलेशंस के उत्पादन में तुलनात्मक बढ़त देने की मांग करने के अलावा भारत में बल्क ड्रग्स के उत्पादन में गिरावट भी पर्यावरणीय कानून को लागू किए जाने और वर्ष 2005 के बाद सरकार द्वारा किए गए ठोस प्रयासों का एक सीधा नतीजा था, जिनके तहत अच्छी विनिर्माण प्रथाओं (जीएमपी) का बेहतर अनुपालन सुनिश्चित करने पर विशेष जोर दिया गया। इससे छोटे और मध्यम आकार की कई कंपनियां प्रभावित हुईं।
वर्ष 2015 में बल्क ड्रग्स पर कटोच समिति की रिपोर्ट में यह स्वीकार किया गया था कि बल्क ड्रग्स विनिर्माण उद्योग भी देश के सबसे प्रदूषणकारी उद्योगों में से एक है। इसके अलावा, अध्ययनों से पता चला है कि भारत में छोटे और मध्यम उद्यमों (एसएमई) को जीएमपी अनुरूप बनाने के लिए प्रति एसएमई फर्म कम से कम ₹ 2 मिलियन की लागत आएगी, जो इस तरह की ज्यादातर कंपनियों के लिए एक बाध्यकारी अवरोध है। ‘मेक इन इंडिया’ पहल को बढ़ावा देने के प्रयासों के तहत 2015 को बल्क ड्रग्स वर्ष घोषित किया गया और कटोच समिति ने उसी वर्ष व्यापक किफायत से लाभ उठाने के विकल्प के रूप में मेगा बल्क ड्रग पार्क बनाने का सुझाव दिया। हालांकि, वित्तीय सहायता के अभाव में इस पहल का आगाज नहीं हो पाया।
इस तरह की चुनौतियों से निपटने के लिए भारतीय बल्क ड्रग निर्माताओं की ओर से जो प्रतिक्रियाएं आई हैं उनके बारे में पहले से ही पता था। उदाहरण के लिए, चीनी वस्तुओं पर आयात शुल्क बढ़ाने एवं प्रदूषण के मामले में और ज्यादा लचीला रुख अपनाने का अनुरोध किया गया है, जो निश्चित तौर पर स्थायी समाधान नहीं हैं। इस दिशा में संभवतः यह किया जा सकता है कि वैश्विक व्यापार व्यवस्था के दायरे में रहते हुए अनुकूल कदम उठाए जाएं और आयात शुल्कों में इस तरह से तालमेल बैठाया जाए कि भारतीय निर्माता अत्यधिक सब्सिडी वाले चीनी उत्पाद से लाभ उठा सकें और इसके साथ ही आयात से हासिल सरकारी राजस्व से घरेलू विनिर्माण सहित दीर्घकालिक जोखिम विविधीकरण रणनीति के लिए आवश्यक सहायता प्रदान की जाए।
इस दिशा में ठीक से सोचे-समझे बगैर कोई भी कदम उठाना सही साबित नहीं होगा और ‘प्रतीक्षा करो एवं देखो’ का रुख अपनाना ही उचित रहेगा। दिलचस्प बात यह है कि चीन में भी बल्क ड्रग विनिर्माण उद्योग अपने भारतीय समकक्ष की ही तरह समान बदलाव के दौर से गुजर रहा है, जिसके तहत कम मुनाफा मार्जिन वाली कमोडिटीकृत बल्क ड्रग्स से दूरी बढ़ाई जा रही है। डब्ल्यूएचओ के एक हालिया अध्ययन में कहा गया है कि नई पर्यावरणीय और नियामकीय पाबंदियों को ध्यान में रखते हुए अब कई चीनी बल्क ड्रग निर्माता खुद भी अपनी उत्पादन इकाइयों को चीन से बाहर स्थानांतरित करने पर विचार कर रहे हैं।
इस जटिल स्थिति को देखते हुए अब भारत को भी देश में विनिर्माण को प्रोत्साहन देने के साथ-साथ अन्य विकल्प भी सक्रियता के साथ तलाशने चाहिए। एक क्षेत्रीय अग्रणी देश (लीडर) के रूप में भारत की भूमिका और अफ्रीका के साथ तेजी से प्रगाढ़ होते दवा व्यापार एवं मैत्रीपूर्ण संबंधों को ध्यान में रखकर बल्क ड्रग आपूर्तिकर्ताओं के भौगोलिक दायरे को बढ़ाते हुए ‘चीन जोखिम’ में विविधता लाई जानी चाहिए, जिसमें एशिया और अफ्रीका के अन्य देशों को उत्पादन क्षमता विकसित करने के लिए आवश्यक सहायता देना भी शामिल हो। तब तक, चीन को यदि भारत के साथ-साथ विश्व भर के बाजारों को अपनी सब्सिडी वाली दवाओं से पाटने की अनुमति दे दी जाती है तो भी वह संभवत: बुरा आइडिया नहीं है।
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