Published on Oct 07, 2021 Updated 0 Hours ago

लगता है कि श्रीलंकाई नेतृत्व  बिना तथ्य और विवरण के, जैसा कि मानवाधिकार उच्चायुक्त के कार्यालय द्वारा सूचित है, सिर्फ 'मूल सिद्धांतों' पर पश्चिम का आमना - सामना करना चाहता है.

UNHRC में चीन के रिकॉर्ड को लेकर श्रीलंका का बचाव किस ओर इशारा करता है?

कम चर्चित लेकिन बेहद महत्वपूर्ण घटनाक्रम के तहत संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार परिषद(यूएनएचआरसी) में, जिसका सम्मेलन फिलहाल जारी है,  श्रीलंका ने चीन, वेनेजुएला और निकारागुआ का बचाव किया. ऐसा उस वक़्त हुआ है जबकि परिषद ने ख़ासतौर पर और लगातार इस बात को स्पष्ट किया है कि श्रीलंका अपने में बदलाव लाए या फिर समझाए कि अधिकारों को लेकर श्रीलंका के ऐसे बर्ताव को आदत मान लिया जाए, खासकर तब जबकि मई 2009 से एलटीटीई के साथ जंग ख़त्म हो चुकी थी.

जेनेवा में परिषद की 48 वें सम्मेलन में बहस के दौरान श्रीलंकाई प्रतिनिधि ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद और मानवाधिकार उच्चायुक्त का कार्यालय (ओएचसीएचआर) संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) के 60/251 और 48/141 प्रस्तावों में निर्धारित जनादेश का उल्लंघन नहीं करे, क्योंकि इसी संगठन ने इसकी बुनियाद रखी है. यह तब सामने आया जबकि उच्चायुक्त  मिशेल बैचलेट ने सत्र की शुरुआत में अपने ‘मौखिक बयान ‘ के जरिए श्रीलंका को साफ संकेत दे दिया था.

श्रीलंका ने अपने बयान में कहा कि “हम ऐसा मानते हैं कि संयुक्त राष्ट्र महासभा ने कभी भी किसी देश या फिर यूएनएचआरसी या ओएचसीएचआर को न्यायिक प्रक्रिया के लिए ज़रूरी आपराधिक सबूतों को जुटाने जैसे कार्य के लिए अधिकृत नहीं किया है”. 

श्रीलंका ने अपने बयान में कहा कि “हम ऐसा मानते हैं कि संयुक्त राष्ट्र महासभा ने कभी भी किसी देश या फिर यूएनएचआरसी या ओएचसीएचआर को न्यायिक प्रक्रिया के लिए ज़रूरी आपराधिक सबूतों को जुटाने जैसे कार्य के लिए अधिकृत नहीं किया है”. इसने रेखांकित किया कि संप्रभु राष्ट्रों के घरेलू मामलों में गैर हस्तक्षेप की नीति इस अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को स्थापित करने का बुनियादी आधार है.

इसी तरह श्रीलंका ने कहा कि जिनजिंयाग और हॉन्ग कॉन्ग में बाहरी ताकतें हस्तक्षेप करने की कोशिश ना करे क्योंकि यह दोनों क्षेत्र चीनी गणराज्य (पीआरसी) का हिस्सा हैं. इसी तरह इस बयान में रेखांकित किया गया कि वेनेजुएला के ख़िलाफ़ लगाए गए एकपक्षीय दबाव बनाने वाले कदमों के चलते वेनेजुएला में मौत, दर्द और दुश्वारियों का लोगों को सामना करना पड़ रहा है. बयान में कहा गया कि “हम इस बात की घोर निंदा करते हैं कि देश के बाहर वेनेजुएला की संपत्ति को फ्रीज़ करने की वजह से कोरोना महामारी के दौरान भी ज़रूरी खाद्य पदार्थों और दवाईयों की सप्लाई को रोक दिया गया. हम वेनेजुएला पर लगाए गए ऐसे सभी प्रतिबंधों को हटाने की मांग करते हैं”.

 एक तरीके से श्रीलंका की मौजूदा स्थिति वैसी ही है जैसे कि विदेश मंत्री दिनेश गुनावर्धने ने फरवरी 2020 में 40/1 प्रस्तावों से देश के अलग होने को लेकर ऐलान किया था, जिसे पूर्व की सरकार (2015-19) ने समर्थन दिया था

श्रीलंका इस विचार का समर्थन करता है कि किसी देश में मानवाधिकारों की सुरक्षा और उसे बढ़ावा देने के लिए संबंधित देश से सहमति लेना आवश्यक है. इस संदर्भ में कोलंबो ने परिषद से अपील की कि लगातार कई वर्षों से निकारागुआ द्वारा मानवाधिकारों के सम्मान और उसे बढ़ावा देने के लिए जो कार्रवाई की गई है उसे मान्यता दी जानी चाहिए, इतना ही नहीं निकारागुआ सरकार से सकारात्मक संवाद स्थापित करने की भी कोशिश की जानी चाहिए.

पहुंच का विस्तार

जेनेवा में दिए गए अलग-अलग बयानों से इतर श्रीलंका ने साथ ही साथ ‘यूएनएचआरसी संवाद’ के राजनीतिक विस्तार को दूसरे अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर आगे बढ़ाना शुरू कर दिया है, यहां तक कि उन मंचों पर भी जो संयुक्त राष्ट्र व्यवस्था से नहीं जुड़े हैं. कॉमनवेल्थ महासचिव, पैट्रिसिया स्कॉटलैंड के साथ वर्चुअल मीटिंग में विदेश मंत्री जी एल पेइरिस ने दोबारा इस बात को कहा कि ओएचसीएचआर द्वारा अपनाए गए ‘तदर्थ प्रक्रिया’  जिसे ओएचसीएचआर नस्लीय शांति के नाम पर स्थानीय संस्थाओं को विदेश संस्थाओं द्वारा बदल दिया जाता है, उसे अमल में लाती है, जो पूरी तरह से संयुक्त राष्ट्र चार्टर के विरुद्ध है.

प्रोफेसर पेइरिस ने याद दिलाया कि श्रीलंका राष्ट्रमंडल संगठन का शुरूआती सदस्य था, और श्रीलंका ब्रिटेन के पूर्व उपनिवेशों के संगठन से जुड़े राष्ट्रों के साथ संवाद और बहुआयामी क्षेत्रों में जुड़ाव के लिए प्रतिबद्ध है. उन्होंने विस्तार से सुलह के लिए स्थानीय संस्थाओं द्वारा किए गए प्रयासों के बारे में बताया और कहा कि यह सतत चलने वाली प्रक्रिया है जहां संबंधित देश को पर्याप्त स्थान और समय चाहिए जिससे कि स्थानीय संस्थाएं अपने मिशन को अंजाम दे सकें.

एक सामान्य सवाल यह पैदा होता है कि कॉमनवेल्थ में मुद्दों को उठाकर, श्रीलंका घरेलू स्तर पर ब्रिटेन के रास्ते में रुकावट खड़ा करना चाहता है

उच्चायुक्त बैचलेट की टिप्पणियों से पहले विदेश मंत्री पेइरिस ने संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्थापित ‘किसी भी तरह के ‘बाहरी हस्तक्षेप’ को नकार दिया और दावा किया कि इससे उनके समाज में ध्रुवीकरण को बढ़ावा मिलेगा. पूर्व के राजपक्षे सरकार की नीतियों से समानता स्थापित करती हुई इस व्यवस्था को लेकर पेइरिस ने आगे कहा कि घरेलू प्रक्रियाएं अब आक्रामक रूप से ज़िम्मेदारी के सवाल के साथ-साथ गृह युद्ध के दिनों से न्याय के लंबित मामलों  को उठाती हैं.

मौजूदा 48 वें सत्र के उद्घाटन के दौरान अपने मौखिक बयान में उच्चायुक्त बैचलेट ने अपने नकारात्मक टिप्पणियों के इतर यूएनएचआरसी अध्यक्ष, श्रीलंका, श्रीलंका की सुरक्षा, चीन का बचाव,  वेनेजुएला, निकारागुआ, एलटीटीई, ओएचसीएचआर, मानवाधिकार के लिए उच्चायुक्त के दफ्तर, संयुक्त राष्ट्र महासभा, यूएनजीए, पीपुल्स रिपब्लिक चीन, पीआरसी, कोरोना महामारी, निकारागुआ, राजपक्षे को संदर्भित किया. जून में गोटाबाया राजपक्षे के बयान कि उनकी सरकार ‘जिम्मेदारी को सुनिश्चित करने के लिए उनकी सरकार संयुक्त राष्ट्र के साथ काम करने के लिए प्रतिबद्ध है’. सरकार द्वारा दो सप्ताह में तीन बार अपने स्टैंड के बारे में सफाई प्रस्तुत करने पर बैचलेट जैसे लोगों के बयान को लेकर आगे किसी भी तरह की कयासबाजी से रोकता है.

एक तरीके से श्रीलंका की मौजूदा स्थिति वैसी ही है जैसे कि विदेश मंत्री दिनेश गुनावर्धने ने फरवरी 2020 में 40/1 प्रस्तावों से देश के अलग होने को लेकर ऐलान किया था, जिसे पूर्व की सरकार (2015-19) ने समर्थन दिया था. लेकिन संयुक्त राष्ट्र अधिकार प्रमुख श्रीलंकाई सरकार से उसके अतीत की प्रतिबद्धता के आधार पर (सह प्रायोजित प्रस्तावों के तहत) ‘ठोस कार्रवाई ‘ चाहती है और परिषद के सदस्यों से देश में हो रही गतिविधियों पर नज़र रखने की अपील की है, क्योंकि उसे लगता है कि पहले के मौकों पर श्रीलंका का रिकॉर्ड संतोषजनक नहीं है.

अहम सिद्धांत

2006 में यूएनजीए ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग को बदलकर यूएनएचआरसी की स्थापना की. हालांकि जिन मुल्कों को वीटो पावर का अधिकार है जिसमें चीन और रूस भी शामिल हैं, उन्होंने यूएनजीए में यूएनएचआरसी की स्थापना की वकालत की. इन देशों का भी मानना है कि समय-समय पर व्यवस्था के ‘शिकार’ हुए हैं.

इसके बाद से ही यह तर्क दिया जाने लगा कि पश्चिमी देशों ने यूएनएचआरसी को इसलिए स्थापित किया जिससे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में वीटो वोट को नज़रअंदाज़ किया जा सके और इस मकसद में वो बहुत हद तक कामयाब रहे. दूसरों का तर्क है कि यूएनएचआरसी का फैसला और व्यक्तिगत जांच के लिए ओएचसीएचआर का बज़ट भी यूएनजीए/यूएनएससी के पास ही जाने वाला है.

अब यूएनएचआरसी में  राष्ट्रमंडल के स्थायी ब्रिटिश अध्यक्ष के साथ श्रीलंका को निशाना बनाने वाले राष्ट्रों के ‘कोर ग्रुप ‘ का नेतृत्व करने वाले को देखकर यह अंदाजा कोई भी लगा सकता है कि महासचिव पैट्रिसिया स्कॉटलैंड के सामने जेनेवा से संबंधित मामले को उठाकर श्रीलंका को क्या मिलेगा. इससे एक सामान्य सवाल यह पैदा होता है कि कॉमनवेल्थ में मुद्दों को उठाकर, श्रीलंका घरेलू स्तर पर ब्रिटेन के रास्ते में रुकावट खड़ा करना चाहता है, कई बार लोगों की गिनतियां कराना भी इसमें शामिल है.

व्यवस्था से ‘पीड़ित’ मुल्कों को यूएनएचआरसी पर चर्चा में शामिल कर और इस परिचर्चा को उन मंचों पर ले जाकर जो यूएनजीए से जुड़े हैं, लगता है कि राजपक्षे नेतृत्व बिना तथ्य और विवरण के, जैसा कि मानवाधिकार उच्चायुक्त के कार्यालय द्वारा सूचित है,  सिर्फ ‘मूल सिद्धान्तों’ पर पश्चिम का आमना – सामना करना चाहता है. लगता है कि इसे लेकर विचार यह है कि इसके जरिए आंतरिक परिचर्चा को संभव हो सके तो गैर-संयुक्त राष्ट्र क्षेत्रीय/ नस्लीय समूहों के बीच बढ़ावा दिया जाए, जहां ज़्यादा मुल्कों को यही लगता है कि वो भी यूएन/यूएनएचआरसी की व्यवस्था के ‘शिकार’ हैं.

ऐसी परिचर्चाओं में और यूएनएचआरसी और यूएनजीए मंचों पर, श्रीलंका ने ख़ासकर राजपक्षे के नेतृत्व में, दुनिया भर में चीन की राजनीतिक और आर्थिक पहुंच, ख़ास कर ग़रीब मुल्कों के बीच, की बात को जोर-शोर से उठाया है. अतीत में भी, जब भी 2009 के युद्ध के बाद यूएनएससी में पश्चिमी देशों ने कोलंबो को निशाना बनाने का प्रयास किया, तो उस वक़्त चीन और रूस ने उसका साथ दिया.

इसका नतीजा यह हुआ कि अमेरिकी नेतृत्व वाले समूह ने जेनेवा का रूख़ किया जहां उन्हें ख़ुद के लिए रास्ता दिखता है, क्योंकि यूएनएचआरसी में 47 सदस्यों का समर्थन चाहिए होता है जिन्हें अपने पक्ष में करना आसान नहीं है. यहां सिर्फ भारत, चीन और पाकिस्तान के अलावा दूसरे राष्ट्रों ने यूएनएचआरसी में यूरोपियन यूनियन(ईयू) के कोलंबो विरोधी प्रस्ताव को जारी नहीं होने दिया. यह प्रस्ताव मई 2009 में एलटीटीई युद्ध के ख़त्म होने के महज 10 दिन के बाद लाया गया था.

इस साल मार्च में यूएनएचआरसी ने 46/1 प्रस्ताव को पास किया, जिससे युद्ध संबंधी अपराध और दूसरी ज़िम्मेदारियों से संबंधित मामलों में ओएचसीएचआर की जांच का दायरा व्यापक हो सके. ऐसा इसलिए भी किया गया है क्योंकि प्रतिदिन के हिसाब से घटनाओं और जो गतिविधियां हो रहीं हैं उन्हें इसमें शामिल किया जा सके. इसके समर्थन में 47 में से केवल 22 वोट मिले . सदस्य देशों में से आधे सदस्यों ने जिसमें पाकिस्तान, चीन और रूस ने इस प्रस्ताव के ख़िलाफ़ वोटिंग की जबकि 14 सदस्य देश, जिसमें भारत के कई करीबी पड़ोसी देशों ने वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया.

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