-
CENTRES
Progammes & Centres
Location
झुग्गियों में ख़ासकर निचले क्षेत्र के तटीय शहरों में रहने वाले लोग पर्यावरण बदलाव के होने वाले असर से सबसे ज़्यादा प्रभावित होते हैं. उन्हें मौसम में होने वाले बदलावों के चलते ज़्यादा जोख़िम उठाना पड़ता है.
अनियोजित और तेज़ी से बढ़ते शहरीकरण ने दक्षिण के कई शहरों में व्यापक तौर पर अनौपचारिक बस्तियों का निर्माण किया है, जिससे समाज के हाशिये पर खड़े लोगों में पर्यावरण के प्रतिकूल प्रभावों का असर झेलने की शक्ति क्षीण होती गई. कुल शहरी आबादी के 35 फ़ीसदी से ज़्यादा लोग इन्हीं अनौपचारिक बस्तियों में रहते हैं, जिन इलाक़ों में हाउसिंग की बेहद ख़राब व्यवस्था है वहां ज़रूरत से ज़्यादा आबादी और ढांचागत सुविधाओं के अभाव के साथ ही साफ-सफाई को लेकर हालात बेहद चिंताजनक हैं. यही वज़ह है कि कम आय वाली बस्तियों के घर पर्यावरण बदलाव जैसे बाढ़, लैंडस्लाइड, हीटवेब और भारी तूफान जैसी क़ुदरती आपदाओं को झेलने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं होते हैं.
शहरी आबादी जो समाज के हाशिये पर जीने को मज़बूर है उनमें ख़ासकर महिलाएं, वातावरण में होने वाले नुकसान से सबसे ज़्यादा प्रभावित होती हैं. इतना ही नहीं कम आय होने और उनकी लैंगिक भूमिकाओं के चलते भी उन्हें वातावरण में होने वाले बदलावों के चलते ज़्यादा जोख़िम उठाना पड़ता है.
दरअसल, शहरी इलाक़ों में पर्यावरण बदलाव के नकारात्मक असर के ख़िलाफ़ तैयारी शहरी योजना और ज़रूरी ढांचागत सुविधाओं जैसे – हाउसिंग,साफ-सफाई, पानी की आपूर्ति, कूड़े कचरों के निपटारे, खाना पकाने के लिए ईधन और बेहतर ड्रेनेज सिस्टम – को पुख़्ता कर के किया जा सकता है. कम आय या फिर संपत्ति के विस्तार में कमी पर्यावरण विघटन से होने वाले उच्च स्तर के दुष्प्रभावों को ना सिर्फ निरंतर बढ़ाती है, बल्कि व्यक्तिगत क्षमताओं को भी सीमित करती है. ख़राब ढांचागत सुविधाओं के चलते साफ़-सफाई में कमी आती है, जिससे ऐसी बस्तियों में बीमारियां अपना पैर आसानी से पसार लेती हैं. झुग्गियों में ख़ासकर निचले क्षेत्र के तटीय शहरों में रहने वाले लोग पर्यावरण बदलाव के होने वाले असर से सबसे ज़्यादा प्रभावित होते हैं. उन्हें मौसम में होने वाले बदलावों के चलते ज़्यादा जोख़िम उठाना पड़ता है. मुंबई समुद्र स्तर से महज़ 14 मीटर की ऊंचाई पर बसा हुआ है लिहाज़ा मौसम में होने वाले तमाम बदलावों के चलते यहां रहने वाले लोगों को ज़्यादा ख़तरों का सामना करना पड़ता है. मैनग्रूव्स की लगातार कमी, पुराने पड़ चुके ड्रेनेज़ सिस्टम और निचले इलाक़े के क्षेत्र होने की वज़ह से मुंबई में अनौपचारिक रूप से बसी हुई बस्तियों के डूब जाने का ख़तरा भी बढ़ जाता है. इससे ना सिर्फ लोगों की मौत होती है और वो गंभीर रूप से घायल हो जाते हैं बल्कि इसके चलते मच्छरों के पनपने का ख़तरा भी बढ़ जाता है जिसका नतीजा यह होता है कि डेंगू, टायफॉयड और लेप्टोसिरोसिस जैसी बीमारियों का ख़तरा बढ़ जाता है.
शहरी आबादी जो समाज के हाशिये पर जीने को मज़बूर है उनमें ख़ासकर महिलाएं, वातावरण में होने वाले नुकसान से सबसे ज़्यादा प्रभावित होती हैं. इतना ही नहीं कम आय होने और उनकी लैंगिक भूमिकाओं के चलते भी उन्हें वातावरण में होने वाले बदलावों के चलते ज़्यादा जोख़िम उठाना पड़ता है. 15 से 49 साल के बीच की उम्र वाली महिलाओं की तादाद कम आयवाले शहरी अस्तित्व में कुछ ज़्यादा ही होती है. ऐसे में जलवायु परिवर्तन का इस समूह पर कुछ ज़्यादा ही असर होता है लिहाजा ऐसी स्थिति में सुधार लाने के लिए ज़रूरी एहतियाती क़दम उठाने बेहद ज़रूरी हैं.
पर्यावरण बदलाव के दीर्घकालिक असर जिसमें मौसम में ज़बर्दस्त बदलाव, बाढ़ और सूखा शामिल है उसका असर उपयोगिता सेवाओं की पहुंच पर पड़ता है जिसका नतीजा यह होता है कि महिलाओं पर उनके कथित लैंगिक भूमिका के कारण घरेलू कार्यों को करने का दबाव बढ़ जाता है. दक्षिण में घरेलू कार्य जैसे परिवार के सदस्यों की देख-रेख करना, खाना पकाना और पानी इकट्ठा करने की ज़िम्मेदारी महिलाओं पर होती है. उदाहरण के तौर पर पीने के पानी के स्रोतों के अभाव में महिलाओं या लड़कियों द्वारा पानी जमा करने के लिए घंटों लंबा रास्ता तय करना पड़ता है. मालावी में महिलाएं औसतन प्रति दिन 54 मिनट सिर्फ पानी इकट्ठा करने में गंवा देती हैं जबकि पुरुषों को इसी काम के लिए प्रतिदिन 6 मिनट समय ख़र्च करना पड़ता है. यह एक नए तरीक़े की ग़रीबी को जन्म देता है जिसे ‘समय की ग़रीबी’ कहा जाता है, जो मज़दूरी की भागीदारी के घंटों में कमी लाकर महिलाओं के सशक्तिकरण को बढ़ावा देने वाली कोशिशों के आगे रोड़ा अटकाता है.
मज़बूरी में हुए विस्थापन से आजीविका की पहुंच सीमित हो जाती है और इसका नकारात्मक असर झुग्गियों में रहने वाली महिलाओं पर पड़ता है क्योंकि वो संसाधन और सुरक्षा की कमी की वज़ह से लंबी दूरी तक यात्रा कर पाने में असमर्थ होती हैं.
इसके साथ ही व्यक्तिगत सुविधाओं के अभाव में पर्यावरण की जिन स्थितियों का निर्माण होता है उसके चलते स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के पैदा होने का जोख़िम बढ़ जाता है. उदाहरण के तौर पर घर के अंदर ठोस ईधन की मदद से खाना तैयार करने की वजह से बच्चों और महिलाओं में सांस संबंधी बीमारी होने का ख़तरा बढ़ जाता है. बस्तियों में आबादी की सघनता अगर ज़्यादा है तो इससे भी किसी बीमारी के फैलने का ख़तरा बहुत बढ़ जाता है. कोरोना महामारी के दौरान इस बात का हमने अनुभव किया था. धारावी जो मुंबई के सबसे अधिक सघन आबादी वाले इलाक़ों में से एक है वह कोरोना संक्रमण के प्रसार के लिए सबसे मुफ़ीद इलाक़ा बन गया था. और ऐसी बीमारी के फैलने पर अनौपचारिक रूप से मौज़ूद सघन आबादी वाली बस्तियों में महिलाओं पर देखरेख का अतिरिक्त भार बढ़ जाता है जिससे उनकी समय की ग़रीबी में बढ़ोतरी होती है. अपर्याप्त साफ-सफाई सुविधाएं और निजी जगह का भी महिलाओं पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. मसलन, अभी भी कई इलाकों में शौचालय की सुविधा के अभाव में महिलाओं को खुले में शौच जाना पड़ता है और कई बार तो उन्हें शौच जाने के लिए अंधेरा होने का इंतज़ार तक करना पड़ता है. ऐसे करना साफ़-सफाई की लिहाज़ से ही नहीं बल्कि महिलाओं के लिए लैंगिक आधारित हिंसा को भी बढ़ावा देता है.
इसके साथ ही पर्यावरण बदलाव के चलते होने वाले वातावारण संबंधी आपदा के कारण अक्सर शहर के बाहरी दायरे में पुनर्वास और विस्थापन की घटना होती है. मज़बूरी में हुए विस्थापन से आजीविका की पहुंच सीमित हो जाती है और इसका नकारात्मक असर झुग्गियों में रहने वाली महिलाओं पर पड़ता है क्योंकि वो संसाधन और सुरक्षा की कमी की वज़ह से लंबी दूरी तक यात्रा कर पाने में असमर्थ होती हैं. उदाहरण के तौर पर मछुआरों के गांव अरनाला – मुंबई के शहरी दायरे में बसने वाली मछुआरों की परंपरागत समुदाय – में ख़राब कचरा प्रबंधन और तटीय क्षेत्र पर लगातार तेज़ी से होने वाले शहरी विस्तार ने कोली समुदाय के सामने जल प्रदूषण और मछली उद्योग के क्षेत्र में कम होती संभावनाओं की चुनौती ला खड़ी की है. मछली पकड़ने में होने वाली कमी का असर यह हुआ है कि महिलाओं को अब मछलियों को बाज़ार में बेचने के लिए लंबी दूरी तय करनी पड़ती है जिसके चलते उन्हें अपने परंपरागत गांव के परिवेश को छोड़कर बेहतर मौक़े ढूंढने के लिए बाहर निकलना पड़ता है.
नीति बनाने वाले वातावारण से जुड़ी नीतियों और कानूनी फ्रेमवर्क तैयार करने में इस बात का ध्यान रखें कि ये सारे प्रावधान महिलाओं के लिए सहायक हों. ज़्यादातर विकासशील देशों में संपत्ति के हक़ और विरासत संबंधी नियंत्रकों के पूरी तरह विश्लेषण नहीं किए जाने की वज़ह से झुग्गियों के पुनर्वास कार्यक्रम के दौरान महिलाओं पर इसका प्रतिकूल असर पड़ता है
हालांकि, ज़ोखिमों की समीक्षा कर, बिल्डिंग कोड बना कर, भूमि के इस्तेमाल की योजना बना कर और कुदरत आधारित समाधानों के ज़रिए कुछ हद तक शहरी परिवेश पर्यावरण बदलाव के ज़ोख़िमों को कम करने का अनेक अवसर प्रदान करता है. रेनवाटर हार्वेस्टिंग और प्रबंधन महिलाओं की ग़रीबी को रोकने का एक सफल तरीक़ा हो सकता है. इस तरह पर्यावरण बदलाव संबंधी नीतियों को शहरीकरण की योजना में शामिल करने के लिए नीतियों को समावेशी और लैंगिक विशेष बनाने की ज़रूरत है. हालांकि, इन योजनाओं को तैयार करने में ख़ासतौर पर झुग्गी में रहने वाले लोगों के अनुभवों को शामिल करना आवश्यक है.
इंस्टीट्यूट फ़ॉर द स्टडी ऑफ़ इंटरनेशनल डेवलपमेंट द्वारा की गई समीक्षा में इस ओर इशारा किया गया है कि बेहतर ड्रेनेज़, पीने का सुरक्षित पानी, सुरक्षित कार्यकाल और झुग्गियों मे रहने वाली महिलाओं के लिए सड़क की सुविधाओं को मुहैया करा कर औपचारिक शहरी ढांचागत सुविधाओं के साथ झुग्गियों को जोड़ा जा सकता है. बेहतर प्राकृतिक ढांचागत सुविधाएं महिलाओं की सुरक्षा को बढ़ाती है और एजेंसियों की मज़दूरों के बाज़ार तक पहुंच भी बढ़ती है. हालांकि, पर्यावरण बदलाव के चलते दूसरे इलाक़ों में शरण लेने वाली महिलाओं के लिए सुरक्षित घर की व्यवस्था से ग़ैर-क़रीबी सहयोगी के बीच होने वाली हिंसा के ज़ोख़िम में भी कमी आती है.
नीति बनाने वाले वातावारण से जुड़ी नीतियों और कानूनी फ्रेमवर्क तैयार करने में इस बात का ध्यान रखें कि ये सारे प्रावधान महिलाओं के लिए सहायक हों. ज़्यादातर विकासशील देशों में संपत्ति के हक़ और विरासत संबंधी नियंत्रकों के पूरी तरह विश्लेषण नहीं किए जाने की वज़ह से झुग्गियों के पुनर्वास कार्यक्रम के दौरान महिलाओं पर इसका प्रतिकूल असर पड़ता है. इसके साथ ही झुग्गियों के लिंग-संबंधी गैर-संचित आंकड़े की ज़रूरत होती है, जिससे औपचारिक बस्तियों में लैंगिक प्रोफाइल को समझ कर वहां नीतियों से हस्तक्षेप करने के लिए यह बेहद ज़रूरी है. इसके साथ ही शहरी नीतियों में लैंगिक प्रभावों की समीक्षा और महिलाओं की ज़रूरतों और पर्यावरण के ज़ोख़िमों से निपटने के लिए लैंगिक बज़ट तैयार करना शामिल होना चाहिए.
यह जानते हुए भी कि पर्यावरण बदलावों को लेकर महिलाएं सबसे अधिक प्रभावित होती हैं इस बात का बहुत कम प्रयास किया जाता है कि स्थानीय स्तर पर फ़ैसले लेने और आपदा प्रबंधन में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की जा सके. स्थानीय स्तर पर बनाई जाने वाली नीतियों में महिलाओं को पीड़ित के तौर पर नहीं बल्कि पर्यावरण संबंधी समाधान में उनके योगदान को शामिल किया जाना चाहिए. नेतृत्व और योजनाओं और निर्णय लेने में महिलाओं की समान भागीदारी को बढ़ावा देने के लिए लैंगिक तौर पर चीज़ों को परख़ने और विस्तार देने की बेहद आवश्यकता है.
झुग्गियों में रहने वाली महिलाएं पर्यावरण बदलाव संबंधी ज़ोख़िमों और कम आय स्तर के दोहरे मार झेलने पर मज़बूर हैं जिससे वो ग़रीबी की जाल में लगातार फंसती चली जाती हैं. यही वजह है कि इस बात की फ़ौरन ज़रूरत है कि शहरी क्षेत्र में हाशिये पर खड़े लोगों को प्राथमिकता दी जाए जिससे निरंतर शहरी विकास के लक्ष्य को पूरा किया जा सके. शहरों के अस्तित्व को बनाए रखने और वैश्विक लक्ष्यों को प्राप्त करने के साथ ही समावेशी निरंतर विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए निरंतर विकास और लैंगिक समानता बेहद ज़रूरी है.
ये लेख — कोलाबा एडिट सीरीज़ का हिस्सा है.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.
Shruti Jain was Coordinator for the Think20 India Secretariat and Associate Fellow Geoeconomics Programme at ORF. She holds a Masters degree in Public Policy and ...
Read More +