Author : Lydia Powell

Published on Jun 23, 2021 Updated 0 Hours ago

करों में बढ़ोतरी का बोझ अब तक पेट्रोल के मुक़ाबले डीज़ल पर ज़्यादा पड़ा है 

भारत में पेट्रोल और डीज़ल की कीमतों में किसका कितना हिस्सा?

12 जून 2021 को पेट्रोल की खुदरा कीमत मध्य प्रदेश (केंद्र शासित प्रदेशों को छोड़कर तमाम राज्यों के बीच) में सबसे ज़्यादा थी. मध्य प्रदेश में पेट्रोल की कीमत देश में सबसे ज़्यादा 104.01 रु. प्रति लीटर थी जबकि आंध्र प्रदेश में सबसे कम 88 रु. प्रति लीटर. राज्यों के बीच खुदरा कीमतों में ये अंतर राज्य करों (मूल्य वर्धित कर या वैट) की वजह से है. मध्य प्रदेश में ये कर 31.3 रु. प्रति लीटर या खुदरा कीमतों का 31 प्रतिशत है. आंध्र प्रदेश में राज्य कर 16.8 रु. प्रति लीटर या खुदरा कीमतों का 18 प्रतिशत है. मध्य प्रदेश में पेट्रोल की खुदरा कीमत का 61 प्रतिशत हिस्सा केंद्रीय (उत्पाद शुल्क) और राज्य करों का है. आंध्र प्रदेश में ये आंकड़ा 55 प्रतिशत है. अगर सिर्फ़ केंद्रय कर की बात करें तो मध्य प्रदेश में पेट्रोल की खुदरा कीमत का 31 प्रतिशत हिस्सा इस मद में जाता है जबकि आंध्र प्रदेश में ये आंकड़ा 36 प्रतिशत है. 

डीज़ल की खुदरा कीमत अरुणाचल प्रदेश में सबसे ज़्यादा 96.43 रु. प्रति लीटर थी. आंध्र प्रदेश में ये सबसे कम 83.81 रु. प्रति लीटर थी. आंध्र प्रदेश में वैट 8.08 रु. प्रति लीटर था जबकि अरुणाचल प्रदेश में वैट इसके तीन गुणा (23.55 रु. प्रति लीटर) था. अरुणाचल प्रदेश में डीज़ल की कीमत में एक्साइज़ का हिस्सा 33 प्रतिशत और वैट का करीब 24 प्रतिशत है. आंध्र प्रदेश में डीज़ल की खुदरा कीमत में एक्साइज़ का हिस्सा लगभग 38 प्रतिशत है जबकि वैट का हिस्सा केवल 9 प्रतिशत है. महानगरों की बात करें तो 12 जून को पेट्रोल की कीमत मुंबई में सबसे ज़्यादा 102.04 रु. प्रति लीटर थी. महानगरों में सबसे सस्ता पेट्रोल कोलकाता में 95.8 रु प्रति लीटर की दर पर उपलब्ध था. तो वहीं दिल्ली में पेट्रोल का भाव 95.85 रु. प्रति लीटर था. 

12 जून 2021 को दिल्ली में एक लीटर पेट्रोल की खुदरा कीमत में से विक्रेताओं को करीब 38 प्रतिशत (35.99 रु), केंद्र सरकार को लगभग 34 प्रतिशत (32.9 रु), राज्य सरकार को करीब 24 प्रतिशत (23.17 रु) और डीलरों को लगभग 4 प्रतिशत (3.79 रु) हासिल हुआ. इसी तरह दिल्ली में बिके प्रति लीटर डीज़ल में से विक्रेताओं को करीब 44 प्रतिशत (38.49 रु), केंद्र को लगभग 37 प्रतिशत (31.8 रु), राज्य सरकार को करीब 16 प्रतिशत (13.87 रु) और डीलरों को लगभग 3 प्रतिशत (2.59 रु) हासिल हुए. कुल मिलाकर देखें तो पेट्रोल और डीज़ल पर करों से हासिल की गई रकम, इनकी बिक्री से विक्रेताओं को हासिल होने वाली रकम से ज़्यादा है. हालांकि, पेट्रोलियम पदार्थों पर भारी-भरकम कर वसूलने में भारत दुनिया में अकेला नहीं है. यूरोप के ज़्यादातर देश पेट्रोलियम पदार्थों पर मोटा टैक्स वसूलते हैं. आंशिक तौर पर इसकी वजह तेल के इस्तेमाल को हतोत्साहित कर प्रदूषण को काबू में लाने की रणनीति है. इसके साथ ही पेट्रोलियम आधारित परिवहन तंत्र के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचे के रख-रखाव से जुड़ा खर्च निकालने का मकसद भी इस कर प्रणाली के पीछे की एक बड़ी वजह है.

2015 के बाद से ही कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में हुई कमी को करों में बढ़ोतरी के ज़रिए समायोजित किया जाता रहा है. यही कारण है कि पेट्रोल और डीज़ल की खुदरा कीमतें अपेक्षाकृत ऊंची बनी रही हैं. कच्चे तेल की वैश्विक कीमतों में पिछले पांच वर्षों में आई गिरावट का लाभ अगर पूरी तरह से उपभोक्ताओं तक पहुंचा दिया जाता तो शोधित पदार्थों की खुदरा कीमतें निश्चित तौर पर कम होतीं. कच्चे तेल की प्रति बैरल कीमत में एक अमेरिकी डॉलर की कमी से शोधित पदार्थों की खुदरा कीमतों में 50 पैसे प्रति लीटर की कमी हो सकती थी. दूसरे शब्दों में कच्चे तेल की कीमत में एक अमेरिकी डॉलर की गिरावट से करों में 50 पैसे प्रति लीटर तक की बढ़ोतरी का अवसर उत्पन्न होता है. 

करों में बढ़ोतरी का बोझ अब तक पेट्रोल के मुक़ाबले डीज़ल पर ज़्यादा पड़ा है. मार्च 2014 में देश भर में एक लीटर डीज़ल की कीमत पेट्रोल की तुलना में औसतन करीब 15 रु लीटर कम थी. उस वक़्त पेट्रोल और डीज़ल की खुदरा कीमतों में कर का हिस्सा क्रमश: 31 प्रतिशत और 19 प्रतिशत था. जून 2020 में पेट्रोल और डीज़ल की खुदरा कीमतों में टैक्स का हिस्सा क्रमश: 69 प्रतिशत और 58 प्रतिशत हो गया. 

पिछले साल दिल्ली में थोड़े समय के लिए डीज़ल की खुदरा कीमत पेट्रोल की खुदरा कीमतों से भी आगे निकल गई थीं. देश में डीज़ल की कीमतों पर डिस्काउंट पेट्रोल की खुदरा कीमत के मुक़ाबले एक या 2 रुपए से कम था. पेट्रोल पर एक्साइज़ 200 फ़ीसदी से भी अधिक बढ़ गया है. मार्च 2014 में एक्साइज़ 10.38 रु. प्रति लीटर था जो सितंबर 2020 में बढ़कर 32.98 रु. प्रति लीटर हो गया. डीज़ल में तो ये बढ़ोतरी और भी ज़्यादा नाटकीय रही है. इसी कालखंड में डीज़ल में एक्साइज़ में 600 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई और ये 4.58 रु. प्रति लीटर से बढ़कर 31.83 रु प्रति लीटर हो गया. जहां तक वैट का सवाल है तो राज्यों में इसमें बढ़ोतरी उतनी तीव्र नहीं रही है. अगर दिल्ली की बात करें तो पेट्रोल पर वैट में करीब-करीब 60 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई. दिल्ली में वैट 11.9 रु. प्रति लीटर से बढ़कर 18.94 रु. प्रति लीटर हो गया. वहीं डीज़ल पर वैट में लगभग 68 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ. दिल्ली में मार्च 2014 से सितंबर 2020 के बीच डीज़ल पर वैट 6.41 रु प्रति लीटर से बढ़कर 10.8 रु. प्रति लीटर हो गया. इसी अवधि में कच्चे तेल (भारतीय आयात) के मूल्य में 28 प्रतिशत की गिरावट हुई. कच्चे तेल की कीमत 2014-15 में 84.16 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल से घटकर 2019-20 में 60.47 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल हो गई. 

पिछले कुछ महीनों में चीन, अमेरिका, यूरोप समेत दुनिया के कुछ और इलाक़ों में कोरोना टीकाकरण अभियान के सफल संचालन के चलते आर्थिक गतिविधियों में तेज़ी आने की उम्मीदें बढ़ गई हैं. इसी उम्मीद के बूते कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी दर्ज की गई है. कच्चे तेल (भारतीय आयात) की कीमतों में करीब 46 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ है. सितंबर 2020 में कच्चे तेल की कीमत 44.19 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल थी जो मई 2021 में बढ़कर 64.73 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल हो गई है. इस कालखंड में पेट्रोल और डीज़ल पर एक्साइज़ में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई. दिल्ली में पेट्रोल पर वैट में 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी की गई जबकि डीज़ल पर वैट को 14 प्रतिशत बढ़ाया गया. भारत में पेट्रोल और डीज़ल पर लगने वाले ऊंचे करों की बदौलत कच्चे तेल की कीमतों में हुई बढ़ोतरी का भार खुदरा उपभोक्ताओं तक नहीं पहुंचा. कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में बढ़ोतरी के बावजूद भारत में पेट्रोल-डीज़ल के खुदरा भाव प्रभावित नहीं हुए. हालांकि भारत में पेट्रोल और डीज़ल की औसत कीमतें तमाम दक्षिण एशियाई देशों के मुक़ाबले सबसे ऊंचे स्तर (रुपए और डॉलर दोनों में) पर बरकरार हैं.

कर राजस्व में बढ़ोतरी

भारत में वस्तु और सेवा कर (जीएसटी) के लागू होने के बाद से ही पेट्रोलियम क्षेत्र से हासिल होने वाले कर राजस्व का महत्व काफी बढ़ गया है. पिछले दशक में पेट्रोलियम पर लागू करों ने जीडीपी में औसतन 2 प्रतिशत से ज़्यादा का योगदान दिया है.

केंद्र सरकार द्वारा उगाहे जाने वाले कुल उत्पाद शुल्कों में पेट्रोलियम पदार्थों से हासिल एक्साइज़ ड्यूटी का हिस्सा 85-90 प्रतिशत है. 2018-19 में अप्रत्यक्ष करों से प्राप्त सकल राजस्व का लगभग 24 प्रतिशत हिस्सा पेट्रोलियम पदार्थों पर लागू करों से हासिल हुआ था. 2014-15 से 2019-2020 के बीच पेट्रोल और डीज़ल से केंद्र सरकार को प्राप्त होने वाले उत्पाद राजस्व में 94 प्रतिशत से भी अधिक की बढ़ोतरी दर्ज की गई. 2014-15 में ये राजस्व एक लाख 72 हज़ार करोड़ था जो 2019-20 में बढ़कर 3 लाख 34 हज़ार करोड़ से भी ज़्यादा हो गया. राज्य सरकारों की बात करें तो उनके वैट राजस्व में करीब 37 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई. 2014-15 में ये राजस्व एक लाख 6 हज़ार करोड़ था जो 2019-20 में बढ़कर 2 लाख 21 हज़ार करोड़ से भी ज़्यादा हो गया. 

आर्थिक प्रभाव

भारत में डीज़ल की मांग में बढ़ोतरी को औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) के साथ करीब से जोड़कर देखा जा सकता है. 2008-09 के वित्तीय संकट के बाद घोषित किए गए प्रोत्साहन पैकेज के तहत शोधित पेट्रोलियम उत्पादों पर एक्साइज़ ड्यूटी में कमी की गई थी. इससे आईआईपी के साथ-साथ आर्थिक विकास में भी तेज़ी दिखाई दी थी. नतीजतन डीज़ल की मांग में बढ़ोतरी दर्ज की गई थी. 2014-15 से 2017-18 के बीच डीज़ल की खुदरा कीमत औसतन करीब 54 रु प्रति लीटर थी. इस कालखंड में मांग में हर साल करीब 9 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई. ये बढ़ोतरी आईआईपी में हुई बढ़ोतरी के समकक्ष और सापेक्ष रही. इसी कालखंड में पेट्रोल की मांग में करीब 3.5 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ. 

राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन और आर्थिक गतिविधियों की रफ़्तार में सुस्ती की वजह से वित्त वर्ष 2020-21 में डीज़ल की मांग में कमी आने का अनुमान है.

राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन और आर्थिक गतिविधियों की रफ़्तार में सुस्ती की वजह से वित्त वर्ष 2020-21 में डीज़ल की मांग में कमी आने का अनुमान है. इसमें कोई आश्चर्य की बात भी नहीं है क्योंकि हमने ऊपर ही देखा है कि आर्थिक गतिविधियों और डीज़ल की मांग में सापेक्षिक संबंध होता है. हक़ीक़त तो ये है कि लॉकडाउन लगने के पहले से ही खुदरा कीमतों में बढ़ोतरी के चलते डीज़ल की मांग लड़खड़ाने लगी थी. 2019-20 में डीज़ल की मांग में उसके पिछले साल की अपेक्षा एक प्रतिशत की गिरावट देखी गई थी. जबकि पेट्रोल की मांग में 5 प्रतिशत से ज़्यादा की बढ़त का दौर बरकरार रहा था. 2019-20 में डीज़ल की मांग में कमी आईआईपी में 0.7 फ़ीसदी की गिरावट के अनुरुप ही रही. आईआईपी और डीज़ल की मांग में मज़बूत सह-संबंध है. ऐसे में ऊंची खुदरा कीमतों के चलते डीज़ल की मांग में और कमी आने के पूरे आसार हैं. औद्योगिक रूप से विकसित राज्यों में अपेक्षाकृत कम औद्योगीकृत राज्यों के मुक़ाबले डीज़ल की मांग में ज़्यादा तेज़ गिरावट देखे जाने के आसार हैं. बिजली के संदर्भ में भी यही सापेक्षिक नतीजा देखने को मिलता रहा है. कई अध्ययनों से भी इसी बात का इशारा मिला है.  

समानता या वितरण संबंधी प्रभाव एक ही देश के भीतर या तमाम देशों के बीच अलग-अलग हो सकते हैं. ये कई कारकों पर निर्भर होता है.

अध्ययनों से ये बात सामने आई है कि पेट्रोल और डीज़ल में लगने वाले करों में अल्प वृद्धि से पर्यावरण में भारी सुधार देखा जा सकता है. बढ़ी कीमतों के चलते खपत में आई कमी के चलते ऐसा होता है. हालांकि सार्वजनिक स्तर पर किए जाने वाले दूसरे हस्तक्षेपों की ही तरह ऊर्जा के मूल्यों में होने वाली बढ़ोतरी से आर्थिक समानता लाने के मकसद को झटका लग सकता है. इस संदर्भ में आर्थिक समानता और कार्यकुशलता के बीच एक द्वंद देखने को मिलता है. अर्थशास्त्री आर्थिक सिद्धांतों में दिखाई देने वाले इस तरह के द्वंद से भली-भांति परिचित हैं. समानता या वितरण संबंधी प्रभाव एक ही देश के भीतर या तमाम देशों के बीच अलग-अलग हो सकते हैं. ये कई कारकों पर निर्भर होता है. इनमें सामाजिक, भौगोलिक, जलवायु संबंधी, आर्थिक हालात और घरेलू स्तर पर ऊर्जा के इस्तेमाल के रुझान आदि कारक महत्वपूर्ण हैं. हालांकि इस बात पर अर्थशास्त्रियों और नीति-निर्माताओं में आम सहमति है कि ऊर्जा के मूल्यों में बढ़ोतरी से ग़रीब परिवारों पर ज़्यादा मार पड़ती है. इसकी वजह ये है कि वो ऊर्जा और ऊर्जा सेवाओं की खरीद पर अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा खर्च करते हैं. पेट्रोल और डीज़ल पर लगने वाले अप्रत्यक्ष करों का ग़रीब परिवारों पर अपेक्षाकृत अधिक प्रभाव पड़ता है. इस असमानता से निपटने के लिए इन करों से हासिल राजस्व का इस्तेमाल इन्हीं ग़रीब परिवारों के लिए कल्याणकारी गतिविधियों पर करने से राजस्व का प्रगतिशील पुनर्वितरण सुनिश्चित किया जा सकता है. ऊपर बताए गए आर्थिक द्वंद से निपटने के लिए नीतिगत स्तर पर इसी तरह के दखल दिए जाने का प्रस्ताव किया जाता है.

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