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उज़्बेकिस्तान के लिए ज़रूरी है कि वो पड़ोस के क्षेत्र में मध्य एशिया के सभी देशों की आवाज़ के रूप में अपनी भूमिका मज़बूत करने के लिए कूटनीतिक कोशिश तेज़ करे
अमेरिका की नेशनल इंटेलिजेंस काउंसिल की रिपोर्ट, ग्लोबल ट्रेंड्स 2040, सबसे ज़्यादा अफ़ग़ानिस्तान में अलग-अलग तरह की शांति प्रक्रिया की संगठित पहल, इस क्षेत्र में क्षेत्रीय शक्तियों (जैसे उज़्बेकिस्तान) के द्वारा व्यापक कोशिशों और विवादित भारत-पाकिस्तान सीमा पर कश्मीर में एक निश्चित नरमी के संकेत का अंतर दिखाता है. अफ़ग़ानिस्तान और कश्मीर- दोनों लंबे समय से व्यवस्थात्मक विरोधाभास और संघर्ष का केंद्र रहे हैं.
इस दस्तावेज़ से पता चलता है कि अगले पांच वर्षों में भारत और पाकिस्तान बड़े पैमाने के एक ऐसे युद्ध में आमने-सामने होंगे जो दोनों में से कोई नहीं चाहता, ख़ास तौर पर एक आतंकवादी हमले के बाद जिसे भारतीय सरकार महत्वपूर्ण समझेगी. रिपोर्ट में इस तथ्य पर ख़ास ध्यान दिया गया है कि एक व्यापक युद्ध इतना नुक़सान पहुंचा सकता है जिसके आर्थिक और राजनीतिक- दोनों नतीजे वर्षों तक झेलने होंगे. रिपोर्ट में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि अगले साल अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी कार्रवाई का पूरे इलाक़े ख़ास तौर पर पाकिस्तान और भारत में महत्वपूर्ण असर होगा. ये ख़ास तौर पर सही साबित होगा अगर अफ़ग़ानिस्तान में सुरक्षा को लेकर खालीपन उभरता है और इसका नतीजा तालिबान और उसके विरोधियों के बीच गृह युद्ध के रूप में सामने आता है. इसके कारण क्षेत्रीय आतंकवादी नेटवर्क या अपराधियों की गतिशीलता बढ़ेगी और शरणार्थी देश से बाहर निकलेंगे. रिपोर्ट में पूर्वानुमान लगाया गया है कि अफ़ग़ानिस्तान की घटनाएं पश्चिमी पाकिस्तान में राजनीतिक तनाव और संघर्ष बढ़ाएंगी और भारत-पाकिस्तान की दुश्मनी को गहरा करेंगी.
अगले पांच वर्षों में भारत और पाकिस्तान बड़े पैमाने के एक ऐसे युद्ध में आमने-सामने होंगे जो दोनों में से कोई नहीं चाहता, ख़ास तौर पर एक आतंकवादी हमले के बाद जिसे भारतीय सरकार महत्वपूर्ण समझेगी.
इन पूर्वानुमानों और व्यावहारिक वास्तविकताओं को देखते हुए दक्षिण और मध्य एशिया में उज़्बेकिस्तान की कूटनीतिक गतिविधियों पर ध्यान देना चाहिए. उज़्बेकिस्तान के राष्ट्रपति शवकत मिर्ज़ियोयेव ने अपनी विदेश नीति में आधारभूत रूप से एक नये पहलू का ऐलान किया है जिसमें दक्षिण दिशा की तरफ़ ध्यान केंद्रित किया गया है. ख़ास तौर पर दक्षिण एशिया के साथ सहयोग के विकास और अफ़ग़ानिस्तान में शांति को बढ़ावा देने को प्राथमिकता दी गई है.
अफ़ग़ान संघर्ष के निपटारे को लेकर उज़्बेकिस्तान के दृष्टिकोण और क्षेत्रीय प्रक्रियाओं पर इसके असर, जिसमें शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) का पूरा क्षेत्र भी शामिल है, का ख़ाका फरवरी में एल्डोर अरिपोव के द्वारा खींचा गया था. एल्डोर अरिपोव उज़्बेकिस्तान के राष्ट्रपति के तहत काम करने वाले संगठन सामरिक और अंतर क्षेत्रीय अध्ययन संस्थान के निदेशक हैं. उन्होंने अपनी राय बताते हुए कहा कि मध्य एशिया में स्थायी और टिकाऊ विकास की संभावना जटिल रूप से अफ़ग़ानिस्तान में शांति की उपलब्धि से जुड़ी हुई है.
कई सदियों तक क्षेत्रीय व्यापार, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक और बौद्धिक आदान-प्रदान में अफ़ग़ानिस्तान एक महत्वपूर्ण कड़ी रहा है, अफ़ग़ानिस्तान मध्य और दक्षिण एशिया को जोड़ने वाले पुल की भूमिका अदा करता रहा है. अफ़ग़ानिस्तान के रास्ते और बुनियादी ढांचे को इस्तेमाल करने से मध्य एशिया के देश सबसे छोटे रास्ते के ज़रिए पाकिस्तान के बंदरगाहों तक पहुंच सकेंगे. इसका फ़ायदा न सिर्फ़ उज़्बेकिस्तान को बल्कि मध्य एशिया के सभी गणराज्यों, दक्षिण एशिया के देशों और मध्य-पूर्व के राजतंत्रों को होगा. एक-दूसरे से जुड़ने में मज़बूती आने पर अंतर क्षेत्रीय व्यापार के विकास, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक आदान-प्रदान के साथ-साथ दोनों क्षेत्रों के एक बड़े हिस्से में शांति और स्थिरता को बरकरार रखने में अनुकूल आंतरिक और बाहरी शर्त का पूरा होना आसान बनेगा.
कई सदियों तक क्षेत्रीय व्यापार, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक और बौद्धिक आदान-प्रदान में अफ़ग़ानिस्तान एक महत्वपूर्ण कड़ी रहा है, अफ़ग़ानिस्तान मध्य और दक्षिण एशिया को जोड़ने वाले पुल की भूमिका अदा करता रहा है.
इसके बदले में शंघाई सहयोग संगठन के महासचिव व्लादिमीर नोरोव कहते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान में संघर्ष का तेज़ी से समाधान संगठन के क्षेत्र में स्थायित्व की स्थापना में एक प्रमुख कारण है.
अफ़ग़ानिस्तान में जल्दी शांति की स्थापना मध्य और दक्षिण एशिया के देशों में संपर्क की मज़बूती के लिए एक आदर्श उपाय है. इस संदर्भ में ट्रांस-अफ़ग़ान ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर बनाने के लिए उज़्बेकिस्तान की पहल और शंघाई सहयोग संगठन के ढांचे के तहत अफ़ग़ानिस्तान से जुड़ी दूसरी परियोजनाओं की शुरुआत बेहद अनुकूल और तर्कसंगत हैं. मध्य और दक्षिण एशिया के बीच संपर्क को मज़बूत करने की योजना उज़्बेकिस्तान की क्षेत्रीय नीति का ठीक से पालन करती है. इस क्षेत्रीय नीति के ज़रिए उज़्बेकिस्तान ख़ुद को क्षेत्रीय बदलाव के लिए शक्तिशाली बल की तरह प्रस्तुत करता है.
लेकिन ये साफ़ है कि अकेले उज़्बेकिस्तान की कोशिशें पर्याप्त नहीं हैं. उज़्बेकिस्तान के लिए ज़रूरी है कि वो पड़ोस के क्षेत्र में मध्य एशिया के सभी देशों की आवाज़ के रूप में अपनी भूमिका मज़बूत करने के लिए कूटनीतिक कोशिश तेज़ करे. इस चुनौती का सामना करने के लिए उज़्बेकिस्तान के विदेश मंत्री अब्दुलअज़ीज़ कामिलोव ने ताजिकिस्तान, कज़ाकिस्तान और तुर्कमेनिस्तान का दौरा कर पड़ोसी देशों का समर्थन मांगा. द्विपक्षीय एजेंडा के अलावा उच्च स्तरीय बातचीत में अफ़ग़ानिस्तान और दक्षिण एशिया के देशों के साथ आर्थिक संबंधों को विकसित करने के मुद्दे पर चर्चा हुई.
क्षेत्रीय नेतृत्व के लिए छुपी हुई प्रतिस्पर्धा को देखते हुए उज़्बेकिस्तान की योजना के लिए कज़ाकिस्तान का प्रोत्साहन अत्यंत महत्व की बात है. व्यापक अंतर्राष्ट्रीय सर्वसम्मति को सुनिश्चित करने की एक कोशिश के तहत उज़बेकिस्तान की सरकार ने पहले ही संयुक्त राष्ट्र, शंघाई सहयोग संगठन, अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, भारत, चीन, पाकिस्तान, रूस और दूसरे देशों के प्रतिनिधिमंडल को अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में शामिल होने के लिए न्योता भेजा है. राष्ट्रपति मिर्ज़ियोयेव की पहल के तहत “मध्य एशिया और दक्षिण एशिया क्षेत्रीय संपर्क: चुनौतियां और अवसर” का आयोजन किया गया.
ये साफ़ है कि अफ़ग़ानिस्तान की समस्या के समाधान के संदर्भ में उज़्बेकिस्तान को अमेरिका से एक हद तक समर्थन मिलेगा जिनमें क्षेत्रीय नेतृत्व की उसकी महत्वाकांक्षी भूमिका को प्रोत्साहन भी शामिल है. लेकिन 2020 में मध्य एशिया के लिए अपनाई गई अमेरिका की रणनीति में कज़ाकिस्तान पर भी ध्यान केंद्रित है. तीन और क्षेत्रीय गणराज्यों (किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान और तुर्कमेनिस्तान) में अमेरिका की घटती दिलचस्पी का संभवत: ये मतलब है कि अमेरिका तात्कालिक फ़ायदा हासिल करने के लिए प्रमुख शक्तियों पर ध्यान देना चाहता है. अफ़ग़ानिस्तान का अंतहीन युद्ध और अमेरिका की सैन्य मौजूदगी के चरम के दौरान भी तुलनात्मक सुरक्षा और स्थायित्व हासिल करने में उसकी नाकामी ने प्राथमिकता वाली परिवहन और ऊर्जा परियोजनाओं के क्रियान्वयन को बेअसर कर दिया है. इसलिए अंतर क्षेत्रीय संबंधों के विकास में सफलता की बात तो छोड़ दीजिए, संपूर्ण अंतर क्षेत्रीय सहयोग के लिए भी अफ़ग़ानिस्तान में शांति ज़रूरी है.
इस बीच दूसरे ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर को भी बढ़ावा दिया गया है जिनमें अंतर्राष्ट्रीय उत्तर दक्षिण ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर भी शामिल है. इस कॉरिडोर में भारत, रूस और ईरान संस्थापक सदस्य के तौर पर भाग ले रहे हैं. मुंबई से सेंट पीटर्सबर्ग का रास्ता कैस्पियन सागर से गुज़रना चाहिए लेकिन ये मध्य एशिया के ट्रांसपोर्ट इंफ्रास्ट्रक्चर के नज़दीक है और भारत के साथ सहयोग के विकास के लिए उपयुक्त है.
ईरान, ओमान, तुर्कमेनिस्तान और उज़्बेकिस्तान के बीच 2011 के अशगबत समझौते का उद्देश्य एक ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर की परियोजना को लागू करना है. इस परियोजना में मध्य और दक्षिण एशिया को जोड़ने की संभावना भी है. इस परियोजना में चाबाहार बंदरगाह के ज़रिए बड़ी भूमिका ईरान ने निभाई है. चाबाहार बंदरगाह का पुनर्निर्माण भारत ने किया है जो भारतीय उपमहाद्वीप का रास्ता खोलता है.
अफ़ग़ानिस्तान का अनिश्चित भविष्य ट्रांस-अफ़ग़ान ट्रांसपोर्ट और एनर्जी परियोजनाओं में देरी कर रहा है और इसकी वजह से लक्ष्य तक पहुंचना जटिल हो रहा है.
अफ़ग़ानिस्तान को छोड़कर एक और रास्ता चीन से होकर गुज़रता है. चीन और पाकिस्तान को जोड़ने वाला काराकोरम हाइवे एक प्रमुख ट्रांसपोर्ट रूट माना जाता है. अक्टूबर 2017 में एक नया ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर ताशकंद-अंदीजान-ओश-इरकेश्ताम-काशगर खोला गया जिसके ज़रिए दक्षिण एशिया तक पहुंचा जा सकता है. लेकिन बाइपास रास्ते लंबे हैं और ये दक्षिण एशिया तक पहुंच के बड़े फ़ायदे को कम करते हैं. बाइपास रास्ते मध्य एशिया को उसकी सबसे बड़ी संपत्ति से वंचित करते हैं यानी दुनिया के महासागरों तक सबसे छोटा संभावित रास्ता. वहीं इस क्षेत्र को अपने आप में बड़ी परियोजनाओं का हिस्सा समझा जाता है. इन कारणों से किसी भी लॉजिस्टिक योजना का नतीजा सामरिक बदलाव के रूप में नहीं आया. इस तरह से अफ़ग़ानिस्तान का अनिश्चित भविष्य ट्रांस-अफ़ग़ान ट्रांसपोर्ट और एनर्जी परियोजनाओं में देरी कर रहा है और इसकी वजह से लक्ष्य तक पहुंचना जटिल हो रहा है.
लेकिन इसके बावजूद उज़्बेकिस्तान ने दृढ़ता और व्यावहारिकता का प्रदर्शन किया है. लंबे अफ़ग़ान संघर्ष के बावजूद उज़्बेकिस्तान ने दक्षिण एशिया की तरफ़ ट्रांसपोर्ट परियोजनाओं के विकास से इनकार नहीं किया है. मज़ार-ए-शरीफ़-काबुल-पेशावर रेलवे लाइन के ज़रिए दक्षिण एशिया के रेलवे सिस्टम को मध्य एशिया और यूरेशिया से जोड़ने और इस तरह पाकिस्तान के बंदरगाहों (कराची, क़ासिम और ग्वादर) तक पहुंच मुहैया कराने की परियोजना की नींव रख दी गई है. 4 अरब अमेरिकी डॉलर की ट्रांस अफ़ग़ान रेल निर्माण परियोजना को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने मंज़ूरी दी है और उम्मीद है कि ये सितंबर 2021 से शुरू हो जाएगी.
इसके बावजूद दक्षिण एशिया को पूरी तरह खोलने के लिए और भारत के बाज़ारों और पाकिस्तान के पूर्व में दूसरे दक्षिण एशियाई देशों तक पहुंचने के लिए अफ़ग़ानिस्तान के मुद्दे के अलावा एक और रुकावट को ज़रूर दूर करना चाहिए. वो रुकावट है भारत-पाकिस्तान संघर्ष. कश्मीर मुद्दे की वजह से दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंध पूरी तरह ठहर कर रह गए हैं और इसका क्षेत्रीय और वैश्विक अर्थ भी है. पाकिस्तान और भारत एक-दूसरे को अपने-अपने क्षेत्र से गुज़रने की इजाज़त देने से इनकार करते हैं. ये महज़ संयोग नहीं है कि अफ़ग़ानिस्तान को दरकिनार कर मध्य और दक्षिण एशिया को जोड़ने वाला ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर उनमें से सिर्फ़ एक देश तक जाता है.
आज की हालत में कश्मीर में संघर्ष के समाधान की संभावना के साथ-साथ भारत और पाकिस्तान के संबंधों में पूरी जटिलता, विवादित क्षेत्र में युद्धविराम पर समझौते के बावजूद, अफ़ग़ानिस्तान की शांति प्रक्रिया से भी ज़्यादा अनिश्चित लगती है.
आम तौर पर आज की हालत में कश्मीर में संघर्ष के समाधान की संभावना के साथ-साथ भारत और पाकिस्तान के संबंधों में पूरी जटिलता, विवादित क्षेत्र में युद्धविराम पर समझौते के बावजूद, अफ़ग़ानिस्तान की शांति प्रक्रिया से भी ज़्यादा अनिश्चित लगती है. इसलिए मध्य और दक्षिण एशिया में अंतर क्षेत्रीय संबंधों का विस्तार, एक-दूसरे पर निर्भर उनके बाज़ार और ट्रांज़िट क्षमता की भरपूर संभावना की समझ, स्वाभाविक और तर्कसंकत भले ही लगे लेकिन वो भू-राजनीतिक हलचल के भंवर में फंसे हुए हैं और मध्य एशिया की खनिज संपदा को लेकर दुनिया की दिलचस्पी के बंधक बन गए हैं. अफ़ग़ानिस्तान में सुरक्षा की स्थिति, जो शांतिपूर्ण समाधान की धुंधली संभावना से और भी जटिल हो गई है, हर ट्रांस-अफ़ग़ान परियोजना को आमतौर पर अच्छे इरादे के ऐलान के रूप में छोड़ देती है. वहीं भारत-पाकिस्तान संघर्ष पूर्ण अंतर क्षेत्रीय एकीकरण के लिए अवसरों के कॉरिडोर में और रुकावट डालता है.
इन प्रक्रियाओं पर उज़्बेकिस्तान के अपने असर का सीमित साधन और दूसरे कारण अभी तक उज़्बेकिस्तान की पहल को अंतर क्षेत्रीय संबंधों के भविष्य में बदलाव के लिए सिर्फ़ अच्छी उम्मीद बनाते हैं. इन संघर्षों का समाधान आधारभूत रूप से मध्य और दक्षिण एशिया के भू-राजनीतिक परिदृश्य को फिर से आकार देगा. इस दृष्टिकोण से संघर्ष में जुटे पक्षों और दूसरे हिस्सेदारों को जुलाई में एक ही मेज पर लाने की उज़्बेकिस्तान की कूटनीतिक कोशिशें और इस तरह से 1966 के ताशकंद घोषणापत्र को 55 साल बाद फिर से दोहराना, हर सम्मान की हक़दार है और इसका समर्थन करना चाहिए.
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Yuri M Yarmolinsky is an Analyst with the Belarusian Institute for Strategic Research. He is a former Counsellor of the Embassy of the Republic Belarus ...
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