Author : Kabir Taneja

Published on Feb 15, 2021 Updated 0 Hours ago

इज़रायल और ईरान से अपने रिश्तों में संतुलन बिठाने की पुरज़ोर कोशिशें कर रहा है. सितंबर 2020 में भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने अपनी ईरान यात्रा के दौरान हतामी को एयरोइंडिया समारोह में शामिल होने का न्योता दिया था.

ईरानी रक्षा मंत्री के भारत दौरे के क्या है मायने?

ईरान के रक्षा मंत्री ब्रिगेडियर जनरल आमिर हतामी पिछले 40 वर्षों में भारत का दौरा करने वाले ईरान के पहले रक्षा मंत्री बन गए. इस यात्रा के साथ ही भारत और ईरान के बीच सहयोग का एक नया और अहम अध्याय शुरू हुआ. इस दौरे का महत्व केवल इसके द्विपक्षीय स्वभाव में ही नहीं है. हतामी का ये भारत दौरा बेंगलुरु में एयरोइंडिया 2021 समारोह में शिरकत करने के मकसद से भी हुआ. इसके अलावा उन्होंने हिंद महासागर क्षेत्र (आईओआर) के देशों के रक्षा मंत्रियों के पहले सम्मेलन में हिस्सा लिया. ग़ौरतलब है कि भारत खाड़ी देशों, इज़रायल और ईरान से अपने रिश्तों में संतुलन बिठाने की पुरज़ोर कोशिशें कर रहा है. सितंबर 2020 में भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने अपनी ईरान यात्रा के दौरान हतामी को एयरोइंडिया समारोह में शामिल होने का न्योता दिया था. मध्य-पूर्व क्षेत्र में अपनी कूटनीति के ज़रिए संतुलन साधने के भारत के सतत प्रयासों में ईरानी रक्षा मंत्री हतामी का ये दौरा बेहद अहम है.

ईरानी रक्षा मंत्री का ये दौरा एक बेहद दिलचस्प वक़्त पर हुआ. न केवल पश्चिम एशिया की भू-राजनीति के हिसाब से ये अहम है बल्कि हाल ही में नई दिल्ली स्थित इज़रायली दूतावास के करीब हुए इम्प्रोवाइज़्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस (आईईडी) धमाके के नज़रिए से भी इसका महत्व है. 

ईरानी रक्षा मंत्री का ये दौरा एक बेहद दिलचस्प वक़्त पर हुआ. न केवल पश्चिम एशिया की भू-राजनीति के हिसाब से ये अहम है बल्कि हाल ही में नई दिल्ली स्थित इज़रायली दूतावास के करीब हुए इम्प्रोवाइज़्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस (आईईडी) धमाके के नज़रिए से भी इसका महत्व है. इस धमाके को भारत में इज़रायली राजदूत रॉन मलका ने अपने मिशन के ख़िलाफ़ आतंकी हमला करार दिया है. शुरुआती ख़बरों में इस धमाके के पीछे ईरान का हाथ होने की आशंका जताई गई. बम धमाके की जगह से बरामद हुई एक चिट्ठी में व्यक्ति और संगठन के नाम लिखे हैं. चिट्ठी लिखनेवाले ने अपनी पहचान “सरल्लाह इंडिया हिज़्बुल्ला’’ के तौर पर बताते हुए इस धमाके की ज़िम्मेदारी ली है. इस धमाके से 2012 में घटी ऐसी ही एक और घटना की यादें ताज़ा हो गईं हैं. तब इज़रायल के एक राजनयिक की गाड़ी पर इसी इलाक़े में मोटरसाइकिल सवार हमलावरों ने हमला किया था. उनकी गाड़ी पर चुंबक जैसे चिपकने वाले विस्फोटक के ज़रिए निशाना लगाया गया था. तब भी इस हमले के लिए मुख्य रूप से ईरान पर ही इल्ज़ाम लगे थे.

भारत के सामने ऊपर बताई गई पेचीदगियों और पश्चिम एशिया की क्षेत्रीय कलहों के बीच संतुलन बिठाते हुए एक ही समय में खाड़ी देशों, इज़रायल और ईरान के साथ अच्छे और अलग-अलग स्वतंत्र रिश्ते बनाने की बड़ी चुनौती है. आज के वक़्त में अब्राहम समझौते की बदौलत इज़रायल और खाड़ी के देशों के रिश्तों में सुधार आया है. ऐसे में इज़रायल और खाड़ी देश एक तरफ़ हैं तो ईरान दूसरी तरफ़. ये कुछ ऐसी भूराजनीतिक परिस्थितियां हैं जिनसे भारत को बड़ी बारीकी से निपटना होगा. 2019 में भारत, रूस और ईरान ने हिंद महासागर और ओमान की खाड़ी में साझा नौसैनिक अभ्यास किया था. पश्चिम एशिया में रूस का दखल बढ़ रहा है, ऐसे में ये नौसैनिक अभ्यास संतुलन बिठाने की इसी कवायद का एक प्रमुख उदाहरण है. बहरहाल, खाड़ी के देशों के साथ भारत के रिश्ते ईरान और शायद इज़रायल के साथ संबंधों के मुकाबले भी बहुत तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं. बात चाहे सुरक्षा और रक्षा की हो या फिर आर्थिक सहयोग, निवेश या लोगों के बीच पारस्परिक संबंधों की, सऊदी अरब और यूएई के साथ भारत के रिश्ते आज हर क्षेत्र में काफ़ी मज़बूत हैं.

ईरान के साथ पिछड़ते संबंधों के चलते इस इलाके में पारंपरिक तौर पर भारत द्वारा अपनाए जाने वाले संतुलन के प्रयासों में थोड़ी कठिनाई दिखाई देती है. पिछले कुछ सालों में जब-तब दोनों देशों के रिश्तों में तनाव भरे कई पल देखे गए हैं.

इसके ठीक विपरीत चाहे आर्थिक या फिर सामरिक दृष्टिकोण से देखें तो हम पाते हैं कि भारत और ईरान के संबंध मानो कछुए की रफ़्तार से आगे बढ़ रहे हैं. दोनों देशों के रिश्तों में संभवत: सबसे ज़्यादा चर्चित और आशाजनक मुद्दा चाबहार बंदरगाह परियोजना का है. ये ईरान में भारत के सबसे बड़े सामरिक हित का मामला है. इस मुद्दे को छोड़ दें तो हम पाते हैं कि दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय तौर पर और कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं हो रहा है. ईरान के साथ पिछड़ते संबंधों के चलते इस इलाके में पारंपरिक तौर पर भारत द्वारा अपनाए जाने वाले संतुलन के प्रयासों में थोड़ी कठिनाई दिखाई देती है. पिछले कुछ सालों में जब-तब दोनों देशों के रिश्तों में तनाव भरे कई पल देखे गए हैं. 2013 में इराक़ से तेल लादकर भारत लौट रहे भारतीय तेल टैंकर एमटी देश शांति को ईरान ने अपने कब्ज़े में कर लिया था. उस वक़्त ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध अपने चरम पर था. वहीं दूसरी ओर अभी हाल ही में ऐसी ख़बरें आईं थी कि चाबहार-ज़ाहेदान रेल लिंक के निर्माण से भारत को एक सहयोगी के तौर पर अलग कर दिया गया है.

बेहतर संबंधों की दिशा में उठाए गए कदम

बहरहाल, इस बात की पूरी संभावना है कि निकट भविष्य में ईरान कूटनीतिक तौर पर भारत के लिए एक अहम संपर्क केंद्र बन जाए. इसके पीछे की वजह न तो भारत के लिए ऊर्जा सुरक्षा होगी और न ही पश्चिम एशिया में चल रही भूराजनीतिक खींचतान. भारत और ईरान के बीच रिश्तों में नज़दीकी की वजह होगी अफ़ग़ानिस्तान में लगातार बदलती हुई चुनौतीपूर्ण परिस्थितियां. तालिबानी दल ने हाल ही में ईरानी सत्ता प्रतिष्ठान से विचार-विमर्श के लिए वहां की यात्रा की थी. ये दल वहां चार दिनों तक रुका था. इसके ईरान दौरे का मकसद दोहा में चल रही अफ़ग़ानिस्तान की आंतरिक वार्ताओं में अपने पक्ष में समर्थन जुटाना था. अफ़ग़ानिस्तान पर होने वाली बहसों के संदर्भ में ईरान की भूमिका हमेशा एक बाहरी और ग़ैर के तौर पर रही है. ईरान का अमेरिका से उतार-चढ़ाव वाला रिश्ता रहा है और हर बार यही मुद्दा हावी रहा है. हालांकि, ईरान और तालिबान दोनों के ही लक्ष्य एक हैं. दोनों ही अफ़ग़ानिस्तान और इस इलाक़े से अमेरिकी फ़ौज की जल्द से जल्द वापसी चाहते हैं. ग़ौरतलब है कि 9/11 आतंकी हमलों के तत्काल बाद ईरान ने तालिबान के ख़िलाफ़ अमेरिकी मुहिम का साथ दिया था. हालांकि इसके बावजूद ईरान चाहता है कि अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी फ़ौज जल्द से जल्द वापस लौट जाए.

तालिबान के लिए आस-पड़ोस की गतिविधियों और हालातों से निपटना निश्चित तौर पर आसान नहीं होगा. तालिबान अपने दोहा दफ़्तर का इस्तेमाल स्वायत्त रूप से बिल्कुल एक आधिकारिक राजनयिक कार्यालय की तरह कर सकता है 

तालिबान के लिए आस-पड़ोस की गतिविधियों और हालातों से निपटना निश्चित तौर पर आसान नहीं होगा. तालिबान अपने दोहा दफ़्तर का इस्तेमाल स्वायत्त रूप से बिल्कुल एक आधिकारिक राजनयिक कार्यालय की तरह कर सकता है और अपने पड़ोसी राष्ट्रों के प्रति इसके मुताबिक अपनी नीतियां तय कर सकता है. हालांकि, पाकिस्तान द्वारा तालिबान को मुहैया कराई जा रही मददों से इन प्रयासों के रास्ते में अड़चनें आ सकती हैं. तालिबान का शीर्ष नेतृत्व चाहे इन अड़चनों से पार पाने की जितनी भी कोशिशें कर ले, उसकी नीतियों पर पाकिस्तानी दबदबे का असर बेहद मज़बूत रहने वाला है जो आगे चलकर दिखाई भी देगा. इस बात को परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए ईरान द्वारा हाल ही में पाकिस्तानी सरहद के भीतर एक सर्जिकल स्ट्राइक किए जाने की ख़बरों पर ध्यान देना पड़ेगा. ख़बरों के मुताबिक इस स्ट्राइक का मकसद ईरान और पाकिस्तान के सरहदी इलाक़ों में सक्रिय संगठन जैश-उल-अद्ल द्वारा ईरानी रिवॉल्यूशनरी गार्ड कोर (आईआरजीसी) के अगवा हुए जवानों को छुड़ाना था. बताया जाता है कि इन जवानों का अपहरण 2018 में इसी संगठन ने किया था. ये संगठन ईरान और पाकिस्तान की सीमा पर सिस्तान और बलूचिस्तान प्रांत में सक्रिय है. ये प्रकरण पाकिस्तान और ईरान के बीच अक्सर चुनौतियों से भरे रिश्तों को दर्शाता है.

इस बीच, ईरान ने अफ़ग़ानिस्तान को लगातार अपने मतलब के लिए इस्तेमाल किया है. इसके लिए अक्सर उसकी आलोचना भी होती रही है. अफ़ग़ानिस्तान से पलायन कर पहुंचे सैकड़ों शिया शरणार्थियों को ईरान समर्थित लड़ाका गुट फिटिमियों ब्रिगेड में लड़ाके के तौर पर भर्ती किया जाता रहा है. ये लड़ाके सीरिया में राष्ट्रपति बशर अल-असद को सत्ता में बरकरार रखने के ईरानी अभियान के हक़ में संघर्ष करते रहे हैं. बहरहाल, इनमें से कई शिया लड़ाके सीरिया में अपनी मुहिम ख़त्म कर अफ़ग़ानिस्तान वापस लौट चुके हैं. इनकी वापसी के बाद ईरान को अफ़ग़ानिस्तान की पेचीदा जेहादी युद्ध क्षेत्र में अपने सीधे दखल का मौका मिल गया है. ईरान इन लड़ाकों के ज़रिए अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की बढ़ती ताक़त और इस वजह से पाकिस्तान के बढ़ते प्रभुत्व की संभावित काट निकालने की फिराक में है. ये देखना दिलचस्प होगा कि अगर तालिबान को काबुल की सत्ता में पूर्ण या अहम दखल मिल जाए तो ईरान-समर्थित फिटिमियों लड़ाका ब्रिगेड के प्रति इसकी नीति क्या होगी. ख़ासकर तब जब ईरान और तालिबान दोनों चाहते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी और दूसरी विदेशी फ़ौज अंतिम तौर पर पूरी तरह से बाहर निकल जाए. जाने-माने विद्वान कनिष्क नवाबी के मुताबिक इनमें से कई अफ़ग़ान शिया लड़ाके आज आधिकारिक तौर से सीरियाई समाज का हिस्सा बन गए हैं. उनके पास सीरिया का पासपोर्ट है और वो सीरिया में ईरान के बढ़ते हुए मज़बूत प्रभाव वाले क्षेत्र में बस गए हैं. इस संदर्भ में उन्होंने हमें याद दिलाया कि ईरान के शाह मोहम्मद रज़ा पहलावी के ज़माने से ही अफ़ग़ान शियाओं को ईरान अपने मोहरे की तरह इस्तेमाल करता रहा है. इतना ही नहीं अफ़ग़ानिस्तान में ईरान के इन मोहरों को हर महीने 50-60 वीज़ा बांटे जाते हैं. बाद में इन्हीं वीज़ा को अफ़ग़ानिस्तान के काले बाज़ार में ऊंची क़ीमतों पर फिर से बेच दिया जाता है. इनके ख़रीदारों में कई स्थानीय राजनेता भी शामिल हैं. नवाबी इन फिटिमियों लड़ाकों को ‘ईरान के अच्छे तालिबान’ की संज्ञा देते हैं. इस नज़रिए से देखें तो हमें समझ में आएगा कि ईरान इस लड़ाका गुट को कहां स्थापित करना चाहता है. इन तमाम बातों से स्पष्ट है कि अफ़ग़ानी जेहादी संगठन इन पेचीदगियों का एक हिस्सा भर हैं और कई विदेशी गुट भी यहां की समस्याओं को और विकराल बनाने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रख रहे हैं. वैसे इन बाहरी तत्वों की वजह से हमेशा की तरह अफ़ग़ानिस्तान के आम लोगों को नतीजे भुगतने पड़ रहे हैं.

बाइडेन के रुख़ पर होगी नज़र

अगर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन का प्रशासन मई तक अमेरिकी फ़ौज की संपूर्ण वापसी पर अपनी रज़ामंदी दे देता है तो भारत के लिए इन क्षेत्रीय मतभेदों और दरारों को समझना और उसके मुताबिक कदम उठाना ज़रूरी है. तालिबान ने पहले से ही धमकी दे रखी है कि अगर अमेरिका ऐसा नहीं करता है और पिछले साल दोहा में अमेरिका-तालिबान के बीच हुए समझौते का पालन नहीं करता तो इलाक़े में हिंसक घटनाओं में बढ़ोतरी हो सकती है. और तो और नेटो के ठिकानों पर भी हमले देखने को मिल सकते हैं. इन घटनाक्रमों के बीच हिंसाग्रस्त अफ़ग़ानिस्तान और तालिबान के संदर्भ में ईरान के साथ रिश्तों के प्रसार से भारत को यहां अपने पत्ते फेंकने में मदद मिलेगी. हालांकि, भारत के लिए इनमें से कोई भी कार्य आसान नहीं होगा. ख़ासकर ईरानी सत्ता का मनोविज्ञान उत्तरजीविता पर आधारित है. ईरानी राजसत्ता इसी नज़रिए से अपना कार्यसंचालन करती है. यकीनन ईरान की सरकार भारत पर वहां की अर्थव्यवस्था में और अधिक सहयोगात्मक नीतियां अपनाने का दबाव बनाएगी. इतना ही नहीं सऊदी अरब और इज़रायल के साथ भारत के करीबी रिश्तों की बुनियाद पर ईरान वैश्विक और क्षेत्रीय नज़रियों से अपने हितों के लिए ज़रूरी संतुलन और रक्षा कवच के तौर पर इनका इस्तेमाल करना चाहेगा. इस प्रसंग में भारत-ईरान रिश्तों की कल्पना के लिहाज से चाबहार बंदरगाह परियोजना के बारे में हाल में हुए सकारात्मक बदलावों और घटनाक्रमों की चर्चा करना ज़रूरी हो जाता है. ये प्रकरण द्विपक्षीय रिश्तों के मामले में आने वाले समय के लिए छोटा ही सही पर एक बेहद ज़रूरी मोड़ है.

ईरानी सत्ता का मनोविज्ञान उत्तरजीविता पर आधारित है. ईरानी राजसत्ता इसी नज़रिए से अपना कार्यसंचालन करती है. यकीनन ईरान की सरकार भारत पर वहां की अर्थव्यवस्था में और अधिक सहयोगात्मक नीतियां अपनाने का दबाव बनाएगी.

ईरानी रक्षा मंत्री ने हिंद महासागर क्षेत्र के रक्षा मंत्रियों के सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए खुद को मिले न्योते को भारत और ईरान के संबंधों के लिहाज से एक “नया मोड़” बताते हुए दोनों देशों के बीच के रिश्ते को एक “अच्छे स्तर” पर बताया. इस सम्मेलन में यूएई जैसे कुछ अहम सदस्य देशों की ग़ैर-मौजूदगी ज़ाहिर तौर पर भारत द्वारा दूसरी भूराजनीतिक पेजीदगियों से किनारा कर ईरान की मेज़बानी करने में पूरी एकाग्रता और योजनाबद्ध तरीके से की जा रही कोशिशों को दर्शाता है. यहां ये भी ग़ौरतलब है कि यूएई हिंद महासागर तटीय क्षेत्रीय सहयोग संघ का सदस्य है.

हिंद महासागर क्षेत्र और पश्चिम एशियाई देशों से अपने संबंधों में संतुलन बिठाने की भारत की कोशिशों से परे भारत और ईरान के बीच के रिश्तों की एक अहम कड़ी निस्चित तौर पर अफ़ग़ानिस्तान बनने वाला है. ये भी सच्चाई है कि भारत के लिए अफ़ग़ानिस्तान और ईरान के आपसी मसलों से निपटना कतई आसान नहीं होगा. भूराजनीतिक दृष्टि से भारत के लिए यहां बेहद सीमित विकल्प मौजूद हैं, लिहाजा यहां हर कदम फूंक-फूंक कर रखने की ज़रूरत है. अफ़ग़ानिस्तान का मसला भविष्य में क्या मोड़ लेता है, भारत को इस पर पैनी निग़ाह रखनी होगी. हो सकता है आने वाले महीनों (या वर्षों तक) में यहां उथलपुथल, अव्यवस्थित और मुश्किलों भरा माहौल बरकरार रहे.

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