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इस महामारी ने एक बार फिर से हमें आगाह किया है कि भारत की स्वास्थ्य सेवाओं को और मज़बूत किए जाने की ज़रूरत है.
भारत में कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर शुरू होने के तुरंत बाद, भारत भर में दवा की दुकानों के बाहर लोगों की लंबी लाइनें लगने की तस्वीरें तमाम समाचारपत्रों में भर गई थीं. ये लोग केवल डॉक्टर के पर्चे पर मिलने वाली दवा रेमडेसिविर ख़रीदने के लिए लाइनों में लगे हुए थे. रेमडेसिविर को कोविड-19 के मरीज़ों को देने की सलाह डॉक्टर अपने पर्चों में लिख रहे थे. इस वायरस-रोधी दवा का विकास वर्ष 2014 में इबोला वायरस और मिडिल ईस्ट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (MERS) बीमारियों का इलाज करने के लिए किया गया था. इस दवा के ज़रिए इंसानों की कोशिकाओं में मौजूद वायरस को ख़ुद को कॉपी करके अपनी संख्या बढ़ाने से रोका जाता है.
इस वायरस-रोधी दवा का विकास वर्ष 2014 में इबोला वायरस और मिडिल ईस्ट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (MERS) बीमारियों का इलाज करने के लिए किया गया था.
रेमडेसिविर के बारे में अप्रैल 2020 में प्रकाशित एक छोटे स्तर के ट्रायल की रिपोर्ट ने इशारा किया था कि ये नए कोरोना वायरस (SARS-CoV-2) को शरीर में और अधिक फैलने से रोकता है. हालांकि, इस ट्रायल में ये पता नहीं चला था कि रेमडेसिविर बीमारी का दौर कम करने या मौत होने से रोकने में कारगर है या नहीं. कोरोना वायरस से लड़ा जा सके, ऐसी किसी और दवा के मौजूद न होने के चलते, रेमडेसिविर पर इन शुरुआती रिसर्च के नतीजों के आधार पर, बहुत से देशों ने रेमडेसिविर के आपातकालीन प्रयोग की इजाज़त (EUA) दे दी गई थी. भारत ने भी रेमडेसिविर के आपातकालीन प्रयोग की मंज़ूरी दे दी थी. बाद में क्लिनिकल ट्रायल में कोविड-19 के इलाज के लिए रेमडेसिविर के ‘ऑफ़ लेवल प्रयोग’ [1] की सिफ़ारिशें भी की जाने लगीं. कोरोना के इलाज में दवाओं के असर को समझने के साथ साथ कई व्यापक परीक्षणों-जैसे कि विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा किए गए सॉलिडैरिटी ट्रायल, फ्रांस के राष्ट्रीय मेडिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा किए गए डिस्कवरी ट्रायल (DisCoVeRy), अमेरिका में किए गए एक अन्य परीक्षण के साथ साथ कोरोना के इलाज पर प्रभाव का पता लगाने के लिए चीन में भी दो ट्रायल किए गए. इन परीक्षणों में अन्य दवाओं के साथ साथ रेमडेसिविर भी शामिल थी.
वर्ष 2020 के ज़्यादातर महीनों में कोरोना वायरस के इलाज के लिए रेमेडेसिविर के इस्तेमाल की सिफ़ारिश व्यापक स्तर पर की जाती रही थी. भारत के कई दवा निर्माताओं ने रेमडेसिविर के जेनरिक प्रतिरूप को बनाने का लाइसेंस, गाइलीड नाम की कंपनी से हासिल किया था. गाइलीड के पास ही रेमडेसिविर के फॉर्मूले का पेटेंट था. ख़बरों के मुताबिक़, 2020 की आख़िरी तिमाही में भारत के निर्माताओं के पास हर महीने रेमडेसिविर के लगभग 35 लाख इंजेक्शन बनाने की क्षमता थी. हालांकि, रेमडेसिविर काफ़ी महंगी थी. लेकिन इसकी आपूर्ति पर्याप्त मात्रा में हो रही थी. अक्टूबर 2020 में रेमडेसिविर को लेकर स्थिति तब बदल गई, जब विश्व स्वास्थ्य संगठन की अगुवाई में कई देशों में कोरोना के मरीज़ों के वेंटिलेटर पर जाने या उनकी मौत को लेकर हुए सॉलिडैरिटी ट्रायल के नतीजे जारी किए गए. उसके बाद से विश्व स्वास्थ्य संगठन, कोविड-19 के इलाज में रेमडेसिविर के प्रयोग का सुझाव नहीं देता है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन, कोविड-19 के इलाज में रेमडेसिविर के प्रयोग का सुझाव नहीं देता है.
भारत में कोविड-19 के प्रबंधन में रेमडेसिविर के प्रयोग को लेकर डॉक्टर बंटे हुए हैं. बहुत से लोगों ने अपनी राय और अनुभव को तरज़ीह देते हुए कोविड-19 के इलाज में रेमडेसिविर का प्रयोग करने का सुझाव देना जारी रखा. [2] दिसंबर 2020 तक भारत में कोरोना के मरीज़ों की संख्या काफ़ी कम हो गई थी, जबकि रेमडेसिविर की आपूर्ति मांग से कहीं ज़्यादा थी. इसके कारण दवा निर्माताओं ने रेमडेसिविर का उत्पादन करना बंद कर दिया. ख़बरों के मुताबिक़, 2021 की शुरुआत में रेमडेसिविर का उत्पादन बिल्कुल ही बंद कर दिया गया था.
इसके बावजूद, जब भारत में कोरोना की सेकेंड वेव के दौरान संक्रमण की संख्या बढ़ने लगी, तो रेमडेसिविर की मांग तेज़ी से बढ़ी. हालांकि, अब भारतीय निर्माताओं के पास रेमडेसिविर इंजेक्शन बनाने की क्षमता थी; फिर भी इसका उत्पादन और वितरण का चक्र आपूर्ति दोबारा शुरू करने में 20-25 दिन का समय लगता है. आपूर्ति और मांग के इसी अंतर के कारण मरीज़ों के चिंतित परिजन रेमडेसिविर ख़रीदने के लिए लंबी क़तारों में लगने लगे थे. भारत में मेडिकल ऑक्सीजन की कमी की ख़बरें आने से पहले, रेमडेसिविर ख़रीदने के लिए दवा की दुकानों के आगे लगी लंबी क़तारों की ख़बरों ही सुर्ख़ियां बटोर रही थीं. रेमडेसिविर की कमी होने का असर ये हुआ कि ब्लैक मार्केट में ये दवा बाज़ार भाव से कई गुना क़ीमत पर बेची जाने लगी.
कोविड-19 की महामारी ने भारत की स्वास्थ्य सेवाओं की बुनियादी कमियों को उजागर कर दिया है. हालांकि ऐसी कई स्वास्थ्य योजनाएं हैं जिनके अंतर्गत भारत के राज्य मरीज़ों को दवाएं और जांच की सेवाएं मुफ़्त में देते हैं. फिर भी देश में हर छोटे या बड़े अस्पताल और दूसरी स्वास्थ्य सेवाओं के केंद्रों के बाहर दवाओं की दुकानों की क़तारें इस बात का सबूत हैं कि भारत के सरकारी अस्पतालों में दवाओं और जांच की सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं. भारत में स्वास्थ्य सेवा के आधिकारिक प्रकाशन नेशनल हेल्थ अकाउंट्स ऑफ़ इंडिया ने साल दर साल ये बताया है कि देश में दवाओं और परीक्षणों हर साल होने वाले कुल व्यय लगभग एक लाख 70 हज़ार करोड़ रुपए का दस प्रतिशत से भी कम हिस्सा सरकार देती है और दवा व जांच का लगभग 90 प्रतिशत ख़र्च लोगों को अपनी जेब से देना पड़ता है. किसी भी मरीज़ को अस्पताल में भर्ती कराने या बाहर ही इलाज करने पर दवाओं का ख़र्च कुल इलाज का एक बड़ा हिस्सा होता है, जिसे मरीज़ को ही उठाना पड़ता है (Out of Pocket Expenditure OOPE). किसी भी व्यवस्था या इलाज की सूरत में दवाओं और जांच की सुविधाएं लोगों की ज़रूरत के हिसाब से उपलब्ध होनी चाहिए. हालांकि, रेमडेसिविर की कमी, भारत में लोगों को सस्ती दरों पर दवाएं उपलब्ध कराने की चुनौती का बस मामूली सा हिस्सा है. इसके अतिरिक्त, रेमडेसिविर जैसी आवश्यक दवा की कालाबाज़ारी (और उसके बाद मेडिकल ऑक्सीजन की कालाबाज़ारी) को देखते हुए मांग इस बात की हो रही है कि स्वास्थ्य से जुड़े ऐसे अवैध कारोबार पर सख़्ती करके उसे नियंत्रित किया जाए
रेमडेसिविर जैसी आवश्यक दवा की कालाबाज़ारी (और उसके बाद मेडिकल ऑक्सीजन की कालाबाज़ारी) को देखते हुए मांग इस बात की हो रही है कि स्वास्थ्य से जुड़े ऐसे अवैध कारोबार पर सख़्ती करके उसे नियंत्रित किया जाए.
इसका एक अन्य आयाम भी है. वैसे तो क्लिनिकल ट्रायल में रेमडेसिविर, कोविड-19 के इलाज में लाभदायक नहीं पायी गई है; फिर भी, भारत में डॉक्टर और यहां तक कि कोविड-19 की टास्क फोर्स और विशेषज्ञों का समूह, कोविड-19 के इलाज के लिए रेमडेसिविर का इस्तेमाल करने की सलाह, भले ही कुछ विशेष परिस्थितियों में, पर अभी भी दे रहे हैं. लेकिन, मीडिया की ज़मीनी रिपोर्ट बताती हैं कि बहुत से डॉक्टर कोविड-19 के इलाज में रेमडेसिविर का प्रयोग करने की सलाह बड़े पैमाने पर ऐसे लोगों को भी दे रहे हैं, जो सुझाव वाले समूहों में नहीं आते. इससे एक और चुनौती खड़ी होती है कि मेडिकल समुदाय किस तरह से वैज्ञानिक परीक्षणों और निजी अनुभवों के टकराव से जूझ रहा है. इससे ये भी पता चलता है कि देश में इलाज के मानक दिशा निर्देशों का पर्याप्त रूप से पालन नहीं किया जा रहा है.
भारत इस समय कोविड-19 की दूसरी लहर से जूझ रहा है. ऐसे में रेमडेसिविर जैसी दवाओं की आपूर्ति की चुनौती आने वाले दिनों में दूर हो जाएगी. लेकिन, हमें लोगों के इलाज में वैज्ञानिक अनुसंधानों के सबूतों के आधार पर दिशा निर्देशों का विकास करना होगा, जिसके लिए और अधिक काम करने की आवश्यकता है. दवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए सरकार को इसके लिए आवंटन और निवेश को पूर्वानुमानों के अनुसार बढ़ाना होगा. समय पर दवाएं ख़रीदने के साथ साथ उनकी आपूर्ति श्रृंखलाओं को समय के हिसाब से मज़बूत बनाने की ज़रूरत है. जैसे ही महामारी की मौजूदा लहर ख़त्म होती है, तो इन पहलुओं का विश्लेषण करने और इनसे सबक़ सीखने की ज़रूरत है, जिससे सुधार के क़दम उठाए जा सकें. इस महामारी ने एक बार फिर से हमें आगाह किया है कि भारत की स्वास्थ्य सेवाओं को और मज़बूत किए जाने की ज़रूरत है.
[1] दवा का प्रयोग बीमारी की ऐसी स्थिति के लिए करने की इजाज़त देना, जिसके लिए इसे मूल रूप से मंज़ूरी नहीं दी गई थी. या फिर किसी दवा का ऐसे फ़ॉर्मूले का इस्तेमाल करना, जिसकी मूल रूप से इजाज़त न दी गई हो.
[2] 22 अप्रैल 2021 को AIIMS/ICMR-COVID-19 की राष्ट्रीय टास्क फोर्स/संयुक्त निगरानी समूह के कोविड-19 के वयस्क मरीज़ों के इलाज से संबंधित क्लिनिकल दिशा निर्देशों ने रेमडेसिविर के ‘ऑफ लेवल यूज़’ की मंज़ूरी दी थी, अगर मरीज़ अस्पताल में ऑक्सीजन थेरेपी ले रहे हों और उनके बीमार होने को दस से कम दिन बीते हों. ये दवा ऐसे मरीज़ों को दिए जाने का सुझाव क़तई नहीं दिया गया है, जो घर में आइसोलेट हों या जो ऑक्सीजन सपोर्ट पर न हों.
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Chandrakant Lahariya is a medical doctor epidemiologist public policy and health systems expert. He is the lead co-author of Till We Win: Indias Fight Against ...
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