Published on Jul 05, 2021 Updated 0 Hours ago

भारत, चीन और पाकिस्तान भले ही एक दूसरे के कट्टर विरोधी हों, पर अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सेना हटने के बाद सुरक्षा और आर्थिक मोर्चे की बड़ी चुनौतियों के मामले में तीनों देश एक ही स्थिति में हैं. 

क्या अफ़ग़ानिस्तान में चीन, पाकिस्तान और भारत आपस में सहयोग कर सकते हैं?

29 फ़रवरी 2020 को अमेरिका और तालिबान ने एक ऐतिहासिक समझौते पर दस्तख़त किए थे. इससे अमेरिका के इतिहास के सबसे लंबे समय तक चलने वाले एक ऐसे संघर्ष पर विराम लगा, जिसमें 2 ख़रब डॉलर की भारी रक़म और क़रीब 2400 अमेरिकी नागरिकों की जान स्वाहा हो गई. इसके बाद, राष्ट्रपति जो बाइडेन ने घोषणा की कि 11 सितंबर 2021 तक सभी अमेरिकी सैनिक अफ़ग़ानिस्तान छोड़ देंगे. 16 मई 2021 को चीन के विदेश मंत्री वैंग यी ने अमेरिका के अपनी सेना बुलाने को जल्दबाज़ी भरा फ़ैसला क़रार दिया, क्योंकि इससे शांति प्रक्रिया और क्षेत्रीय स्थिरता पर बहुत बुरा असर पड़ा है. इसके अलावा, चीन के विदेश मंत्री ने संयुक्त राष्ट्र से कहा कि वो अपनी वाजिब भूमिका निभाए. वैंग यी ने आठ सदस्यों वाले शंघाई सहयोग संगठन (SCO) से भी कहा कि वो हालात पर और गंभीरता से ध्यान दे. वैंग यी ने अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी पर 15 मई को पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी से भी फ़ोन पर बातचीत की. यी ने दोहराया कि पिछले 70 साल में जब भी दोनों देशों के बुनियादी हितों की बात आई है, तो पाकिस्तान और चीन की दोस्ती सदाबहार साबित हुई है.

अब सवाल ये है कि जो चीन, अमेरिका की मौजूदगी को, ‘अफ़ग़ानिस्तान की राजनीति को तोड़ने-मरोड़ने वाला’ और चीन के पड़ोस में अस्थिरता की वजह कहता था, वही चीन अब अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका की विदाई को लेकर इतना चिंतित क्यों है? एक स्थायी समाधान की संभावना  दिखने के बावजूद, अमेरिका के अचानक से अपनी सेना वापस बुलाने से  सिर्फ़ अफ़ग़ानिस्तान, बल्कि पूरे क्षेत्र की स्थिरता पर सवाल खड़े हो गए हैं. पाकिस्तान और चीन जैसे क्षेत्रीय पड़ोसी देशों पर इसके दूरगामी नतीजे  सिर्फ़ सुरक्षा संबंधी ख़तरों बल्कि आर्थिक चुनौतियों के रूप में भी दिख सकते हैं. हो सकता है कि चीन और पाकिस्तान, लंबे समय से चली  रही अपनी दोस्ती के चलते, अफ़ग़ानिस्तान में स्थिरता क़ायम करने के लिए आपसी सामरिक सहयोग करते रहें. लेकिन, अमेरिकी सेना पीछे हटने के गंभीर नतीजों का असर भारत पर भी पड़ेगा. ये असर  सिर्फ़ उत्तरी सीमा की सुरक्षा पर पड़ेगा, बल्कि अफ़ग़ानिस्तान में भारत के भारी निवेश पर भी दिख सकता है. इसीलिए, इससे पहले के अनुभव भले ही कुछ भी रहे हों, लेकिन, अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका के पीछे हटने के बाद वहां चीन, भारत और पाकिस्तान के बीच सहयोग की काफ़ी संभावनाएं हैं

अब सवाल ये है कि जो चीन, अमेरिका की मौजूदगी को, ‘अफ़ग़ानिस्तान की राजनीति को तोड़ने-मरोड़ने वाला’ और चीन के पड़ोस में अस्थिरता की वजह कहता था, वही चीन अब अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका की विदाई को लेकर इतना चिंतित क्यों है?

अफ़ग़ानिस्तान के कुल 398 ज़िलों में से तालिबान 83 ज़िले या 27 प्रतिशत क्षेत्र को नियंत्रित करता है. वहीं सरकारी सेनाएं 97 ज़िले या 30 प्रतिशत इलाक़े पर क़ाबिज़ हैं. बाक़ी के इलाक़े पर नियंत्रण की लड़ाई चल रही है. लेकिन, 2001 के बाद से आज तालिबान सबसे मज़बूत स्थिति में हैं. इतने ज़िलों में ज़बरदस्त प्रभाव रखने वाले तालिबान से ये उम्मीद बिल्कुल नहीं है कि वो अमेरिका से हुए समझौते में अपने हिस्से की शर्तें पूरी करेगा. क्योंकि, तालिबान का मानना है कि अफ़ग़ानिस्तान की सरकार उन्हें रोक नहीं पाएगी. तालिबान के बर्ताव से शांति समझौते के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर भी सवाल उठ रहे हैं. शांति वार्ता को तेज़ी से आगे बढ़ाने के लिए 24 अप्रैल को इस्तांबुल में अफ़ग़ानिस्तान सरकार और तालिबान के बीच एक बैठक होने वाली थी. इस बैठक को तब अनिश्चितकाल के लिए टालना पड़ा, जब तालिबान के प्रतिनिधिमंडल ने बैठक का बहिष्कार कर दिया. अब चूंकि 11 सितंबर को अमेरिका के आख़िरी सैनिक अफ़ग़ानिस्तान छोड़ देंगे, तो तालिबान का बार बार दिखने वाला ऐसा रवैया बताता है कि एक सर्वमान्य राजनीतिक समाधान हो पाना असंभव है, और तालिबान सत्ता के एक बड़े हिस्से पर क़ाबिज़ हो जाएंगे.

चीन पर क्या असर पड़ेगा?

जब 2001 में अमेरिका ने अफग़ानिस्तान पर हमला किया था, तो चीन ने इसे यूरेशियाई महाद्वीप के केंद्र में अमेरिका के मज़बूती से पांव जमाने वाले क़दम के तौर पर देखा था, जिसका इस्तेमाल आगे चलकर चीन को क़ाबू करने के लिए हो सकता था. लेकिन, पिछले कुछ वर्षों में चीन 9/11 के बाद के हर अमेरिकी युद्ध को अपने लिए फ़ायदे का सौदा मानने लगा. चीन ने पिछले दो दशकों को अपने लिए सामरिक अवसर खुलने के रूप में देखा और अपनी ताक़त बढ़ाई. वहीं अमेरिका इन युद्धों में उलझा रहा और इन क्षेत्रों में उसकी ख़रबों डॉलर की रक़म बर्बाद होती रही. इससे शायद चीन को धीरे धीरे एक महाशक्ति के रूप में उभरकर अमेरिका के मुक़ाबले में खड़ा होने का मौक़ा मिला.

अमेरिकी सेना की वापसी का मतलब होगा कि अफ़ग़ानिस्तान, वीगर उग्रवादियों का सुरक्षित ठिकाना बन जाएगा. इससे चीन की सुरक्षा संबंधी चिंताएं बढ़ेंगी और उसे भारत के साथ सीमा संघर्ष और दक्षिणी चीन सागर जैसे अन्य क्षेत्रों से ध्यान हटाकर, इस चुनौती से निपटने में अपने संसाधन और ध्यान लगाना पड़ेगा.

आम तौर पर चीन सैद्धांतिक रूप से विदेशी दख़ल      का विरोध करता रहा है. लेकिन, इराक़ युद्ध के उलट चीन के नेताओं ने अफ़ग़ानिस्तान पर अमेरिका के आक्रमण का समर्थन किया था. चीन ने अल क़ायदा और ओसामा बिन लादेन की निंदा करने वाले संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव पर दस्तख़त करते हुए नई सरकार की मांग की थी. इसकी बड़ी वजह चीन की ये सोच थी कि तालिबान के राज में अफ़ग़ानिस्तान से लगने वाली चीन की सीमाएं भयंकर अस्थिरता की शिकार हो सकती हैं. यहां पर आतंकवादी संगठनों और वीगर उग्रवादी संगठनों को पनाह मिल सकती है और वो शिंजियांग में आज़ादी की मांग तेज़ कर सकते हैं. इनमें वो संगठन भी शामिल है, जिस पर 1990 और 2000 के दशक में चीन पर कई आतंकवादी हमलों का आरोप लगा था. अमेरिकी सेना की वापसी का मतलब होगा कि अफ़ग़ानिस्तान, वीगर उग्रवादियों का सुरक्षित ठिकाना बन जाएगा. इससे चीन की सुरक्षा संबंधी चिंताएं बढ़ेंगी और उसे भारत के साथ सीमा संघर्ष और दक्षिणी चीन सागर जैसे अन्य क्षेत्रों से ध्यान हटाकर, इस चुनौती से निपटने में अपने संसाधन और ध्यान लगाना पड़ेगा.

पाकिस्तान पर क्या असर होगा?

पाकिस्तान की 2670 किलोमीटर लंबी सीमा अफ़ग़ानिस्तान से लगती है. वो भारत से जुड़े क्षेत्रीय सुरक्षा संबंधी हितों के चलते, अफ़ग़ानिस्तान में सक्रिय तालिबान जैसे कई आतंकवादी संगठनों का सुरक्षित ठिकाना रहा है. लेकिन, एक स्थिर अफ़ग़ानिस्तान में अपने सबसे मज़बूत सहयोगी चीन के हितों, और अमेरिकी सेनाएं हटने के बाद बढ़ने वाली सुरक्षा संबंधी और अन्य चुनौतियों के चलते, वहां शांति बहाली की कोशिश में पाकिस्तान का भी फ़ायदा है.

सबको स्वीकार्य होने वाले किसी राजनीतिक समाधान के बग़ैर, देश में इन सभी ताक़तों के बीच गृह युद्ध छिड़ने का डर है. इससे शरणार्थियों का संकट पैदा होगा, तो इसका सीधा असर पाकिस्तान पर पड़ेगा, जिसकी आर्थिक स्थिति पहले से ही ख़राब है.

अमेरिका के पीछे हटने और अफ़ग़ानिस्तान में भारत या चीन के सीधे दखल देने की अनिच्छा का मतलब ये होगा कि अफ़ग़ानिस्तान में अराजकता फैली तो उसका पूरा का पूरा बोझ पाकिस्तान को ही उठाना पड़ेगा. सिर्फ़ तालिबान पर ही पूरा दांव खेलने के बजाय, उसे ये मानना पड़ेगा कि अफ़ग़ानिस्तान में कई जातीयताएं और राजनीतिक ताक़तें हैं. सबको स्वीकार्य होने वाले किसी राजनीतिक समाधान के बग़ैर, देश में इन सभी ताक़तों के बीच गृह युद्ध छिड़ने का डर है. इससे शरणार्थियों का संकट पैदा होगा, तो इसका सीधा असर पाकिस्तान पर पड़ेगा, जिसकी आर्थिक स्थिति पहले से ही ख़राब है. पाकिस्तान, विदेश से मिलने वाले क़र्ज़ पर बहुत अधिक निर्भर है. हाल ही में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) ने उसे 50 करोड़ डॉलर का क़र्ज़ दिया है. इससे पहले 2019 मे भी IMF ने पाकिस्तान को 6 अरब डॉलर का क़र्ज़ दिया था. पाकिस्तान की एक और बड़ी चिंता ये है कि अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का क़ब्ज़ा हुआ तो ख़ुद पाकिस्तान में तालिबान जैसे फिर से सिर उठा रहे इस्लामिक आतंकवादियों का हौसला बढ़ेगा और उसकी सुरक्षा संबंधी सिरदर्द बहुत बढ़ जाएंगे. इसके अलावा, पाकिस्तान के क़बाइली इलाक़े या संघ प्रशासित क़बीलाई क्षेत्र (FATA) अफ़ग़ानिस्तान की सीमा से लगे हैं. इन क्षेत्रों में उग्रवाद की चुनौती पहले से मौजूद है और क़बीले अक्सर आत्मनिर्णय के अधिकार की मांग करते रहे हैं. अफ़ग़ानिस्तान में किसी भी तरह की अस्थिरता का असर इन क्षेत्रों पर पड़ेगा और पाकिस्तान की पहले से ही बड़ी सुरक्षा संबंधी चुनौतियां और भी गंभीर हो जाएंगी.

भारत पर क्या असर होगा?

अगर अफ़ग़ानिस्तान में कोई राजनीतिक समाधान नहीं निकला, तो पाकिस्तान इस क्षेत्र में अपने सबसे भरोसेमंद मोहरों तालिबान के भरोसे रह जाएगा. भारत के ख़िलाफ़ अगर ज़रूरत पड़ी तो पाकिस्तान, अफ़ग़ान तालिबान की मदद करने में भी नहीं हिचकेगा और इससे सीधे तौर पर भारत के सुरक्षा हितों को चुनौती मिलेगी. भारत के सामने चिंता इस बात की भी है कि तालिबान की सरकार बनी तो उसमें हक़्क़ानी नेटवर्क और भारत विरोधी दूसरे संगठनों जैसे कि लश्करतैयबा और जैशमोहम्मद की बड़ी भूमिका का ख़तरा भी होगा. भारत की सुरक्षा एजेंसियों का मानना है कि इन संगठनों ने पहले ही बड़ी संख्या में अफ़ग़ानिस्तान में डेरा जमा लिया है. भारत की सबसे बड़ी सुरक्षा संबंधी चुनौती तो ये होगी कि अफ़ग़ान राजनीति में तालिबान और उसके कट्टर इस्लामिक विचारों का असर बढ़ा, तो इसके दायरे में कश्मीर जैसे उसके इलाक़े भी  सकते हैं. कोविड-19 महामारी अभी भी देश पर क़हर ढा रही है. इनके अलावा चीन से लंबे समय से चला  रहा सीमा विवाद और घरेलू राजनीतिक चुनौतियों को देखते हुए भारत, उत्तर में सुरक्षा संबंधी इस ख़तरे का सामना करने से बचना चाहेगा.

चीन अपने सामरिक हितों के लिहाज़ से तालिबान से हेल मेल करता रहा है. वहीं, पाकिस्तान तो खुलकर तालिबान को पालता पोसता आया है. लेकिन, भारत हमेशा से ही इसके ख़िलाफ़ रहा है. डर है कि अमेरिकी सेना वापस जाने के बाद, अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का ही राजनीतिक दबदबा होगा. इससे इस क्षेत्र में भारत के आर्थिक हितों पर बुरा असर पडेगा. वर्ष 2001 के बाद से अब तक, भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में विकास के प्रोजेक्ट में क़रीब 3 अरब डॉलर का निवेश किया है. हो सकता है कि इसके चलते भारत को अपनी अफ़ग़ानिस्तान नीति में कुछ बदलाव करना पड़े. उसे तालिबान से बात करने की अपनी अनिच्छा छोड़नी पड़े. हालांकि, यूरोपीय संघ और भारत के हालिया साझा बयान में साफ़ तौर पर ये कहा गया था कि भारत, अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की सरकार का समर्थन नहीं करेगा. इसीलिए, भले ही भारत का बहुत कुछ दांव पर लगा हो, और उसे आर्थिक मोर्चे पर भारी क़ीमत चुकानी पड़े. पर, वो तालिबान से संवाद तगड़ा विरोध करता आया है.

वर्ष 2001 के बाद से अब तक, भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में विकास के प्रोजेक्ट में क़रीब 3 अरब डॉलर का निवेश किया है. हो सकता है कि इसके चलते भारत को अपनी अफ़ग़ानिस्तान नीति में कुछ बदलाव करना पड़े.

विदेश मंत्री वैंग यी ने अफ़ग़ानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र को अपनी वाजिब भूमिका निभाने का बयान देकर ये जता दिया है कि चीन, अफ़ग़ानिस्तान में स्थिरता चाहता है. चीन, पाकिस्तान का सबसे क़रीबी सहयोगी भी है और उसे कई बार आर्थिक  (जैसे कि चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारे में 60 अरब डॉलर का निवेश), सैन्य और तकनीकी क्षेत्र के साथ साथ कोविड-19 महामारी से निपटने में मदद देता आया है. कश्मीर के मसले पर चीन, पाकिस्तान के रुख़ का समर्थन करता रहा है. वहीं, पाकिस्तान, शिंजियांग, तिब्बत और ताइवान के मसले पर चीन की हां में हां मिलाता आया है. इसीलिए, चीन की इच्छा को देखते हुए पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान में भी निश्चित रूप से सहयोग करेगा. हालांकि, भारत के उनके साथ सहयोग पर सवालिया निशान लगा हुआ है. क्योंकि, वर्ष 2020 में लद्दाख में संघर्ष के बाद से चीन और भारत के रिश्ते बहुत ख़राब हो गए हैं. इसके अलावा, पिछले कुछ वर्षों के दौरान उरी, पुलवाम, बालाकोट और कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने जैसे मसलों पर भारत और पाकिस्तान के संबंध भी काफ़ी बिगड़ गए हैं

भारत, चीन और पाकिस्तान भले ही एक दूसरे के कट्टर विरोधी हों, पर अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सेना हटने के बाद सुरक्षा और आर्थिक मोर्चे की बड़ी चुनौतियों के मामले में तीनों देश एक ही स्थिति में हैं. आपसी सहयोग की राह में मौजूद तमाम रोड़ों के बावजूद, तीनों देशों के हित में यही होगा कि वो अफ़ग़ानिस्तान में शांति और व्यवस्था को बढ़ावा देने में सहयोग करें. अमेरिकी सैनिकों की वापसी से चीन और भारत ख़ुश नहीं हैं. हैरानी की बात तो ये है कि पाकिस्तान भी ज़िम्मेदार तरीक़े से सेना की वापसी के सिद्धांत की बात कर रहा है. हालांकि, तीनों ही देशों ने अफ़ग़ान शांति वार्ताओं का खुले दिल से स्वागत किया है, जिसका मतलब ये है कि वो बातचीत से राजनीतिक समाधान निकालने और सत्ता में सबकी उचित साझेदारी के इच्छुक हैं. एक स्थिर अफ़ग़ानिस्तान की ये साझा ख़्वाहिश ही है, जो भारत, चीन और पाकिस्तान के बीच त्रिपक्षीय सहयोग की संभावना को बल देती है, भले ही अभी उसकी उम्मीद बहुत कम हो.

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