Author : Angad Singh Brar

Expert Speak India Matters
Published on Apr 16, 2024 Updated 0 Hours ago

हाई एंबीशन कोएलिशन के देश एक ऐसी मज़बूत प्लास्टिक संधि चाहते हैं तो प्लास्टिक प्रदूषण ख़त्म करने के लिए भारत जैसे विकासशील देशों पर भी कानूनी रूप से बाध्यकारी हो. इसी वजह से प्लास्टिक संधि पर आम सहमति बनने की राह में बाधाएं आ रही हैं.

प्लास्टिक संधि पर वार्ता में भारत नहीं कोई और बाधा पैदा कर रहा है

प्लास्टिक प्रदूषण ख़त्म करने के लिए चल रही बातचीत के चौथे चरण की वार्ता जल्द ही कनाडा में आयोजित की जाएगी. अगर इस संधि को मान्यता मिल जाती है तो फिर ये सभी सदस्य देशों पर कानूनी रूप से बाध्यकारी होगी. कनाडा में होने वाली चौथे चरण की वार्ता के बाद इस साल नवंबर में दक्षिण कोरिया के बुसान शहर इस पर अंतिम चर्चा होगी. बुसान सम्मेलन में इस संधि को हर हाल में मंजूरी देनी है. ऐसे में 23 से 29 अप्रैल के बीच कनाडा में होने वाली बातचीत में दोनों पक्षों के बीच गर्मागर्म बहस की संभावना जताई जा रही है. एक तरफ वो देश हैं जो इस संधि के ज़रिए प्लास्टिक प्रदूषण ख़त्म करने को लेकर वैश्विक स्तर पर एक लक्ष्य तय करके उसे लागू करना चाहते हैं. सभी सदस्य देशों को इसका पालन करना होगा. यानी ये कानूनी तौर पर बाध्यकारी होगी. दूसरी तरफ वो देश हैं जो इस तरह के एकतरफा लक्ष्य लागू करने का विरोध कर रहे हैं. ये देश चाहते हैं कि अंतिम तौर पर कोई भी फैसला करने से पहले हर देश की विशेष परिस्थितियों पर भी विचार करना चाहिए. प्लास्टिक प्रदूषण ख़त्म करने को लेकर आम राय बनाने की राहत में एक बाधा ये भी इसे लेकर सभी देशों का क्या नज़रिया हो

अपस्ट्रीम एप्रोच ये मानती है कि प्लास्टिक प्रदूषण ख़त्म करने के लिए प्लास्टिक के कूड़े का सही तरीके से निपटारा करना तो ज़रूरी है, लेकिन इसके साथ ही प्लास्टिक के उत्पादन की सीमा तय करने की भी ज़रूरत है.

प्लास्टिक प्रदूषण ख़त्म करने को लेकर एक विचारधाराडाउनस्ट्रीम एप्रोचकी है. डाउनस्ट्रीम एप्रोच में ये माना जाता है कि प्लास्टिक प्रदूषण की एक बड़ी वजह प्लास्टिक के कूड़े का अवैज्ञानिक तरीके से हो रहा निपटारा है. नवंबर 2023 में नैरोबी में हुई चर्चा मेंग्लोबल कोएलिशन फॉर सस्टेनेबल प्लास्टिकदेशों के समूह में शामिल रूस, ईरान, सऊदी अरब, क्यूबा, चीन और बहरीन समेत समान विचारों वाले कई दूसरे देश इस विचारधारा का समर्थन किया. भारत भी इस रुख से सहमत है. भारत के वार्ताकारों का कहना था कि प्लास्टिक अपने आप में समस्या नहीं है बल्कि प्लास्टिक के कूड़े का सही तरीके से निपटान ना होना और बेतरतीब तरीके से बिखरा हुआ प्लास्टिक का कूड़ा पर्यावरण पर बुरा असर डालता है. भारत समेतग्लोबल कोएलिशन फॉर सस्टेनेबल प्लास्टिकदेशों का ये दृष्टिकोण सीधे उस नज़रिए के विपरीत है, जो हाई एंबीशन कोएलिशन (HAC) के 64 देशों ने अपनाया है. ये देश प्लास्टिक प्रदूषण को ख़त्म करने के लिएअपस्ट्रीम एप्रोचअपनाते हैं. अपस्ट्रीम एप्रोच ये मानती है कि प्लास्टिक प्रदूषण ख़त्म करने के लिए प्लास्टिक के कूड़े का सही तरीके से निपटारा करना तो ज़रूरी है, लेकिन इसके साथ ही प्लास्टिक के उत्पादन की सीमा तय करने की भी ज़रूरत है. यानी प्लास्टिक उत्पादक देशों को एक सीमा से ज्यादा प्लास्टिक का उत्पादन नहीं करना चाहिए. इन देशों का लक्ष्य प्लास्टिक प्रदूषण को 2040 तक ख़त्म करने का है. यहां ये बात भी गौर करने वाली है कि HAC देश ही प्लास्टिक संधि को लेकर चल रही बातचीत के प्रोग्राम को सबसे ज्यादा वित्तीय मदद मुहैया कराते हैं. (चित्र 1). यानी इस प्लास्टिक संधि पर बातचीत इन्हीं की आर्थिक मदद से चल रही है. इसलिए यही देश इस बातचीत का नैरेटिव सेट करते हैं और इनका मकसद एक मज़बूत और बाध्यकारी प्लास्टिक संधि के लिए समर्थन जुटाना है.

चित्र 1 – प्लास्टिक संधि पर चल रही बातचीत और सम्मेलन की फंडिंग करने वाले देश

सोर्स : UNEP 

 

HAC देशों ने प्लास्टिक की वजह से समुद्र में होने वाले प्रदूषण की समस्या पर बात करने की दिशा में काफी सराहनीय काम किया है. बड़े वैश्विक मंचों पर इसे लेकर चर्चा कराई है. प्रशांत महासागर क्षेत्र के 18 द्वीप देशों के पैसिफिक आईलैंड फोरम ने भी अपने सदस्य देशों को संदेश भेजकर संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण प्रोग्राम (UNEP) के तहत चल रही पर्यावरण संधि बातचीत में HAC देशों का समर्थन करने की अपील की है. लेकिन भारत समेतग्लोबल कोएलेशन फॉर सस्टेनेबल प्लास्टिकके देश हाई एंबीशन कोएलिशन के देशों की इस नीति का विरोध कर रहे हैं. ऐसे में कुछ विशेषज्ञ ये आरोप लगा रहे हैं कि भारत पर्यावरण को लेकर चिंताओं को कम जबकि पेट्रोकेमिकल इंडस्ट्री के हितों को ज्यादा अहमियत दे रहा है. ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि पेट्रोकेमिकल इंडस्ट्री ही प्लास्टिक उद्योग को कच्चा माल मुहैया कराती है. इसके अलावा ये भी कहा जा रहा है कि ऐसा करके तेल और गैस सेक्टर को भी बचाने की कोशिश की जा रही है, जिस पर वैकल्पिक और स्वच्छ ऊर्जा के नए स्रोतों की वजह से ख़तरा पैदा हो गया है. चूंकि इस संधि का लक्ष्य प्लास्टिक के उत्पादन को कम करना है तो इसका असर भारत में पेट्रोकेमिकल इंडस्ट्री के विस्तार पर पड़ेगा. हालांकि भारत के रुख को लेकर जो बातें कहीं जा रही हैं, उनमें कुछ में तो दम नज़र आता है लेकिन ये भी एक हकीकत है कि इस तरह का प्रचार उसी नैरेटिव का एक हिस्सा है जो हाई एंबीशन कोएलिशन के देश फैला रहे हैं. ये बात याद रखनी भी ज़रूरी है कि HAC के देश प्लास्टिक संधि को लेकर हो रही बातचीत में एक पक्ष हैं. वैसे सच तो ये है कि प्लास्टिक संधि को लेकर भारत का रवैया पेट्रोकेमिकल इंडस्ट्री के साथ मिलीभगत का नतीजा नहीं है. भारत बस ये चाहता है कि नॉर्वे, जर्मनी, ब्रिटेन, कनाडा और जापान जैसे HAC के देश इस तथ्य की अनदेखी ना करें कि उनके और भारत के विकास के स्तर में काफी अंतर हैं. इसलिए सभी देशों पर एक जैसे कानून लागू नहीं किए जा सकते. 

भारत बस ये चाहता है कि नॉर्वे, जर्मनी, ब्रिटेन, कनाडा और जापान जैसे HAC के देश इस तथ्य की अनदेखी ना करें कि उनके और भारत के विकास के स्तर में काफी अंतर हैं. इसलिए सभी देशों पर एक जैसे कानून लागू नहीं किए जा सकते. 

भारत की क्या रणनीति : टकराव की या सहयोग की ?

प्लास्टिक संधि पर वार्ता के दौरान भारत ने जो एक स्पष्ट सीमा रेखा खींच रखी है, वो ये है कि इस संधि में विकसित और विकासशील देशों के बीच के अंतर का ख्याल रखा जाना चाहिए. भारत बार-बार ये बात कह रहा है कि इस प्लास्टिक संधि में साझा लेकिन अलग-अलग जिम्मेदारियों (CBDR) के सिद्धांत को शामिल किया जाना चाहिए. ब्राज़ील, अर्जेंटीना, सऊदी अरब, पनामा, गैबॉन, सेनेगल और ट्यूनीशिया समेत कई और देशों ने इसका समर्थन किया है. लेकिन इसके विपरीत हाई एंबीशन कोएलिशन देश ऐसी मज़बूत संधि चाहते हैं जो प्लास्टिक प्रदूषण को ख़त्म करने की उसकी मुहिम को कमज़ोर करे. न्यूज़ीलैंड और यूरोपियन यूनियन तो ये भी चाहते हैं कि प्लास्टिक उत्पादन में काम आने वाले कच्चे माल को भी इस संधि के तहत लाकर उसका भी नियमन किया जाए. भारत इसके पक्ष में नहीं है. प्लास्टिक संधि पर चल रही ये बातचीत उस चर्चा की याद दिला रही है जो जलवायु परिवर्तन को लेकर हुई थी. तब भी CBDR का सिद्धांत इसलिए पेश किया गया क्योंकि अमेरिका को पश्चिमी देशों की मदद से ऐसा करने में कामयाबी मिली. उस बातचीत में भी जलवायु परिवर्तन को लेकर सभी देशों पर बाध्यकारी कानून बनाए गए, फिर भले ही उनके विकास के स्तर में अंतर हो. वही पश्चिमी देश अब हाई एंबीशन कोएलिशन में शामिल हैं. इस बार भी ये प्लास्टिक प्रदूषण ख़त्म करने की संधि के तौर पर ऐसा बाध्यकारी कानून लाना चाहते हैं जो भारत जैसे देशों में भी उसी तरह लागू हो, जैसे विकसित देशों में. अगर HAC देशों की प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (चित्र 2) को देखें तो ये स्पष्ट हो जाता है कि विकास को लेकर उनकी वैसी प्राथमिकताएं नहीं हैं, जैसी भारत की हैं. 

चित्र 2 – HAC और CBDR की मांग कर रहे देशों के बीच प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद का अंतर

सोर्स : वर्ल्ड बैंक

संधि को लेकर हो रही चर्चा के एक और मुद्दे पर भारत को एतराज़ है. वो मुद्दा ये है कि इसकी प्रक्रियाओं के नियम क्या होने चाहिए. नॉर्वे, ब्रिटेन, स्विटज़रलैंड और यूरोपियन यूनियन के देश चाहते हैं कि अगर दो-तिहाई देश इस संधि के पक्ष में वोट देते हैं तो इसे पारित माना जाना चाहिए. HAC के ये देश जानते हैं कि मौजूदा रूप में इस संधि पर आम सहमति बननी मुश्किल है. इसलिए वो सोच-समझ कर दो-तिहाई वोटों से इसे पास करने की प्रक्रिया अपनाने को कह रहे हैं. भारत चाहता है कि ये संधि आम सहमति से पारित हो क्योंकि बहुउद्देशीय मंच और बहुपक्षीय बातचीत का लक्ष्य ही ये होता है कि किसी भी फैसले को अंतिम रूप देने में हर सदस्य देश की बात सुनी जाए. भारत के विरोध के बाद अब ये फैसला किया गया है कि संधि से जुड़े जो भी अहम बिंदु होंगे, उन पर सर्वसम्मति बनाई जाएगा. भारत जैसे गैर पश्चिमी विकासशील देश के लिए ये ज़रूरी भी है कि सभी पर बाध्यकारी कानून बनाने से पहले आम सहमति बनाई जाए

मीडिया के ज़रिए वार्ता के लिए विश्वसनीय और बहुपक्षीय रास्ता

एक बात तो तय है कि हाई एंबीशन कोएलिशन और ग्लोबल कोएलिशन फॉर प्लास्टिक सस्टेनेबिलिटी के बीच जिन मुद्दों पर टकराव है, वो मुद्दे प्लास्टिक संधि को अंतिम रूप देने में अहम भूमिका निभाएंगे. ऐसे में बेहतर ये होगा कि इस संधि को भी यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC) की तर्ज़ पर लागू किया जाए, जिसमें सदस्य देशों को अलग-अलग श्रेणी में बांटा गया है. हालांकि HAC देशों का ये रुख सही है कि प्लास्टिक प्रदूषण ख़त्म करने के लिए ऐसी मज़बूत संधि की जाए, जो सभी देशों पर लागू हो लेकिन उन्हें ये भी समझना होगा कि अगर इस साल के अंत तक इस संधि को पारित करना है तो फिर बातचीत में सभी सदस्य देशों की सहमति बनानी ज़रूरी है. जलवायु परिवर्तन पर पेरिस सम्मेलन जिस तरह सफल हुआ, अगर HAC के देश प्लास्टिक संधि के मामले में भी कुछ वैसा ही करने को तैयार होते हैं तो फिर कामयाबी मिल सकती है. पेरिस सम्मेलन में विकासशील देश भी विकसित देशों के साथ गए थे. इस बात को समझना भी ज़रूरी है कि भारत जैसे देश प्लास्टिक संधि का विरोध नहीं कर रहे, वो बस ये चाहते हैं कि कोई भी फैसला लेने से पहले उनकी राष्ट्रीय परिस्थितियों का ध्यान रखा जाए. यही वजह है कि भारत ने साझा लेकिन अलग-अलग जिम्मेदारियों के सिद्धांत की बात की. ये भारत का सहयोगात्मक रवैया है क्योंकि भारत जैसे विकासशील देश भी चाहते हैं कि प्लास्टिक प्रदूषण ख़त्म हो. वो भी इस प्रदूषण की समस्या का सामना कर रहे हैं. वार्ता में इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि अगर अमेरिका में फिर से डोनाल्ड ट्रंप की सरकार बनती है तो क्या होगा. अगर अमेरिका इस संधि से अलग होता है तो फिर क्या होगा. कनाडा में होने वाली चौथे दौर की वार्ता से इस बात के संकेत मिलेंगे कि क्या ये देश आम सहमति बनाने की दिशा में काम करने की तरफ बढ़ रहे हैं या फिर अपनी महत्वाकांक्षाओं को संधि की राह में बाधा बनने देंगे.

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