वैश्विक स्तर पर भू-राजनीति तेज़ी से करवटें ले रही हैं और दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में उथल-पुथल मची हुई है. अमेरिका इस माहौल में भारत के सबसे महत्वपूर्ण साझीदार देश के रूप में सामने आया है. कई सारी रणनीतिक वजहें हैं, जिनके चलते भारत और अमेरिका के द्विपक्षीय रिश्ते में इतनी गर्मजोशी आई है. व्यापार, प्रौद्योगिकी, रक्षा जैसे तमाम क्षेत्रों ने दोनों देशों के संबंधों को मज़बूती देने में अहम भूमिका निभाई है, लेकिन दोनों देशों के बीच पारस्परिक सामंजस्य बढ़ने का सबसे बड़ा कारण हिंद-प्रशांत क्षेत्र में नियम-क़ानून पर आधारित व्यवस्था की स्थापना को लेकर उनकी प्रतिबद्धता है.
अगर नई दिल्ली और वाशिंगटन के ऐतिहासिक रिश्तों पर बारीक़ी से नज़र डाली जाए तो यह पता चलता है कि वर्तमान में दोनों ताक़तवर देशों के बीच संबंध इतने प्रगाढ़ क्यों हैं. हालांकि, भारत और अमेरिका के बीच रिश्ते हमेशा से इतने अच्छे नहीं रहे हैं, बल्कि कुछ मौक़ों पर इनके बीच गहरे मतभेद भी पैदा हो चुके हैं. एक समय ऐसा भी था जब भारत और अमेरिका को 'अलग-थलग रहने वाले लोकतंत्रों' के रूप में देखा जाता था, ख़ास तौर पर शीत युद्ध के दौरान इन दोनों लोकतांत्रिक देशों के बीच कोई तालमेल नहीं था और व्यापक वैचारिक मतभेद थे. भारत द्वारा जब वर्ष 1998 में पोखरण परमाणु परीक्षण किया गया था, उसके बाद तो भारत और अमेरिका के आपसी संबंध एकदम रसातल में चले गए थे, यानी उनकी दूरियां काफ़ी बढ़ गई थीं. यहां तक कि पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद अमेरिका ने भारत पर तमाम प्रतिबंध लगा दिए थे. हालांकि, दोनों देशों के बीच संबंधों में यह तल्खी ज़्यादा समय तक नहीं रही और परमाणु परीक्षण के एक दशक से भी कम अंतराल में वर्ष 2005 में दोनों देशों के बीच यूएस-भारत असैन्य परमाणु समझौता हुआ और इस तरह से संबंधों की खटास दूर हो गई व सामान्य रिश्ते क़ायम हो गए. वो दिन था और आज का दिन है, तब से लेकर भारत और अमेरिका के पारस्परिक रिश्ते दिन दूनी रात चौगुनी रफ़्तार से मज़बूत हुए हैं. यहां तक कि इसी समझौते के बाद भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने तेज़ी से क़दम उठाते हुए अमेरिका के साथ संबंधों का विस्तार किया एवं आपसी मतभेदों को दूर कर रिश्तों को मज़बूत किया.
भारत एवं अमेरिका कई क्षेत्रों में आपसी रिश्तों को सशक्त कर कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ रहे हैं, तब हिंद-प्रशांत क्षेत्र दोनों देशों के बीच सहयोग का एक अहम मुद्दा बनकर उभरा है और इसने दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंधों को नई ऊंचाई पर पहुंचाने का काम किया है.
ऐसे में जबकि भारत एवं अमेरिका कई क्षेत्रों में आपसी रिश्तों को सशक्त कर कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ रहे हैं, तब हिंद-प्रशांत क्षेत्र दोनों देशों के बीच सहयोग का एक अहम मुद्दा बनकर उभरा है और इसने दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंधों को नई ऊंचाई पर पहुंचाने का काम किया है. इस प्रकार से देखा जाए तो हिंद-प्रशांत क्षेत्र में नई दिल्ली और वाशिंगटन के बीच यह मेलजोल बहुआयामी है और विभिन्न सेक्टरों में सशक्त हो रहा है. सबसे पहले, भारत और अमेरिका ने एक ऐसे हिंद-प्रशांत क्षेत्र को लेकर अपनी प्रतिबद्धता दिखाई है, जो सहभागी, मूल्यों पर आधारित, मुक्त, खुला और समावेशी हो. दूसरा, हिंद-प्रशांत में चीन के बढ़ते दबदबे को लेकर भारत और अमेरिका दोनों ही सतर्क हैं और एहतियात बरत रहे हैं. हिंद-प्रशांत में सुरक्षा चिंताओं पर आपसी सहयोग के अलावा, भारत और अमेरिका के बीच तीसरा मुद्दा आपूर्ति श्रृंखलाओं, कनेक्टिविटी इंफ्रास्ट्रक्चर के साथ टेक्नोलॉजी पर आधारित साझेदारी है. लगता है कि दोनों देश इन सेक्टरों में सहयोग को मज़बूती देने में जुटे हैं.
हिंद-प्रशांत रीजन में जहां एक ओर कई क्षेत्रों में भारत और अमेरिका के बीच साझेदारी सशक्त हुई है, वहीं अभी भी कई ऐसे प्रमुख क्षेत्र हैं, जिन पर दोनों देशों के बीच व्यापक समझ बूझ नहीं बन पाई है, यानी मतभेद बने हुए हैं. हालांकि, अहम बात यह है कि हिंद-प्रशांत में दोनों देशों के बीच कुछ मुद्दों पर अलगाव के लिए स्थानीय मुद्दे ज़िम्मेदार नहीं है, बल्कि दोनों के बीच इन मतभेदों के लिए भू-राजनीतिक उथल-पुथल, आपसी हितों का टकराव एवं वैश्विक मुद्दों पर अलग-अलग नज़रिया ज़िम्मेदार है. इंडो-पैसिफिक रीजन में भारत और अमेरिका के बीच मनमुटाव पैदा करने वाले मुद्दों पर चर्चा करने से पहले वर्तमान में उन वैश्विक मसलों पर गहराई से नज़र डालना ज़रूरी है, जिनको लेकर दोनों देशों के बीच वैचारिक भिन्नता है. ऐसा करने पर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत व अमेरिका के मतभेदों को समझने में भी मदद मिलेगी. ज़ाहिर है कि पिछले दो वर्षों से चल रहे दो युद्धों ने पूरी दुनिया की भू-राजनीति में भूचाल सा ला दिया है. पहला है यूरोप में चल रहा रूस-यूक्रेन युद्ध और दूसरा है मिडिल ईस्ट में इजराइल व फिलिस्तीन के बीच छिड़ा युद्ध. इन दोनों युद्धों पर देखा जाए तो पूरा विश्व दो हिस्सों में बंटा हुआ सा प्रतीत होता है. वाशिंगटन ने इन दोनों ही जंगों को लेकर अपना स्पष्ट रुख ज़ाहिर किया है और यूक्रेन एवं इजराइल के पक्ष में दृढ़ता से खड़े होकर उनकी हर संभव सहायता की है. यहां तक कि वाशिंगटन ने अपने इस क़दम को उठाने के दौरान घरेलू मोर्चे पर पैदा होने वाली चुनौतियों की भी परवाह नहीं की है. दूसरी ओर, भारत ने इन युद्धों को लेकर कोई तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के बजाए तटस्थ रुख अपनाया है. ऐसा भारत की विदेश नीति के सिद्धांतों के मुताबिक़ है, जिनमें रणनीतिक स्वायत्तता को प्रमुखता दी गई है. हालांकि, भारत इन दोनों युद्धों की निंदा करने और निर्दोष लोगों पर पड़ने वाले इसके दुष्प्रभावों को सामने लाने से नहीं झिझका है. इसके साथ ही भारत ने युद्धरत पक्षों के साथ लगातार संपर्क स्थापित करके कहीं न कहीं रणनीतिक संतुलन बनाया है. भारत को अपने इस रुख को लेकर पश्चिमी देशों की ओर से आलोचना भी झेलनी पड़ी है.
हिंद-प्रशांत में पश्चिमी हिंद महासागर का महत्व
भारत और अमेरिका दोनों के लिए हिंद-प्रशांत में चिंता का एक ही मुद्दा है, यानी वहां बढ़ता चीनी वर्चस्व. दोनों देशों ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीनी प्रभुत्व का मुक़ाबला करने और उसे कम करने के लिए तमाम तरह के उपायों को अमल में लाने का काम किया है. ज़ाहिर है कि अपने-अपने रणनीतिक लक्ष्यों एवं अपनी-अपनी सामरिक मज़बूरियों की वजह से भारत और अमेरिका के लिए हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के विरुद्ध इस तरह के उपायों को अपनाना ज़रूरी हो गया है. हिंद-प्रशांत में भारत व अमेरिका के बीच मतभेद का एक बेहद अहम विषय है जिसपर गंभीरता से विचार करना ज़रूरी है. यह मुद्दा है हिंद-प्रशांत क्षेत्र के नक्शे का या कहा जाए कि इसके अंतर्गत आने वाले इलाक़ों और समुद्र तटों को लेकर भारत व अमेरिका के नज़रिए का. यानी भारत और अमेरिका हिंद-प्रशांत की रूपरेखा को किस प्रकार से वर्णित करते है, ये मुद्दा उससे जुड़ा हुआ है. अगर भारत की बात की जाए, तो उसके लिए हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका के पश्चिमी तट से लेकर अफ्रीका के पूर्वी तट तक फैला व्यापक समुद्री इलाक़ा शामिल है. वहीं अगर वाशिंगटन की बात करें, तो उसके लिए INDO PACOM यानी इंडो पैसिफिक कमांड द्वारा निर्धारित की गई भौगोलिक रूपरेखा के मुताबिक़ हिंद-प्रशांत क्षेत्र फैला हुआ है. कहने का मतलब है कि तकनीक़ी रूप से इसमें अमेरिका के पश्चिमी समुद्री तट से लेकर भारत के पश्चिमी तट तक का इलाक़ा शामिल है. इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत और अमेरिका के बीच हिंद-प्रशांत की रूपरेखा को लेकर जो भी असमंजस है, या कहें कि जो भी उलझन बनी हुई है उसमें पश्चिमी हिंद महासागर (WIO) एक ऐसा हिस्सा है, जिसका कोई महत्व नज़र नहीं आता है. हालांकि, यह ज़रूर है कि पूर्व में वाशिंगटन द्वारा यह जताने का प्रयास किया गया है कि हिंद-प्रशांत को लेकर उसकी नीतियों और नज़रिए में पश्चिमी हिंद महासागर का कितना अधिक महत्व है, लेकिन हक़ीक़त में ऐसा नज़र नहीं आया है कि अमेरिका पश्चिमी हिंद महासागर में अपनी सक्रियता दिखा रहा है. जिस प्रकार से हिंद-प्रशांत क्षेत्र में समुद्री डकैती की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है, उसके बाद सामरिक लिहाज़ से पश्चिमी हिंद महासागर क्षेत्र बेहद अहम हो गया है. एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि वर्तमान में जिस तरह से वैश्विक स्तर पर भू-राजनीतिक परिदृश्य लगातार परिवर्तित हो रहा है, उसमें अफ्रीका भी एक महत्वपूर्ण किरदार बनकर उभर रहा है. इतना ही नहीं, चीन के बढ़ते दबदबे के बाद तो अफ्रीका की भूमिका हिंद-प्रशांत में बेहद महत्वपूर्ण होती जा रही है. इस लिहाज़ से देखा जाए तो अफ्रीका महाद्वीप और हिंद-प्रशांत के बीच संपर्क स्थापित करने के लिए पश्चिमी हिंद महासागर बहुत अहम हो गया है.
भारत और अमेरिका दोनों के लिए हिंद-प्रशांत में चिंता का एक ही मुद्दा है, यानी वहां बढ़ता चीनी वर्चस्व. दोनों देशों ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीनी प्रभुत्व का मुक़ाबला करने और उसे कम करने के लिए तमाम तरह के उपायों को अमल में लाने का काम किया है.
हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत और अमेरिका के बीच व्यापक स्तर पर रणनीतिक मतभेद बने हुए हैं और इन्हें दूर करने के लिए दोनों देशों के लिए हिंद महासागर में अपने संबंधों को सशक्त करना बेहद आवश्यक है. इसमें भी पश्चिमी हिंद महासागर का क्षेत्र और भी महत्वपूर्ण है, जहां भारत और अमेरिका को पारस्परिक सहयोग मज़बूत करना चाहिए. पश्चिमी हिंद महासागर सामरिक और सुरक्षा के नज़रिए से भारत के लिए बहुत अहम है और इसे किसी भी नज़रिए से कम करके नहीं आंका जा सकता है. कहने का मतलब है कि पश्चिमी हिंद महासागर एक ऐसा क्षेत्र है, जहां भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय सहयोग की अनगिनत संभावनाएं बनी हुई हैं. जैसे कि यहां पर विशेष रूप से दोनों देशों के बीच समुद्री सुरक्षा, समुद्री गवर्नेंस, अहम आपूर्ति श्रृंखलाओं एवं क्षेत्रीय स्थिरता जैसे विभिन्न मसलों पर आपसी सहयोग मज़बूत हो सकता है. पश्चिमी हिंद महासागर में समुद्री डकैती की घटनाओं में बढ़ोतरी, क्षेत्र से होकर गुजरने वाली प्रमुख समुद्री संचार लाइनों (SLOCs) के बढ़ते महत्व एवं अफ्रीका में लगतार बढ़ते चीन के राजनीतिक दख़ल जैसे मुद्दे भारत और अमेरिका दोनों के लिए चिंता बढ़ाने वाले हैं. यही वजह है कि पश्चिमी हिंद महासागर को लेकर नए सिरे से नीतियों व रणनीतियां बनाना नई दिल्ली व वाशिंगटन दोनों के लिए बेहद महत्वपूर्ण हो गया है, यानी यह एक ऐसा मुद्दा बन चुका है, जिस पर बिना देर किए गंभीरता से विचार किए जाने की ज़रूरत है. हिंद-प्रशांत क्षेत्र के विस्तार या कहें कि उसकी सीमाओं को लेकर भारत और अमेरिका में एक राय नहीं होने के बावज़ूद इस क्षेत्र से जुड़ी विभिन्न मसलों पर दोनों देशों के बीच ख़ासी समझबूझ बनी हुई है और यह ज़ाहिर करता कि नई दिल्ली व वाशिंगटन के बीच आपसी रिश्ते कितने परिपक्व हैं.
ज़ाहिर है कि हिंद-प्रशांत में भारत और अमेरिका के समन्वित रणनीतिक भविष्य के लिए पश्चिमी हिंद महासागर बेहद महत्वपूर्ण है. ऐसा इसलिए है, क्यों कि WIO ही हिंद-प्रशांत रणनीति का फोकस पश्चिम की ओर मोड़ सकता है. अगर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में पश्चिमी हिंद महासागर को लक्षित दृष्टिकोण नहीं अपनाया जाता है, तो आने वाले दिनों में इस पूरे क्षेत्र में पूर्वी क्षेत्र का दबदबा बढ़ सकता है. इतना ही नहीं, इससे पिवोट-टू-एशिया यानी एशिया की धुरी, रीबैलेंस यानी पुनर्संतुलन और वर्तमान की इंडो-पैसिफिक स्ट्रैटेजी जैसी विभिन्न हिंद-प्रशांत रणनीतियों के ज़रिए जो भी लाभ हासिल हुए हैं, वे भी समाप्त हो जाएंगे. पश्चिमी हिंद महासागर में भारत और अमेरिका के क्षेत्रीय लक्ष्य एवं उद्देश्य एक जैसे हैं और दोनों देश इस क्षेत्र में अपना दख़ल बढ़ाने के लिए तैयार हैं. अमेरिका और भारत के बीच हुए चार बुनियादी समझौते, IFC-IOR के ज़रिए रियल टाइम में सूचना का आदान-प्रदान, क्वाड जैसे बहुपक्षीय फ्रेमवर्क्स और फ्रांस जैसे समान विचारधारा वाले क्षेत्रीय भागीदार देशों की मौज़ूदगी कहीं न कहीं पश्चिमी हिंद महासागर को एक बेहद महत्वपूर्ण क्षेत्र बनाती है. यानी ये सारी चीजें मिलकर पश्चिमी हिंद महासागर को एक ऐसी जगह बनाने का काम करती हैं, जिसकी क्षमताओं और संभावनाओं का व्यापक स्तर पर दोहन अभी तक नहीं किया गया है.
पश्चिमी हिंद महासागर में भारत और अमेरिका के क्षेत्रीय लक्ष्य एवं उद्देश्य एक जैसे हैं और दोनों देश इस क्षेत्र में अपना दख़ल बढ़ाने के लिए तैयार हैं.
जिस प्रकार से वैश्विक व्यवस्था में लगातार बदलाव हो रहा है और जिस तरह से पश्चिमी हिंद महासागर का रणनीतिक स्थान है, इन सबके मद्देनज़र निसंदेह तौर पर WIO हिंद महासागर को मध्य पूर्व और अफ्रीका से जोड़ने में बेहद अहम भूमिका निभा सकता है. अमेरिका और भारत दोनों ने ही I2U2 (इंडिया-इजराइल/यूएई-यूएसए) और IMEEC (इंडिया-मिडिल ईस्ट-यूरोप-इकोनॉमिक कॉरिडोर) जैसी विशेष पहलों के ज़रिए हिंद-प्रशांत क्षेत्र को मध्य पूर्व से जोड़ने का प्रयास किया है. ऐसे में हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत और अमेरिका के आपसी सहयोग को और मज़बूत करने की दिशा में पश्चिमी हिंद महासागर बेहद कारगर साबित हो सकता है.
सायंतन हलधर ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च असिस्टेंट हैं.
विवेक मिश्रा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के रणनीतिक अध्ययन कार्यक्रम में फेलो हैं.
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