Author : Preeti Kapuria

Published on Aug 10, 2022 Updated 0 Hours ago

पश्चिम बंगाल के लिए सबसे अच्छा यह होगा कि वह जिला विशेष को ध्यान में रखकर कृषि नीति बनाए ताकि धान और आलू के स्थान पर वैकल्पिक फसलों को बढ़ावा दिया जा सके. सिंचाई के ज्यादा जल का उपयोग कर उगाई जाने वाली धान और आलू की फसल की उपज में वृद्धि की वजह से ही निचले इंडो-गैंजेटिक प्लेन्स में आने वाले चयनित जिलों के भू-जल स्तर में गिरावट आई है.

#WestBengal: ज़िला विशेष को ध्यान में रख कर बने कृषि नीति; वैकल्पिक फसलों की खेती को मिले बढ़ावा!

West Bengal Crop Policy: पश्चिम बंगाल (West Bengal) के लिए सबसे अच्छा यह होगा कि वह जिला विशेष को ध्यान में रखकर कृषि नीति (West Bengal Agriculture Police) बनाए ताकि धान और आलू के स्थान पर वैकल्पिक फसलों को बढ़ावा दिया जा सके. सिंचाई के ज्यादा जल का उपयोग कर उगाई जाने वाली धान और आलू की फसल की उपज में वृद्धि की वजह से ही निचले इंडो-गैंजेटिक प्लेन्स (Indo-Gangetic Plain) में आने वाले चयनित जिलों के भू-जल स्तर में गिरावट आई है. फसल उगाते वक्त होने वाली जल की हानि का पता लगाने के लिए इवैट्रान्सपिरेशन रेट का आकलन महत्वपूर्ण साबित होता है. कृषि क्षेत्र में इवैट्रान्सपिरेशन मिट्टी और जल के संतुलन का घटक है जो संभावित पैदावार का अनुमान लगाने में महत्वपूर्ण स्थान रखता है.[17] इवैट्रान्सपिरेशन रेट के आधार पर हम यह पता लगा सकते हैं कि फसल उगाने के लिए कितनी मात्रा में पानी की आवश्यकता होगी. फसल के स्वरूप से जुड़ा फैसला लेने में भी इवैट्रान्सपिरेशन रेट का आधार लिया जा सकता है, जहां इवैट्रान्सपिरेशन का कम रेट यह सुझाता है कि एक फसल के स्थान पर दूसरी फसल लेने से जल संसाधन उपलब्ध करवाया जा सकता है.

इस विश्लेषण का निष्कर्ष यह निकलता है कि पश्चिम बंगाल के लिए सबसे अच्छा यह होगा कि वह जिला विशेष को ध्यान में रखकर कृषि नीति बनाए ताकि धान और आलू के स्थान पर वैकल्पिक फसलों को बढ़ावा दिया जा सके. सिंचाई के ज्यादा जल का उपयोग कर उगाई जाने वाली धान और आलू की फसल की उपज में वृद्धि की वजह से ही निचले इंडो-गैंजेटिक प्लेन्स में आने वाले चयनित जिलों के भू-जल स्तर में गिरावट आई है.

जिन फसलों की यहां चर्चा की गई है, उसमें मक्का, जो मैक्रो और माइक्रो न्यूट्रियन्ट्स से संपन्न होता है, की पैदावार क्षमता अन्य अनाज की फसलों के मुकाबले सर्वाधिक होती है. इसी प्रकार मक्के की न्यूट्रिशनल प्रॉडक्टीविटी भी बोरो धान के मुकाबले अधिकांश मामलों में अधिक देखी गई. ‘पोल्ट्री फीड’ के रूप में मक्के का अपना महत्वपूर्ण स्थान है, जिसका उपयोग खाद्य प्रसंस्करण और जैव ईंधन बनाने में भी किया जाता है.[18] पश्चिम बंगाल में मक्के की खेती अपनी उच्च पैदावार के साथ बड़ी तेजी से बढ़ रही है. किसान अब धान की बजाय मक्के की खेती को पसंद कर रहे हैं, क्योंकि धान की खेती में जल की बहुत ज्यादा जरूरत होती है.[19] इसके अलावा, धान के स्थान पर मक्के की खेती को बढ़ावा देने से भू-जल स्तर में सुधार किया जा सकता है. इसका कारण यह है कि धान उगाने के लिए जितना पानी लगता है उसके सिर्फ पांचवें हिस्से के पानी से ही मक्के की खेती की जा सकती है. इसके अलावा मक्के की खेती करने वाले किसान को आय भी ज्यादा होती है.[20]

केंद्र सरकार ने मक्के के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) घोषित कर दिया है. हालांकि किसानों को उचित और लाभकरी मूल्य मिलना सुनिश्चत कर मक्के की खेती को और भी आकर्षक बनाने के लिए निजी क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र के बीच भागीदारी बेहद आवश्यक हैं. 2010-11 में 880 रुपए प्रति क्विंटल की एमएसपी के मुकाबले 2013-14[21] की एमएसपी में की 1310 रुपए प्रति क्विंटल और फिर 2020[22] में 1760 रुपए प्रति क्विंटल की वृद्धि ने मक्के की बुआई के तहत आने वाली भूमि को बढ़ाया है. किसान इसके मुनाफे को देखकर इसकी ओर आकर्षित हो रहे है. हालांकि अन्य फसलों के लिए उपलब्ध भूमि की कमी को देखते हुए मक्के के तहत आने वाली भूमि इसकी क्षमता के हिसाब से काफी कम ही कही जाएगी. सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) में मक्के का उपयोग सीमित है, जिसकी वजह से मक्के का दाम हमेशा से एमएसपी  से कम ही रहता है. इसके अलावा खेती के स्तर पर ढांचागत सुविधाओं और कोल्ड स्टोरेज के अभाव (फूड कार्पोरेशन ऑफ इंडिया और पश्चिम बंगाल के राज्य वेयरहाऊसिंग कार्पोरेशन दोनों के स्तर पर) में मक्के की गुणवत्ता को अंतिम उपयोगकर्ता तक पहुंचने से पहले सुरक्षित रखना भी एक चुनौती बन जाता है. इसके साथ ही मक्के की भारत भर में वैल्यू चेन यानी मूल्य श्रृंखला के बड़े हिस्से की गुणवत्ता वैश्विक स्तर के मक्का उत्पादकों से काफी कम है. यह कुछ महत्वपूर्ण चुनौतियां हैं, जिनकी ओर नीतिगत स्तर पर तत्काल ध्यान दिए जाने की जरूरत है.[23]

एक और फसलजिसमें पश्चिम बंगाल में तेजी से बढ़ने की क्षमता है वह है जौ की फसल. यह नमक प्रतिरोधी है. इसे रेतीली से लेकर मध्यम भारी चिकनी मिट्टी में भी उगाया जा सकता है. ऐसे में इंडो-गैंजेटिक प्लेन्स के साथ-साथ सुंदरबन के तटीय क्षेत्रों की मिट्टी जौ की फसल के लिए बेहद उपयुक्त मानी जा सकती है.

एक और फसल, जिसमें पश्चिम बंगाल में तेजी से बढ़ने की क्षमता है वह है जौ की फसल. यह नमक प्रतिरोधी है. इसे रेतीली से लेकर मध्यम भारी चिकनी मिट्टी में भी उगाया जा सकता है. ऐसे में इंडो-गैंजेटिक प्लेन्स के साथ-साथ सुंदरबन के तटीय क्षेत्रों की मिट्टी जौ की फसल के लिए बेहद उपयुक्त मानी जा सकती है.[24] जौ का उत्पादन कम सिंचाई वाली, बारिश पर आधारित और सीमित सिंचाई व्यवस्था के साथ भी किया जा सकता है. इसके लिए धान के लिए जरूरी जल से भी कम सिंचाई की आवश्यकता होती है. जौ का उपयोग पशु आहार, माल्ट उत्पादों और मनुष्य खाद्य के लिए भी किया जा सकता है. इसे गेंहू के लिए एक प्रतिस्पर्धी फसल माना जा सकता है जो न्यूट्रिशनल सिक्यूरिटी का हिस्सा बन सकती है, क्योंकि माल्ट बारले के लिए इसकी मांग बढ़ रही है. माल्ट बारले को बेहतर पैदावार के लिए तीन सिंचाई की जरूरत होती है, लेकिन जौ के उत्पादन के लिए उच्च गुणवत्ता वाले बीज की आवश्यकता है जो उद्योगों की मांग को पूरा कर सके. जौ के लिए 2020-21 के रबी सत्र में एमएसपी 1525 रुपए प्रति क्विंटल की थी. 2013-14 से इसकी एमएसपी में लगातार वृद्धि हो रही है. इसके बावजूद इसकी एमएसपी गेहूं (1925 रुपए प्रति क्विंटल) से कम ही है.[25]

भूमि की कम उपलब्धता और बाजार की असुविधाओं की वजह से जौ की सीमित फसल ही उगाई जाती है. इसके बाद भी पश्चिम बंगाल ही नहीं, बल्कि अधिकांश किसान जौ की पुरानी प्रजाति के बीज की सहायता से ही इसकी फसल उगाते हैं. जौ के बीज की न तो ताजा प्रजाति उपलब्ध है और न ही इससे जुड़ी तकनीक ही मिलती है. घरेलू बाजार के माल्टिंग उद्योग में बढ़ती मांग की वजह से किसानों के पास इस लाभकारी फसल को अपनाने का बेहतरीन अवसर उपलब्ध है. ऐसा करते वक्त उन्हें माल्टिंग उद्योग की आवश्यकताओं के अनुसार ही फसल उगानी होगी.[26]

इस स्टडी ने यह दर्शाया है कि वैकिल्पक फसल अथवा फसल विविधिकरण को अपनाकर हम न्यूट्रिशन और पर्यावरणीय परिणाम हासिल कर सकते हैं. ऐसा करने से हमें सिंचित व्यवस्थाओं में जल के उपयोग को कम करने में सहायता मिलेगी, जैसा कि इंडो-गैंजेटिक प्लेन्स में धान और आलू की प्रणाली के अध्ययन में देखा गया है.

हालांकि, यह सच है कि जल उपयोग, भूमि उपयोग और न्यूट्रियन्ट प्रॉडक्शन के अलावा भी अन्य कई बातें हैं, जिन पर विचार करने के बाद ही हम फसल के विकल्पों को तय कर सकेंगे. इसमें कृषि लागत मूल्य, जलवायु के हिसाब से लचीली वेरायटीज्, उच्च गुणवत्ता वाले बीज की उपलब्धता, सुनिश्चित बाजार और मूल्य, क्षेत्र विस्तार, कैपेसिटी बिल्डिंग, भंडारण और परिवहन लागत और श्रमिकों की उपलब्धता और आवश्यकता का समावेश है. इन सभी पहलुओं पर और भी गहरे अध्ययन की आवश्यकता है. इसके बाद ही हम न्यूट्रिशनल सिक्यूरिटी  और नैचुरल रिर्सोर्स कर्न्‍सवेशन के दोहरे उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल हो सकेंगे.

****

नोट: ये लेख PREETI KAPURIA और SAON BANERJEE द्वारा लिखे गये ओआरएफ़ हिंदी के लॉन्ग फॉर्म सामयिक रिसर्च पेपर #कृषि: पश्चिम बंगाल के निचले इंडो-गैंजेटिक प्लेन्स में बेहतर जल उपयोग और पोषण उत्पादकता के लिए क्रॉप शिफ्टिंग! से लिया गया एक छोटा सा हिस्सा है. इस पेपर को विस्तार से पढ़ने के लिये आगे दिये गये occasional paper के हिंदी लिंक को क्लिक करें, जिसका शीर्षक है- #कृषि: पश्चिम बंगाल के निचले इंडो-गैंजेटिक प्लेन्स में बेहतर जल उपयोग और पोषण उत्पादकता के लिए क्रॉप शिफ्टिंग!

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.

Author

Preeti Kapuria

Preeti Kapuria

Preeti Kapuria was a Fellow at ORF Kolkata with research interests in the area of environment development and agriculture. The approach is to understand the ...

Read More +

Contributor

Saon Banerjee

Saon Banerjee

Saon Banerjee is Professor AICRP on Agrometeorology Directorate of Research Bidhan Chandra Krishi Viswavidyalaya (BCKV) Mohanpur Nadia West Bengal.

Read More +