विश्व के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक इको सिस्टम पर चीन के असर की अनदेखी नहीं की जा सकती. दशकों से ज़्यादातर पश्चिमी जगत ही वैश्विक शासन तंत्र की अगुवाई करता रहा है. शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन इसी व्यवस्था के लिए चुनौती बनकर खड़ा हो गया है. दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद चीन सियासी तौर पर विश्व की स्थापित व्यवस्थाओं के सामने चुनौती पेश करने लगा है. अमेरिका और चीन की रस्साकशी के सबसे दिलचस्प हिस्से धीरे-धीरे मध्य पूर्व (पश्चिम एशिया) में आकार ले रहे हैं. ये इलाक़ा अमेरिकी प्रभाव के दायरे वाले सबसे बड़े क्षेत्रों में से एक है.
चीन के उभार में इस पूरे इलाक़े की भूराजनीतिक दिलचस्पी दिखाई दे रही है.
जनवरी 2022 में मध्य पूर्व के विस्तृत क्षेत्र और चीन के रिश्तों में काफ़ी सक्रियता देखने को मिली. सऊदी अरब, बहरीन, कुवैत और ओमान के प्रतिनिधित्व वाले खाड़ी सहयोग परिषद (GCC) के विदेश मंत्रियों ने उभरते सामरिक तालमेल के विस्तार के इरादे से चीन का दौरा किया. चीन के विदेश मंत्री वांग यी पिछले साल मार्च में खाड़ी देशों की यात्रा कर चुके थे. GCC के देशों के अलावा कई दूसरे मुल्क भी चीन से नज़दीकियां बढ़ा रहे हैं. खाड़ी देशों के मंत्रियों की चीन यात्रा के कुछ ही दिनों बाद ईरान और तुर्की के विदेश मंत्री भी बीजिंग पहुंच गए. GCC से इतर ये दोनों देश मध्य पूर्व में सत्ता की दो ‘वैकल्पिक’ संरचनाओं की नुमाइंदगी करते हैं. ईरान शिया इस्लाम का केंद्र है. फ़िलहाल काग़ज़ पर ही सही लेकिन चीन के साथ उसकी विस्तृत सामरिक सहमति है. रक्षा और ख़ुफ़िया जानकारियों को साझा करने जैसे अहम कारक इसके दायरे में आते हैं. दूसरी ओर तुर्की ख़ुद को इस्लामिक दुनिया में यूएई और सऊदी अरब के प्रभाव की काट के तौर पर देखता है. तुर्की नेटो का सदस्य है लेकिन अमेरिका और नेटो के साथ उसके रिश्ते खटास भरे रहे हैं. लिहाज़ा चीन के उभार में इस पूरे इलाक़े की भूराजनीतिक दिलचस्पी दिखाई दे रही है.
इस्लामिक देशों का कूटनीतिक जुड़ाव
चीन के साथ इस्लामिक देशों का कूटनीतिक जुड़ाव बढ़ता जा रहा है. दूसरी ओर अल्पसंख्यक वीगर मुसलमानों पर चीन के लगातार जारी ज़ुल्मोसितम पर इस्लामिक दुनिया ने पूरी तरह से चुप्पी साध रखी है. ख़बरों के मुताबिक चीन ने अपने अशांत शिनजियांग प्रांत में तक़रीबन 30 लाख वीगर मुसलमानों को नज़रबंदी कैंपों में क़ैद कर रखा है. अंतरराष्ट्रीय चर्चाओं में अक्सर ये मुद्दा अनछुआ रह जाता है. दरअसल ज़्यादातर इस्लामिक मुल्क अपने सामरिक हितों को सामने रखते हुए ही आगे क़दम बढ़ाते हैं. मजहबी मसले, विचारधारा और संस्कृति इन क़वायदों का सिर्फ़ एक हिस्सा भर हैं.
चीन इस इलाक़े को वो सहूलियतें मुहैया कराता हो जो अमेरिका जैसे पारंपरिक साथी नहीं करा पाते.
काफ़ी लंबे अर्से से मध्य पूर्व में बाहरी प्रभावों, भूराजनीति और सत्ता की संरचना को केवल एक ही कारक के इर्द गिर्द देखा जाता रहा है. वो मसला है तेल. निश्चित रूप से इलाक़े की सामरिक संरचना में तेल अब भी एक अहम कारक है, लेकिन यहां के व्यापक हालात तेज़ी से बदल रहे हैं. चीन के संदर्भ में मध्य पूर्व को दो मुख्य नज़रियों से देखा जा सकता है. पहले दृष्टिकोण की चर्चा ऊपर की जा चुकी है- चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. दूसरा, चीन इस इलाक़े को वो सहूलियतें मुहैया कराता हो जो अमेरिका जैसे पारंपरिक साथी नहीं करा पाते. चीन यहां के मुल्कों को बिना किसी शर्त (मसलन मानवाधिकार, लोकतंत्र, प्रेस की आज़ादी आदि) के आर्थिक मदद देता है. दरअसल इस इलाक़े में ज़्यादातर निरंकुश और राजशाही ‘मझौले ताक़तों’ की सत्ता है. ऐसी हुकूमतों की नीतियां अपने सामरिक झुकावों के हिसाब से बदलती रहती हैं. पश्चिम एशियाई मुल्कों के नज़रिए बड़ी तेज़ी से बदल रहे हैं. यहां अमेरिका को ‘कमज़ोर पड़ती महाशक्ति’ के तौर पर देखा जाने लगा है. इस इलाक़े के देशों में पश्चिमी जगत ख़ासतौर से अमेरिका के प्रभाव और पूरे तौर पर उसका समर्थन करने की सोच पिछले कुछ वर्षों से कमज़ोर पड़ने लगी है. ऐसे हालात दोतरफ़ा दिखाई देते हैं. इस सिलसिले में अमेरिका के पक्ष की ज़्यादा चर्चा नहीं हुई है. दरअसल इसी कालखंड में अमेरिका ख़ुद ही ऊर्जा का शुद्ध निर्यातक बन गया है. तेल के लिए मध्य पूर्व पर उसकी निर्भरता कम हो गई है. खाड़ी देशों की चीन से बढ़ती नज़दीकियों के बीच क़तर को पछाड़ते हुए अमेरिका दुनिया में LNG का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया है. इन घटनाक्रमों का प्रभाव सिर्फ आपूर्ति तक ही सीमित नहीं है. इनसे इन अहम पदार्थों की अंतरराष्ट्रीय क़ीमतों पर भी असर पड़ा है. 2020 में भारत को तेल निर्यात करने वाले देशों की सूची में अमेरिका चौथे पायदान पर आ गया. पहले तीन देश इराक़, सऊदी अरब और यूएई हैं.
ईरान के ऊर्जा भंडार का क्षमता के मुताबिक दोहन नहीं हो सका है. चीन इन भंडारों पर 400 अरब अमेरिकी डॉलर का निवेश करना चाहता है. चीन के साथ इसी साझेदारी की शुरुआत के मकसद से ईरानी विदेश मंत्री ने जनवरी 2022 में चीन का दौरा किया.
चीन में भी धीरे-धीरे ‘बदलते मध्य पूर्व’ की गूंज सुनाई देने लगी है. हाल ही में चीनी सुरक्षा हलक़ों के क़रीबी थिंकटैंक चाइना इंस्टीट्यूट्स ऑफ़ कंटेम्प्रोरी इंटरनेशनल रिलेशंस (CICIR) के अध्यक्ष युआन पेंग ने कहा है कि इस इलाक़े से बुनियादी तौर पर अमेरिकी फ़ौज (और इसके साथ अमेरिकी प्रभाव और सत्ता भी) की वापसी से यहां “शांति के दुर्लभ पल” आ गए हैं. पेंग की दलील है कि 2015 परमाणु सौदे को लेकर ईरान के वार्ताओं की मेज़ पर आने से टकराव भरे मुद्दों के सुलझने का रुझान दिखाई देता है. 2020 में चीन और ईरान के बीच एक व्यापक सामरिक समझौते पर सहमति बनी थी. इसके दायरे में सुरक्षा और अर्थव्यवस्था से जुड़े तमाम कारक आते हैं. दरअसल ईरान के ऊर्जा भंडार का क्षमता के मुताबिक दोहन नहीं हो सका है. चीन इन भंडारों पर 400 अरब अमेरिकी डॉलर का निवेश करना चाहता है. चीन के साथ इसी साझेदारी की शुरुआत के मकसद से ईरानी विदेश मंत्री ने जनवरी 2022 में चीन का दौरा किया. हालांकि अभी ये देखना बाक़ी है कि चीन हक़ीक़त में ईरान के प्रति कितनी प्रतिबद्धता जताता है.
इज़राइल में बढ़ता चीनी प्रभाव
मध्य पूर्व में अमेरिका के सबसे भरोसेमंद साथी इज़राइल को भी चीन की बढ़ती मौजूदगी और अमेरिका की ओर से चीन को पीछे धकेलने के लिए किए जा रहे उपायों से दो-चार होना पड़ रहा है. चीन के लिए इज़राइल का हाई टेक, नवाचार युक्त और रक्षा तकनीकी से जुड़ा इकोसिस्टम किसी वरदान से कम नहीं है. इज़राइल अत्याधुनिक तकनीक के बड़े निर्यातक देशों में से एक है. इज़राइली अधिकारियों ने निजी तौर पर ये बात साफ़ की है कि उनका देश हमेशा अमेरिकी सुरक्षा ढांचे के दायरे में बना रहेगा. हालांकि इज़राइल के भीतर चीन के बढ़ते प्रभाव को संतुलित करने के उपायों को लेकर अभी एक राय नहीं है. हाल ही में स्कॉलर असाफ़ ओरियन और दाना शेम-उर ने साफ़ किया है कि चीन ने इज़राइली प्रतिभाओं को अपने पाले में लाने के लिए इज़राइल में दो भर्ती केंद्र स्थापित किए हैं. उनका कहना है कि शीर्ष पर काम करने वाली प्रतिभाओं के लिए चीन भले ही आधिकारिक तौर-तरीक़े अमल में लाता है लेकिन वो अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए व्यापक तौर पर “विनिर्माण, टेक्नोलॉजी और साइबर से जुड़े क्षेत्रों में जासूसी कार्यक्रमों” का सहारा लेता रहता है.
ऊपर की मिसाल से तय किया गया एजेंडा ही इकलौता नहीं है. खाड़ी देशों के साथ रक्षा और सामरिक मसलों में तालमेल बढ़ाने की चीन की क़वायद अपनी रफ़्तार से जारी है. इस सिलसिले में कई तरह की ख़बरें आती रही हैं. मसलन सऊदी अरब द्वारा अपने ख़ुद के बैलेस्टिक मिसाइलों के निर्माण के लिए चीन के साथ गठजोड़ की बात सामने आ चुकी है. इसके अलावा यूएई द्वारा अपने एक बंदरगाह पर चीन को गोपनीय सैनिक अड्डा बनाने की मंज़ूरी देने को लेकर अमेरिका और यूएई के बीच तनाव की भी ख़बरें आई हैं. इससे पहले यूएई और सऊदी अरब जैसे देश चीन से हथियारबंद ड्रोन की ख़रीद कर चुके हैं. पश्चिम के पारंपरिक आपूर्तिकर्ताओं से ऐसी क्षमता हासिल करने में नाकाम रहने के बाद उन्होंने ये क़दम उठाया था. रक्षा क्षेत्र में चीन की मौजूदगी के नतीजे नज़र भी आने लगे हैं. एफ़-35 लड़ाकू विमानों के बेड़े की ख़रीद से जुड़े सौदे में अमेरिका ने यूएई में चीनी मौजूदगी के नज़दीक ऐसी अहम तकनीक मुहैया कराए जाने को लेकर सवाल खड़े किए थे. आख़िर में यूएई की ही बात मानी गई और चीनी मौजूदगी से समझौता किए बग़ैर ही उसे ये लड़ाकू विमान हासिल हो गए.
मध्य पूर्व में अमेरिका के सबसे भरोसेमंद साथी इज़राइल को भी चीन की बढ़ती मौजूदगी और अमेरिका की ओर से चीन को पीछे धकेलने के लिए किए जा रहे उपायों से दो-चार होना पड़ रहा है.
दरअसल, यहां यही बात साबित करने की कोशिश की गई है. मध्य पूर्व की ताक़तों ख़ासतौर से खाड़ी देशों और ईरान द्वारा चीन की ओर दिखाई जा रही गर्मजोशी अमेरिका और चीन की व्यापक प्रतिस्पर्धा से जुड़े ढांचे में यथार्थवादी राजनीति के पैंतरे हैं. इलाक़े की ‘मझौली ताक़तें’ इन क़वायदों के ज़रिए अपने सामरिक मकसद पूरे करना चाहती हैं. मिसाल के तौर पर लीबिया में यूएई का सैनिक जुड़ाव उसे रूस के क़रीब लाता है. वैश्विक मंच पर अमेरिका-चीन की रस्साकशी में एक ताक़त के तौर पर रूस भी अपनी जगह ढूंढने में लगा है. स्कॉलर जलेल हरचाओई के मुताबिक यूएई अरब दुनिया पर रूस के प्रभाव को “पसंदीदा” समझता है. वैसे तो सीरिया में रूस ज़मीनी स्तर पर सक्रिय है, लेकिन आर्थिक तौर पर इलाक़े में उसका रसूख़ सीमित है. इस कमी को पूरा करने के लिए वो रणनीतिक स्तर पर ठोस संतुलनकारी नीतियों का सहारा लेता रहा है. दूसरी ओर चीन के पास आर्थिक ताक़त है लेकिन वो फ़िलहाल इलाक़े में फ़ौजी जुड़ाव दिखाने को तैयार नहीं है. भविष्य में भी चीन की यही फ़ितरत बने रहने की पूरी संभावना है. लिहाज़ा चीन इलाक़े के देशों के लिए एक आदर्श साझीदार बन जाता है. वैसे चीन ख़ुद भी रूस पर अपनी आर्थिक और सामरिक छाप गहरी करता जा रहा है. कुछ लोग इसे साम्राज्यवादी मंसूबों का नया दांव बता रहे हैं. इस बार ये चाल पूरब से चली जा रही है.
मध्य पूर्व को लेकर चीन का मौजूदा नज़रिया दो मुख्य दस्तावेज़ों और नीतियों से ज़ाहिर होता है. पहला अरब दुनिया को लेकर उसकी नीतियों से जुड़ा , और दूसरा अपने व्यापक बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) को लेकर चीन का दृष्टिकोण सामने रखने वाला . हालांकि काफ़ी हद तक भारत की ही तरह ये तमाम जद्दोजहद चीन के लिए संतुलन बिठाने की क़वायद ही बनी रहेगी. इससे कुछ अहम सवाल खड़े होते हैं. क्या चीन एक ही वक़्त पर सऊदी अरब को मिसाइल बनाने में मदद करने के साथ-साथ ईरान को रक्षा उपकरण मुहैया करा सकेगा? क्या चीन द्वारा ईरान की इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड कोर (IRGC) के साथ कार्यकारी ख़ुफ़िया जानकारियां साझा करने की संभावनाओं के रहते इज़राइल आधुनिक तकनीकों के मामले में चीन की किसी भी तरह की मदद करेगा? क्षेत्रीय स्तर पर शांतिस्थापना की क़वायदों (जैसे अब्राहम समझौतों, ईरान-सऊदी वार्ताओं और यूएई-ईरान सहयोग) के बावजूद मझौली ताक़तों के मंसूबे अमेरिका और चीन के बीच महाशक्ति के स्तर पर होने वाले विस्तृत संघर्ष के सामने चुनौती खड़ी करती रहेंगी.
वांग यी के मुताबिक मध्य पूर्व में कभी भी “शक्ति का केंद्र खाली” नहीं रहा है. उनका विचार है कि इस इलाक़े को किसी “विदेशी आक़ा” की ज़रूरत नहीं है. इन तमाम रुख़ों के बीच इलाक़े में सबके अपने-अपने सामरिक लक्ष्य फलते-फूलते रहेंगे. मध्य पूर्व में चीनी रसूख़ में बढ़ोतरी अब क़िताबी बात नहीं रह गई है, बल्कि आज ज़मीन पर इसके सबूत दिखाई देने लगे हैं.
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