-
CENTRES
Progammes & Centres
Location
यूरोप में शांति और भारत-अमेरिका संबंधों को ठीक करने का रास्ता अलास्का के बर्फीले गलियारे से होकर गुजर सकता है.
Image Source: Getty Images
अगर कोई एक हथियार है जो डोनाल्ड ट्रंप टैरिफ की तरह ही मज़े से इस्तेमाल करते हैं तो वो है प्रतिबंध. अमेरिका के मुख्य शांति निर्माता (पीसमेकर) और सौदागर (डीलमेकर) के लिए ये पसंद के कुंद हथियार हैं जिनका उपयोग युद्ध को रोकने और अमेरिका की छवि के अनुसार वैश्विक व्यापार को फिर से बनाने के लिए किया जाता है. आज भारत ख़ुद को इन दोनों हथियारों के निशाने पर पा रहा है. एक तरफ वो अमेरिका के साथ व्यापार युद्ध में उलझा हुआ है और दूसरी तरफ 27 अगस्त तक 50 प्रतिशत टैरिफ की आशंका का सामना कर रहा है.
इसके बावजूद ‘सौदे की कला’ की पटकथा में टैरिफ केवल नाटक है. ट्रंप अधिकतम मांग के साथ शुरू करते हैं, ज़ोर लगाते हैं और दूसरे पक्ष के झुकने का इंतज़ार करते हैं. भारत ने इस रणनीति को काफी हद तक ठीक ढंग से समझा है.
आज भारत ख़ुद को इन दोनों हथियारों के निशाने पर पा रहा है. एक तरफ वो अमेरिका के साथ व्यापार युद्ध में उलझा हुआ है और दूसरी तरफ 27 अगस्त तक 50 प्रतिशत टैरिफ की आशंका का सामना कर रहा है.
दुनिया भर में ट्रंप के टैरिफ टारगेट ने तीन रणनीतियों के बीच चुना है: जवाबी कार्रवाई, अनदेखा करना और बातचीत करना. धैर्यपूर्वक बातचीत करने से अक्सर सर्वश्रेष्ठ परिणाम मिले हैं. भारत ने इस खेल की शुरुआत में ही बातचीत के महत्व को समझ लिया था. फरवरी में मोदी और ट्रंप 200 अरब अमेरिकी डॉलर के द्विपक्षीय व्यापार को 2030 तक 500 अरब अमेरिकी डॉलर तक बढ़ाने के लिए सहमत हुए. इसके तहत 2025 तक एक व्यापार समझौता भी होना था.
बातचीत के पांच दौर पहले ही पूरे हो चुके हैं. लगभग अंतिम समझौता ट्रंप के हस्ताक्षर के लिए तैयार था लेकिन आख़िरी समय में ट्रंप ने रियायतों के लिए ज़ोर लगा दिया. इसके तहत अमेरिका सोया, मक्का, गेहूं, दूध, ऑटो पार्ट्स और अन्य सामानों के लिए भारत के बाज़ार में अधिक पहुंच चाहता था.
दो भू-राजनीतिक घटनाक्रमों ने काफी हद तक एक आर्थिक वार्ता को जटिल बना दिया: मई में भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव में बढ़ोतरी और यूक्रेन के युद्ध को लेकर पीछे हटने से रूस का इनकार.
भारत-पाकिस्तान संकट के अनपेक्षित परिणामों ने युद्ध के दौरान कूटनीति की सीमाओं को दर्शाया. भारत-पाकिस्तान के बीच युद्धविराम को लेकर ट्रंप के द्वारा श्रेय लेने पर भारत ने नाराज़गी दिखाई. लेकिन अमेरिका ने कुछ भी नाटकीय रूप से अलग नहीं किया था. इतिहास ऐसे उदाहरणों के बारे में बताता है जब दक्षिण एशिया में संकट के क्षणों में अमेरिका ने शांत होकर कूटनीति की- कारगिल युद्ध के दौरान बिल क्लिंटन के द्वारा नवाज़ शरीफ़ को वॉशिंगटन बुलाने से लेकर सीमा पार आतंकवाद को रोकने के लिए अमेरिका के दबाव में 2002 में मुशर्रफ़ के वादे तक. इसी तरह पुलवामा के बाद भारत के द्वारा विश्वसनीय मिसाइल ख़तरे के साथ अमेरिका की तरफ से पाकिस्तान को बारीक इशारे के बाद एक पकड़े गए भारतीय पायलट की सुरक्षित वापसी हुई थी.
पीछे मुड़कर देखें तो भारत ये स्वीकार करके ट्रंप के अहंकार को ठेस पहुंचाने से बच सकता था कि अमेरिका की कूटनीति ने पाकिस्तान तक भारत के संदेश को व्यापक बनाने में मदद की थी.
ऑपरेशन सिंदूर को लेकर घरेलू स्तर पर चल रही बहस में ये बारीकियां दब गईं. भारत की सैन्य कार्रवाई को तो केंद्र में रखा गया (जो सही भी है) लेकिन पर्दे के पीछे अमेरिका की भूमिका का ज़िक्र नहीं किया गया. भारतीय संवेदनाओं को ट्रंप की तरफ से अनसुना करने की वजह से हालात और बिगड़े और ऐसा लगा कि वो भारत और पाकिस्तान को एक साथ जोड़ रहे हैं- यहां तक कि उन्होंने पाकिस्तान के सेना प्रमुख के लिए लंच की मेज़बानी भी की. भारत के लिए ये ठीक उसी तरह था जैसे 7 अक्टूबर के हमले के बाद इज़रायल के लिए होता अगर व्हाइट हाउस हमास के नेता के लिए रेड कारपेट बिछाता. इसके बावजूद पीछे मुड़कर देखें तो भारत ये स्वीकार करके ट्रंप के अहंकार को ठेस पहुंचाने से बच सकता था कि अमेरिका की कूटनीति ने पाकिस्तान तक भारत के संदेश को व्यापक बनाने में मदद की थी.
दूसरी बाधा यानी रूस से जुड़ी बाद की पाबंदियां भारत को लेकर कम और यूक्रेन संघर्ष को लेकर पुतिन से ट्रंप की हताशा के बारे में ज़्यादा थी. 6 अगस्त को ट्रंप के द्वारा नए टैरिफ का एलान वास्तव में रूस को ये इशारा था कि वो यूक्रेन के साथ शांति वार्ता को गंभीरता से ले. भारत को इसका अनपेक्षित नुकसान झेलना पड़ा.
विडंबना यह है कि भारत ने पहले ही ये संकेत दे दिया था कि अगर दाम प्रतिस्पर्धी हो तो वो अमेरिकी ऊर्जा का और आयात करने के लिए तैयार है. लेकिन प्रतिबंधों, जब विशेष रूप से उनका ज़ोर-शो से प्रचार किया गया, ने ट्रंप के इस नैरेटिव को बढ़ाने का काम किया कि पुतिन को समझौते की ओर धकेला जा रहा है.
अगस्त में भू-राजनीति जुलाई की तुलना में पूरी तरह अलग दिख रही है, भले ही अंतर्निहित रणनीतिक दिशा में कोई बदलाव नहीं हुआ है. चीन ने भारत पर “धौंस” जमाने के लिए अमेरिका की आलोचना की है. ब्रिक्स के सदस्य निजी रूप से अमेरिका की सख्ती पर विचार-विमर्श कर रहे हैं. उम्मीद है कि इस महीने के अंत में मोदी SCO शिखर सम्मेलन के दौरान शी जिनपिंग और पुतिन से मिलेंगे.
ट्रंप और पुतिन के बीच 15 अगस्त को आयोजित अलास्का शिखर सम्मेलन बहुत अधिक प्रतीकात्मकता से भरा हुआ था. अमेरिका ने ज़ार के दौर वाले रूस से 7 मिलियन अमेरिकी डॉलर में जो क्षेत्र ख़रीदा था, उसी क्षेत्र में न्यूयॉर्क के एक बड़े रियल एस्टेट कारोबारी ने सोवियत संघ के दो उत्तराधिकारियों के लिए एक रियल एस्टेट सौदा करने की कोशिश की. पुतिन के लिए अदला-बदली के समझौते में पूर्वी यूक्रेन का वो क्षेत्र शामिल है जिस पर रूस का कब्ज़ा है. इसके अलावा नेटो के बाहर एक तटस्थ यूक्रेन की गारंटी भी शामिल है. यूक्रेन के लिए प्राथमिकता ये गारंटी होगी कि पुतिन आक्रमण के एक और दौर की शुरुआत नहीं करेंगे. भारत ने अलास्का पहल का स्वागत किया है जिसकी वजह से प्रतिबंधों के दूसरे दौर में भी ढील मिल सकती है. भारत एक प्रमुख हितधारक है: यूरोप में शांति के साथ भारत-अमेरिका संबंधों को हुए नुकसान की भरपाई करने का अवसर भी मिल सकता है. अगर अलास्का शिखर सम्मेलन से यूक्रेन को लेकर थोड़ी भी सफलता मिलती है तो इसका चेन रिएक्शन देखने को मिल सकता है. इसकी वजह से अटलांटिक के पार तनाव कम हो सकता है, अलग ढंग से प्रतिबंधों के लिए जगह बन सकती है और भारत पर टैरिफ का बोझ कम हो सकता है. लेकिन भारत को वैकल्पिक तैयारी करनी चाहिए. इसमें नाकाम होने पर विभाजन तेज़ होगा और ट्रंप का सौदेबाज़ी वाला रवैया कड़ा हो सकता है.
ट्रंप की रणनीति- उकसावे वाली और नाटकीय- का लक्ष्य ख़ुद के लिए सर्वश्रेष्ठ समझौता हासिल करना है. भारत की अर्थव्यवस्था को लेकर उनकी कठोर टिप्पणी का जवाब शांत होकर खंडन से करना चाहिए, न कि आहत होकर आक्रोश से. भारत और अमेरिका के बीच मज़बूत संबंध, जो साल 2000 की रणनीतिक साझेदारी होने के बाद कड़ी मेहनत से बनाया गया, किसी विवाद की तुलना में ज़्यादा गहरा है.
रक्षा सहयोग, तकनीकी साझेदारी, साझा भू-राजनीतिक लक्ष्य और 50 लाख भारतीय अमेरिकी प्रवासियों की ऊर्जा संबंधों को ढांचागत मज़बूती प्रदान करती है. व्यापार पर रणनीतिक समझौतों को लक्ष्मण रेखा नहीं पार करना चाहिए लेकिन वो सौदा तोड़ने वाला भी नहीं होने चाहिए. इसमें बारीकी, प्राथमिकता और चरणबद्ध मेल-जोल के लिए जगह है.
भारत के लिए नज़रिया रणनीतिक और दीर्घकालिक होना चाहिए. जब ट्रंप एक सीमा पार करते हैं- जो कि वो करेंगे- तो भारत की प्रतिक्रिया दृढ़ लेकिन नपी-तुली होनी चाहिए: सार्वजनिक रूप से झगड़े के बदले कूटनीतिक प्रहार होना चाहिए.
इस महीने के अंत में भारत, व्यापार वार्ता के एक और चरण के लिए अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल की मेज़बानी कर सकता है. ये क्वॉड शिखर सम्मेलन के लिए ट्रंप के भारत दौरे का मार्ग प्रशस्त कर सकता है. भारत के लिए नज़रिया रणनीतिक और दीर्घकालिक होना चाहिए. जब ट्रंप एक सीमा पार करते हैं- जो कि वो करेंगे- तो भारत की प्रतिक्रिया दृढ़ लेकिन नपी-तुली होनी चाहिए: सार्वजनिक रूप से झगड़े के बदले कूटनीतिक प्रहार होना चाहिए. इससे बातचीत सुरक्षित रहती है और संकल्प का संकेत मिलता है.
ट्रंप का ये तूफान किसी दूसरे कूटनीतिक तूफान की तरह गुजर जाएगा. भारत को शांत रहना चाहिए और दृढ़ता एवं लचीलेपन के साथ बातचीत करनी चाहिए. और हां, किसी को जल्द ही ट्रंप को नोबल पुरस्कार देना चाहिए!
अजय बिसारिया ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में डिस्टिंग्विश्ड फेलो हैं.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.
Ajay Bisaria is a Distinguished Fellow at ORF. He is also a strategic consultant and commentator on international affairs. He has had a distinguished diplomatic ...
Read More +