Published on Jul 15, 2022 Updated 0 Hours ago

अंतर्राष्ट्रीय मार्केट में रूस के जीवाश्म ईंधन की आपूर्ति में आंशिक रूप से कमी की पृष्ठभूमि में भारतीय वैश्विक ऊर्जा बाज़ारों के लिए निहितार्थ बहुत अधिक हैं.

#Energy Markets: वैश्विक ऊर्जा बाज़ारों में उतार-चढ़ाव का भारतीय बाज़ार के लिए क्या है मतलब?

पृष्ठभूमि

रूस जीवाश्म ईंधन (कोयला, तेल और गैस) का सबसे बड़ा निर्यातक है. यह विश्व का सबसे बड़ा तेल (क्रूड और उत्पादों) निर्यातक है और दुनियाभर के बज़ारों में प्रतिदिन 8 मिलियन बैरल (बी/डी) तेल की आपूर्ति करता है. इतना ही नहीं रूस सिर्फ़ पाइपलाइन के माध्यम से 210 बीसीएम (बिलियन क्यूबिक मीटर) प्राकृतिक गैस का निर्यात करने के साथ दुनिया का सबसे बड़ा प्राकृतिक गैस निर्यातक भी है. रूस दुनिया के 10 चोटी के कोयला उत्पादकों में भी शामिल है और कुल वैश्विक उत्पादन में इसकी 5 प्रतिशत से अधिक की हिस्सेदारी है. अंतर्राष्ट्रीय मार्केट में रूसी तेल, गैस और कोयले की थोड़ी सी भी कमी या आपूर्ति बाधित होने का असर भारतीय ऊर्जा क्षेत्र पर पड़ता है और यह असर क़ीमत के साथ-साथ मात्रा के रूप में भी होता है.

तेल की क़ीमत में उतार-चढ़ाव का संकट भारत की अर्थव्यवस्था के लिए सबसे बड़ी चुनौती है क्योंकि खराब से खराब स्थिति में भी आपूर्ति में कमी के बावज़ूद इसकी खपत में कोई ख़ास कमी होने की संभावना नहीं है.

कच्चा तेल

तेल की क़ीमत में उतार-चढ़ाव का संकट भारत की अर्थव्यवस्था के लिए सबसे बड़ी चुनौती है क्योंकि खराब से खराब स्थिति में भी आपूर्ति में कमी के बावज़ूद इसकी खपत में कोई ख़ास कमी होने की संभावना नहीं है. विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि रूस द्वारा 1 mb/d (मिलियन बैरल प्रतिदिन) तक उत्पादन में कमी के असर को थोड़े समय तक तो संभाला जा सकता है, पर आपूर्ति में बहुत ज़्यादा कमी के प्रभाव को संभालने के लिए आपूर्ति पक्ष के सहयोग की भी आवश्यकता होगी, जो कि बेहद मुश्किल है. सबसे खराब स्थिति में रूस से आपूर्ति में अनुमानित कमी लगभग 4 mb/d  है. ओपेक (तेल उत्पादक और निर्यातक देश) द्वारा उत्पादन में बढ़ोतरी कर इस नुकसान के 40 प्रतिशत से कम की भरपाई की जा सकती है. अमेरिकी तेल उत्पादन में वृद्धि की संभावना न के बराबर है, क्योंकि वहां तेल उत्पादन उद्योग पूंजी अनुशासन से बंधा हुआ है. वहीं ईरान से आपूर्ति में वृद्धि परमाणु समझौता होने पर निर्भर करती है. अधिकतर विश्लेषणों से पता चलता है कि सबसे खराब स्थिति में आपूर्ति में लगभग 1.3 mb/d  की कमी के साथ वर्ष 2022 में तेल क्षेत्र के घाटे में रहने की संभावना है. कच्चे तेल की कीमतें प्रति बैरल 100 से 130 अमेरिकी डॉलर के बीच झूलते रहने की उम्मीद है.

अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में गैस और तेल की क़ीमतों में लगातार बढ़ोतरी बने रहने से लंबी अवधि के अनुबंधों के लिए मोल-भाव में क़ीमतें बढ़ सकती हैं. कच्चे तेल की कीमतें जब कम थी, तब वर्ष 2020 में ब्रेंट क्रूड फ्यूचर्स के 10 प्रतिशत कमी के साथ तेल से संबंधित अनुबंध किए गए थे. 

भारत में वर्ष 2020-21 में पेट्रोलियम उत्पादों को लेकर आत्मनिर्भरता अनुपात 15.6 प्रतिशत था, जिसका मतलब है कि पेट्रोलियम उत्पाद की अपनी लगभग 85 प्रतिशत ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भारत आयात पर निर्भर है. व्यापार संतुलन पर ऊर्जा के व्यापक प्रभाव को देखते हुए, भारत की ऊर्जा नीति व्यापार संतुलन, विशेष रूप से इसके ऊर्जा आयात बिल पर पड़ने वाले प्रभावों के प्रबंधन से जुड़ी है. क्रूड ऑयल की क़ीमतों में प्रति बैरल 10 अमेरिकी डॉलर की वृद्धि होने पर भारत के कुल तेल ऑयल बिल में 15 बिलियन अमेरिकी डॉलर की बढ़ोतरी हो जाती है. इससे भारत का चालू खाता घाटा(CAD)  जीडीपी का लगभग 0.4-0.6 प्रतिशत बढ़ जाएगा और 1.9 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक के अतिरिक्त सब्सिडी ख़र्च के साथ राजकोषीय हेडरूम कम हो जाएगा. भारत में और वैश्विक स्तर पर माना जाता है कि अधिकतर ईंधन की मांग औद्योगिक इस्तेमाल के लिए होती है, लेकिन इनपुट लागत अधिक होने की वजह से यह औद्योगिक और विनिर्माण गतिविधियों को प्रभावित करती है. इसके बाद ट्रांसपोर्ट सेक्टर के लिए ईंधन की मांग होती है, विशेष रूप से सड़क परिवहन और हवाई परिवहन के ईंधन की. ज़ाहिर है कि ईंधन की कमी के परिणाम आर्थिक तौर पर सामने देखने को मिलेंगे.

प्राकृतिक गैस

प्राकृतिक गैस के मामले में भारत को मूल्य और मात्रा दोनों ही तरह के संकटों का सामना करना पड़ सकता है, विशेष रूप से इसके स्पॉट गैस आयात के मामले में. प्राकृतिक गैस के लिए भारत का आत्मनिर्भरता अनुपात वर्ष 2021-22 में 50.9 प्रतिशत था. यानी लगभग 50 प्रतिशत आयातित गैस एलएनजी (तरलीकृत प्राकृतिक गैस) में से क़रीब 75 से 80 प्रतिशत लंबी अवधि के अनुबंधों के माध्यम से प्राप्त की जाती है और बाकी गैस की स्पॉट खरीद यानी हाजिर ख़रीद की जाती है. गेल (इंडिया) लिमिटेड ने वर्ष 2011 में चेनियर एनर्जी के साथ 3.5 मिलियन मीट्रिक टन प्रति वर्ष (एमटीपीए) के लिए लुइसियाना में सबाइन पास स्थित एक एलएनजी फैसेलिटी  से एक ख़रीद समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. 20 साल के इस अनुबंध की अवधि वर्ष 2018 में प्रारंभ हुई थी. भारत के पेट्रोनेट का क़तर के रासगैस के साथ 7.5mtpa और 1mtpa के लिए दो अवधि की आपूर्ति का अनुबंध है. रासगैस के साथ पेट्रोनेट के अनुबंध की वर्ष 2023 में समीक्षा होनी निर्धारित है. यह अनुबंध वर्ष 2028 में समाप्त हो जाएगा. एक सीमित अवधि के सौदे के अंतर्गत पेट्रोनेट ऑस्ट्रेलिया में एक्सॉन की गोरगॉन परियोजना से 1.44 mtpa नेचुरल गैस का आयात भी करता है. पेट्रोनेट एलएनजी की कतर से होने वाली आपूर्ति के लिए क़ीमतें औसतन 12 अमेरिकी डॉलर/mmBtu (मीट्रिक मिलियन ब्रिटिश थर्मल यूनिट) हैं, जो स्पॉट एलएनजी के दाम के आधे से भी कम हैं. हालांकि, अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में गैस और तेल की क़ीमतों में लगातार बढ़ोतरी बने रहने से लंबी अवधि के अनुबंधों के लिए मोल-भाव में क़ीमतें बढ़ सकती हैं. कच्चे तेल की कीमतें जब कम थी, तब वर्ष 2020 में ब्रेंट क्रूड फ्यूचर्स के 10 प्रतिशत कमी (जो तेल और गैस की क़ीमतों के बीच संबंध की व्याख्या करता है और जापानी क्रूड कॉकटेल [जेसीसी] की क़ीमतों से बढ़ता है) के साथ तेल से संबंधित अनुबंध किए गए थे. निर्यातकों की तरफ से अपने संशोधित अनुबंधों में अधिक कमी की मांग करने की संभावना है. जर्मनी ने हाल ही में एलएनजी आपूर्ति के लिए कतर के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं. मिडिल ईस्ट की एलएनजी के लिए (जो शायद किसी भी क़ीमत पर गैस ख़रीदेगा) यूरोप से बराबरी भारत द्वारा बातचीत के दौरान अपने मुताबिक मूल्य तय करने की संभावना को कम कर सकती है. 

भारत के औद्योगिक ग्राहक कोयले के स्थान पर 5 से 6 अमेरिकी डॉलर/mmBtu की दर पर गैस का इस्तेमाल करना पसंद करते हैं, हालांकि उर्वरक और शहरी गैस वितरण (CGD) जैसे कुछ सेक्टरों को लगभग 10 अमेरिका डॉलर/mmBtu की क़ीमतें भी सहज लगती हैं.

स्पॉट मार्केट के माध्यम से एलएनजी के आयात का मतलब है, क़ीमतों में बेतहाशा उतार-चढ़ाव के बीच सौदा करना. कोरोना महामारी के दौरान जब एशियाई स्पॉट एलएनजी आयात के लिए बेंचमार्क जापान कोरिया मार्कर (जेकेएम) की एलएनजी की क़ीमत फरवरी, 2021 में 18 अमेरिकी डॉलर/mmBtu तक पहुंच गई थी तो भारत से स्पॉट गैस की मांग लगभग खत्म हो गई थी. भारतीय कंपनियों ने स्पॉट मार्केट की मौजूदा उच्च दरों पर आयात करने से बचने के लिए या तो एलएनजी कार्गो को स्थगित कर दिया या फिर उन्हें आगे भविष्य के लिए बढ़ा दिया. अप्रैल, 2020 में कोरोना महामारी से प्रभावित आर्थिक मंदी के कारण जापान कोरिया मार्कर (जेकेएम) लगभग 2 अमेरिकी डॉलर/mmBtu तक गिर गया, लेकिन यही जेकेएम मार्च, 2022 में 35 अमेरिकी डॉलर/mmBtu से अधिक हो गया. यूक्रेन संकट और प्राकृतिक गैस आपूर्ति से संबंधित जोख़िमों के चलते इसमें 1650 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई.

भारत के औद्योगिक ग्राहक कोयले के स्थान पर 5 से 6 अमेरिकी डॉलर/mmBtu की दर पर गैस का इस्तेमाल करना पसंद करते हैं, हालांकि उर्वरक और शहरी गैस वितरण (CGD) जैसे कुछ सेक्टरों को लगभग 10 अमेरिका डॉलर/mmBtu की क़ीमतें भी सहज लगती हैं. इस क़ीमत के बाहर भारत के स्पॉट मार्केट में ख़रीदारी की संभावनाएं सीमित हैं. जैसे-जैसे यूरोप में सर्दी बढ़ती जाएगी, एशियाई आयातकों को ऊंची दरों पर गैस की मिलने की संभावना भी बढ़ती जाएगी. एक ऐसी स्थिति में, जब अप्रैल, 2022 और मार्च, 2023 के मध्य नॉर्ड स्ट्रीम 1, यमल-यूरोप पाइपलाइन और यूक्रेन से आने वाले मार्गों पर रूस द्वारा गैस की आपूर्ति बंद हो जाती है, तो यूरोपीय देश गैस का भंडारण नहीं कर पाएंगे और ऐसा होने पर गैस की वैश्विक मूल्य वृद्धि की प्रबल संभावना है. ऐसा होने पर गैस का इस्तेमाल करने वाले भारतीय उद्योग, गैस की जगह पर वैकल्पिक जीवाश्म ईंधन, जैसे मुख्य रूप से कोयला और पेट्रोलियम कोक की तरफ दोबारा लौटेंगे. हालांकि, सिटी गैस डिस्ट्रीब्यूशन (सीजीडी) जैसे क्षेत्रों में ऐसा संभव नहीं हो पाएगा, तो ज़ाहिर है कि वे वैश्विक स्तर पर गैस की बढ़ी क़ीमतों पर ही उसे खरीदेंगे और आख़िरकार इसका ख़ामियाजा खुदरा उपभोक्ताओं को मूल्य वृद्धि के रूप मे चुकाना पड़ेगा. अगर गैस की वैश्विक क़ीमतों में बढ़ोतरी लंबे समय तक बनी रहती है, तो इससे भारत की गैस का उपयोग 6 से 15 प्रतिशत तक बढ़ाने का लक्ष्य प्रभावित होगा और इसमें कोई शक नहीं कि इससे कार्बन उत्सर्जन भी बढ़ेगा.

कोयला

भारत में स्थापित कोयले पर आधारित बिजली उत्पादन क्षमता के 204.9 GW (गीगावाट) में से लगभग 17.6 GW  क्षमता को विशेष तौर पर आयातित कोयले से संचालित करने के लिए डिजाइन किया गया है. अन्य बिजली संयंत्र ईंधन का आयात घरेलू कोयले के साथ मिलाकर उपयोग करने के लिए करते हैं. जबरदस्त गर्मी, ज़्यादा गर्मी की वजह से बिजली की मांग में बढ़ोतरी, थर्मल पावर प्लांटों में कोयले के स्टॉक की कमी और आयातित कोयले के भरोसे चलने वाले थर्मल प्लांट द्वारा बिजली उत्पादन में कमी जैसी सभी बातों के कारण आयातित कोयला अप्रत्याशित रूप से बिजली उत्पादन के लिए सबसे अहम ईंधन बन गया है. इसी का परिणाम यह है कि सरकार थर्मल प्लांटों को कोयला संकट से निपटने के लिए कोयले का आयात बढ़ाने को कह रही है, वो भी ऐसे समय में जब यूक्रेन में युद्ध के बाद वैश्विक स्तर पर कोयले की क़ीमतें अभूतपूर्व ऊंचाई पर हैं. इंडोनेशियाई 4,200 kcal/kg (किलो कैलोरी/किलोग्राम) कोयले की क़ीमत फरवरी, 2021 में 79.05 अमेरिकी डॉलर/टन (t) से बढ़कर मई, 2022 में 91.95 अमेरिकी डॉलर/टन हो गई. इसी अवधि में दक्षिण अफ्रीकी 5,500 kcal/kg कोयले के दाम 231.9 अमेरिकी डॉलर/टन FOB से बढ़कर 269.5 अमेरिकी डॉलर/टन तक पहुंच गए. इतना ही नहीं ऑस्ट्रेलियाई 5,500 kcal/kg कोयले की क़ीमत 159.25 अमेरिकी डॉलर/ टन से बढ़कर 196.95 अमेरिकी डॉलर/टन तक हो गई. वैश्विक स्तर पर कोयले के दामों में बेतहाशा बढ़ोतरी से भारत के ऊर्जा आयात बिल पर दबाव बढ़ेगा और इसकी वजह से भारत के चालू खाते के घाटे में वृद्धि होगी. सरकार के बिजली उत्पादकों को कोयला आयात करने के लिए निर्देशित करने वाले निर्णय से कर्ज़दाताओं में भ्रम पैदा हो रहा है. सरकारी बैंकों को भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की तरफ से जो संकेत दिया गया था, उसी के मुताबिक उन्होंने आयातित कोयले से चलने वाले 13 बिजली संयंत्रों की वर्किंग कैपिटल की ज़रूरतों के लिए फंड नहीं देने का निर्णय लिया था. लेकिन अब सरकार के निर्देशों के बाद यही बैंक आयातित कोयले को खरीदने के लिए कार्यशील पूंजी ऋण देने के लिए सहमत हो गए हैं. लंबी अवधि में इस विरोधाभास के परिणामस्वरूप पावर सेक्टर की ऋण देनदारी और खराब होने की संभावना है.

वैश्विक स्तर पर कोयले के दामों में बेतहाशा बढ़ोतरी से भारत के ऊर्जा आयात बिल पर दबाव बढ़ेगा और इसकी वजह से भारत के चालू खाते के घाटे में वृद्धि होगी. सरकार के बिजली उत्पादकों को कोयला आयात करने के लिए निर्देशित करने वाले निर्णय से कर्ज़दाताओं में भ्रम पैदा हो रहा है.

सरकार का अनुमान है कि चालू वित्त वर्ष में कोयले की कुल मांग घरेलू आपूर्ति से अधिक हो जाएगी. कोयला मंत्रालय की तरफ से कोयले को लेकर जारी ताज़ा मध्यम अवधि के अनुमानों के मुताबिक, वर्ष 2022-23 में कोयले की कुल मांग 1,029 मिलियन टन (एमटी) होने की उम्मीद है, जबकि कोयले की घरेलू आपूर्ति 974 मिलियन टन होने का अनुमान है. अगर इसे लंबी अवधि में देखा जाए तो अगले 18 वर्षों में थर्मल कोयले की ज़रूरत 1,500 मिलियन टन तक बढ़ने की उम्मीद है. ऐसे में योजनाबद्ध तरीके से कोयले का घरेलू उत्पादन बढ़ाकर और कोयला परिवहन से जुड़ी लॉजिस्टिक अड़चनों को दूर करके, आयातित थर्मल कोयले के दामों में बढ़ोतरी के असर को काफ़ी हद तक कम किया जा सकता है.

 स्रोत: अंतरराष्ट्रीय उर्जा एजेंसी

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Akhilesh Sati

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Akhilesh Sati is a Programme Manager working under ORFs Energy Initiative for more than fifteen years. With Statistics as academic background his core area of ...

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Lydia Powell

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Ms Powell has been with the ORF Centre for Resources Management for over eight years working on policy issues in Energy and Climate Change. Her ...

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Vinod Kumar Tomar

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Vinod Kumar, Assistant Manager, Energy and Climate Change Content Development of the Energy News Monitor Energy and Climate Change. Member of the Energy News Monitor production ...

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