Author : Ayjaz Wani

Published on Jul 19, 2022 Updated 0 Hours ago

बदलते भू-राजनीतिक और भूसामरिक परिदृश्य के बीच रूस ने मध्य एशियाई क्षेत्र में अपना प्रभाव जमाने के लिए नए सिरे से क़वायद शुरू कर दी है.

#रूस-यूक्रेन संघर्ष: युद्ध के बीच व्लादिमीर पुतिन का मध्य एशिया दौरा: मायने और संकेत

हाल ही में रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने भूतपूर्व सोवियत गणराज्यों ताजिकिस्तान और तुर्कमेनिस्तान का दौरा किया. फ़रवरी 2022 में रूस-यूक्रेन युद्ध की शुरुआत के बाद से ये उनकी पहली विदेश यात्रा थी. यूक्रेन में युद्ध के जारी रहते पुतिन के इस दौरे के भूराजनीतिक, भूआर्थिक और दूसरे संदर्भों में कई मायने हैं. रूस और मध्य एशिया के लिए इस युद्ध के अनेक प्रभाव और चुनौतियां हैं. ताजिकिस्तान में पुतिन ने ताजिक राष्ट्रपति इमोमाली रहमोन से मुलाक़ात की. इस दौरान दोनों नेताओं ने अफ़गानिस्तान द्वारा तालिबान पर क़ाबिज़ होने से उभरे सुरक्षा हालातों और द्विपक्षीय आर्थिक रिश्तों पर चर्चा की. तुर्कमेनिस्तान में राष्ट्रपति पुतिन ने छठे कैस्पियन शिखर सम्मेलन में हिस्सा लिया. इसमें ईरान, कज़ाख़स्तान, तुर्कमेनिस्तान और अज़रबैजान के राष्ट्रपति भी शामिल हुए थे. सम्मेलन में तमाम दूसरे मसलों के साथ-साथ इस क्षेत्र में व्यापार और पर्यटन के विकास के लिए परिवहन से जुड़े बुनियादी ढांचे में सुधार पर चर्चा हुई. भू-राजनीतिक नज़रिए से पुतिन का दौरा बेहद अहम है. दरअसल पुतिन के इस दौरे से कुछ ही वक़्त पहले अमेरिकी सेंट्रल कमांड के मुखिया जनरल माइकल एरिक कुरिला ने भी मध्य एशिया की यात्रा की थी. उनके दौरे का मक़सद मध्य एशिया में रूस के रुतबे की काट निकालना था. दरअसल अमेरिका इस इलाक़े की सुरक्षा के लिए ख़ुद को रूस के मुक़ाबले व्यावहारिक रूप से एक वैकल्पिक जवाबदेह ताक़त के तौर पर स्थापित करना चाहता है. एक अमेरिकी अधिकारी के मुताबिक जनरल कुरिला के दौरे का मक़सद अमेरिका को “सुरक्षा सहयोग और आतंकवाद-निरोधी अभियानों में इन देशों के साथ और अधिक क़वायदों के अवसर मुहैया कराना” था.    

भू-राजनीतिक नज़रिए से पुतिन का दौरा बेहद अहम है. दरअसल पुतिन के इस दौरे से कुछ ही वक़्त पहले अमेरिकी सेंट्रल कमांड के मुखिया जनरल माइकल एरिक कुरिला ने भी मध्य एशिया की यात्रा की थी. उनके दौरे का मक़सद मध्य एशिया में रूस के रुतबे की काट निकालना था.

मध्य एशिया में रूस का ज़बरदस्त जलवा

पूर्ववर्ती सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस ने मध्य एशिया के पांच गणराज्यों (CARs) को अपना पिछला आंगन समझा. रूस की ओर से ये सुनिश्चित किया गया कि सोवियत भूमि के अंग रहे ये सभी भूतपूर्व घटक अमेरिका या यूरोपीय संघ के क़रीब न जाएं. एशिया और यूरोप के बीच सामरिक रूप से स्थित मध्य एशिया के ये देश हाइड्रोकार्बन संसाधनों के धनी हैं. रूस इन देशों को सीधे तौर पर अपने प्रभाव के दायरे में समझता है. उसने इनके साथ मज़बूत सियासी, सांस्कृतिक और व्यापारिक रिश्ते क़ायम कर रखे हैं. रूस सामूहिक सुरक्षा संधि संगठन (CSTO) के ज़रिए इस इलाक़े के साथ सैनिक और सुरक्षा सहयोग को बढ़ावा देता आया है. उसने मध्य एशियाई देशों की सशस्त्र सेनाओं को आधुनिक बनाने में मदद की है. रूस ने ताज़िकिस्तान और किर्गिस्तान में स्थायी सैनिक अड्डे स्थापित कर रखे हैं. CSTO ने इस इलाक़े में अपना शिकंजा मज़बूत करने में रूस की मदद की है. इस व्यवस्था ने मध्य एशियाई शासकों द्वारा और ज़्यादा निरंकुश और तानाशाही बर्ताव को भी बढ़ावा दिया है. इस सिलसिले में कज़ाख़स्तान की मिसाल ले सकते हैं. लिक्विड पेट्रोलियम गैस (LPG) पर सब्सिडी रोके जाने के ख़िलाफ़ 2 जनवरी 2022 को वहां अब तक का सबसे बड़ा प्रदर्शन देखने को मिला था. देखते-देखते इस प्रदर्शन ने निरंकुश सत्ता के ख़िलाफ़ आंदोलन का रूप ले लिया. कुछ ही समय बाद प्रदर्शनों ने हिंसक रूप अख़्तियार कर लिया. हिंसा में 18 सुरक्षाकर्मियों समेत दर्ज़नों लोग मारे गए. हज़ारों लोग घायल भी हुए. कज़ाख़ राष्ट्रपति कासिम-जोमार्त तोकायेव ने हिंसा के लिए विदेशों में प्रशिक्षित आतंकवादी गिरोहों को ज़िम्मेदार ठहराते हुए देश में इमरजेंसी लगा दी. प्रदर्शनों के बेक़ाबू हो जाने पर उन्होंने हिंसा की रोकथाम के लिए CSTO से मदद मांग ली. पलक झपकते ही रूस के पैरा-ट्रूपर्स और बेलारुस से स्पेशल फ़ोर्सेज़ के जवान कज़ाख़स्तान पहुंच गए. उन्होंने प्रदर्शनकारियों को शांत कर क़ानून-व्यवस्था बहाल करने में कज़ाख़ अधिकारियों की मदद की.     

आर्थिक मोर्चे पर रूस ने तेल, गैस और हाइड्रोपावर के क्षेत्र में ऊर्जा परियोजनाओं की स्थापना में इस इलाक़े के देशों की बहुत मदद की है. उसने यूरेशियाई आर्थिक संघ (EAEU) के ज़रिए इलाक़े के आर्थिक एकीकरण की प्रक्रिया को मज़बूत बनाया है. कज़ाख़स्तान और किर्गिस्तान EAEU के पूर्णकालिक सदस्य हैं जबकि ताजिकिस्तान इस संगठन का संभावित सदस्य है. मध्य एशियाई देश अंतिम उत्पादों और हाइड्रोकार्बन के निर्यात के लिए रूसी परिवहन इंफ़्रास्ट्रक्चर पर निर्भर हैं. इतना ही नहीं मध्य एशियाई देशों से 25 लाख से भी ज़्यादा प्रवासी कामगार आजीविका के लिए रूस में मौजूद हैं. इन कामगारों ने 2020 में उज़बेकिस्तान, किर्गिस्तान और ताजिकिस्तान में क्रमश: 6.88 अरब अमेरिकी डॉलर, 2.4 अरब अमेरिकी डॉलर और 2.18 अरब अमेरिकी डॉलर की रकम भेजी थी. 

रूस ने ताज़िकिस्तान और किर्गिस्तान में स्थायी सैनिक अड्डे स्थापित कर रखे हैं. CSTO ने इस इलाक़े में अपना शिकंजा मज़बूत करने में रूस की मदद की है. इस व्यवस्था ने मध्य एशियाई शासकों द्वारा और ज़्यादा निरंकुश और तानाशाही बर्ताव को भी बढ़ावा दिया है.

रूस ने इलाक़े में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए कला-संस्कृति से जुड़ी अपनी ताक़त (soft power) का भी इस्तेमाल किया है. रूसी फ़िल्मों, टीवी सीरियलों और जनसंचार से जुड़े दूसरे साधनों ने रूस को इस पूरे इलाक़े का सियासी आदर्श बना दिया है. 

रूस-यूक्रेन जंग पर मध्य एशियाई देशों की चिंताएं

रूस-यूक्रेन युद्ध और उसके नतीजे के तौर पर रूस पर लगी आर्थिक पाबंदियों ने मध्य एशिया पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाला है. इन प्रतिबंधों और युद्धक हालातों ने मध्य एशिया के परिवहन रास्तों/गलियारों को मुश्किल और जोख़िम भरा बना दिया है. इसमें ख़ासतौर से कैस्पियन पाइपलाइन कंसोर्टियम का नाम आता है. कज़ाख़स्तान अपने तेल निर्यात का 80 प्रतिशत हिस्सा इसी रास्ते से बाहर भेजता है. रूस-यूक्रेन जंग का अंत होता नहीं दिखता. लंबे खिंच रहे इस युद्ध ने मध्य एशिया के प्रवासी कामगारों की चिंता बढ़ा दी हैं. ये प्रवासी कामगार ताजिकिस्तान, उज़बेकिस्तान और किर्गिस्तान की जीडीपी में क्रमश: 26.7, 11 और 31.3 प्रतिशत का योगदान देते हैं. पश्चिमी प्रतिबंधों के चलते इन कामगारों द्वारा अपने वतन भेजी जाने वाली रकम में गिरावट आई है. कई कामगार तो रूस से वापस अपने वतन लौटने को मजबूर हो गए. इससे मध्य एशिया के 2 सबसे ग़रीब देशों- ताजिकिस्तान और किर्गिस्तान पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है. विश्व बैंक के आकलन के मुताबिक ताजिक कामगारों द्वारा वतन भेजी जाने वाली रकम में 40 प्रतिशत तक की गिरावट आने की आशंका है. इससे 2022 में ताजिकिस्तान की अर्थव्यवस्था 2 प्रतिशत तक सिकुड़ सकती है.   

जज़्बे से भरे यूक्रेनी जवानों ने जिस हौसले के साथ रूसी फ़ौज का मुक़ाबला किया है उससे मध्य एशियाई देशों में एक चिंता घर कर गई है. ये देश अपनी सुरक्षा के मसले पर रूस पर निर्भर रहने को लेकर फ़िक्रमंद हो उठे हैं. युद्ध से पहले तक मध्य एशियाई देश रूस को स्थिरता के स्रोत के तौर पर देखते थे. अब विशेषज्ञ रूस पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता को “क्षेत्रीय स्थिरता, संप्रभुता और भूक्षेत्रीय अखंडता के लिए कमज़ोरी” के तौर पर देखने लगे हैं. इन आशंकाओं के चलते मध्य एशिया के कुछ देशों (जैसे उज़बेकिस्तान) ने यूक्रेन पर रूसी चढ़ाई की आलोचना की है. CSTO के सक्रिय सदस्य कज़ाख़स्तान ने भी यूक्रेन को मानवतावादी मदद भेजकर अपना रुख़ साफ़ कर दिया है. सेंट पीटर्सबर्ग शिखर सम्मेलन के दौरान कज़ाख़ राष्ट्रपति ने पुतिन की मौजूदगी में ही ये बात साफ़ कर दी कि अलगाववादियों के नियंत्रण वाले यूक्रेन के 2 इलाक़ों को रूस द्वारा संप्रभु राष्ट्र घोषित किए जाने को कज़ाख़स्तान मान्यता नहीं देता. वैश्विक मंच पर भले ही मध्य एशियाई देश रूस के प्रति वफ़ादार बने रहे हों, लेकिन यूक्रेन पर रूसी आक्रमण की आलोचना करते हुए संयुक्त राष्ट्र में हुए अहम मतदान प्रक्रियाओं से इन देशों ने ग़ैर-हाज़िर रहने में ही अपना भला समझा है. 

रूस-यूक्रेन जंग का अंत होता नहीं दिखता. लंबे खिंच रहे इस युद्ध ने मध्य एशिया के प्रवासी कामगारों की चिंता बढ़ा दी हैं. ये प्रवासी कामगार ताजिकिस्तान, उज़बेकिस्तान और किर्गिस्तान की जीडीपी में क्रमश: 26.7, 11 और 31.3 प्रतिशत का योगदान देते हैं. पश्चिमी प्रतिबंधों के चलते इन कामगारों द्वारा अपने वतन भेजी जाने वाली रकम में गिरावट आई है.

अफ़ग़ान समस्या ने मध्य एशियाई देशों (ख़ासतौर से ताजिकिस्तान और उज़्बेकिस्तान) की सुरक्षा से जुड़ी दुविधाओं को बढ़ा दिया है. ताजिकिस्तान ने तालिबान के ख़िलाफ़ कठोर रुख़ अपनाया है. दरअसल इसके पीछे की वजह अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान द्वारा ताजिक अल्पसंख्यकों के साथ किया जाने वाला दमनात्मक बर्ताव है. अफ़ग़ानिस्तान की आबादी में ताजिक अल्पसंख्यकों का हिस्सा 20 प्रतिशत है. उज़्बेकिस्तान के सरहदी इलाक़ों में अफ़ग़ानिस्तान की ओर से गोलाबारी की वारदातों के चलते उज़्बेकिस्तान के लिए भी इस इलाक़े में सुरक्षा के मोर्चे पर नए ख़तरे सामने आ गए हैं.  

तालिबान द्वारा अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़ा जमा लेने के बाद से मध्य एशियाई देशों की आर्थिक, भू-सामरिक और सुरक्षा चिंताओं में कई गुणा इज़ाफ़ा हो गया है. रूस-यूक्रेन जंग ने इन परेशानियों को और बढ़ा दिया है. युद्ध ने इस इलाक़े को अपने भावी आर्थिक सहयोग और विदेश नीति में विविधता लाने को मजबूर कर दिया है. अमेरिका हालात का फ़ायदा उठाते हुए क्षेत्र में अपनी मौजूदगी बढ़ाने की क़वायद में जुट गया है. दरअसल अफ़ग़ानिस्तान से सुरक्षा से जुड़े ख़तरों की आड़ लेकर अमेरिका अपने दांव चल रहा है. भूसामरिक, भूराजनीतिक और आर्थिक तकलीफ़ों के बीच इस इलाक़े में पुतिन के दौरे के पीछे इन्हीं चिंताओं को शांत करने का इरादा रहा है. बदले में रूस ये उम्मीद करता है कि मध्य एशिया के देश उसके साथ खड़े रहेंगे. रूस इस इलाक़े को अपने प्रभाव के दायरे में रखने के लिए नए सिरे से क़वायद कर रहा है. इस क्षेत्र में पुतिन के दौरे से जुड़े प्रतीकात्मक संकेत और यात्रा के लिए चुना गया वक़्त यही दर्शाता है.   

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