ये लेख हमारी श्रृंखला कंप्रिहेंसिव एनर्जी मॉनिटर: इंडिया एंड द वर्ल्ड का हिस्सा है
मई 2023 तक ग़ैर-जीवाश्म ईंधन स्रोतों से भारत की बिजली उत्पादन क्षमता तक़रीबन 173,619 मेगावाट (MW) थी. ये आंकड़ा लगभग 417,668.2 मेगावाट की कुल स्थापित बिजली उत्पादन क्षमता का लगभग 41.5 प्रतिशत है. नई नवीकरणीय ऊर्जा (RE) क्षमता (परमाणु और पनबिजली को छोड़कर) बिजली की सकल उत्पादन क्षमता के 30 प्रतिशत हिस्से से ज़्यादा भी है, जो कोयले के बाद दूसरा सबसे बड़ा हिस्सा है. ग़ैर-जीवाश्म ईंधन आधारित क्षमता में सौर, पवन, लघु पनबिजली, बायोमास और अन्य का हिस्सा 73 फ़ीसदी से अधिक है, जबकि बड़ी पनबिजली परियोजनाओं का हिस्सा 27 प्रतिशत और परमाणु ऊर्जा का महज़ 3 प्रतिशत है.
स्टैंड-बाय क्षमता
वैसे तो बिजली की कुल उत्पादन क्षमता में नवीकरणीय ऊर्जा की दूसरी सबसे बड़ी हिस्सेदारी है, लेकिन 2022-23 में बिजली उत्पादन में इसका हिस्सा 14 प्रतिशत से भी कम रहा है. नवीकरणीय ऊर्जा (RE) की कुल क्षमता में पनबिजली उत्पादन का केवल एक तिहाई हिस्सा है, लेकिन इस खाते से बिजली उत्पादन का लगभग 10 प्रतिशत हिस्सा हासिल हो रहा है. कुल उत्पादन क्षमता में लगभग 50 फ़ीसदी हिस्सेदारी रखने वाले कोयले ने 2022-23 में उत्पादन में 74 प्रतिशत से अधिक का योगदान दिया. विशिष्ट उत्पादन या क्षमता की प्रति यूनिट उत्पादित बिजली (जो आर्थिक दक्षता का प्रतिनिधित्व करती है) के संदर्भ में परमाणु ऊर्जा 7 से अधिक के स्कोर के साथ सबसे कुशल थी. जबकि 2022-23 में 2 से कम के स्कोर के साथ नवीकरणीय ऊर्जा, सबसे कम दक्षता वाला स्रोत रही. ये नवीकरणीय ऊर्जा की निम्न क्षमता वाले कारक के चलते है, जो अधिकतम रूप से 15-20 प्रतिशत की सीमा में होते हैं. स्टैंड-बाय क्षमता के बिना ऊंची नवीकरणीय बिजली प्रणाली, आपूर्ति की सुरक्षा को जोख़िम में डाल सकती है. बार-बार बिजली कटौती के रूप में ऐसे ख़तरे सामने आ सकते हैं. चूंकि किसी भी क्षण आवश्यक बिजली मुहैया कराने के लिए नवीकरणीय ऊर्जा पर भरोसा नहीं किया जा सकता, लिहाज़ा अन्य उपकरणों को भी निश्चित रूप से उपयोग में लाया जाना चाहिए. इनमें स्टैंड-बाय क्षमता बनाए रखने के लिए भुगतान करना (या तो बैटरी के रूप में या गैस या कोयला-आधारित उत्पादन के संदर्भ में) या जब ज़रूरी हो तब उपभोक्ताओं को मांग कम करने के लिए मुआवज़ा देना शामिल है. भारत अक्सर ग्रामीण उपभोक्ताओं के लिए जबरन बिजली कटौती के ज़रिए मांग को कम करने के विकल्प का उपयोग करता है, जिन्हें इन कटौतियों के बदले ना तो अतिरिक्त बिजली मुहैया कराई जाती है और ना ही किसी तरह का भुगतान किया जाता है. इसी तरह चुनावों के दौरान औद्योगिक उपभोक्ताओं के लिए भी ऐसी ही कटौती की जाती है क्योंकि तब अस्थायी रूप से जनता या वोटर ज़्यादा मूल्यवान हो जाते हैं.
बिजली कटौतियों को बर्दाश्त करने के लिए उपभोक्ताओं को मजबूर किया जाता है. यही उपभोक्ता भारत की बैक-अप प्रणाली या ज़्यादा सटीक रूप से कहा जाए तो देश की मांग प्रबंधन व्यवस्था है, जो विकृत स्वरूप वाला है और इसे ख़त्म किया जाना चाहिए.
बिजली कटौतियों को बर्दाश्त करने के लिए उपभोक्ताओं को मजबूर किया जाता है. यही उपभोक्ता भारत की बैक-अप प्रणाली या ज़्यादा सटीक रूप से कहा जाए तो देश की मांग प्रबंधन व्यवस्था है, जो विकृत स्वरूप वाला है और इसे ख़त्म किया जाना चाहिए. आपूर्ति सुरक्षा के अन्य विश्वसनीय विकल्पों में बिजली, उत्पादन क्षमता और सहायक सेवाओं के लिए जीवंत बाज़ार तैयार करना शामिल है. तकनीकी रूप से भारत ऊर्जा-केंद्रित (energy-only) बाज़ार है, लेकिन भारत के बिजली क्षेत्र के लिए बाज़ार जैसी शब्दावली का प्रयोग ज़रा ज़्यादती है. इसकी वजह ये है कि एक छोर पर बिजली शुल्क और दूसरे छोर पर ईंधन आपूर्ति, बाज़ार के संकेतों पर प्रतिक्रिया नहीं देती है.
ऊर्जा-केंद्रित बाज़ार और क्षमता बाज़ार
क्षमता बाज़ारों का लक्ष्य ग्रिड की विश्वसनीयता सुनिश्चित करना है. इसके लिए वो प्रतिभागियों को भविष्य में आपूर्ति वर्षों के लिए उत्पादन की वचनबद्धता जताने को लेकर भुगतान करते हैं. इसके विपरीत ऊर्जा-केंद्रित (energy-only) बाज़ार उत्पादकों को केवल तभी भुगतान करते हैं जब वो रोज़मर्रा के आधार पर बिजली मुहैया कराते हैं. क्षमता बाज़ार (capacity markets) उस क्षमता को उत्पन्न करने से रोकते हैं जो केवल ऊंची क़ीमतों पर ही अतिरिक्त ऊर्जा की आपूर्ति करते हैं. इस प्रकार थोक बिजली बाज़ार को भारी मात्रा में और तेज़ गति से निचोड़ने की क़वायद पर लगाम लग जाती है. अगर ऐसा नहीं हुआ तो प्रणाली की विश्वसनीयता प्रभावित हो सकती है. अग्रिम रूप से वर्षों पहले राजस्व सुरक्षित रखने का अवसर प्रदान करने वाले क्षमता बाज़ार उत्पादकों को नए संयंत्र बनाने के लिए अतिरिक्त प्रोत्साहन देते हैं. हालांकि ये मॉडल बर्बादी भरा हो सकता है. इसकी वजह ये है कि वित्तीय रूप से कमज़ोर भारतीय वितरण कंपनियां (डिस्कॉम) उन लोड इवेंट्स के लिए क्षमता लागत का भुगतान करेंगी जो शायद वर्षों तक पूरी ही ना हो पाएं! बाज़ार से बाहर सब्सिडी के नतीजतन क्षमता बाज़ार क़ीमतों में मंदी से जुड़े संकट के प्रति भी असुरक्षित रह सकते हैं. अगर ये संसाधन क्षमता, बाज़ार में बिना किसी जांच और संतुलन कारी क़वायदों के क़ीमत लेने वाले के रूप में भी प्रवेश करे तो नियामक राजस्व प्रवाहों को संतुलित करने के लिए क्षमता बाज़ार की क्षमता को जोख़िम में डाल सकते हैं. क्षमता भुगतान भी कारोबारी बाज़ारों पर मूल्य संकेतों को अस्पष्ट कर सकता है, जिससे किल्लत वाले बाज़ारों को काम करने से रोका जा सकता है. क्षमता मेहनताने से उत्पादक को ऊर्जा और क्षमता के लिए दोहरे भुगतान का भी जोख़िम बन जाता है.
वित्तीय रूप से कमज़ोर भारतीय वितरण कंपनियां (डिस्कॉम) उन लोड इवेंट्स के लिए क्षमता लागत का भुगतान करेंगी जो शायद वर्षों तक पूरी ही ना हो पाएं! बाज़ार से बाहर सब्सिडी के नतीजतन क्षमता बाज़ार क़ीमतों में मंदी से जुड़े संकट के प्रति भी असुरक्षित रह सकते हैं.
परिपक्व ऊर्जा-केंद्रित बाज़ारों में नियामक किल्लत मूल्य निर्धारण नाम के एक तंत्र के ज़रिए विश्वसनीयता सुनिश्चित करते हैं, जो मांग के शिखर पर पहुंच जाने वाले दिनों में वास्तविक समय में बिजली की क़ीमतों में वृद्धि की छूट देते हैं. क्षमता बाज़ार के माध्यम से उत्पादन राजस्व की गारंटी देने की बजाए, ऊंचे मूल्यों को लेकर किए गए वादे से उत्पादकों को नए संयंत्र बनाने और उन्हें संचालन के लिए तैयार रखने को लेकर प्रोत्साहित किए जाने की उम्मीद रहती है. ऊर्जा-केंद्रित बाज़ार में ग्रिड के रिज़र्व मार्जिन को पर्याप्त उच्च स्तरों पर बरक़रार रखा जाता है. इससे किल्लत के पर्याप्त उदाहरण मिलते हैं, जिससे क़ीमतें इस हद तक बढ़ जाती हैं कि उत्पादक अपनी पूंजीगत लागत वसूल कर सकते हैं. इसे भारतीय बिजली एक्सचेंजों में देखा जा सकता है जो गर्मी के महीनों के दौरान (जब मांग ऊंची होती है) बिजली की दरों में तेज़ बढ़ोतरियां दर्शाते हैं. चिंता की बात ये है कि बिजली की कम क़ीमतों के चलते (ऊर्जा के कुछ स्वरूपों के लिए सब्सिडी के कारण या कम मांग की वजह से) ऊर्जा-केंद्रित बाज़ार तेज़ी से अस्थिर हो सकते हैं. ये हालात उत्पादक को क्षमता बाज़ार के राजस्व की गारंटी के बिना नए बिजली संयंत्रों के निर्माण से हतोत्साहित कर सकते हैं. अनिवार्य रूप से, भावी क्षमता में निवेश को प्रोत्साहित करने की तुलना में प्रणाली में पर्याप्त लचीलापन सुनिश्चित करना एक अलग मसला है.
एक अहम अंतर ये है कि ऊर्जा-केंद्रित बाज़ार में उत्पादकों को उस दिन का इंतज़ार और उम्मीद करनी चाहिए जब वास्तविक समय की क़ीमतों में भारी-भरकम बढ़ोतरी हो! क्षमता बाज़ार के साथ उस राजस्व में से कुछ की तो गारंटी होती है. क्षमता बाज़ार को समाधान मुहैया कराने के हिसाब से तैयार किया जाता है. ऊर्जा की निम्न बाज़ार क़ीमतों के साथ क्षमता बाज़ार में उत्पादकों के लिए ऊंचे राजस्व के साथ संतुलित करके इस क़वायद को अंजाम दिया जाता है. क्षमता पारिश्रमिक तंत्र, थोक बाज़ार और ऊर्जा भंडारण में मांग-पक्ष प्रतिक्रिया गतिविधि के लिए निवेश प्रोत्साहनों को दूर कर सकते हैं. वो व्यापार को फ़ायदेमंद बनाने वाली अधिकतम (peak) क़ीमतों को कम करके सरहदों के आर-पार बिजली व्यापार को भी बाधित कर सकते हैं. लंबे कालखंड में ऊर्जा-केंद्रित और क्षमता बाज़ार के निर्माण, आख़िरकार उपभोक्ताओं के लिए समान लागत वाले परिणाम दे सकते हैं.
तीसरे विकल्प के साथ अक्सर क्षमता बाज़ार समझ लेने की ग़लतफ़हमी जुड़ी होती है. सहायक सेवा बाज़ारों का उपयोग करने वाले इस विकल्प में रोज़मर्रा की प्रणाली स्थिरता के लिए अल्पकालिक रिज़र्व उत्पादन और ग्रिड को सहारा देने वाले उत्पादों की ख़रीद की जाती है. जैसे-जैसे नवीकरणीय ऊर्जा का अनुपात बढ़ता जा रहा है, दैनिक परिचालन स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए सहायक सेवाओं की मांग भी बढ़ने के आसार हैं. सहायक सेवाओं का व्यापार, क्षमता की तरह वर्षों में नहीं बल्कि महीनों, हफ़्तों, दिनों और घंटों में किया जाता है. सहायक सेवा बाज़ार, उत्पादन की गुणवत्ता के लिए संसाधनों का सही संयोजन सुनिश्चित करने के लिए हैं, ना कि उत्पादन की पर्याप्तता के लिए. इन सेवाओं का प्रतिस्पर्धी व्यापार, बिजली के सभी थोक बाज़ारों का नहीं, बल्कि कुछ बाज़ारों का हिस्सा है. अगर उत्पादक, सहायक सेवाएं बेचकर राजस्व पैदा कर सकते हैं, तो संयंत्रों को पटरी पर बनाए रखने के लिए क्षमता भुगतानों की ज़रूरत को कम किया जा सकता है. ठीक से काम करने वाले ऊर्जा और सेवाओं के बाज़ार ऐसी सारी क्षमता प्रदान कर सकता है जिसकी भारतीय ग्रिड को दरकार है.
भारत धीरे-धीरे इस प्रणाली की ओर बढ़ रहा है, लेकिन इस दिशा में भारी चुनौतियां हैं. न केवल इसलिए क्योंकि भारत एक अपूर्ण ऊर्जा-केंद्रित बाज़ार है, बल्कि इसलिए भी कि भारत की ऊर्जा आपूर्ति ग़ैर-ऊर्जा लक्ष्यों (जैसे विकास अनुदानों का वितरण करना) को पूरा करती है. हालांकि भविष्य को ध्यान में रखते हुए, भारत के केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (CEA), केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग (CERC) और ग्रिड इंडिया ने सहायक सेवाओं का बाज़ार विकसित करने की संभावना का अध्ययन किया है. बहरहाल, अभी ये कहना जल्दबाज़ी होगी कि क्या एक अच्छी तरह से डिज़ाइन किया गया बाज़ार, जो उत्पादक के लिए सहायक सेवाएं (अल्पकालिक भंडार और ग्रिड सपोर्ट उत्पाद) मुहैया कराने को फ़ायदे का सौदा बनाता है, वो भारत में भविष्य की क्षमता में निवेश को भी समान रूप प्रोत्साहित करेगा! चिंता की बात ये है कि नीतिगत प्रक्रियाओं के ज़रिए नवीकरणीय ऊर्जा में बढ़ोतरी की निरंतर जारी क़वायदों से बिजली की क़ीमतें नीची बनी रह सकती हैं, जिससे उत्पादकों के लिए नए संयंत्र तैयार करने का प्रोत्साहन घट जाएगा. अधिकांश नवीकरणीय ऊर्जा “आकांक्षी क्षमता” है, यानी ऐसी क्षमता जो बहुपक्षीय जलवायु संधियों से जुड़ी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए सीधे-सीधे अनुबंधित की गई है और ज़रूरी नहीं है कि ये क्षमता से जुड़ी ज़रूरतें हों. पर्यावरणीय लक्ष्य, नवीकरणीय ऊर्जा में और बढ़ोतरी की मांग करते हैं. दूसरी ओर नए उत्पादनों के लिए बाज़ार प्रोत्साहनों के संरक्षण की ज़रूरत होती है. इन दोनों आवश्यकताओं को एक साथ समेटना एक बड़ी चुनौती है.
भारत में बेहतर रूप से काम करने वाले थोक बिजली बाज़ार को ऊर्जा, सपोर्ट सेवाओं और क्षमता को गतिशील रूप से महत्व देना चाहिए.
अगर भारत का बिजली क्षेत्र एक जीवंत खुले बाज़ार के तौर पर परिपक्व हो जाता है, तो यह (कम से कम सैद्धांतिक रूप में) विश्वसनीयता का मोल समझते हुए निश्चित संसाधनों की आपूर्ति करने के लिए निवेशकों को मुआवज़ा दे सकता है. भारत में बेहतर रूप से काम करने वाले थोक बिजली बाज़ार को ऊर्जा, सपोर्ट सेवाओं और क्षमता को गतिशील रूप से महत्व देना चाहिए. आपूर्ति और मांग की बदलती ताकतों के जवाब में ऐसी क़वायदों को अंजाम दिया जाना चाहिए. लचीले भंडारों की किल्लत की प्रतिक्रिया में उनकी क़ीमतों को ऊंचा उठाने वाला सहायक सेवा बाज़ार, पीकिंग (peaking) संयंत्रों के संचालन की क़वायद को फ़ायदे का सौदा बना सकता है. ऐसे प्लांट, उत्पादन को तेज़ी से ऊपर और नीचे कर सकते हैं, जिससे उत्पादकों को संयंत्रों को ऑनलाइन रखने और भविष्य की क्षमता में निवेश करने की वजह मिल जाएगी.
एक अन्य विकल्प बिजली उत्पादन क्षमता के सामरिक भंडार रखना है. इसमें क्षमता तंत्र को पूरी तरह से थोक बाज़ार के बाहर ख़रीदा जाता है, ताकि इस क़वायद से भारत में ऊर्जा बाज़ार विकसित करने की दिशा में उठाए गए क़दमों पर कोई आंच ना आए. जैसा कि सामरिक तेल भंडार के मामले में होता है, राष्ट्रीय सुरक्षा (ऊर्जा सुरक्षा) जैसी सार्वजनिक भलाई वाली क़वायद का स्वामित्व और संचालन सरकार द्वारा किया जाना चाहिए. बिजली उत्पादन के लिए सामरिक भंडार एक यथार्थवादी और अपेक्षाकृत सरल समाधान है. प्रणाली पर चरम दबाव के छोटे कालखंडों में मांग को पूरा करने के लिहाज़ से इसे अपनाया जाना चाहिए. हालांकि चरम (peak) सामरिक भंडार के साथ जोख़िम यह है कि समय के साथ यह क्षमता बाज़ार जितना ही महंगा हो सकता है.
सहायक बाज़ार के मूल्यांकन और आरक्षित क्षमता की ख़रीद में हस्तक्षेप किए बिना भविष्य के लिए पर्याप्त क्षमता में निवेश को प्रोत्साहित करना ज़रूरी है. हालांकि इस उद्देश्य के लिए मुनाफ़ों की एक नई प्रणाली या पूरी तरह से एक नया बाज़ार तैयार करना सबसे परिपक्व बाज़ार में भी एक जटिल क़वायद है. ज़ाहिर है भारत में तो ये प्रक्रिया और भी ज़्यादा पेचीदा होने वाली है.
स्रोत: ड्राफ्ट नेशनल इलेक्ट्रिसिटी प्लान 2022
लिडिया पॉवेल ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में एक प्रतिष्ठित फेलो हैं.
अखिलेश सती ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में प्रोग्राम मैनेजर हैं.
विनोद कुमार तोमर ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सहायक प्रबंधक हैं.
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