Published on Jul 21, 2022 Updated 0 Hours ago

भारत मूल्य पर कब्ज़ा कराधान को लागू करके शहरों में ज़मीन के इस्तेमाल से जुड़ी चुनौतियों जैसे बढ़ते खर्च और सामाजिक असमानताओं के समाधान में मदद हासिल कर सकता है.

वैल्यू कैप्चर टैक्सेशन (मूल्य पर कब्ज़ा कराधान ): लोक नीति का एक दृष्टिकोण

इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश को बढ़ावा मुख्य रूप से सार्वजनिक क्षेत्र के द्वारा दिया जाता है जिसमें सरकारों की सबसे बड़ी भूमिका होती है. वैसे तो कई सार्वजनिक परियोजनाएं हैं जिनमें एक से ज़्यादा हिस्सेदार शामिल हैं लेकिन हाइवे और जल आपूर्ति जैसी बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं पर सरकार का स्वाभाविक एकाधिकार होता है क्योंकि सरकारें एकाधिकार के दुरुपयोग को रोकने के लिए अपना नियंत्रण चाहती हैं. इसके साथ-साथ इंफ्रास्ट्रक्चर की परियोजनाओं पर निवेश की ख़ासियत होती है लोगों की भलाई क्योंकि बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं से जो सुविधाएं हासिल होती हैं, उनका इस्तेमाल समाज के एक बड़े वर्ग के लोग करते हैं. बुनियादी ढांचे की परियोजनाएं अप्रत्यक्ष रूप से पूरी अर्थव्यवस्था को फ़ायदा पहुंचाती हैं. 

ये लेख शहरी क्षेत्रों में ज़मीन के इस्तेमाल की योजना से जुड़ी सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय चुनौतियों के समाधान में मूल्य पर कब्ज़ा कराधान  या ज़मीन की क़ीमत के अभिग्रहण की संभावित भूमिका पर विचार करता है. 

प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष ख़ूबियों के अलावा लोगों के लिए तैयार बुनियादी ढांचे की परियोजनाएं, ख़ास तौर से शहरी क्षेत्रों में, उस जगह की आर्थिक गतिविधियों पर असर डालती हैं. इसकी वजह ये है कि आम लोगों और कंपनियों की तरफ़ से निजी निवेश के फ़ैसले परिवहन के नेटवर्क के आधार पर तय होते हैं. साथ ही सरकारी फंड से तैयार बुनियादी ढांचे की सुविधाएं शहरी क्षेत्रों में ज़मीन की वैल्यू या क़ीमत और ज़मीन के इस्तेमाल के पैटर्न पर असर डालती हैं. ऊपर बताए गए संदर्भ में ये लेख शहरी क्षेत्रों में ज़मीन के इस्तेमाल की योजना से जुड़ी सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय चुनौतियों के समाधान में मूल्य पर कब्ज़ा कराधान  या ज़मीन की क़ीमत के अभिग्रहण की संभावित भूमिका पर विचार करता है. 

मूल्य पर कब्ज़ा कराधान  क्या है? 

मूल्य पर कब्ज़ा  इस औचित्य पर आधारित है कि परिवहन के क्षेत्र में निवेश का फ़ायदा उठाने वाले लोग सिर्फ़ प्रत्यक्ष उपयोगकर्ता (जैसे कि गाड़ी चलाने वाले, उस रास्ते से गुज़रने वाले, इत्यादि) नहीं हैं बल्कि वो ज़मीन मालिक और इमारत बनाने वाली कंपनियां भी हैं जिन्हें इस निवेश की वजह से लाभ होगा. इस तरह मूल्य पर कब्ज़ा कराधान की नीति का उद्देश्य है इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार की वजह से संपत्ति के मालिकों या इमारत बनाने वाली कंपनियों को होने वाले फ़ायदे की क़ीमत वसूलना और इस राजस्व का इस्तेमाल ऐसी निवेश परियोजनाओं के लिए करना. दूसरे शब्दों में कहें तो ज़मीन की क़ीमत सार्वजनिक इंफ्रास्ट्रक्चर पर निवेश की क़ीमत के बारे में बताती है जो उस ख़ास जगह को लाभ पहुंचाती है. इस क़ीमत को निश्चित रूप से टैक्स के रूप में सरकारी खज़ाने को लौटाना चाहिए क्योंकि मुख्य रूप से सरकारी खर्च की वजह से ही दाम में बढ़ोतरी होती है

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में स्थित वित्तीय और तकनीकी केंद्र गुरुग्राम में पिछले कुछ दशकों के दौरान ज़मीन की क़ीमत में औसतन तीन अंकों के क़रीब की बढ़ोतरी देखी गई है. गुरुग्राम के गोल्फ कोर्स रोड और एमजी रोड के आस-पास के इलाक़े सबसे महंगे हैं.   

अमेरिका के राजनीतिक अर्थशास्त्री हेनरी जॉर्ज ने सबसे पहले बिक्री के वक़्त ज़्यादा दाम मिलने की उम्मीद में ज़मीन ख़रीदने की सोच को ख़त्म करने के लिए 19वीं सदी में ज़मीन पर कर लगाने का प्रस्ताव दिया था. इस तरह के कर के पीछे मूलभूत विचार ये था कि ज़मीन पर ज़्यादा कर लगाने और इमारत पर टैक्स कम करने से ज़मीन की क़ीमत में कमी होगी और उस क्षेत्र के पूरी तरह से विकास को बढ़ावा मिलेगा क्योंकि ज़मीन के मालिक कर से बचने के लिए अपनी खाली ज़मीन को इमारत बनाने वाली कंपनियों को दे देंगे. उस वक़्त से ज़मीन की क़ीमत पर लगने वाला कर (लैंड वैल्यू टैक्स) इधर-उधर फैली ज़मीन के प्रबंधन, ज़मीन के बेहतर इस्तेमाल की योजना, ज़मीन की क़ीमत घटाने, इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास के उद्देश्य से राजस्व जुटाने, इत्यादि के लिए दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में लगाया जाता है. 

शहरों में ज़मीन के दाम पर ज़मीन की वैल्यू का असर 

ज़मीन की वैल्यू या ज़मीन का किराया ज़मीन के दाम का एक हिस्सा है जो अलग-अलग जगह में स्थित होने से प्रभावित होता है. मिसाल के तौर पर, शहर के बीचों-बीच किसी ज़मीन की वैल्यू शहरी क्षेत्र के बाहरी हिस्से में स्थित किसी ज़मीन के मुक़ाबले ज़्यादा हो सकती है. जगह में अंतर की वजह से ज़मीन की वैल्यू या ज़मीन के किराये में फर्क पर सामाजिक, शारीरिक और पर्यावरणीय विकास सूचकों के स्तर का असर होता है. इनमें व्यावसायिक, शैक्षणिक और स्वास्थ्य से जुड़ी सुविधाओं तक पहुंच; ट्रांज़िट कॉरिडोर (जैसे कि सड़क और हाइवे) और दूसरे विशाल इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट जैसे कि हवाई अड्डे और बंदरगाह से नज़दीकी; और आस-पड़ोस एवं पर्यावरण की गुणवत्ता शामिल हैं. 

सभी भारतीय शहरों में आवासीय संपत्ति की क़ीमत 2023 और 2024 में लगभग 6 प्रतिशत बढ़ने की उम्मीद है. आवासीय संपत्ति के बड़े केंद्रों जैसे कि मुंबई और दिल्ली में जहां संपत्ति की क़ीमत और किराये में बहुत ज़्यादा बढ़ोतरी देखी जा रही है, वहीं हैदराबाद जैसे महानगरीय केंद्रों ने भी जहां-जहां हाइवे बनने वाले हैं, उनके इर्द-गिर्द ज़मीन की क़ीमत में कम-से-कम पांच गुना बढ़ोतरी से कम का अनुभव नहीं किया है. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में स्थित वित्तीय और तकनीकी केंद्र गुरुग्राम में पिछले कुछ दशकों के दौरान ज़मीन की क़ीमत में औसतन तीन अंकों के क़रीब की बढ़ोतरी देखी गई है. गुरुग्राम के गोल्फ कोर्स रोड और एमजी रोड के आस-पास के इलाक़े सबसे महंगे हैं.   

आम तौर पर कहें तो शहर का अव्यवस्थित विस्तार और टुकड़ों में ज़मीन के इस्तेमाल के पैटर्न का पर्यावरण पर नकारात्मक असर पड़ता है और इसका नतीजा जैव-विविधता, कृषि, जंगल और प्राकृतिक ज़मीन के नुक़सान के रूप में निकलता है.

शहरों के लिए ज़रूरी इंफ्रास्ट्रक्चर सेवाओं की फंडिंग 

आने-जाने की सुविधा देने वाले शहरी इलाक़े ज़रूरी शहरी सेवाओं के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करने की आवश्यकता को भी बढ़ावा देते हैं. आने-जाने की सुविधा वाले इलाक़े आर्थिक निवेश, रियल एस्टेट के विकास और दूसरी वाणिज्यिक एवं व्यावसायिक गतिविधियों को प्रोत्साहन देते हैं. ऐसा होने पर पानी की आपूर्ति, स्वच्छता, सीवेज, बिजली और गैस वितरण जैसी सुविधाओं के लिए मांग तैयार होती है. इसके साथ-साथ शहरी क्षेत्रों की घनी आबादी संसाधनों, ख़ास तौर पर ज़मीन, पर दबाव बनाती है. ज़मीन की ये कमी सीधे तौर पर ज़मीन की क़ीमत या ज़मीन की वैल्यू से जुड़ी हुई है. इस तरह ज़मीन की क़ीमत उस ख़ास इलाक़े में उपलब्ध सार्वजनिक सुविधाओं और सेवाओं, जिनमें परिवहन के नेटवर्क के द्वारा प्रदान की गई पहुंच शामिल है, की वैल्यू के बारे में बताती है. निजी ज़मीन के जो मालिक सरकारी निवेश की वजह से ज़मीन की वैल्यू में बढ़ोतरी का लाभ उठाते हैं, वो अपनी ज़मीन को भविष्य में बेहतर क़ीमत मिलने की उम्मीद में अपने पास बनाए रखते हैं जिससे अटकलबाज़ी लगने लगती है. जैसे-जैसे और ज़्यादा ज़मीन के मालिक अपनी ज़मीन को अपने पास बनाए रखते हैं, वैसे-वैसे ज़मीन की कृत्रिम कमी के कारण ज़मीन की कीमत और किराये में बढ़ोतरी होती है. इस तरह की कृत्रिम कमी उन लोगों को शहर के बाहरी क्षेत्रों या दूसरे सस्ते क्षेत्रों की तरफ़ ले जाती है जो सार्वजनिक इंफ्रास्ट्रक्चर के आस-पास ज़मीन लेने की स्थिति में नहीं हैं. ये चक्र शहरों में इंफ्रास्ट्रक्चर सेवाओं, जिनमें हाइवे का विस्तार और परिवहन कॉरिडोर शामिल हैं, के लिए अतिरिक्त मांग के साथ फिर से चलता है. 

ज़मीन की वैल्यू: सामाजिक और पर्यावरणीय असर 

शहरों में विकास के केंद्रों के आस-पास ज़मीन की क़ीमत में बढ़ोतरी और उसके बाद बाहरी क्षेत्रों में ज़मीन के लिए मांग की स्थिति ‘लीप-फ्रॉग डेवलपमेंट’ यानी सस्ती ज़मीन के लिए बाहरी क्षेत्रों की तरफ़ जाना या ‘शहर के अव्यवस्थित विस्तार’ की तरफ़ ले जाती है. ‘लीप-फ्रॉग डेवलपमेंट’ या ‘शहर का अव्यवस्थित विस्तार’ बाधित विकास है जिसकी विशेषताएं अक्सर ज़मीन का अलग इस्तेमाल और कम औसत घनत्व हैं. शहर के अव्यवस्थित विस्तार का नतीजा ज़मीन के ज़्यादा इस्तेमाल के साथ-साथ आवास, उद्योग और मनोरंजन के दूसरे उद्देश्यों के लिए अलग निर्धारित ज़मीन के रूप में निकलता है. ये सुगठित विकास को रोकता है और इंफ्रास्ट्रक्चर एवं सामुदायिक सेवाओं की लागत को बढ़ाता है. इसकी वजह से ऊर्जा के संसाधनों में कमी आती है और सड़कों पर भीड़ बढ़ती है. आम तौर पर कहें तो शहर का अव्यवस्थित विस्तार और टुकड़ों में ज़मीन के इस्तेमाल के पैटर्न का पर्यावरण पर नकारात्मक असर पड़ता है और इसका नतीजा जैव-विविधता, कृषि, जंगल और प्राकृतिक ज़मीन के नुक़सान के रूप में निकलता है. 

वास्तव में अलग-अलग वैल्यू कैप्चर के तरीक़ों के ज़रिए ज़मीन की क़ीमत पर कर लगाना शहरों में ज़मीन के इस्तेमाल से जुड़ी चुनौतियों के समाधान का एक तरीक़ा हो सकता है. दुनिया भर के शहरों ने सफलता के अलग-अलग स्तर के साथ इन तौर-तरीक़ों का इस्तेमाल किया है 

इधर-उधर फैली ज़मीन का इस्तेमाल करने और ज़मीन की क़ीमत में बढ़ोतरी का सामाजिक प्रभाव भी पड़ता है क्योंकि इससे कम दाम में ज़्यादा घर बनाकर लोगों को देने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. इसके अलावा ज़मीन की बढ़ती क़ीमत की वजह से शहर के अव्यवस्थित विस्तार के कारण सामाजिक अलगाव की स्थिति भी बनती है क्योंकि कम आमदनी वाले लोग ज़्यादा किराये वाली जगह से चले जाते हैं और वो सस्ते दाम पर उपलब्ध ज़मीन वाले शहर के उपनगरीय इलाक़ों या दूसरे बाहरी क्षेत्रों में अपना घर या किराये का घर तलाशते हैं. शहर के मुख्य क्षेत्रों के भीतर मौजूद आर्थिक केंद्रों और उपनगरीय इलाक़ों के बीच यात्रा की ज़्यादा दूरी के साथ कम आमदनी वाले समूह परिवहन सेवा के रूप में ज़्यादा क़ीमत चुकाते हैं. इस तरह विकसित किए जाने योग्य ज़मीन की उपलब्धता की कमी और शहर के अव्यवस्थित विस्तार की वजह से ज़मीन का इधर-उधर के कामों में इस्तेमाल सामाजिक और पर्यावरणीय रूप से टिकाऊ शहरी विकास में बाधा डालता है. 

निष्कर्ष

सरकारी पैसे का इंफ्रास्ट्रक्चर पर निवेश में इस्तेमाल, चाहे वो रोड या हाइवे हो या दूसरी ट्रांज़िट सेवाएं जैसे कि शहर के भीतर रेल सिस्टम हो, आस-पास में ज़मीन की क़ीमत पर काफ़ी असर डालता है. लेकिन इसका फ़ायदा ख़रीद की क्षमता के आधार पर चुनिंदा ज़मीन मालिकों को मिलता है और अलग-अलग आय वाले समूहों में ज़मीन की क़ीमत पर भी इसका असर पड़ता है. ट्रांज़िट कॉरिडोर की वजह से आर्थिक विकास के जो अवसर तैयार होते हैं, उनके कारण ज़मीन की क़ीमत में बढ़ोतरी होती है. क़ीमत में ये बढ़ोतरी अक्सर काफ़ी ज़्यादा होती है जो कि मध्यम या निम्न मध्यम आय वाले लोगों की पहुंच के बाहर होती है. आर्थिक परिणाम के अलावा शहर के मुख्य क्षेत्र में ज़मीन की बढ़ती क़ीमत की वजह से ज़मीन के इस्तेमाल का अलग-अलग स्वरूप शहरों में सामाजिक और स्थानीय पहलुओं में मौजूदा असमानता को और गहरा करता है. वास्तव में अलग-अलग वैल्यू कैप्चर के तरीक़ों के ज़रिए ज़मीन की क़ीमत पर कर लगाना शहरों में ज़मीन के इस्तेमाल से जुड़ी चुनौतियों के समाधान का एक तरीक़ा हो सकता है. दुनिया भर के शहरों ने सफलता के अलग-अलग स्तर के साथ इन तौर-तरीक़ों का इस्तेमाल किया है और भारत में भी वैल्यू कैप्चर फाइनेंसिंग की रणनीति बनाने की कोशिश की गई है. शहरी योजना और शहरों में ज़मीन के इस्तेमाल के पैटर्न में काफ़ी ज़्यादा बदलाव को देखते हुए ऐसे कर को लागू करने की कोई एक पद्धति नहीं है जो सभी तरह की स्थिति में सही हो जाए. लेकिन इसके बावजूद अनुभव इस तथ्य के बारे में बताता है कि अगर अधिकार संपन्न करने के विशेष संस्थागत तौर-तरीक़े के साथ इसे लागू किया जाए तो ये मददगार साबित हो सकती है. 

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