उ0प्र0 कोई दलित बहुल राज्य नहीं है। यहॉ दलित चेतना अथवा दलित आन्दोलन लगभग न के बराबर रहे हैं। अगड़ी-पिछड़ी जातियां कमोवेश बराबरी पर रहीं हैं। ऐसे में दलित एवं अल्पसंख्यक मतदाता नजदीकी मुकाबले में हमेशा निर्णायक रहे हैं। अगर देखा जाए तो दलित चेतना जगाने में मान्यवर कांशीराम की अग्रणी भूमिका रहीं है। बामसेफ एवं डीएस फोर के माध्यम से कांशीराम ने पढ़े-लिखें एवं निरक्षर हर तरह के दलितों को आकर्षित किया। कांशीराम दलितों का मर्म समझते थे। उन्हें मालूम था कि सदियों से दास भाव में जीवन-यापन कर रहे दलितों के मन से कांग्रेस का मोह निकलना आसान नहीं है। उन्हें मालूम था कि दलित कांग्रेस रचित यथास्थिति वादी जड़ता से बंधे है। इन्हें झिंझोड़ने के लिए सामाजिक समरसता पर प्रहार आवश्यक है। दलित समाज के शोषक वर्ग ब्राहमण, बनिया एवं क्षत्रिय पर सीधी चोट पहुंचाने के लिए एक नारा गढ़ा गया। ‘’तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’’। रातों-रात दलित बस्तियां नीले रंग से लिखे उस नारे से पट गयीं। बसपा का नीलें रंग का चुनाव चिन्ह हाथी भी शोभा बढ़ा रहा था। उच्च जातियों ने इस नारे एवं नारा लगाने वालों को हिकारत भरी निंगाह से देखा।
कांग्रेस एवं भाजपा दलित चेतना की क्रान्ति को समझ नहीं पाये। नतीज़ा स्पष्ट था। 1992 के बाबरी विध्वंस की विजय दुंदुंभी के बाद भी भाजपा 1993 के विधान सभा चुनाव में धूल चाटती नज़र आयी। पिछड़ों एवं मुस्लिमों की शक्ति का प्रतिनिधित्व करने वाली समाजवादी पार्टी एवं दलित चेतना का प्रतिनिधत्व करने वाली बसपा ने भाजपा का भगवा रथ रोक दिया था। मुलायम सिंह से भी एक चूक हुई। उन्हें लगा कि दलित चेतना से जेबी बनाया जा सकता है। इस भूल का परिणाम ‘गेस्ट हाउस कांड’ हुआ। 1995 में बसपा की पहली मुख्यमंत्री के तौर पर मायावती ने शपथ ली । सरकार भाजपा के बाहरी के समर्थन से बनी थी। बसपा ने गठबन्धन राजनीति का एक नया नियम प्रतिपादित किया था। गठबन्धन किसी के साथ हो, मुख्यमंत्री मायावती ही होंगी।
1995, 1997 ,2002 एवं 2007 में मायावती उ0प्र0 की मुख्यमंत्री बनी। 2007 में तो वे अकेले दम पर पूर्ण बहुमत के साथ मुख्यमंत्री बनीं। 2012 को जब मार्च में उन्होने पद छोड़ा तो 5 वर्ष का कार्यकाल पूरा करने वाली वे एक मात्र उ0प्र0 की मुख्यमंत्री थीं। तानाशाही, पैसे लेकर टिकट बॉटने से लेकर भ्रष्टाचार जैसे कई आरोप मायावती पर लगते रहते हैं। परन्तु उनके प्रशासन का एक गुण तो है ही, जिसमें उनके विरोधी सहित सभी एक मत हैं ‘कानून एवं व्यवस्था’। माफिया एवं गुण्डों, अपराधियों की बहन कुं0 मायावती के राज में खैर नहीं है। यहॉ तक की बसपा में जीतकर सांसद, विधायक बने आपराधिक पृष्ठभूमि के जनप्रतिनिधियों के लिए कोई मुरव्वत नहीं है।
सामान्य परिस्थितियों में बसपा उ0प्र0 की सत्ता की स्वाभाविक एवं सबसे प्रबल दावेदार होती। जनता यह भी भूलने को तैयार हो जाती कि बसपा शासन काल के कतिपय मंत्री/अधिकारी अभी तक भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में हैं। लेकिन परिस्थितियां सामान्य नहीं हैं। 2014 में लोक सभा चुनाव में बसपा प्रदेश में खाता तक नहीं खोल सकी। वर्तमान स्थिति भी अनुकूल नहीं दीख रही है। 2007 के विधान सभा चुनाव में बसपा को पूरे प्रदेश में ब्राहमणों का जबरदस्त समर्थन मिला था। ‘’ब्राहमण शंख बजायेगा, हाथी बढ़ता जायेगा’’ या ‘’हाथी नहीं गणेश है, ब्रहमा विष्णु महेश है’’ जैसे ब्राहमणों द्वारा रचित लोक लुभावन नारे अगड़ी जातियों में बसपा के पक्ष में माहौल बनाने में खासे कामयाब़ रहे थे।
इस बार परिस्थितियां बिल्कुल भिन्न हैं। मोदी के नेतृत्व में केन्द्र में भाजपा की मजबूत सरकार है। पाकिस्तान के विरूद्ध सर्जिकल स्ट्राइक एवं गरीबों के मर्म को छू लेने वाली नोटबन्दी के चलते ‘कानून व्यवस्था’ उतना बड़ा मुद्दा नहीं रह गया है। राष्ट्रवाद, उग्रवाद, पाकिस्तान द्वारा पोषित आतंकवाद, कालाधन एवं भ्रष्टाचार जैसे मुद्दो ने चुनाव को ‘स्थानीय’ से हटाकर ‘राष्ट्रीय’ बना दिया है। काले धन एवं नोटबन्दी ने जाति-सम्प्रदाय में बंटे मतदाताओं को केवल दो वर्ग में बांट दिया है। एक ओर कालाधन के पोषक, भ्रष्ट तंत्र एवं शोषण के हिमायती कुछ लोग हैं, तो दूसरी ओर बहुसंख्यक वंचित, शोषित गरीब वर्ग। यही बहुसंख्यक गरीब वर्ग, मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व से अपने दिन बहुरने की उम्मीद कर रहा है। नोटबन्दी ने जाति-सम्प्रदाय के समीकरणों को गड़बड़ा दिया है।
इन सबके बावजूद भी उ0प्र0 के चुनावी दंगल में बसपा को खारिज़ नहीं किया जा सकता है। बसपा के पास दलितों का समर्पित वोट बैंक है। यह वोट बैंक हस्तान्तरणीय भी है। यही बसपा की शक्ति भी है तो सबसे बड़ी कमजोरी भी। संगठनात्मक दृष्टिकोण से बसपा केवल दलित वोट बैंक को संजोने में लगी रहती है। अन्य पिछड़ी तथा अगड़ी जातियों अथवा मुस्लिम वर्ग से प्रभावी अथवा जुझारू नेतृत्व खड़ा करने का कोई प्रयास नहीं होता है। अचानक नवधनाढूय टिकटार्थी नेपथ्य से आकर टिकट झटक लेता है। ‘नोटबंदी’ की मार इन प्रत्याशियों पर सबसे भारी पड़ी है।
भाजपा की बढ़ती शक्ति एवं अगड़ी जातियों के भाजपा के प्रति स्वाभाविक रूझान को देखते हुए, बसपा ने अपनी चुनावी रणनीति बदली है। अबकी बार बसपा ने दलित-मुस्लिम एवं अति पिछड़ा गठजोड़ का दांव खेला है। मुस्लिम वोट के ध्रुवीकरण के लिए तो 6 दिसम्बर को अम्बेडकर परिनिर्वाण के अवसर पर आयोजित लखनउ रैली में मायावती ने भाजपा सरकार से काशी एवं मथुरा की विवादास्पद मजिस्जदों को भी खतरा बताया। अति पिछड़े एवं दलितों को भाजपा के संविधान विरोधी होने तथा हिन्दू समाज को बांटने की मंशा की पार्टी होना बताया। सच यह है कि बसपा अति पिछड़ों में भाजपा की बढती सेंधमारी से डरी हुई है। अपने नेता विरोधी दल सहित 12 विधायकों का टूट कर भाजपा में चले जाना बसपा के लिए किसी बड़े आघात की तरह ही है।
बसपा सुप्रीमों ने अपनी चुनावी रणनीति बदली है। मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने के लिए वे किसी भी तरह के प्रचार से परहेज़ नहीं कर रही है। हाल ही में पार्टी द्वारा मायावती के कार्यकाल में मुस्लमानों के उत्थान एवं भलाई के लिए किये गये कार्यो की लम्बी-चोड़ी फेहरिश्त भी जारी की गई है। अपने स्वभाव से अलग हट कर मायावती ने अपने विरोधियों को उन्हीं की भाषा-शैली में जवाब देना शुरू कर दिया है। ‘अखिलेश’ की ‘बुआ’ का जवाब ‘बबुआ’ इस जुबानी जंग को और भी रोचक बना रहा है।
प्रदेश में इस समय केवल भाजपा की परिवर्तन रैलियों की धूम है। प्रधानमंत्री पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम के अनुसार प्रदेश के विभिन्न भागों में बड़ी रैलियां सम्बोधित कर रहे है। भाजपा के मुकाबले, सपा, बसपा एवं कांग्रेस का चुनाव अभियान अभी कमज़ोर दिख रहा है। बसपा के समर्थक चुनाव-प्रचार की गहमागहमी से दूर रहकर बहिन जी के पक्ष में मतदान करते हैं। मुस्लिम मतदाता अन्तिम समय तक भाजपा को हरा सकने में सक्षम पार्टी/उम्मीदवार का आकलन करेगा। नोटबन्दी के बावजूद भी उ0प्र0 के चुनावी परिदृश्य से बसपा को खारिज़ करना नामुमकिन है।
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