Published on Mar 10, 2021 Updated 0 Hours ago

नॉन-पर्सनल डेटा के किसी नए फ्रेमवर्क में इस बात का ख्याल रखना होगा कि डेटा सिर्फ़ आर्थिक संसाधन नहीं, जिसका कमोडिटी की तरह इस्तेमाल हो, न ही यह सरकार के लिए निजी कंपनियों पर हावी होने का जरिया है

विकास की ख़ातिर डेटा का इस्तेमालः नॉन-पर्सनल डेटा गवर्नेंस की समीक्षा

जुलाई 2020 में मिनिस्ट्री ऑफ इलेक्ट्रॉनिक्स एंड इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (MEITY) की बनाई कमेटी ने एक रिपोर्ट जारी की, जिसका नाम था रिपोर्ट ऑन द नॉन-पर्सनल डेटा (NPD) गवर्नेंस फ्रेमवर्क फॉर इंडिया. यानी इसमें भारत के नॉन-पर्सनल डेटा के लिए दिशानिर्देश दिए गए थे. इसमें एक अच्छी बात यह थी कि इस डेटा की लोगों के लिए क्या अहमियत हो सकती है, उसे स्वीकार किया गया था. इस डेटा के लोकतांत्रिक इस्तेमाल पर भी ज़ोर दिया गया था. साफ तौर पर तो नहीं, लेकिन फ्रेमवर्क में डेटा पर साझे हक की भी बात कही गई थी. यह डेटा इकॉनमी पर अर्थपूर्ण बातचीत के लिए ज़रूरी है.

नॉन-पर्सनल डेटा की समीक्षा क्यों ज़रूरी है? 

इस रिपोर्ट का मकसद पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल (PDPB) की बुनियाद तैयार करना था, लेकिन इससे एक गलत संदेश गया. वह संदेश यह था कि पर्सनल डेटा की सुरक्षा की जाएगी, जबकि नॉन-पर्सनल डेटा को शेयर किया जाएगा और उसे रीयूज किया जा सकता है. NPD रिपोर्ट की कुछ बुनियादी बातों में एक यह भी थी कि डेटा एक कीमती संसाधन है और समूची दुनिया में यह बात समझी जा रही है. अभी यह कुछ बड़ी वैश्विक टेक्नोलॉजी कंपनियों के हाथ में ही है और ‘लोग’ इसका पर्याप्त लाभ नहीं ले पा रहे हैं. यूरोपियन यूनियन में हालिया डेटा गवर्नेंस एक्ट (DGA) में भी ऐसी ही बातें दी गई हैं. हालांकि, NPD रिपोर्ट में इस मकसद को हासिल करने के लिए जो फ्रेमवर्क दिया गया है, वह संभावित तौर पर नुक़सानदायक हो सकता है. इसलिए इसकी समीक्षा की जानी चाहिए.

पर्सनल डेटा की सुरक्षा की जाएगी, जबकि नॉन-पर्सनल डेटा को शेयर किया जाएगा और उसे रीयूज किया जा सकता है. NPD रिपोर्ट की कुछ बुनियादी बातों में एक यह भी थी कि डेटा एक कीमती संसाधन है और समूची दुनिया में यह बात समझी जा रही है.

इस रिपोर्ट में कई ख़ामियां हैं. ऐसा लगता है कि जिस मर्ज का निदान एक छोटा चीरा लगाकर किया जा सकता था, उसके लिए इसमें बुलडोजर वाली अप्रोच अपनाई गई है. असल में रिपोर्ट में आम लोगों और कंपनियों की खातिर डेटा की इकॉनमिक वैल्यू को अनलॉक करने पर इतना अधिक ध्यान दिया गया है कि इसमें लोगों की निजता से जुड़ी चिंताओं की अनदेखी हो गई है. साथ ही, वैश्वीकरण के फायदों और सरकार की ज़वाबदेही से भी इसमें पल्ला झाड़ा गया है. यूं तो कम्युनिटी डेटा राइट्स तय करने की यह पहल अच्छी है, लेकिन साफ-साफ नहीं बताया गया है कि कैसे यह पक्का किया जाए कि इस डेटा का इस्तेमाल लोगों की भलाई के लिए हो, न कि निजी मुनाफे के लिए इसे कमोडिटी बना दिया जाए.

कुदरती संसाधनों के इकोनॉमिक राइट्स में भी NPD फ्रेमवर्क को जोड़ा गया है, जिससे परेशानी खड़ी होगी. इससे सरकार के पास निजी कंपनियों पर डेटा शेयर करने की खातिर दबाव डालने की ताकत आ जाएगी. इसमें यह अंदाजा लगाया गया है कि अनिवार्य रूप से डेटा शेयरिंग से बाजार की ताकतों से जुड़े सवाल को हल करने में मदद मिलेगी, जो कि गलत है. असल में इसका भारत में इनोवेशन में निवेश और भारतीय डिजिटल क्षेत्र पर व्यापक असर हो सकता है.

इस फ्रेमवर्क पर कई एंगल से पुनर्विचार किया जाना चाहिए. पहले तो लोगों के लिए (व्यक्ति और कम्युनिटी) इसका क्या मतलब है, यह देखा जाए. उन्हें डेटा पर अधिकार देना चाहिए. इसे सिर्फ़ इनोवेशन के ईंधन की तरह नहीं देखा जाना चाहिए. इसके अलावा, डेटा शेयरिंग को इंडिविजुअल डेटा प्रोटेक्शन से जोड़ना होगा. डेटा शेयरिंग का मकसद शुरू से ही स्पष्ट होना चाहिए. पहले से तय और स्पष्ट सवालों का जवाब तलाशने के लिए डेटा कलेक्ट किया जाए. डेटा के इस्तेमाल और कलेक्शन में कंसेंट यानी सहमति को लेकर लोगों को पूरी आजादी मिलनी चाहिए यानी वे जब चाहें रजामंदी दें, जब चाहें इसे वापस ले लें. अभी लोगों को सिर्फ़ यह अधिकार दिया गया है कि पर्सनल डेटा किसका है, यह ज़ाहिर नहीं किया जाएगा. बगैर सहमति के डेटा शेयरिंग के लिए इसे पर्याप्त माना जा रहा है.

यूं तो कम्युनिटी डेटा राइट्स तय करने की यह पहल अच्छी है, लेकिन साफ-साफ नहीं बताया गया है कि कैसे यह पक्का किया जाए कि इस डेटा का इस्तेमाल लोगों की भलाई के लिए हो, न कि निजी मुनाफे के लिए इसे कमोडिटी बना दिया जाए.

डेटा इकॉनमी में बेहतर अधिकार हासिल करने के लिए बातचीत में समूहों की महत्वपूर्ण भूमिका है. डेटा को-ऑपरेटिव, यूनियन और ट्रस्ट जैसे संस्थान  लोगों को अपने डेटा मिलाने की इजाजत देते हैं, इसलिए उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए. इन संस्थानों के इससे संबंधित कागजात पर दस्तखत की व्यवस्था भी की जानी चाहिए ताकि वे डेटा राइट्स पर सामूहिक तौर पर मोलभाव कर सकें. मिसाल के लिए, एंप्लॉयीज, पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करने वाले, सोशल मीडिया यूजर्स.

इस डेटा का लोगों के हित में इस्तेमाल हो, इसके लिए सरकार को आगे आना होगा. उसे यह पक्का करना होगा कि इस बारे में फैसले का अधिकार इन समूहों को दिया जाए, न कि सरकारी तंत्र यह निर्णय करें. मिसाल के लिए, सरकार 20 से अधिक कर्मचारियों वाले संस्थान या प्रतिष्ठान की खातिर डेटा को-ऑपरेटिव बनाना अनिवार्य कर सकती है. अभी सरकार और समाज के हित इस मामले में गुंथे हुए हैं. ऐसे में कलेक्टिव डेटा राइट्स से इन्हें लेकर अप्रिय स्थिति बन सकती है.

भारत में मज़बूत डेटा प्रोटेक्शन फ्रेमवर्क की ज़रूरत

इसके साथ, डेटा शेयरिंग के लिए प्रोत्साहन देने और इसकी प्रक्रिया पर भरोसा बढ़ाने की भी ज़रूरत है. अगर इसके लिए टॉप-डाउन (ऊपर से नीचे की तरफ) अप्रोच अपनाई जाए तो वह अच्छा रहेगा. भारत में फिलहाल मज़बूत डेटा प्रोटेक्शन फ्रेमवर्क नहीं है, इस पर काम करना होगा. इसके अलावा, उद्योगों और कंपनियों के अंदर डेटा शेयरिंग की गुंजाइश बनानी होगी. इसमें डेटा एक्सचेंजों से मदद मिल सकती है, जो सुरक्षित तरीके से इसके इस्तेमाल को बढ़ावा देते हैं. मिसाल के लिए, जापान में इंटरनेट ऑफ थिंग्स (IOT) डेटा इंडस्ट्री की महत्वपूर्ण कंपनियों के बीच शेयर किया जाता है. भारत में IUDX जैसे प्लेटफॉर्म्स भी भरोसेमंद और परपस्पर लाभकारी तरीके से डेटा शेयरिंग में मददगार हो सकते हैं.

डेटा शेयरिंग के लिए प्रोत्साहन देने और इसकी प्रक्रिया पर भरोसा बढ़ाने की भी ज़रूरत है. अगर इसके लिए टॉप-डाउन (ऊपर से नीचे की तरफ) अप्रोच अपनाई जाए तो वह अच्छा रहेगा. भारत में फिलहाल मज़बूत डेटा प्रोटेक्शन फ्रेमवर्क नहीं है, इस पर काम करना होगा.

जनता के हित में अगर बगैर दबाव डाले डेटा शेयरिंग हो, जैसे टैक्स छूट और लोगों को सम्मानित करके उनके काम को सराहा जाए तो इससे यूजर्स का भरोसा हासिल करने में मदद मिलेगी. यूरोपियन यूनियन में DGA लोगों के हित में डेटा के इस्तेमाल के लिए इसकी वॉलेंटियरी शेयरिंग को प्राथमिकता देता है, जबकि टेक्नोलॉजी कंपनियों के प्रति नरमदिली दिखाने को लेकर उसकी आलोचना होती रही है. सच पूछिए तो भारत में अनिवार्य डेटा शेयरिंग के बजाय DGA का तरीका कहीं प्रभावशाली हो सकता है. उसकी वजह यह है कि इसमें स्वेच्छा से डेटा शेयरिंग को बढ़ावा दिया जा रहा है, न कि दबाव डालकर.

आखिर में, डेटा शेयरिंग को मैनेज और कंट्रोल करने की केंद्रीयकृत व्यवस्था नहीं की जा सकती. इसे अलग-अलग स्तरों पर अलग-अलग काम के लिए किया जाना चाहिए. डेटा के इस्तेमाल और मैनेजमेंट में शहरों की भूमिका महत्वपूर्ण है और यह लगातार बढ़ रही है. इसकी वजह यह है कि वे डेटा के सामुदायिक हितों को ध्यान में रखकर इस्तेमाल किए जाने के बारे में बेहतर समझ रखते हैं. मिसाल के लिए, बार्सिलोना ने DECODE प्रोजेक्ट के जरिये डेटा तक लोकल कम्युनिटी और बिजनेस की पहुंच आसान की है. वहां एक ऐसी पहल की गई है, जिसमें बार्सिलोना में रहने वाले अपने घर से बिना पहचान जाहिर किए एनवायरमेंटल सेंसर डेटा शेयर कर सकते हैं, जिसे DECODE टेक्नोलॉजी के जरिये एन्क्रिप्ट किया जाता है. इससे कम्युनिटी ग्रुप्स का सिटी गवर्नमेंट के साथ कहीं गहरा जुड़ाव होता है. इसमें लोगों को यह अधिकार मिला है कि वे कौन सा डेटा शेयर करें और कौन सा नहीं. दिल्ली जैसे शहरों में लोकल कम्युनिटी के बीच इस आइडिया को अमल में लाया जा सकता है. इससे सरकार को प्रदूषण जैसी चुनौतियों से निपटने में मदद मिलेगी क्योंकि आज सेंसर की मदद से अधिक से अधिक लोग यहां प्रदूषण के स्तर पर नज़र रख रहे हैं.

दिल्ली जैसे शहरों में लोकल कम्युनिटी के बीच इस आइडिया को अमल में लाया जा सकता है. इससे सरकार को प्रदूषण जैसी चुनौतियों से निपटने में मदद मिलेगी क्योंकि आज सेंसर की मदद से अधिक से अधिक लोग यहां प्रदूषण के स्तर पर नज़र रख रहे हैं.

नॉन-पर्सनल डेटा के लिए किसी नए फ्रेमवर्क में इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि यह सिर्फ़ आर्थिक संसाधन नहीं है, जिसका दोहन किया जाए. न ही यह निजी इकाइयों पर सरकार के वर्चस्व बनाने का जरिया है. बुनियादी तौर पर यह लोगों से जुड़ा है. व्यक्तिगत और सामुदायिक स्तर पर. इसलिए इसकी सुरक्षा की जानी चाहिए. साथ ही, डेटा का इस्तेमाल आम लोगों की भलाई और उनके सशक्तिकरण की खातिर होना चाहिए. प्राइवेट कंपनियां लोगों के इस्तेमाल के लिए डेटा शेयर करें, इसकी खातिर ऊपर से पहल वाली व्यवस्था बनानी होगी. वहीं, इससे जुड़े फैसलों के लिए निचले स्तर से लोगों को जोड़ना होगा. इसके साथ ही, सरकार और बिजनेस को डेटा की सुरक्षा और इस्तेमाल को लेकर जवाबदेह भी बनाना होगा. ऐसी पहल के जरिये ही हम NPD शेयरिंग के लिए एक मददगार प्रॉसेस तैयार कर सकते हैं.

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