तालिबान द्वारा अफ़गानिस्तान की सत्ता पर पूरी तरह से कब्ज़ा जमाने के तक़रीबन 75 दिन पूरे हो चुके हैं. मुल्क के आर्थिक और सियासी हालातों के चलते पश्चिमी दुनिया के देश नई सत्ता के साथ एक बार फिर संपर्क कायम करने को उतारु हैं. ख़बरों के मुताबिक यूरोपीय संघ अगले चंद हफ़्तों में काबुल में अपने मिशन की दोबारा शुरुआत कर सकता है. वहीं दूसरी ओर अमेरिका भी पाकिस्तान के साथ एक सौदा पक्का करने के बेहद करीब पहुंच चुका है. इस सौदे के तहत वो अफ़ग़ानिस्तान में “निकट भविष्य में” फ़ौजी क्षमता का संचालन कर सकेगा.
पश्चिमी दुनिया से संपर्क कायम करने को तत्पर तालिबान
ग़ौरतलब है कि अमेरिका ने फ़रवरी 2020 में तालिबान के साथ दोहा में एक समझौते पर दस्तख़त किया था. इसके तहत दोनों पक्षों के बीच जंग जैसे हालात ख़त्म करने पर रज़ामंदी हुई थी. इस समझौते की बुनियाद पर अब हमें एक दुर्भाग्यपूर्ण रुझान देखने को मिल रहा है. दोहा समझौते को चरमपंथी और विद्रोही गुटों द्वारा लंबे समय से चले आ रहे संघर्षों को ख़त्म कर कोई बीच का समाधान तलाशने से जुड़े मॉडल के तौर पर प्रचारित किया जाने लगा है. जबकि पते की बात तो ये है कि अमेरिका-तालिबान समझौते का गुणगान करने की कोई ज़रूरत नहीं है. दरअसल इस समझौते ने तालिबान को सियासी और फ़ौजी पैंतरे दिखाने के काफ़ी मौके मुहैया करा दिए. वहीं दूसरी ओर अमेरिका को दो दशकों तक चले इस संघर्ष से ख़ुद को बाहर निकालने की क़वायद तक सीमित कर दिया. बदले में तालिबान ने उस कालखंड में अमेरिकी फ़ौज पर किसी तरह का हमला न करने पर रज़ामंदी जताई.
दोहा समझौते को चरमपंथी और विद्रोही गुटों द्वारा लंबे समय से चले आ रहे संघर्षों को ख़त्म कर कोई बीच का समाधान तलाशने से जुड़े मॉडल के तौर पर प्रचारित किया जाने लगा है. जबकि पते की बात तो ये है कि अमेरिका-तालिबान समझौते का गुणगान करने की कोई ज़रूरत नहीं है.
आख़िरकार ये समझौता तालिबानी विद्रोहियों को अफ़ग़ानी भूक्षेत्र तोहफ़े में देने जैसी क़वायद साबित हुआ. अफ़गानी सरकार ने अपनी जनता को मझधार में छोड़ दिया. देश की सशस्त्र सेना तो इस समझौते के कुछ ही महीनों के भीतर खंड खंड होकर बिखर गई.
बदली हुई पटकथा
तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड जे ट्रंप और राजदूत ज़ल्मे ख़ालिज़ाद इस सौदे के प्रमुख रचनाकारों में से थे. राजदूत ख़ालिज़ाद आगे चलकर राष्ट्रपति जो बाइडेन की टीम से जुड़ गए. उन्होंने इस सौदे को पूरे जोश के साथ आगे बढ़ाने और इसको विनाशकारी परिणाम तक पहुंचाने में सक्रिय भूमिका निभाई. दरअसल इन सबने मिलकर अफ़ग़ानी संघर्ष में अमेरिकी मौजूदगी से जुड़े विमर्श को बड़ी चतुराई से नए सिरे से गढ़ने में कामयाबी हासिल कर ली. इस नई और बदली हुई पटकथा के मुताबिक अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी मौजूदगी के पीछे की वजह राष्ट्र निर्माण या राज्यसत्ता में संस्थागत मज़बूती लाना नहीं बल्कि अल-क़ायदा के ख़िलाफ़ आतंक-रोधी कार्रवाई है. हालांकि अमेरिका ने दो दशकों तक अफ़ग़ानिस्तान में राष्ट्र निर्माण और संस्थाओं को मज़बूत बनाने के प्रयास ही किए थे.
अमेरिका के इस नज़रिए के पीछे उसके घरेलू जनमत का बड़ा हाथ रहा है. दरअसल अमेरिकी जनता की नज़र में अफ़ग़ान मसले और उससे जुड़ी चिंताओं की कोई ज़्यादा अहमियत नहीं है. अमेरिका की मुख्य भूमि अफ़ग़ानी सरज़मीं से 12000 किमी दूर है. अल-क़ायदा से अमेरिका को होने वाले संभावित ख़तरे भी पहले के मुक़ाबले अब काफ़ी कम हो गए हैं. ऐसे में अफ़ग़ान मसले पर अमेरिका किसी तरह की सीधी ज़िम्मेदारी से बच जाता है. हालांकि सुरक्षा के दृष्टिकोण से अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका की वापसी के कई अहम परिणाम नज़र आते हैं. इसके चलते दक्षिण एशिया से लेकर मध्य एशिया तक की क्षेत्रीय भूराजनीति पर बड़ा भारी प्रभाव पड़ा है
इस नई और बदली हुई पटकथा के मुताबिक अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी मौजूदगी के पीछे की वजह राष्ट्र निर्माण या राज्यसत्ता में संस्थागत मज़बूती लाना नहीं बल्कि अल-क़ायदा के ख़िलाफ़ आतंक-रोधी कार्रवाई है. .इस नई और बदली हुई पटकथा के मुताबिक अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी मौजूदगी के पीछे की वजह राष्ट्र निर्माण या राज्यसत्ता में संस्थागत मज़बूती लाना नहीं बल्कि अल-क़ायदा के ख़िलाफ़ आतंक-रोधी कार्रवाई है.
अमेरिका-तालिबान सौदे का मूल्यांकन
अतीत के आईने में देखें तो राज्यसत्ता और राज्यसत्ता से इतर लड़ाका गुटों और किरदारों के बीच वार्ताओं और शांति समझौते के अनेक उदाहरण मिलते हैं. आतंकवाद के ख़िलाफ़ और विद्रोही गतिविधियों से निपटने के सिलसिले में ठोस संस्थागत प्रयासों के ज़रिए हिंसा का रास्ता छोड़कर मुख्य धारा में शामिल होने की मिसाल सबसे अहम रही है. बहरहाल अमेरिका-तालिबान सौदे ने ऐसे अस्थिर, जोख़िम भरे और नाज़ुक तौर-तरीक़ों की धार कुंद करने का काम किया है.
ग़ौरतलब है कि 9/11 आतंकी हमले के बाद अमेरिका ने तालिबान को अफ़ग़ानी सत्ता से उखाड़ फेंका था. ऐसे में दोहा समझौते ने तालिबानी विद्रोहियों को वो मुकाम दिला दिया जिसे उन्होंने 2001 में गंवा दिया था. इतना ही नहीं चार पन्नों के इस समझौते के कई और ब्योरे ऐसे हैं जो हालात को और बिगाड़ने के लिए ज़िम्मेदार हैं. सौदे के तहत आतंकवाद समेत तमाम मुद्दों पर ‘क्या करना है’ और ‘क्या नहीं करना है’ से जुड़े सवालों पर तालिबान की जवाबदेही सुनिश्चित करने का कोई ज़रिया नहीं छोड़ा गया है.
तालिबान ने इस सौदे की नज़ाक़त और अमेरिका द्वारा अफ़ग़ानिस्तान से पूरी तरह से वापस लौट जाने को अपनी जीत की तरह मनाया. अफ़ग़ानिस्तान से बाहर की दूसरी ताक़तों ने दोहा समझौते को अमेरिका के साथ अपने संभावित सौदों की संभावनाओं के द्वार खुलने के तौर पर देखा.
चार पन्नों के इस समझौते के कई और ब्योरे ऐसे हैं जो हालात को और बिगाड़ने के लिए ज़िम्मेदार हैं. सौदे के तहत आतंकवाद समेत तमाम मुद्दों पर ‘क्या करना है’ और ‘क्या नहीं करना है’ से जुड़े सवालों पर तालिबान की जवाबदेही सुनिश्चित करने का कोई ज़रिया नहीं छोड़ा गया है.
फ़रवरी 2021 में जिन दिनों अमेरिका सुदूर अफ़ग़ानिस्तान में अपना बही खाता समेटने की क़वायद कर रहा था, तब सीरिया में भी हलचल देखने को मिली थी. सीरिया के जिहादी संगठन हयात तहरीर अल-शाम (एचटीएस) के सरगना अबु मोहम्मद अल-जोलानी ने उन्हीं दिनों अमेरिका के पीबीएस नेटवर्क को लंबा-चौड़ा इंटरव्यू दिया था. अतीत में जोलानी की अल-क़ायदा और इस्लामिक स्टेट- दोनों के साथ साठगांठ रही है. आम तौर पर फ़ौजी पहनावे में नज़र आने वाला जोलानी अमेरिकी नेटवर्क को इंटरव्यू देने के लिए कड़क सूटबूट में सामने आया था. ज़ाहिर तौर पर इस पूरी क़वायद के पीछे उसका मकसद अपनी छवि बदलना और पश्चिमी दुनिया समेत तमाम दूसरी ताक़तों से वार्ता-प्रक्रियाओं के ज़रिए जुड़ना था.
ऐसे में ये विचार बिल्कुल वाजिब है कि तालिबान के साथ लंबे समय तक चले कूटनीतिक प्रयासों से हासिल सौदे ने दूसरों को भी ऐसे ही जुड़ावों के लिए प्रोत्साहित किया है. इस सिलसिले में हम सोमालिया की मिसाल ले सकते हैं. सोमालिया में अल-क़ायदा के साथी संगठन अल-शबाब का दबदबा है. उसके ख़िलाफ़ सालों से अमेरिका का दबे-ढके अंदाज़ में आतंक के ख़िलाफ़ जंग चल रहा है. अल-शबाब और तालिबान के बीच कई तरह की समानताएं मौजूद हैं. अल-शबाब का एक बड़े भूक्षेत्र पर कब्ज़ा है. इतना ही नहीं तालिबान की ही तरह इसकी भी समानांतर आर्थिक (ख़ासतौर से टैक्स उगाही) और इस्लामिक न्यायिक व्यवस्था है. सोमालिया में इसके प्रभाव वाले इलाक़े की जनता आमतौर पर इन तौर-तरीक़ों को मानने के लिए बाध्य है. अपने जानमाल की सुरक्षा और दूसरे विकल्पों के अभाव में यहां की अवाम इन नियम-क़ायदों के हिसाब से चलने को मजबूर है. हाल ही में स्कॉलर मोहम्मद इब्राहिम सिरे ने सुझाव दिया है कि अल शबाब और सोमालिया की सरकार के बीच व्यापक जुड़ाव शुरू करने का यही सबसे माकूल वक़्त है. सोमालिया की सरकार को रणनीतिक तौर पर पश्चिमी ताक़तों का समर्थन हासिल है. ऐसे में इब्राहिम सिरे का मानना है कि अल शबाब के साथ शांति वार्ताओं के लिए वैचारिक तौर पर हालात तैयार करने का ये सही समय है. दूसरे शब्दों में एक बार फिर हमारे सामने चरमपंथी गुटों के साथ शांति और सियासी सरपरस्ती का सवाल खड़ा है. निश्चित तौर पर इस सामंजस्य पर कई तरह के वाजिब सवाल खड़े किए जा सकते हैं. दरअसल इन चरमपंथी गुटों के एजेंडे में सत्ता के बंटवारे से कहीं ज़्यादा बड़े मसले शामिल हैं.
अफ़ग़ानी सरज़मीं पर मौजूदा घटनाक्रमों के चलते अमेरिका-तालिबान सौदा एक तरह से पृष्ठभूमि में या पीछे चला गया है. हालांकि जंगी माहौल से अमेरिका को सुरक्षित रूप से बाहर निकलने का रास्ता देने से जुड़े इस समझौता दस्तावेज़ की शैक्षणिक रूप से नियमित तौर पर पड़ताल होनी चाहिए. इस समझौते के पीछे अफ़ग़ानिस्तान या वहां की अवाम की ज़िंदगी में स्थिरता लाने का मकसद नहीं था. ऐसे में ज़ाहिर है कि इस सौदे से प्रेरणा लेने या इसे दूसरी जगह दोहराने का कोई तुक नहीं बनता.
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