Author : Prithvi Iyer

Published on Oct 29, 2020 Updated 0 Hours ago

QAnon को बार बार हैशटैग के साथ इस्तेमाल किया जा रहा है. इसके ज़रिए ऐसा कंटेंट तैयार किया जाता है, जिससे डेमोक्रेटिक पार्टी के नेताओं को निशाना बनाया जाता है. आने वाली क़यामत का भय दिखाया जाता है.

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव 2020: साज़िश की थ्योरी माने जाने वाले QAnon का प्रभाव?

QAnon आज के ज़माने की साज़िश की थ्योरी है. जिसमें ये माना जाता है कि अमेरिका में सरकार के भीतर एक ‘डीप स्टेट’, एक छुपी हुई सत्ता है. जो लगातार अमेरिका के मौजूदा राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के ख़िलाफ़ काम कर रही है. QAnon को मानने वाले लोगों का समूह दो वेबसाइट के ज़रिए अपने समर्थकों का विस्तार कर रहा है. इनके नाम हैं-4chan और 8chan. इनमें कोई भी यूज़र बिना अपनी पहचान ज़ाहिर किए हुए, ख़बरें लिख सकता है. इन वेबसाइट्स पर लिखने वाले ज़्यादातर लोग इस बात पर ज़ोर देते हैं कि सेलिब्रिटी, डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता और अमेरिका के बहुत से उच्च स्तरीय अधिकारी, उस षडयंत्रकारी डीप स्टेट या सरकारी तंत्र का हिस्सा हैं. हाल ही में कराए गए एक सर्वे के मुताबिक़, रिपब्लिकन पार्टी के 56 प्रतिशत समर्थक मानते हैं कि साज़िश की ये थ्योरी या तो काफ़ी हद तक, या फिर पूरी तरह से सच है. मार्जोरी टेलर ग्रीन, जो एक नस्लवादी नेता हैं. और साज़िश के ऐसे विचारों को ख़ूब बढ़ावा देती हैं, उन्होंने जॉर्जिया में रिपब्लिकन पार्टी के प्राइमरी में जीत हासिल की थी. इससे ये बात लगभग तय हो गई है कि वो अमेरिकी संसद की ये सीट जीत लेंगी, क्योंकि उनके मुक़ाबले उतरे उम्मीदवार चुनाव मैदान से हट गए हैं. ये सीट रिपब्लिकन पार्टी के समर्थकों का गढ़ है. ग्रीन भी QAnon वाली साज़िश की समर्थक हैं. और केवल वही नहीं, अमेरिकी कांग्रेस के चुनाव में उतरे 53 प्रत्याशी इस कॉन्सपिरेसी थ्योरी का समर्थन और प्रचार करते हैं. ऐसे नेताओं में लॉरेन बोबर्ट और जो राई परकिंस शामिल हैं. जो कोलोराडो और ओरेगन से चुनाव जीत चुके हैं.

QAnon आज के ज़माने की साज़िश की थ्योरी है. जिसमें ये माना जाता है कि अमेरिका में सरकार के भीतर एक ‘डीप स्टेट’, एक छुपी हुई सत्ता है. जो लगातार अमेरिका के मौजूदा राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के ख़िलाफ़ काम कर रही है.

राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी इन नेताओं का लगातार समर्थन करते रहे हैं. हालांकि, वो ख़ुद को QAnon का समर्थक नहीं कहते. लेकिन, ट्रंप ने कई बार QAnon के ट्वीट को रिट्वीट किया है. अमेरिका के फेडरल ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टिगेशन (FBI) ने भी QAnon की साज़िश वाली कहानी का प्रचार करने वालों को ‘उग्रवादी’ क़रार दिया है. FBI के मुताबिक़ इन लोगों से घरेलू आतंकवाद का ख़तरा है. ऐसे में ये समझना आवश्यक है कि आख़िर अमेरिका के चुनाव में QAnon के शोर-शराबे की कितनी अहमियत है. इस लेख में हम इस बात की पड़ताल करेंगे कि किस तरह वर्चुअल दुनिया में साज़िश की कहानी गढ़ी जा रही है. फिर इसे सोशल मीडिया की मदद से प्रचारित किया जा रहा है. सत्ताधारी वर्ग के प्रति नाराज़गी का लाभ उठाने की कोशिश में ऐसे संदेशों के प्रति लोगों का लगाव बढ़ा है. इसी कारण से नवंबर 2020 में होने वाले चुनाव में वोटर की सोच बदलने में इस साज़िश वाली थ्योरी की बड़ी भूमिका हो सकती है.

हाल के महीनों में QAnon का क़िस्सा जंगल में लगी आग की तरह फैला है. ये अब इंटरनेट पर कोई छुटपुट सी कॉन्सपिरेसी थ्योरी नहीं रही. बल्कि, नवंबर में होने वाले चुनाव से पहले QAnon अब मुख्य़धारा के राजनीतिक संवाद का हिस्सा बन चुकी है. और इससे भी अधिक अहम बात ये है कि इस थ्योरी का समर्थन करने वालों ने अपने दिल में इसका विरोध करने वालों के प्रति नफ़रत बैठा ली है. QAnon पर भरोसा करने वाले लगातार ये दावा कर रहे हैं कि अगर चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी की जीत होती है, तो इससे क़यामत आ जाएगी. इस विचार को QAnon के एक समर्थक ने इन शब्दों में बख़ूबी बयां किया है, मुझे लगता है कि अगर जो बाइडेन चुनाव जीत जाते हैं, तो समझिए कि दुनिया ख़त्म हो जाएगी.’ ऐसे में QAnon का सबसे बड़ा ख़तरा यही है कि वो लोगों के ज़हन में विरोधियों के बारे में इतना गहरा भय बैठा देते हैं कि, उनके हिसाब से अगर दुश्मन जीत गया तो तबाही मच जाएगी.

हाल ही में कराए गए एक सर्वे के मुताबिक़, रिपब्लिकन पार्टी के 56 प्रतिशत समर्थक मानते हैं कि साज़िश की ये थ्योरी या तो काफ़ी हद तक, या फिर पूरी तरह से सच है.

सोशल मीडिया और QAnon से जुड़े शोरशराबे का विस्तार. ये एक समस्या क्यों है?

आज इंटरनेट और सोशल मीडिया पर हमारे ज़्यादातर संवाद पर गूगल और फ़ेसबुक का नियंत्रण है. QAnon के समर्थक लगातार इस शब्द को एक हैशटैग की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं. और इसकी मदद से ऐसा डिजिटल कंटेंट तैयार कर रहे हैं, जो नियमित रूप से डेमोक्रेटिक पार्टी के नेताओं को निशाना बनाता है. और लोगों को आने वाली क़यामत का ख़ौफ़ दिखाता है. ट्विटर पर, वर्ष 2019 में दो करोड़, 22 लाख, 32 हज़ार 285 ट्वीट ऐसे किए गए, जहां पर या तो #QAnon हैशटैग का इस्तेमाल हुआ या इसी से संबंधित अन्य हैशटैग जैसे कि #Q, #Qpatriot और #TheGreatAwakening का प्रयोग करने लोगों ने अपने मैसेज लिखे. यानी हर दिन QAnon से संबंधित औसतन 60 हज़ार 910 ट्वीट किए गए. इसकी तुलना में, वर्ष 2019 में #MeToo से संबंधित ट्वीट की संख्या 52 लाख, 31 हज़ार 928 ही थी. या फिर #climatechange हैशटैग के साथ केवल 75 लाख, दस हज़ार 3111 ट्वीट ही किए गए. इसी से ज़ाहिर हो जाता है कि किस तरह वर्चुअल दुनिया में रची गई साज़िश की एक कहानी, इंटरनेट पर हो रहे बाक़ी सभी संवादों पर भारी पड़ रही है. QAnon की चर्चा, अंतरराष्ट्रीय स्तर संस्थागत अन्याय से होने वाले नुक़सान के ख़िलाफ़ उठाई जा रही आवाज़ों से ज़्यादा तेज़ है.

QAnon के अनुयायी लगातार ‘ऑनलाइन युद्ध’ करते रहते हैं. वो डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रत्याशियों का मज़ाक़ उड़ाते हैं. और ऑनलाइन दुनिया में उनकी ग़लत जानकारियों के सहारे तर्क गढ़ने की रणनीति काफ़ी मददगार साबित होती है. चुनाव के नतीजों या इनका रुख़ तय करने में सोशल मीडिया का असर काफ़ी प्रभावी होता है. और QAnon के समर्थक इस बात का बख़ूबी लाभ उठा रहे हैं. पिछले बसंत सीज़न में QAnon की साज़िश का प्रचार करने वालों ने लूसियाना और केंटकी के चुनावों को काफ़ी प्रभावित किया था. उन्होंने #vote #VoteonNov5 जैसे हैशटैग की मदद से ट्वीट और मीम के ज़रिए रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशियों का प्रचार किया. और उनके विरोधियों को बदनाम करने में पूरी ताक़त लगा दी. इससे, दूसरे पक्ष के लोग एक पार्टी के पक्ष में मैसेज करते हैं. सोशल मीडिया पर अभियान चलाते हैं. उन्हें सरकारी व्यवस्था का मसीहा साबित करते हैं. ये परिवर्तन ही अपने आप में एक साज़िश है. और इसके समर्थक एक बदलाव के लिए पूरी ताक़त लगा रहे हैं. ज़ाहिर है QAnon को एक हथियार बनाकर राजनीतिक हित साधने की कोशिश की जा रही है. और अब इससे वोटर की सोच को प्रभावित किया जा रहा है. लोगों की निजी पसंद या नापसंद को बदलने की कोशिश हो रही है. इसके अलावा चुनाव के मैदान में उतरे नेताओं के प्रति अविश्वास पैदा करने की कोशिश हो रही है.

फ़ेसबुक पर किसी यूज़र की पसंद या सुझाव पर उस समय चल रहे ट्रेंड का काफ़ी असर होता है. सीधे तौर पर कहें तो, किसी व्यक्ति की फ़ेसबुक फीड पर QAnon से संबंधित सुझावों की तब बाढ़ आ जाती है, जब वो ट्रंप या रिपब्लिकन पार्टी को फॉलो करने लगते हैं. सोशल मीडिया की इको चैम्बर बनाने की ये प्रवृत्ति और अपने ग्राहकों को उसकी पक्षपाती सोच को बढ़ावा देने वाली ख़बरें देने से केवल QAnon से जुड़ा शोर बढ़ेगा ही. रिपब्लिकन पार्टी के समर्थकों की न्यूज़ फीड में QAnon से जुड़े समाचारों की भरमार होगी. फिर वो एक जैसी विश्व दृष्टि अपनाने वाले बन जाएंगे. ऐसे में मतदाताओं की निजी पसंद निर्णायक साबित हो सकती है.

QAnon के अनुयायी लगातार ‘ऑनलाइन युद्ध’ करते रहते हैं. वो डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रत्याशियों का मज़ाक़ उड़ाते हैं. और ऑनलाइन दुनिया में उनकी ग़लत जानकारियों के सहारे तर्क गढ़ने की रणनीति काफ़ी मददगार साबित होती है.

हालांकि, QAnon की बढ़ती अपील के कुछ मनोवैज्ञानिक पहलू भी हैं. जिनके कारण ये सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है. और इस कारण से आने वाले चुनाव में ये एक बड़ी चुनौती बन सकता है. QAnon या ऐसी ही साज़िशों के अन्य विचारों से लगाव की शुरुआत पहचान के ख़ालीपन से होती है. लोगों को लगता है कि उनकी अपनी कोई पहचान नहीं है. फिर वो किसी न किसी समूह से जुड़ कर अपनी नई पहचान बनाना चाहते हैं. एक समूह के तौर पर पहचान की ये ज़रूरत और किसी पक्ष का हिस्सा बनने की चाहत हमारी प्राकृतिक विकास की प्रक्रिया का हिस्सा है. ऐसी विचारधाराओं के समर्थक, लोगों की इस क़ुदरती ख़्वाहिश का लाभ उठाकर सामाजिक तौर पर पहचान के संकट को दूर करने का दावा करते हैं. वो अपने समर्थकों को यक़ीन दिलाते हैं कि वो दूसरों से अलग हैं. QAnon के समर्थक वास्तविक दुनिया में हिंसा के भागीदार बनते हैं. इसकी मिसाल हम उस कुख्यात घटना के तौर पर देखते हैं, जब समर्थक ने एक हाइवे पर अपने हथियारबंद वाहन की मदद से ट्रैफिक को रोक लिया था. ये इस बात की मिसाल है कि साज़िश पर यक़ीन करने वाले अपने समर्थकों की संख्या को बढ़ाने के लिए और अपनी कुछ मनोवैज्ञानिक ज़रूरतें पूरी करने के लिए किस हद तक जा सकते हैं. जिससे कि वो किसी ख़ास समूह से अपने जुड़ाव को साबित कर सकें.

QAnon की बढ़ती अपील के कुछ मनोवैज्ञानिक पहलू भी हैं. जिनके कारण ये सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है. और इस कारण से आने वाले चुनाव में ये एक बड़ी चुनौती बन सकता है. QAnon या ऐसी ही साज़िशों के अन्य विचारों से लगाव की शुरुआत पहचान के ख़ालीपन से होती है.

किसी एक समूह का हिस्सा बनने के एहसास के अलावा, अन्य कॉन्सपिरेसी थ्योरीज़ की तरह QAnon का क़िस्सा भी पेचीदा सवालों के सीधे सपाट जवाब देने की कोशिश है. ये अपनी बात पर विश्वास करने वालों को भरोसा दिलाता है कि कुछ घटनाएं किसी मक़सद से होती हैं. और जो कुछ भी बुरा हो रहा है, उसका ताल्लुक़ किसी न किसी कारण से उस ‘डीप स्टेट’ से है, जो डोनाल्ड ट्रंप को किसी भी क़ीमत पर चुनाव हरवाना चाहता है. इससे भी अधिक बात ये है कि साज़िश की कहानियां गढ़ने वाले कुछ ऐसे क़िस्से भी बना लेते हैं, जिनसे इनकार कर पाना मुश्किल होता है. जैसे कि विरोधी बच्चों के सेक्स रैकेट चलाने के आरोप लगाना. ऐसे हास्यास्पद दावे करके, वो अपने समर्थकों को ये भरोसा देते हैं कि उन्हें कुछ ख़ास राज़ मालूम हैं. और इसीलिए वो दुनिया में सबसे अलग हैं. इसीलिए, QAnon की साज़िश का प्रचार करने वाले लोगों को स्थिति पर नियंत्रण होने, स्पष्टता और एक समूह के तौर पर मज़बूत होने जैसे एहसास देते हैं. यही कारण है कि लोग इस पर यक़ीन करते हैं. ऐसे में रिपब्लिकन पार्टी का समर्थन करने से उनके समर्थकों के वोटरों की सोच पर भी प्रभाव पड़ता है. धीरे धीरे जिस तरह से QAnon के समर्थकों का दायरा बढ़ रहा है, वो ऑनलाइन दुनिया में उनकी पहुंच को ही दर्शाता है.

सत्ताधारी वर्ग में अविश्वास का लाभ उठाना

QAnon का आंदोलन, सरकार की व्यवस्था के प्रति लोगों के बढ़ते अविश्वास का भी लाभ उठा रहा है. ये सत्ताधारी वर्ग के ऊपर आम नागरिकों के बढ़ते अविश्वास का भी प्रतीक है. एक संरक्षणवादी दुनिया में आम नागरिक, बाक़ी विश्व से कट जाते हैं. उन पर निगरानी और निजता के ख़ात्मे का ख़तरा सवार हो जाता है. क्योंकि हमारी ज़िंदगी में बड़ी कंपनियों की डेटा माइनिंग की दख़लंदाज़ी बहुत बढ़ गई है. और इस कारण से सरकार और उसके द्वारा किए जाने वाले कामों के प्रति जनता का अविश्वास लगातार बढ़ता जा रहा है. QAnon जैसी वर्चुअल दुनिया की साज़िशों के क़िस्से, इसी का लाभ उठाकर अपना दायरा बढ़ा रहे हैं.

ये अविश्वास केवल सरकार पर सवाल उठाने के रूप में ज़ाहिर नहीं होता. बल्कि, सीधे तौर पर सरकार में अविश्वास जताने के तौर पर ज़ाहिर होता है. QAnon के मामले को ही लें, यहां पर ट्रंप के हर विरोधी को दुश्मन मान लिया गया है. ऑनलाइन दुनिया की कॉन्सपिरेसी थ्योरी को एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है. उसकी मदद से एक राजनीतिक आंदोलन खड़ा किया जा रहा है, जिसके कारण नागरिक कुछ बातों को अपने हाथ में ले रहे हैं. और ये बात बहुत चिंताजनक है. ‘पिज़्ज़ागेट’ की घटना इस बात की मिसाल है कि आज देश की आम जनता सत्ता में बैठे समाज के कुलीन वर्ग पर किस हद तक अविश्वास करती है. ऐसे में कुछ नेताओं पर पिज़्ज़ा की दुकान की आड़ में यौन शोषण के लिए बच्चों की तस्करी के आरोप को मिला दें, तो उससे नेताओं के प्रति नफ़रत और बढ़ जाती है. फिर इसका सीधा असर फौरी हिंसक गतिविधियों के तौर पर दिखता है.

निष्कर्ष

 

QAnon को एक हास्यास्पद साज़िश का एक और क़िस्सा कहना और इसके समर्थकों को सनकी या राह से भटके हुए कह कर ख़ारिज करना बेहद आसान है. लेकिन, QAnon और इसके अनुयायियों को बेवक़ूफ़ी कहने से इसकी अपील और लोकप्रियता और बढ़ जाएगी. इससे और अधिक लोग इस षडयंत्रकारी विचार से प्रभावित होंगे. साज़िश की ऐसी कहानियां अपने अनुयायियों पर बहुआयामी प्रभाव डालती हैं. इससे उन्हें अपनी अहमियत का एहसास होने, आत्मविश्वास बढ़ने और हालात पर नियंत्रण होने की अनुभूति होती है. ऐसे में QAnon को लोगों के लिए लुभावना प्रचार साबित होने से रोकने के लिए, इस पर विश्वास करने वालों से हमदर्दी जताने की ज़रूरत है. वरना अगर लोग पूर्व विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन की तरह इसे ‘निंदनीय लोगों का समूह’ कह कर ख़ारिज करेंगे तो, कुलीन वर्ग के ख़िलाफ़ लोगों की भावना और भी भड़केगी. हालांकि, ज़मीनी स्तर पर लोगों की सोच में बदलाव लाने और वैचारिक बदलाव का असर होने में समय लगता है. इसके लिए सघन प्रयास करने पड़ते हैं. अब जबकि अमेरिका में चुनाव बेहद क़रीब हैं, तो पहली कोशिश इस बात की होनी चाहिए कि ऐसी कॉन्सपिरेसी थ्योरी को बढ़ावा देने से होने वाले नुक़सान को सीमित किया जा सके. लोगों पर इस ग़लत सूचना के प्रभाव को रोका जा सके. QAnon के चुनाव के नतीजे प्रभावित करने की क्षमता को सीमित किया जाना ही पहली प्राथमिकता होना चाहिए.

मतदान करना अक्सर ऐसा फ़ैसला होता है, जो तथ्यों के आधार पर नहीं, बल्कि सामान्य स्वभाव के आधार पर किया जाता है. ऐसे में QAnon का बढ़ता प्रभाव, फिर चाहे आभासी दुनिया का हो या वास्तविकता के धरातल पर, वो अमेरिका के मतदाताओं के एक बड़े वर्ग को प्रभावित करने की क्षमता रखता है. नवंबर में होने वाले अमेरिकी चुनाव बेहद क़रीब हैं. और QAnon का वायरल होना, मतदाताओं के ऊपर गहरा असर डालने की क्षमता रखता है. ऐसे में सोशल मीडिया कंपनियों को इस आशंका को स्वीकार करना होगा. जिससे कि वो साफ सुथरी डिजिटल दुनिया की उपलब्धता सुनिश्चित कर सकें. जिससे QAnon और ऐसे ही दुष्प्रचार को लोगों की न्यूज़ फीड का हिस्सा बनने से रोका जा सके. और इससे लोगों की मतदान की पसंद नापसंद प्रभावित होने से भी रोका जा सके.

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