Author : Navdeep Suri

Published on Jul 18, 2022 Updated 29 Days ago

आज तेल के दाम में लगी आग से परेशान ग्राहकों को राहत देने के लिए राष्ट्रपति बाइडेन को सऊदी अरब को लेकर अपना रुख़ बदलना पड़ा है, और रिश्तों में नई जान डालने के लिए वहां दौरा करना पड़ा है.

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन का सऊदी अरब दौरा; बुझे मन और कड़वाहट के बीच हुई अहम् मुलाक़ात!

सऊदी अरब की सालाना हज तीर्थयात्रा 12 जुलाई 2022 को ख़त्म हो गई और इसके साथ ही मनाए जाने वाले बकरीद के त्यौहार की रौनक़ अभी फ़ीकी भी नहीं पड़ी थी, जब जेद्दाह शहर को पश्चिम से बेमन से आए एक तीर्थयात्री, राष्ट्रपति जो बाइडेन के स्वागत की तैयारी करनी पड़ गई. जो बाइडेन का सऊदी अरब आना एक अजीब और अटपटा सा दौरा रहा. ये बिल्कुल साफ है कि बाइडेन, सऊदी अरब नहीं जाना चाहते थे और उससे भी ज़्यादा पुख़्ता बात तो ये है कि उन्हें सऊदी अरब के युवराज शेख़ मुहम्मद बिन सलमान (MbS) से मिलने की क़तई ख़्वाहिश नहीं थी. इसके पीछे जो कारण हैं, उनका अंदाज़ा लगाना इतना मुश्किल भी नहीं है.

रिश्तों में कड़वाहट 

ज़ाहिर है कि राष्ट्रपति चुनाव के अपने प्रचार अभियान के दौरान, जो बाइडेन ने तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और मुहम्मद बिन सलमान के गर्मजोशी से गले लगने के बारे में गंभीरता से विचार नहीं किया था. मई 2017 में जब डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति के तौर पर पहले विदेश दौरे की योजना बनी, तो सऊदी अरब को बहुत सावधानी से ट्रंप की पहली मंज़िल के तौर पर चुना गया था. उस वक़्त अमेरिका और सऊदी अरब के बीच दस साल के लिए 350 अरब डॉलर क़ीमत वाले हथियारों के सौदे की ख़ूब चर्चा हो रही थी. ट्रंप के दामाद जेयर्ड कुशनर के प्रिंस सलमान और उनकी टीम से बहुत अच्छे संबंध थे. ऐसे में जब पत्रकार जमाल ख़शोग्गी की हत्या और शव को टुकड़ों में काटने को लेकर ट्रंप प्रशासन ने सऊदी अरब की बहुत तीखी आलोचना से बचने की कोशिश की, तो किसी को हैरानी नहीं हुई. राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के तौर पर बाइडेन ने अमेरिका के इस नज़रिये को बदलने का वादा किया था. तब बाइडेन ने कहा था कि वो ‘सऊदी अरब को ख़शोग्गी के क़त्ल की क़ीमत अदा करने को मजबूर करेंगे और पूरी दुनिया में अलग थलग कर देंगे’, क्योंकि वो हैं ही अछूत. जो बाइडेन के चुनाव जीतने के बाद, अमेरिका के एजेंडे मानव अधिकारों का मुद्दा एक बार फिर अहम हो गया था. बाइडेन ने न केवल वो ख़ुफ़िया रिपोर्ट जारी कि जिसमें ख़शोग्गी की हत्या के लिए प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान को ज़िम्मेदार ठहराया गया था, बल्कि उन्होंने प्रिंस सलमान से कोई संबंध रखने तक से इनकार कर दिया था. 

पत्रकार जमाल ख़शोग्गी की हत्या के अलावा, सऊदी अरब और अमेरिका के बीच दूसरा बड़ा मुद्दा ईरान के साथ परमाणु समझौते को लेकर चल रही बातचीत रही. बाइडेन प्रशासन ने सत्ता में आने के बाद से ही सऊदी अरब के दुश्मन ईरान के साथ बराक ओबामा के दौर में हुए परमाणु समझौते (JCPOA) को लेकर दोबारा बातचीत शुरू कर दी थी.

सऊदी अरब के अपने दौरे के दौरान, बाइडेन ने प्रिंस सलमान के साथ बातचीत में ख़शोग्गी की हत्या का मुद्दा भी उठाया. लेकिन, प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान ने इसमें अपना हाथ होने से साफ़ इनकार कर दिया. हालांकि बाइडेन ने कहा कि वो प्रिंस सलमान की सफ़ाई से सहमत नहीं हैं. ज़ाहिर है, बाइडेन के बेमन से किए गए इस दौरे के बाद, सऊदी अरब और अमेरिका के रिश्तों की कड़वाहट कम होने के बजाय और बढ़ गई लगती है.

पत्रकार जमाल ख़शोग्गी की हत्या के अलावा, सऊदी अरब और अमेरिका के बीच दूसरा बड़ा मुद्दा ईरान के साथ परमाणु समझौते को लेकर चल रही बातचीत रही. बाइडेन प्रशासन ने सत्ता में आने के बाद से ही सऊदी अरब के दुश्मन ईरान के साथ बराक ओबामा के दौर में हुए परमाणु समझौते (JCPOA) को लेकर दोबारा बातचीत शुरू कर दी थी. अमेरिका के विदेश मंत्री एंथनी ब्लिंकेन ने भी फ़ुर्ती दिखाते हुए, फरवरी 2021 में सऊदी अरब के विरोधी यमन के हूथी विद्रोहियों को विदेशी आतंकी संगठन और ख़ास तौर से वैश्विक आतंकी घोषित किए जाने की लिस्ट से हटा दिया था. सऊदी अरब (और संयुक्त अरब अमीरात) की नज़र में अमेरिका के इस क़दम से सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) में तेल के ठिकानों को ड्रोन और मिसाइल हमलों से निशाना बनाने का हूथी विद्रोहियों का हौसला और बढ़ गया था.

बाइडेन के सऊदी अरब दौरे के दौरान, एक व्यापक मसला ये भी था कि चीन पर सामरिक रूप से ध्यान केंद्रित करते हुए, अमेरिका ने अपना ज़्यादा ध्यान एशिया प्रशांत क्षेत्र पर लगाना शुरू कर दिया था. हालांकि, इसका ये मतलब क़तई नहीं था कि, इसके बदले में अमेरिका पश्चिमी एशिया से अपने क़दम पीछे खींच रहा था. लेकिन, इससे धारणा यही बनी कि तेल के मामले में आत्मनिर्भर अमेरिका का अब इस क्षेत्र में कोई ख़ास हित नहीं रह गया था. जनवरी 2022 में जब हूथी विद्रोहियों ने संयुक्त अरब अमीरात में ADNOC के ठिकानों पर ड्रोन से हमला किया और उसके बाद मार्च 2022 में सऊदी अरब की कंपनी अरामको (ARAMCO) के ठिकानों को निशाना बनाया, तो अमेरिका की प्रतिक्रिया बहुत रुख़ी सी रही थी. इससे ये डरावना संदेश भी गया कि खाड़ी क्षेत्र में अमेरिका का सुरक्षा कवच अब किसी काम का नहीं रह गया था. सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने इसके बदले में जो क़दम उठाया वो बेहद अप्रत्याशित और अभूतपूर्व था. जैसी यूक्रेन में जंग शुरू हुई और पश्चिमी देशों ने रूस पर प्रतिबंध लगाया, तो तेल के दामों में आग लग गई. कच्चे तेल के दाम 130 डॉलर प्रति बैरल के पार चले गए. तब राष्ट्रपति बाइडेन ने सऊदी अरब के प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान, और संयुक्त अरब अमीरात के शेख़ मुहम्मद बिन ज़ायद से बात करने की कोशिश की. क्योंकि, इन दोनों देशों के पास ही ऐसी क्षमता है कि वो तेज़ी से तेल का उत्पादन बढ़ाकर कच्चे तेल की क़ीमतों में लगी आग बुझाने की ताक़त रखते हैं. लेकिन, दोनों ही देशों ने बाइडेन की इस पहल को तगड़ा झटका देते हुए उनसे बात करने से इनकार कर दिया. इसके बदले प्रिंस सलमान और शेख़ ज़ायद ने रूस के राष्ट्रपति पुतिन से मार्च महीने के उसी हफ़्ते में बात ज़रूर की. ऐसा करके दोनों ही देशों ने बाइडेन प्रशासन से अपनी नाख़ुशी का इज़हार कर दिया.

कच्चे तेल के दाम 130 डॉलर प्रति बैरल के पार चले गए. तब राष्ट्रपति बाइडेन ने सऊदी अरब के प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान, और संयुक्त अरब अमीरात के शेख़ मुहम्मद बिन ज़ायद से बात करने की कोशिश की. क्योंकि, इन दोनों देशों के पास ही ऐसी क्षमता है कि वो तेज़ी से तेल का उत्पादन बढ़ाकर कच्चे तेल की क़ीमतों में लगी आग बुझाने की ताक़त रखते हैं. लेकिन, दोनों ही देशों ने बाइडेन की इस पहल को तगड़ा झटका देते हुए उनसे बात करने से इनकार कर दिया.

इस बीच पश्चिमी एशिया के कुछ अहम देशों ने आपसी रिश्तों में खटास लाने वाले कई मसलों को हल करने के लिए ख़ुद ही आगे क़दम बढ़ाया. सऊदी अरब की पहल से, चार अरब देशों यानी मिस्र, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन का क़तर से चला आ रहा विवाद कुछ हद तक सुलझ गया. इसी तरह तुर्की ने कुछ तो अपनी आर्थिक चुनौतियों और कुछ अन्य कारणों से सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) से टकराव ख़त्म किया. दोनों ही देशों ने तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन की मेज़बानी की. सीरिया को भी अरब देशों के ख़ेमे में वापस लाने की कोशिश हो रही है. मार्च 2022 में सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद का अबू धाबी दौरा तो इसी तरफ़ इशारा कर रहा है. वैसे तो फिलिस्तीन और ईरान के मुद्दे अभी जस के तस हैं, लेकिन हाल के वर्षों में खाड़ी देशों के बीच विवाद के कई अन्य मसलों का हल होता दिख रहा है. सऊदी अरब और ईरान के बीच मध्यम दर्जे की वार्ता में मध्यस्थ की भूमिका अदा करके इराक़, पश्चिमी एशियाई देशों के बीच अपना पुराना क़द दोबारा हासिल करने की कोशिश कर रहा है. हालांकि, बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि पश्चिमी देशों और ईरान के बीच परमाणु समझौते (JCPOA) को फिर से ज़िंदा करने, और ईरान के रिवोल्यूशनरी गार्ड्स कोर के दर्जे को दोबारा बहाल करने की कोशिश किस हद तक रंग लाती है. लेकिन, फिलिस्तीन का मुद्दा अधर में लटका हुआ है और ये देखना दिलचस्प होगा कि क्या बाइडेन के पश्चिम एशिया दौरे से इसमें नई जान पड़ेगी.

बाइडेन के लिये पश्चिम एशिया महत्वपूर्ण क्यों?

ऐसे हालात में सवाल ये है कि आख़िर बाइडेन को पश्चिमी एशिया का दौरा करने की ज़रूरत क्यों पड़ी? निश्चित रूप से बाइडेन के इस दौरे का मक़सद उनकी लोकप्रियता में इज़ाफ़ा करना नहीं है. क्योंकि नील्सन- स्कारबोरो के एक हालिया ओपिनियन पोल के मुताबिक़, इसमें शामिल एक चौथाई से भी कम लोगों ने बाइडेन के इस दौरे का समर्थन किया था. राष्ट्रपति बाइडेन ने बेहद असामान्य क़दम उठाते हुए, 10 जुलाई को वॉशिंगटन पोस्ट में ‘मैं सऊदी अरब क्यों जा रहा हूं?’ के नाम से जो लेख लिखा, हो सकता है कि उसकी वजह यही ओपिनियन पोल रही हो. इस लेख में राष्ट्रपति बाइडेन ने इस दौरे के पीछे के कुछ तर्क इस तरह के बयां किए थे; ‘मेरे इस दौरे का पहला मक़सद एक ऐसे देश के साथ रिश्ते ख़राब करने के बजाय उन्हें नई दिशा देना है, जो पिछले 80 बरस से हमारा सामरिक साझीदार रहा है. आज सऊदी अरब ने खाड़ी सहयोग परिषद (GCC) के छह देशों के बीच एकजुटता स्थापित करने में मदद की है. वो यमन में शांति बहाल करने की कोशिशों का पूरा समर्थन कर रहा है और अब मेरे विशेषज्ञों और OPEC के अन्य तेल उत्पादक देशों के साथ मिलकर तेल की क़ीमतों को स्थिर करने में मदद कर रहा है.’ 

सऊदी अरब ने भी ऐसे कई संकेत दिए हैं कि वो इज़राइल के साथ संबंध सामान्य बनाने के ख़िलाफ़ नहीं है. लेकिन, वो ऐसा क़दम उठाने के लिए सही समय और हालात का इंतज़ार करेगा. इज़राइल में जो बाइडेन की वार्ता और यरूशलम से सीधे जेद्दाह के लिए उनकी हवाई यात्रा, सऊदी अरब और इज़राइल के नज़दीक आने की प्रक्रिया को शायद कुछ और रफ़्तार देगी.

अमेरिका की अर्थव्यवस्था के लिहाज़ से ये आख़िरी बात ख़ास तौर से बहुत अहम है. मई महीने में अमेरिका में तेल की क़ीमत पांच डॉलर प्रति गैलन से ज़्यादा थी और महंगाई दर 8.6 फ़ीसद से अधिक थी. इसके और ऊपर जाने की आशंका और अमेरिका के केंद्रीय बैंक फेडरल रिज़र्व द्वारा महंगाई से मुक़ाबला करने के लिए कई बार ब्याज दरें बढ़ाने के एलान के चलते अमेरिका की आर्थिक तस्वीर उस वक़्त अच्छी बनती नहीं दिख रही है, जब राष्ट्रपति बाइडेन की डेमोक्रेटिक पार्टी, नवंबर में मध्यावधि चुनावों की तैयारी कर रही है. अगर इन चुनावों में  डेमोक्रेटिक पार्टी, सीनेट की एक दो सीटें भी हार जाती है, तो इससे उनके विधायी एजेंडे को तगड़ा झटका लग सकता है. इसी वजह से बाइडेन, सऊदी अरब का दौरा करने और प्रिंस सलमान से मुलाक़ात करने को तैयार हुए. उन्हें उम्मीद थी कि इस दौरे में वो खाड़ी सहयोग परिषद (GCC) के अन्य सदस्य देशों से मिल सकेंगे, जिससे न सिर्फ़ अमेरिका और सऊदी अरब के रिश्तों में नया मोड़ आएगा, बल्कि, उनके देश की अर्थव्यवस्था को भी तेल के ऊंचे दाम से शायद कुछ राहत मिल जाए. ऐसा होगा या नहीं, अभी ये देखना बाक़ी है.

लेकिन, बाइडेन का ये दौरान सिर्फ़ तेल के दाम और अर्थव्यवस्था से नहीं जुड़ा था. इस दौरे के एजेंडे में कम से कम तीन और अहम तत्व भी शामिल थे. आज जब वियना में ईरान के साथ परमाणु समझौते (JCPOA) को लेकर चल रही बातचीत किसी नतीजे की तरफ़ बढ़ रही है, तो अमेरिका इस समझौते को लेकर खाड़ी सहयोग परिषद के देशों को भी विश्वास में लेना चाह रहा था. ये बेहद अहम है, क्योंकि जब ओबामा प्रशासन ने ईरान के साथ परमाणु समझौता किया था, तो सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों के साथ कोई सलाह मशविरा नहीं किया था. इसके बाद इन देशों ने समझौते के ख़िलाफ़ अमेरिका में ज़बरदस्त लॉबीइंग की थी. इसका नतीजा उस वक़्त देखने को मिला जब ट्रंप प्रशासन ने सत्ता की कमान संभाली.

इस दौरे का एक और पहलू जो शायद ग़लत भी हो, वो ये हो सकता है कि बाइडेन के सऊदी अरब दौरे से इज़राइल ख़ुश हो जाएगा और इससे उनकी सरकार को लेकर यहूदी समदाय के रवैये में बदलाव आएगा. ये हितों के मेल का अजीब इत्तिफ़ाक़ है. लेकिन, अब्राहम समझौतों के ज़रिए इज़राइल और संयुक्त अरब के रिश्ते सामान्य करने में मिली कामयाबी के बाद अब अगला क़दम सऊदी अरब पर केंद्रित है. सऊदी अरब ने भी ऐसे कई संकेत दिए हैं कि वो इज़राइल के साथ संबंध सामान्य बनाने के ख़िलाफ़ नहीं है. लेकिन, वो ऐसा क़दम उठाने के लिए सही समय और हालात का इंतज़ार करेगा. इज़राइल में जो बाइडेन की वार्ता और यरूशलम से सीधे जेद्दाह के लिए उनकी हवाई यात्रा, सऊदी अरब और इज़राइल के नज़दीक आने की प्रक्रिया को शायद कुछ और रफ़्तार देगी.

GCC, इज़राइल और अमेरिका का सुरक्षा कवच

और आख़िर में सऊदी अरब ये चाहेगा कि उसकी सुरक्षा संबंधी चिंताओं को लेकर अमेरिका एक मज़बूत रुख़ अपनाए. कुछ विश्लेषकों ने इस क्षेत्र को रूस और चीन के प्रभाव में आने से बचाने के लिए नेटो की तरह की सुरक्षा गारंटी देने का विचार पेश किया है. हालांकि, मौजूदा हालात में ये क़दम कुछ ज़्यादा ही साहसिक और मुश्किल माना जाएगा. मौजूदा हालात वैसी दो ख़ेमों वाली परिकल्पना के लिए मुफ़ीद नहीं हैं, जिसके बारे में 1980 में जिम्मी कार्टर प्रशासन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ज़िबिग्न्यू ब्रेज़िंस्की ने सपाट लहज़े में कहा था कि, ‘मैं अमेरिका की स्थिति बिल्कुल साफ़ कर देना चाहता हूं: किसी भी बाहरी ताक़त द्वारा फ़ारस की खाड़ी क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश को अमेरिका के अहम हितों पर हमला माना जाएगा और ऐसे किसी भी हमले का मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा. इस पलटवार में सैन्य ताक़त का इस्तेमाल भी शामिल है.’ आज अमेरिका की चुनौती, अफ़ग़ानिस्तान में तब तैनात रही सोवियत फौज नहीं है, बल्कि चीन द्वारा खाड़ी देशों में धीरे धीरे लगाई जा रही आर्थिक और सामरिक सेंध है. सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन जैसे देशों के लिए सबसे बड़ी चुनौती तो ईरान द्वारा अपने पालतू मोहरों के ज़रिए इस्तेमाल किए जाने वाले ग़ैर पारंपरिक तौर तरीक़े हैं. ईरान के ये मोहरे मिसाइल और ड्रोन के ज़रिए इन देशों को निशाना बनाते हैं, जिससे ईरान के लिए हमलों में अपना हाथ होने से इनकार करना आसान हो जाता है. ये देखना दिलचस्प होगा कि बाइडेन के इस दौरे के बाद इन मसलों का किस तरह से निपटारा होता है.

आज अमेरिका की चुनौती, अफ़ग़ानिस्तान में तब तैनात रही सोवियत फौज नहीं है, बल्कि चीन द्वारा खाड़ी देशों में धीरे धीरे लगाई जा रही आर्थिक और सामरिक सेंध है.

भारत की नज़र से देखें तो बाइडेन के इज़राइल दौरे के दौरान, पश्चिमी एशिया का नया क्वॉड कहे जाने वाले I2U2 का पहला वर्चुअल शिखर सम्मेलन था. इसमें इज़राइल, संयुक्त अरब अमीरात और अमेरिका के नेताओं के साथ भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शिरकत की. जिसमें अमेरिका और इज़राइल की तकनीक और संयुक्त अरब अमीरात के निवेश से भारत में फूड पार्क स्थापित करने पर सहमति बनी. इससे भारत के लिए नए आर्थिक और दूसरे तरह के अवसरों के दरवाज़े खुले हैं. हालांकि, बाइडेन के पश्चिमी एशिया दौरे का सबसे अहम हिस्सा उनका सऊदी अरब का पड़ाव ही रहा. अब ये देखना बाक़ी है कि इससे अमेरिका और सऊदी अरब के रिश्ते किस हद तक सुधरते हैं.

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