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पिछले दिनों पेरिस समझौते से अमेरिका के हटने की वजह से जलवायु को लेकर वैश्विक उपायों में एक महत्वपूर्ण कमी पैदा हो गई है. कुछ ही महीने पहले अमेरिका ने कॉप 29 (अज़रबैजान में आयोजित जलवायु परिवर्तन सम्मेलन) के दौरान 300 अरब अमेरिकी डॉलर के नए जलवायु वित्त लक्ष्य में महत्वपूर्ण राशि देने का वादा किया था जो कि जलवायु संकट से निपटने के मामले में नए सिरे से प्रतिबद्धता का संकेत था. लेकिन अचानक इस तरह से फैसला बदलना न केवल जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने में सामूहिक प्रयासों को कमज़ोर करता है बल्कि वैश्विक जलवायु वित्त के टिकाऊ होने के बारे में गंभीर सवाल भी खड़े करता है.
परिवर्तनकारी जलवायु उपाय को सक्षम बनाने में वित्त की केंद्रीय भूमिका है, चाहे वो उत्सर्जन कम करने के लिए नवीकरणीय ऊर्जा की परियोजनाओं के माध्यम से हो या ऐसी पहल हों जो बुनियादी ढांचे और कृषि में लचीलापन को बढ़ावा देते हैं. ये ग्लोबल साउथ (विकासशील देश) के देशों के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है जो जलवायु संकट का खामियाजा उठा रहे हैं लेकिन इसका समाधान करने के लिए वित्तीय रूप से सक्षम नहीं हैं. ये असमानता पूरी तरह स्पष्ट है: विकासशील देश वैश्विक उत्सर्जन में सबसे कम योगदान देते हैं लेकिन इसके बावजूद उन्हें सबसे गंभीर परिणाम भुगतने पड़ते हैं. पेरिस समझौता साझा लेकिन अलग-अलग ज़िम्मेदारियों (CBDR) के सिद्धांत के माध्यम से इस असंतुलन को दूर करना चाहता है. इसके तहत सबसे ज़्यादा प्रदूषण फैलाने वाले ग्लोबल नॉर्थ (विकसित देश) से अनुरोध किया गया कि वो समाधान के लिए ज़्यादा बोझ उठाएं. लेकिन वित्तीय प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में बार-बार की विफलता ने जलवायु वित्त के अंतर को बढ़ा दिया है. इसकी वजह से जलवायु संकट के प्रति असुरक्षित देश तेज़ी से जलवायु ख़तरों के संपर्क में आ रहे हैं.
पेरिस समझौता साझा लेकिन अलग-अलग ज़िम्मेदारियों (CBDR) के सिद्धांत के माध्यम से इस असंतुलन को दूर करना चाहता है.
रेखाचित्र 1: 2050 तक वैश्विक स्तर पर जलवायु वित्त और अनुमानित आवश्यकता पर नज़र

स्रोत: क्लाइमेट पॉलिसी इनिशिएटिव (CPI), 2024
फंड में कमी से आगे जलवायु वित्त की गुणवत्ता भी एक गंभीर चिंता बनी हुई है. 2023 में सार्वजनिक जलवायु वित्त का 67 प्रतिशत जलवायु संकट को कम करने के प्रयासों के लिए आवंटित किया गया. इस तरह अनुकूलन के लिए केवल 33 प्रतिशत बचा. उत्सर्जन को कम करना महत्वपूर्ण है लेकिन शून्य उत्सर्जन (नेट ज़ीरो) की तरफ बदलाव जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभाव से काफी पीछे है. उदाहरण के लिए, गयाना का लक्ष्य 2050 तक शून्य उत्सर्जन है लेकिन एक अनुमान के मुताबिक उसकी राजधानी जार्जटाउन 2030 तक समुद्र में डूब सकती है. इसलिए अनुकूलन भी उतना ही महत्वपूर्ण बन जाता है. लेकिन अक्सर अनुकूलन के प्रयासों के लिए फंड जमा करने में जूझना पड़ता है. इसका कारण जलवायु संकट को कम करने वाली परियोजनाओं की तुलना में अनुकूलन का कथित तौर पर कम आर्थिक लाभ है. इससे ग्लोबल साउथ में असुरक्षा का चक्र कायम रहता है. इसके अलावा जलवायु वित्त में अनुदान के मुकाबले ऋण का वर्चस्व पहले से कर्ज़ में डूबे विकासशील देशों का बोझ और बढ़ाता है जिससे जलवायु न्याय का सिद्धांत कमज़ोर होता है.
जलवायु वित्त पर नई दिशा
मौजूदा वित्तीय असंतुलन वैश्विक जलवायु व्यवस्था में प्रणाली की गहरी विफलता के बारे में बताता है. ये मात्रा और गुणवत्ता के मामले में जलवायु वित्त को बढ़ाने के लिए रणनीतिक कायापलट की मांग करता है. लेकिन इस झटके के बीच वैश्विक जलवायु वित्त की संरचना में बदलाव और मज़बूती का एक अवसर मौजूद है. क्या अमेरिका का अलग होना जलवायु वित्त में व्यवस्था से जुड़ी अकुशलताओं को ठीक करने के लिए एक चेतावनी के रूप में काम कर सकता है? विकासशील अर्थव्यवस्थाएं, जो जलवायु परिवर्तन का सबसे ज़्यादा खामियाजा भुगतते हैं, सामर्थ्य तैयार करने के लिए आवश्यक फंड कैसे हासिल कर सकती हैं? सबसे ज़्यादा ज़रूरी बात ये है कि दुनिया अतीत के टूटे हुए वादों से आगे कैसे बढ़ सकती है और एक अधिक समावेशी, टिकाऊ भविष्य का खाका कैसे तैयार कर सकती है?
सबसे पहले, अमेरिका के अलग होने और सीमित उपलब्धता के बावजूद सार्वजनिक वित्त अभी भी वैश्विक जलवायु वित्त का एक महत्वपूर्ण घटक बना हुआ है. ये नीतिगत गारंटी, सब्सिडी और रियायती वित्त के माध्यम से निजी निवेश को जोखिम से मुक्त बनाने के लिए एक आवश्यक उत्प्रेरक के रूप में काम करता है. ग्रीन बॉन्ड, सॉवरेन सस्टेनेबिलिटी फंड और मिले-जुले वित्त के तौर-तरीके जैसी पहल संसाधनों को इकट्ठा करने में महत्वपूर्ण हैं. उदाहरण के लिए, भारत में सॉवरेन ग्रीन बॉन्ड की पहल, जिसके ज़रिए 2023 में 2 अरब अमेरिकी डॉलर से अधिक इकट्ठा किया गया, दिखाती है कि कैसे सार्वजनिक नीति भारी-भरकम निजी पूंजी तैयार कर सकती है. इसलिए, सरकारों को जलवायु वित्त का लाभ उठाने के लिए निवेश को आकर्षित करने वाला एक सक्षम वातावरण तैयार करने में अपनी भूमिका बढ़ानी चाहिए. जलवायु न्याय के मुद्दे के अलावा जलवायु प्रभावों का समाधान करने में भी विकसित देशों का निहित स्वार्थ है. 2023 में ग्रीनफील्ड इन्वेस्टमेंट (एक तरह का विदेशी प्रत्यक्ष निवेश जहां कोई कंपनी विदेश में नई सुविधा का निर्माण करती है) में 22 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई जिसमें से 60 प्रतिशत बड़ी परियोजनाएं एशिया की विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में केंद्रित थीं. 2022 में ग्लोबल साउथ के कुल निर्यात का मूल्य 53 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर पहुंच गया जो ग्लोबल सप्लाई चेन में उसकी निर्णायक भूमिका से प्रेरित थी. लेकिन जलवायु से प्रेरित रुकावटों, जैसे कि 2022 में पनामा नहर में गंभीर सूखा, ने समुद्री मार्गों के लिए बड़े व्यवधान पैदा किए जिससे लगभग 500 से लेकर 700 मिलियन अमेरिकी डॉलर का नुकसान हुआ. इस तरह के व्यवधान बढ़ रहे हैं और दुनिया भर में सप्लाई चेन पर इसका असर हो रहा है जिससे कीमत में उतार-चढ़ाव आ रहा है और आर्थिक अस्थिरता बढ़ रही है. इसलिए जलवायु सामर्थ्य में निवेश ग्लोबल नॉर्थ के लिए न केवल एक नैतिक अनिवार्यता है बल्कि एक आर्थिक आवश्यकता भी.
सरकारों को जलवायु वित्त का लाभ उठाने के लिए निवेश को आकर्षित करने वाला एक सक्षम वातावरण तैयार करने में अपनी भूमिका बढ़ानी चाहिए.
दूसरा, निजी वित्त का भी उपयोग किया जाना चाहिए. 2023 में कुल जलवायु वित्त में निजी निवेश का हिस्सा 49 प्रतिशत था और उम्मीद की जा रही है कि इसमें और बढ़ोतरी होगी. प्रबंधन के तहत 210 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से ज़्यादा की संपत्ति के साथ संस्थागत निवेशकों, पेंशन फंड और बहुराष्ट्रीय कंपनियों में जलवायु इनोवेशन को बढ़ाने और बाज़ार निर्माण की क्षमता है. हरित बुनियादी ढांचे, नवीकरणीय ऊर्जा और जलवायु सामर्थ्य की परियोजनाओं के लिए इस फंड को इकट्ठा करना महत्वपूर्ण है. कंपनियां जलवायु के मामले में निष्क्रियता के वित्तीय और प्रतिष्ठा से जुड़े जोखिमों को तेज़ी से स्वीकार कर रही हैं. इसकी वजह से स्थिरता से जुड़े निवेश में बढ़ोतरी हो रही है. पर्यावरण, सामाजिक और शासन व्यवस्था (ESG) की रूप-रेखा के उदय ने हरित वित्त पोषण को रिकॉर्ड स्तर पर पहुंचा दिया है और 2023 में वैश्विक स्थिरता से जुड़ा निवेश 35 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के पार चला गया. लेकिन महत्वपूर्ण रुकावटें बनी हुई हैं जिनमें कथित जोखिम, नीतिगत अनिश्चितताएं और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में भरोसेमंद परियोजनाओं की कमी शामिल हैं. सरकार और अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों को मिश्रित वित्त समाधान के माध्यम से इन चुनौतियों का समाधान करने के लिए निजी क्षेत्र के साथ मिल-जुलकर काम करना चाहिए जो निवेश को जोखिम से मुक्त करने और लाभ बढ़ाने में मदद करते हैं. प्रगति के बावजूद निजी वित्त काफी हद तक जलवायु राहत की तरफ झुका हुआ है जबकि कुल निजी जलवायु वित्त का केवल 1.6 प्रतिशत अनुकूलन को प्राप्त होता है. व्यापक जलवायु सामर्थ्य को सुनिश्चित करने के लिए इस असंतुलन को ठीक किया जाना चाहिए. शुरुआत से लेकर ख़त्म करने तक परियोजनाओं को मज़बूत करना, नियामक निश्चितताओं में सुधार करना और जोखिम साझा करने के तौर-तरीकों का विस्तार करना राहत और अनुकूलन- दोनों प्रयासों के लिए निजी पूंजी को खोलने में निर्णायक होगा.
रेखाचित्र 2: जलवायु परिवर्तन के लिए वित्त का प्रवाह और अनुकूलन के लिए आवश्यकता

स्रोत: CPI, 2024
निष्कर्ष
अंत में, जलवायु वित्त को बढ़ाने के लिए परोपकार एक ऐसा क्षेत्र है जिसका बहुत ज़्यादा उपयोग नहीं किया गया है. 2023 में जलवायु पहल के लिए परोपकारी फंडिंग में 20 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई और ये रिकॉर्ड 4.8 अरब अमेरिकी डॉलर पर पहुंच गई लेकिन इसके बावजूद ये दुनिया में कुल परोपकारी दान का 2 प्रतिशत से भी कम हिस्सा है. ज़्यादातर परोपकारी उद्यमों ने ग़रीबी उन्मूलन और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों को प्राथमिकता देना जारी रखा है और वो इस तथ्य की अनदेखी करते हैं कि जलवायु परिवर्तन सभी सतत विकास लक्ष्यों (SDG) के साथ जुड़ा हुआ है. इसका समाधान करने के लिए परोपकार देने वालों को विकास से जुड़ी व्यापक रणनीतियों में जलवायु उपाय को जोड़ने की गंभीरता को पहचानना चाहिए और एक अधिक मिले-जुले एवं समग्र दृष्टिकोण के लिए जलवायु पर केंद्रित पहल में संसाधनों को इकट्ठा करना चाहिए. इस बदलाव की गंभीरता अकाट्य होती जा रही है. जिस समय अमेरिका जलवायु को लेकर अपनी प्रतिबद्धताओं से पीछे हट रहा है, उस समय परोपकारी और न्यूयॉर्क के पूर्व मेयर माइकल ब्लूमबर्ग पेरिस समझौते में अमेरिका के योगदान को बनाए रखने के लिए आगे आए हैं. ग्लोबल साउथ में भी इंडिया क्लाइमेट कोलैबोरेटिव जैसी पहल फंडिंग की कमी को पूरा करने के लिए स्थानीय संसाधनों को इकट्ठा कर रही है. जोखिम झेलने और वित्तीय लाभ की तुलना में सामाजिक प्रभाव को प्राथमिकता देने की परोपकार की क्षमता उसे असुरक्षित क्षेत्रों में अधिक जोखिम वाली अनुकूलन परियोजनाओं का समर्थन देने के लिए आदर्श माध्यम बनाती है. सरकारें कर प्रोत्साहन प्रदान करके, नियामक प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करके और अतिरिक्त निवेश लाने के लिए परोपकारी पूंजी का लाभ उठाने वाले मिश्रित वित्त के मॉडल का विस्तार करके इन प्रयासों को बढ़ा सकती हैं.
अमेरिका का अलग होना, चाहे वो एक बाधा हो या अवसर, जलवायु वित्त में गहरी अकुशलताओं का मुकाबला करने के लिए एक चेतावनी के रूप में काम करना चाहिए. आगे का रास्ता एक समर्थ और समावेशी जलवायु वित्त का इकोसिस्टम बनाने के लिए सार्वजनिक, निजी और परोपकारी वित्त की मददगार ताकतों का लाभ उठाने से होकर जाता है. सार्वजनिक वित्त को बुनियादी समानता प्रदान करनी चाहिए जिससे ये सुनिश्चित किया जा सके कि व्यवस्था से जुड़ी कमज़ोरियों का समाधान हो सके. अपने विशाल संसाधनों के साथ निजी पूंजी को बड़े पैमाने पर, प्रभाव से प्रेरित परियोजनाओं का समर्थन करने के लिए नीतिगत प्रोत्साहन के माध्यम से निर्देशित किया जाना चाहिए. इस बीच, परोपकार ज़्यादा जोखिम वाले अनुकूलन प्रयासों को जोखिम से मुक्त कर सकता है और आगे निवेश के लिए उत्प्रेरक के रूप में काम कर सकता है. संकट की गंभीरता सभी क्षेत्रों से रणनीतिक कार्रवाई की मांग करती है ताकि एक समावेशी, न्यायसंगत और प्रभावी जलवायु वित्त की प्रणाली तैयार की जा सके- ऐसी प्रणाली जो अतीत की बयानबाज़ी से आगे बढ़कर अंत में अपने वादों को पूरा कर सके.
शैरॉन सारा थवानी ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन, कोलकाता में डायरेक्टर की एग्ज़ीक्यूटिव असिस्टेंट हैं.
अपर्णा रॉय ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक डिप्लोमेसी के क्लाइमेट चेंज एंड एनर्जी में फेलो और प्रमुख हैं.
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