Published on Jun 14, 2022 Updated 0 Hours ago

टिकाऊ शहरी विकास पर अमल करते वक़्त स्थानीय समुदायों की आकांक्षाओं और चिंताओं को ज़ेहन में रखते हुए और ज़्यादा समग्र रुख़ अपनाए जाने की ज़रूरत है.

शहरीकरण और तटीय विकास: टकरावों से सुलह-समझौते तक

दुनिया की आबादी का 37 प्रतिशत हिस्सा समुद्र तट के 100 किमी के दायरे में निवास करता है. विश्व आर्थिक मंच की वैश्विक जोख़िम रिपोर्ट, 2019 में समुद्री जलस्तर के ऊंचा उठने से जुड़े मसलों पर रोशनी डाली गई है. 2050 तक दुनिया का 90 फ़ीसदी तटीय भूभाग समुद्र के बढ़ते स्तर से जुड़े ख़तरे की ज़द में आ जाएगा. इसमें 570 शहर और 80 करोड़ लोग शामिल हैं. हम जलवायु परिवर्तन और ज़मीन पर खड़ी जायदादों से जुड़े ख़तरों से निपटते आ रहे हैं. दूसरी ओर दुनिया भर में तटीय इलाक़ों मे बसे नगरों ने शहरी तटवर्ती बुनियादी ढांचे से जुड़े विकास का विस्तार कर लिया है. तेज़ रफ़्तार शहरीकरण और समुद्र तटीय पर्यटन को लेकर विश्व भर में टकरावों का दौर जारी है. ज़ाहिर है इस मसले से गंभीरतापूर्वक निपटने की दरकार है. विरोध की आवाज़ों से इन बिगड़े मसलों पर चर्चा के मौक़े हासिल होते है. बहरहाल ज़रूरी हस्तक्षेपों से तटवर्ती टकरावों से सबक़ लेने और उनसे पार पाने के तौर-तरीक़े उभर सकते हैं. इससे सतत शहरी विकास और पर्यावरणीय न्याय के लिए नए सिरे से विचार सामने आ सकते हैं. ऐसी पहलों से टिकाऊ तौर-तरीक़ों वाली दुनिया के लिए ज़रूरी अंतरराष्ट्रीय बिरादरी खड़ी होने का रास्ता साफ़ हो सकता है.

तेज़ रफ़्तार शहरीकरण और समुद्र तटीय पर्यटन को लेकर विश्व भर में टकरावों का दौर जारी है. ज़ाहिर है इस मसले से गंभीरतापूर्वक निपटने की दरकार है. विरोध की आवाज़ों से इन बिगड़े मसलों पर चर्चा के मौक़े हासिल होते है. बहरहाल ज़रूरी हस्तक्षेपों से तटवर्ती टकरावों से सबक़ लेने और उनसे पार पाने के तौर-तरीक़े उभर सकते हैं.

मतभेदों और दरारों को लेकर टकराव

तटीय इलाक़ों पर ज़ोर देने वाले शहरी और शहरों की सीमओं  वाले इलाक़ों के विकास की रणनीति से तटवर्ती समुदायों पर भारी दबाव पड़ता है. मिसाल के तौर पर मुंबई महानगर क्षेत्रीय विकास प्राधिकरण द्वारा ग्रेटर मुंबई को लेकर 2034 तक के लिए जारी शुरुआती मसौदा विकास योजना में उन सीमओं  को शामिल नहीं किया गया जिनसे ये पता चले कि मुंबई के तटवर्ती कोलीवाड़ा (गांव) कहां स्थित हैं. ज़ाहिर तौर पर इससे कोलीवाड़ा के निवासियों को इस बात की चिंता सताने लगी कि शहर के विकास से जुड़ी योजना में उनके गांवों का कोई स्थान ही नहीं है. इसी तरह योजनागत स्तर पर सामुदायिक जुड़ावों से मुंबई के तटवर्ती मछुआरा समुदायों की चिंताओं का निपटारा हो सकता था. दरअसल ये लोग शहर की तटीय सड़क परियोजना की संरचना का विरोध कर रहे हैं. उनको लगता है कि इससे उनके पुश्तैनी इलाक़ों और पारंपरिक रोज़ी रोज़गार पर सीधा प्रभाव पड़ेगा.

इसी तरह औद्योगिक स्तर पर मछली पकड़ने वाली मोटरयुक्त कश्तियों के ख़िलाफ़ मछली पकड़ने वाले जालों से जुड़ी नीतियों से कन्याकुमारी के नज़दीक के तटवर्ती गांवों के मुक्कुवर मछुआरा समुदायों का संघर्ष और कठिन हो गया. नतीजतन मुक्कुवर मछुआरों ने स्थानीय सियासी सत्ता और चर्च (उनकी धार्मिक सत्ता) को धता बताकर राज्यसत्ता के सामने अपनी समस्याएं रखीं. इसी तरह की एक और मिसाल देखें तो कुडनकुलम परियोजना के ख़िलाफ़ परमाणु-विरोधी प्रदर्शनों में मछुआरों की गुहार को पूरी तरह से ख़ारिज कर दिया गया. इसने संगठित तौर पर और बड़े प्रतिरोध को जन्म दिया. नतीजतन देर से ही सही पर प्रशासन को दख़ल देना पड़ा. इन तमाम मामलों में अगर वक़्त रहते दख़ल देकर योजनाएं तैयार करने वाले चरण में समुदायों की भी ज़रूरतों का ख़्याल रख लिया जाता तो परियोजना के विकास से जुड़ी समयसीमा छोटी हो सकती थी. साथ ही ग़ैर-ज़रूरी ख़र्चों से बचा जा सकता था.

स्रोत से जुड़ी चिंताओं की पड़ताल

तटवर्ती आबादी (ख़ासतौर से मछुआरा समुदाय) पीढ़ियों से तटों के पास रहते आ रहे हैं. उनका सामुद्रिक पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण से भावनात्मक, सांस्कृतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक जुड़ाव है. मछली पकड़ने से जुड़ी क़वायदों में गिरावट के बावजूद ये रिश्ते उनकी सामुदायिक पहचान, यादों, रीति-रिवाज़ों और मिथकों का ज़रूरी हिस्सा रहे हैं.[i] ग़ैर-मजहबी स्तरों पर साझा मछुआरा इलाक़ों को सामुदायिक गतिविधियों और मछलियों को सुखाने और उनकी बिक्री करने के मक़सद से प्रयोग में लाया जाता है. इसके अलावा जालों और नावों की मरम्मत करने, मछलियों की नीलामी करने और जालों, नावों, इंजनों, फुटकर सामानों और बर्फ़ का भंडार तैयार करने के लिए भी इन्हीं स्थानों को इस्तेमाल में लाया जाता है.

नव उदारवादी शहरी तटीय विकास से जुड़ी क़वायद में तटवर्ती इलाक़ों से जुड़े नियम-क़ायदों में निरंतर संशोधनों की ज़रूरत पड़ती है. इस सिलसिले में सामुद्रिक पारिस्थितिकी तंत्रों में गिरावट, प्राकृतिक संसाधनों की कमी, भूमि अधिकारों के नुक़सान, मछली पकड़ने की वाणिज्यिक क़वायद और ज़रूरत से ज़्यादा मछलियों के शिकार पर तवज्जो देना ज़रूरी है. इनके साथ-साथ इन समायोजनों से मछुआरों के स्वदेशी  ज्ञान और समंदर के साथ सामाजिक-सांस्कृतिक जुड़ावों की अक्सर न चाहते हुए भी अनदेखी हो जाती है. इन क़वायदों को हाशिए पर डालने की प्रक्रिया योजनाकारों की नज़रअंदाज़ी से और बढ़ जाती है. दरअसल वो अक्सर विकास का एक आयामी रुख ही अपनाते हैं. ‘विकास’ से जुड़े विमर्श को लेकर नाज़ुक अवस्था वाले तटवर्ती समुदाय, पर्यावरणीय समूहों और सियासी हितों के दबावों के प्रति बेहद संवेदनशील हो जाते हैं. तटवर्ती इलाक़ों के रहवासियों की ओर से बढ़ता प्रतिरोध इस बात का संकेत देता है कि समुदायों से जुड़े लोग अपने ठिकानों और पर्यावरण पर अपने जायज़ हक़ पर दावा ठोकने के लिए संगठित हो रहे हैं. योजनाकारों को इस बात का ध्यान रखना होगा. तटवर्ती क्षेत्रों के निवासी अपनी आवाज़ सुनाने के लिए हाल ही में अपने समुदायों से बाहर के विभिन्न समर्थक समूहों के साथ गठजोड़ करने लगे हैं. इससे उनपर जारी दबाव ज़ाहिर हो जाता है.

इसी तरह औद्योगिक स्तर पर मछली पकड़ने वाली मोटरयुक्त कश्तियों के ख़िलाफ़ मछली पकड़ने वाले जालों से जुड़ी नीतियों से कन्याकुमारी के नज़दीक के तटवर्ती गांवों के मुक्कुवर मछुआरा समुदायों का संघर्ष और कठिन हो गया.

सामाजिक-आर्थिक बदलावों में शहरी योजनाकार अक्सर एक कारक को नज़रअंदाज़ कर देते हैं. दरअसल तटवर्ती समुदाय अनिवार्य रूप से एकरूप नहीं रह गए हैं. एक ही समुदाय के भीतर के लोगों की उनके मौजूदा व्यवसायों, महत्वाकांक्षाओं और पसंदगी  के आधार पर अलग-अलग ज़रूरतों के हिसाब से पहचान की जा सकती है. इस तरह के फ़र्क़ आंतरिक असहमतियों और विभाजित राजनीतिक आकांक्षाओं की भी वजह बन जाते हैं. लिहाज़ा तमाम मसलों से जुड़ी सौदेबाज़ियों और वार्ताओं के लिए एक जैसी मानकीकृत नीति ग़ैर-वाजिब और घिसीपिटी क़वायद बन जाती है. इनमें प्राथमिक आजीविका के नुक़सान से जुड़ा मुआवज़ा, कौशल विकास कार्यक्रम या जबरन पुनर्वास जैसे मसले शामिल हैं. बेशक़ शहरों के भविष्य के लिए बड़े पैमाने वाली तटवर्ती बुनियादी ढांचा परियोजनाओं पर निवेश ज़रूरी हो गया है. ऐसे में संस्थाओं को जवाबी तौर पर ज़्यादा मानवतावादी और टिकाऊ रणनीतियों के ज़रिए ‘विकास’ के मसलों पर दोबारा जुड़ाव क़ायम करने में अहम भूमिका निभानी चाहिए.

विकास का अनिवार्य लक्ष्य और सामाजिक प्रभाव

तटक्षेत्रों के विकास की अनिवार्यता और ब्लू इकॉनोमी को आगे बढ़ाने पर दुनिया के ज़ोर के मायने ये हैं कि इनसे जुड़ी नीतियों की नए सिरे से संरचना तय करनी होगी. इससे समुदायों के साथ शुरुआती स्तर पर वार्ताओं का आग़ाज़ मुमकिन हो सकेगा. यहां इस बात को भी मद्देनज़र रखना ज़रूरी है कि तटीय समुदाय शायद ही कभी विकास के ख़िलाफ़ होते हैं. हक़ीक़त तो ये है कि परंपरागत रहवासियों के नाते ये समुदाय अपने पारिस्थितिकी तंत्र के बारे में पैदाइशी तौर पर गहरी जानकारी रखते है. इससे इनके आर्थिक हित भी जुड़े होते हैं. वो तटवर्ती विकास की पटकथाओं के साथ इन्हें जोड़ने के लिए उत्सुक रहते हैं. आज ये तमाम स्वंय-शासित समूह प्रचलित विमर्शों में ख़ुद को हाशिए पर महसूस करते हैं. वो ख़ुद को सीधे तौर पर प्रभावित करने वाली परियोजनाओं की निर्णय से जुड़ी क़वायदों और क्रियान्वयन में ख़ुद की हिस्सेदारी, नुमाइंदगी और गठजोड़ चाहते हैं. तटीय विकास की अनिवार्य क़वायदों में सामाजिक रूप से समावेशी और स्थानीय रूप से मध्यस्थता वाले रुख़ की दरकार है. इसके लिए राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर शोध और नीति से जुड़ी सोच में आमूलचूल बदलाव की ज़रूरत है.

इसके साथ ही सामुद्रिक पारिस्थितिकी तंत्रों के साथ सांस्कृतिक संबंधों की जटिलताएं और पारंपरिक रूप से समुद्र तटीय इलाक़ों में रहने वाले समुदायों के बीच बढ़ती विविधताएं विकास से जुड़ी परिचर्चाओं में अक्सर पीछे छूट जाती हैं. मौजूदा हालात में विकास के सांस्कृतिक और सामाजिक परिणामों (सकारात्मक और नकारात्मक दोनों) के गंभीर मूल्यांकन और उसमें निवेश को लेकर विशेष और तात्कालिक रूप से ज़ोर देने की आवश्यकता है. इसके लिए इंटरनेशनल एसोसिएशन फ़ॉर इम्पैक्ट एसैसमेंट जैसे विशेषज्ञता प्राप्त संगठनों के साथ मिलकर सामाजिक प्रभावों के आकलन (SIA) से जुड़ी विशिष्ट और सघन रणनीतियां तय किए जाने की दरकार है. इससे पर्यावरणीय आकलनों से इतर तटवर्ती समुदायों की चिंताओं को समझने में मदद मिलेगी. समुद्र तट को लेकर शहरों की दीवानगी को देखते हुए SIA का अभाव या उसकी ग़ैर-मौजूदगी से पहले से ही हाशिए पर रह रहे समुद्र तटवर्ती लोगों को सामाजिक बदलावों का लाभ नहीं मिल पाता है. वैसे तो पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों को एकीकृत करने के लिए एकजुट रुखों का विकास और प्रयोग किया गया है. हालांकि यहां इस बात पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि ऐसे मूल्यांकन के लिए ये सूचना कैसे जुटाई जाती है.

नव उदारवादी शहरी तटीय विकास से जुड़ी क़वायद में तटवर्ती इलाक़ों से जुड़े नियम-क़ायदों में निरंतर संशोधनों की ज़रूरत पड़ती है. इस सिलसिले में सामुद्रिक पारिस्थितिकी तंत्रों में गिरावट, प्राकृतिक संसाधनों की कमी, भूमि अधिकारों के नुक़सान, मछली पकड़ने की वाणिज्यिक क़वायद और ज़रूरत से ज़्यादा मछलियों के शिकार पर तवज्जो देना ज़रूरी है.

विकास की पूर्व शर्त के रूप में SIA के परिणामों से सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय मोर्चे पर प्रतिकूल हालातों की रोकथाम में मदद मिल सकती है. इसके साथ ही नवाचार तकनीकों की बेहतर संरचना तैयार करने में भी ये क़वायद कारगर हो सकती है. इससे तमाम किरदारों के लिए लागत से मुनाफ़े का अनुपात तय करने में भी मदद मिलेगी. विकास की अनिवार्यता को समझते हुए निरंतरता आधारित आजीविका ढांचे (SLF) के संशोधित स्वरूप में और ज़्यादा क्षेत्रीय और संदर्भित परिभाषाओं पर विचार किया जा सकता है. इससे तटीय इलाक़ों की ग़रीब और छोटे मछुआरों की बेहतर आजीविका की ज़रूरतों की पहचान करना आसान हो जाएगा. इसके बाद SLF के ज़रिए ज़रूरी आकार और रंग रूप के साथ-साथ समानता पर आधारित समाधान ढूंढने में भी आसानी होगी.

बीच के रास्ते की तलाश

विकास के ग़ैर-आनुपातिक परिणाम SIA की योजनाओं को गहरा करने की क़वायद को ज़रूरी बना देते हैं. इनसे विकास योजनाओं की ख़ामियों का निपटारा करने में मदद मिलती है. शहरी तटवर्ती योजनाओं में SIA को शामिल करने की क़वायद विकास से जुड़े विमर्श का ज़रूरी अंग बन जाएगी. दुनिया भर में जारी चुनिंदा कार्यक्रमों से जन भागीदारी से जुड़े और अधिक समग्र विचारों की रूपरेखा बनाने में मदद मिलती है. इन पहलों में सामाजिक प्रभावों पर यूरोपीय आयोग का ज़ोर शामिल है. साथ ही ऑस्ट्रेलिया का पर्यावरण संरक्षण और जैव विविधता संरक्षण क़ानून भी इसी कड़ी का हिस्सा है. इसमें पर्यावरण के सांस्कृतिक पक्ष को शामिल किया गया है. इसके अलावा ज़िला-आधारित सामुदायिक रुख़ के लिए हॉन्गकॉन्ग की शहरी नवीकरण रणनीति भी इसी क़वायद का हिस्सा है. बहरहाल, कुल मिलाकर ज़िम्मेदारी और ऐसी प्रक्रियाओं की स्थानीय प्रासंगिकता की समय-समय पर समीक्षा बेहद ज़रूरी है.

तटीय क्षेत्रों में समुदाय की अगुवाई वाले विकास से सहभागी तौर-तरीक़े तय हो सकते हैं. इनके लिए पहले से ही कुछ रूपरेखाएं उभर चुकी हैं. मिसाल के तौर पर द कोस्टल 500- जिसमें वैश्विक स्तर पर 500 मेयरों और स्थानीय सरकारों को एकजुट किया गया है. इसमें तटवर्ती मछली पालन से जुड़ी गतिविधियों पर ज़ोर दिया गया है. इसके तहत मछुआरा समुदाय तक पहुंच बनाने के लिए एक वैकल्पिक ढांचा मुहैया कराया गया है. इसी तरह सेंट लुशिया के सुफ़्रियर मैरिन मैनेजमेंट एसोसिएशन वाले मॉडल के तहत स्थानीय संसाधनों के उपयोगकर्ताओं और तमाम संबंधित संस्थाओं के बीच आंतरिक जुड़ाव तैयार किए गए हैं. इसी तरह उत्तरी ब्रिटिश कोलंबिया में देसी समूहों की अगुवाई वाले सहगाभी मॉडल को 6.7 अरब अमेरिकी डॉलर वाले कोस्टल गैसलिंक पाइपलाइन में 10 प्रतिशत का मालिक़ाना हिस्सा मिला है. इससे गठजोड़ों से जुड़ी संभावनाओं की पड़ताल को लेकर बेशक़ीमती जानकारियां मिलती हैं. भारत में भी व्यावहारिक मॉडल उभरकर सामने आए हैं. इनमें पुडुचेरी के मछुआरों द्वारा सह-निर्मित ढांचा शामिल है. इसके तहत जलवायु परिवर्तन से जुड़े जोख़िमों से निपटने के लिए स्थानीय स्तर पर उसके हिसाब से ढलने वाली क़वायदों की रूपरेखा शामिल है. मध्यस्थता के इस तरह के प्रयासों से सामाजिक प्रभाविता की अगुवाई और निवेश को प्रोत्साहन मिलता है.

आगे की राह

संयुक्त राष्ट्र के टिकाऊ विकास लक्ष्यों के हिसाब से SIA को उच्च गुणवत्ता वाली प्रतिक्रियाओं पर ज़ोर देना चाहिए. साथ ही बेहतरीन तौर-तरीक़ों को सबके (समुदायों और संबंधित किरदारों) फ़ायदे वाले प्रस्तावों के तौर पर आगे बढ़ाना चाहिए. एक पसंदीदा ढांचा पश्चिमी अफ़्रीका में तटीय इलाक़ों के टिकाऊ प्रबंधन को लेकर अमल में लाया आदर्श तौर-तरीक़ा हो सकता है. इसकी संरचना UN-Habitat ने तैयार की है. इसे ख़ासतौर से आइवरी कोस्ट के शहरी क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के हिसाब से ढलने के लिए इस्तेमाल करने के नज़रिए से तैयार किया गया है. इस मॉडल में संभावित जोख़िमों और प्रभावों की पड़ताल के लिए क्षेत्रीय परिदृश्य उपलब्ध कराया गया है. इसके लिए पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभाविता आकलनों का सहारा लिया गया है. स्थानीय स्तर पर सलाहकारी क़वायदों को अखंड हिस्से के रूप में शामिल करने की एक और मिसाल बेनिन की समुदाय आधारित तटीय और सामुद्रिक जैवविविधता प्रबंधन परियोजना है. इसे ग्लोबल एन्वॉयरमेंट फ़ेसिलिटी और विश्व बैंक ने मिलकर संचालित कर रहा है. इस परियोजना को रामसर के इलाक़ों में स्थानीय सरकारों और समुदायों के साथ मिलकर काम करने के लिए अमल में लाया गया था. पारिस्थितिक रूप से नाज़ुक कई इलाक़ों में वैश्विक रूप से तटवर्ती समूहों ने रिहाइश बना रखी है. इससे SIA के और भी ज़्यादा गतिशील तौर-तरीक़ों के अवसर सामने आते हैं. इसके बावजूद सचमुच सार्थक और समावेशी बनने के लिए SIA को प्रभावशाली किरदारों से परे जाकर समुदाय के सबसे प्रभावित और हाशिए पर पड़ी आवाज़ों को शामिल करना होगा. ऐसा नहीं हुआ तो सामुदायिक हिस्सेदारी विकास के लिहाज़ से प्रतिकूल कारक बन सकती है.


[i] In Australia, the First Nation people (Torres Strait Islanders) hold ritual and spiritual engagements with the sea by which they manage their sea’s resources in the interests of long-term survival. For the Mumbai Koli fishers, the sea is the empire of the unique sea god, Dariya Dev, while several landed deities guard the coast. Likewise, the fishing communities around Shioya Bay in Okinawa invoke the sea god for abundant fish catch and safe sea travel.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.