शहरी कृषि, शहरी और पेरी शहरी क्षेत्रों में किए जाने वाली खेती का अभ्यास हैं. खेती वृहत रूप से खाद्य और गैर खाद्य प्रोडक्ट, जिनकी खेती की जा सकती हैं, जिनमें पशुपालन, जल कृषि और मधुमक्खी पालन भी शामिल है, की ओर इशारा करता है. हालांकि, भारतीय शहरों के परिप्रेक्ष्य में, ये पूरी तरह से मनुष्य के खाने योग्य सब्ज़ी, फल और फूल की खेती पर ही केंद्रित हैं. शहरी क्षेत्र में अब ये एक बढ़ता हुआ ट्रेंड बन गया है जहां लोग स्थानीय तौर पर उपजाए जाने वाले खाद्य पर ज़्यादा निर्भर करते हैं. शहरी प्रशासन के अलावे, शहरी कृषि अब कई गैर-सरकारी संस्थानों (एनजीओ), सामुदायिक संगठनों और नागरिकों का ध्यानाकर्षण करने लगा है. वैश्विक स्तर पर, फूड एंड एग्रीकल्चरल ऑर्गेनाइजेशन (एफएओ) भी ऐसा विश्वास रखती है कि शहरी और पेरी शहरी कृषि का भोजन और पौष्टिकता की सुरक्षा के क्षेत्र में अहम् भूमिका है. शहरी खाद्य योजना प्रमुखतः सतत विकास में वृद्धि, खाद्य सुरक्षा और शहरी एवं पेरी शहरी क्षेत्र में न्यूट्रीशन सुनिश्चित करने हेतु, एफएओ की एक पहल है. ये नागरिक सोसाइटी, शिक्षण संस्थान, अंतराष्ट्रीय एजेंसी, शहर की संस्थाएं, और अन्य निजी क्षेत्र जैसे हितधारकों को साझेदारी के लिए प्रोत्साहित करती है.
शहरी खाद्य योजना प्रमुखतः सतत विकास में वृद्धि, खाद्य सुरक्षा और शहरी एवं पेरी शहरी क्षेत्र में न्यूट्रीशन सुनिश्चित करने हेतु, एफएओ की एक पहल है. ये नागरिक सोसाइटी, शिक्षण संस्थान, अंतराष्ट्रीय एजेंसी, शहर की संस्थाएं, और अन्य निजी क्षेत्र जैसे हितधारकों को साझेदारी के लिए प्रोत्साहित करती है.
कई अन्य देशों में, सामुदायिक संगठन और व्यक्तिगत शहरी निवासीयों को निजी और सरकारी ज़मीनों पर लघु (स्मॉल स्केल) कृषि गतिविधि हेतु शहरी प्रशासन द्वारा सुविधा प्रदत्त की गई है. पेरिस में, पेरी-अर्बन कृषि, ज़्यादातर फल, फूल, और सब्ज़ी के रूप में, कुल प्रांतीय उत्पादन का 35 प्रतिशत योगदान देती है. उत्पादक ज़्यादातर स्थानीय बाज़ार या फिर पेरिस के लोगों को सीधे तौर पर अपना उत्पादन बेच देते हैं. ग्रेटर लंदन में, कुल 13,566 हेक्टेयर कृषि योग्य ज़मीन में से 500 हेक्टेयर में फल और सब्ज़ी की खेती होती है. उसके अलावा, 800 हेक्टेयर सरकारी ज़मीन का इस्तेमाल बाज़ार बागवानी (मार्केट गार्डनिंग) के लिए होता हैं. रूस, स्पेन, पुर्तगाल, नीदरलैंड, इज़रायल, और अन्य लैटिन अमेरिकी और अफ्रीकी देशों में भी शहरी कृषि का चलन हैं.
हमारे पास भारत के कई शहरों में भी ऐसे ही कृषि कार्य के कई उदाहरण मौजूद हैं. हालांकि, भारत के परिप्रेक्ष्य में, इस अभ्यास के सीमाओं को समझने की ज़रूरत है. नेशनल सैम्पल सर्वे संस्थान (एनएसएसओ) द्वारा लगाए गए अनुमान के अनुसार 2012-13 में, भारत में लगभग 95 मिलियन हेकटेयर ज़मीन का इस्तेमाल कृषि उत्पादन के लिए किया गया. भारत सरकार के अधीन काम करने वाली कृषि मंत्रालय ने भी अलग से (2010-11) कृषि सर्वे कराया था और 159.6 मिलियन हेक्टेयर से भी ज़्यादा के आँकड़े प्राप्त किए थे. प्रतिशत के आधार पर, विश्व बैंक, ने देश के भौतिकी भौगोलिक के कुल 60.4 प्रतिशत क्षेत्र को कृषि क्षेत्र के तौर पर चिन्हित किया है. भारत की कुल शहरी क्षेत्र अनुमानित लगभग 222, 688 वर्ग किलोमीटर तक पाया है, जो कि भारत के भौगोलिक क्षेत्र का कुल 6.77 प्रतिशत होता हैं. इस छोटे से क्षेत्र में भारत की कुल जनसंख्या का लगभग 35 प्रतिशत आबादी रहता है.
कई प्रकार के पाबंदियों के बावजूद, कई वजहों से शहरी कृषि को प्रोत्साहित किया जाना जायज़ है. यद्यपि, इसकी मदद से पैदा किए जाने वाली खाद्य सामग्री देश में उत्पादित किए जाने वाले खाद्य सामग्रियों का एक अंश मात्र ही है, थोड़ा ही सही पर ये स्वागत योग्य है
जैसा कि कई प्लानिंग गाइडलाइंस में सलाह दी गई है, अगर हम माने कि शहरों को शहरी क्षेत्र का 10 प्रतिशत ग्रीन क्षेत्र के लिए आरक्षित रखना चाहिए, तो ऐसी स्थिति में, हमारे पास 22, 268 स्क्वायर किलोमीटर खुले क्षेत्र ही बचे रह जाएंगे. आज, ऐसे क्षेत्रों का सार्वजनिक हरे-भरे क्षेत्रों के निर्माण के लिए इस्तेमाल किया जा रहा हैं. अगर इसका सिर्फ़ आधा हिस्सा, यानी 11,134 स्क्वायर किलोमीटर हिस्से को पार्क, बगीचा, खेल के मैदान और हॉर्टिकल्चर के बजाय शहरी कृषि के लिए भी इस्तेमाल किया जाए तो, ये कुल शहरी क्षेत्र का मात्र 5 प्रतिशत और देश के कुल कृषि योग्य ज़मीन का मात्र 0.56 प्रतिशत हिस्सा ही होगा. साफ़-साफ़ तौर पर, शहरी कृषि कई प्रकार से जगह की कमी जैसी चुनौतियों से घिरी हुई हैं और देश में कुल खाद्य उत्पादन में कोई खास बदलाव नहीं ला पाएगी.
शहरी कृषि के फायदे
कई प्रकार के पाबंदियों के बावजूद, कई वजहों से शहरी कृषि को प्रोत्साहित किया जाना जायज़ है. यद्यपि, इसकी मदद से पैदा किए जाने वाली खाद्य सामग्री देश में उत्पादित किए जाने वाले खाद्य सामग्रियों का एक अंश मात्र ही है, थोड़ा ही सही पर ये स्वागत योग्य है, चूंकि ये थोड़ा उत्पादन भी बड़ी संख्या में लोगों का भरण-पोषण कर पाने में सक्षम सिद्ध होगा. अगर हमने फल और सब्ज़ी उत्पादन हेतु 50 स्क्वायर मीटर प्रति व्यक्ति के पारंपरिक बेंचमार्क का भी इस्तेमाल किया तो 11,134 वर्ग किमी के उपरोक्त उद्धृत क्षेत्र में कुल 222 मिलियन शहरी लोगों को खेती द्वारा खाना मुहैय्या कराया जा सकता है. ऐसे छोटे पैमाने पर विकेंद्रीकृत उत्पादन द्वारा घरेलू अथवा सामुदायिक स्तर पर आहार के पूरक के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है. उसके अलावे इसके स्थानीय रोज़गार का भी महत्व है. श्रम प्रधान होने की वजह से, इसमें रोज़गार के अतिरिक्त अवसर भी जुड़ेंगे और शहरों में लोगों के जीवन शैली में सुधार के अवसर उत्पन्न होंगे और खासकर के निर्धन वर्ग के लिए आय के अन्य स्त्रोत भी बनेंगे. दूसरा, शहरी कृषि का शहरी पर्यावरण प्रबंधन में काफी महत्वपूर्ण भूमिका हैं चूंकि वो इसकी मदद से शहरों को गर्मी से लैस द्वीप बनने के प्रभाव का सामना कर पाने में सक्षम है, और ये शहरों को सुंदर बनाने के साथ-साथ शहरों को ऑक्सिजन देने के रूप में भी प्रभावी सिद्ध होगी. इसके अलावे ये जीवन में एक उद्देश्यपूर्ण मनोरंजन लाता हैं जिसके शहरी स्वास्थ्य पर सीधा असर पड़ता है.
शहरी कृषि का शहरी पर्यावरण प्रबंधन में काफी महत्वपूर्ण भूमिका हैं चूंकि वो इसकी मदद से शहरों को गर्मी से लैस द्वीप बनने के प्रभाव का सामना कर पाने में सक्षम है, और ये शहरों को सुंदर बनाने के साथ-साथ शहरों को ऑक्सीजन देने के रूप में भी प्रभावी सिद्ध होगी.
तीसरा, शहरी कृषि- शहर में रहने वाले लोगों में प्रकृति के साथ तारतम्य बिठाने में सहायक होती है इन्हें इसकी समृद्धि और विविधता से दो चार कराती है. शहरी चिंतकों लगातार शहरी आबादी का प्रकृति के साथ के डिस्कनेक्ट को लेकर काफी चिंतित रह रहे हैं, और इनके बीच के आपसी संबंध को फिर से स्थापित करने के रास्ते ढूंढ रहे हैं. शहरी कृषि इस तरह की भागीदारी और पर्यावरणीय- सांस्कृतिक शिक्षा के नये अवसर प्रदान करता है. इसके अलावे ये सामुदायिक घनिष्टता बढ़ाने और सामूहिक कृषि के ज़रिए जहां कई लोग एक साथ आते हैं उनमें आपस में साझेदारी और बांटने का एहसास बढ़ाते हैं और उन्हे विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थ पैदा करने के अपने-अपने अनुभव को साझा करने में मदद करते हैं. विभिन्न उम्र सीमा के लोगों को केंद्रित करते हुए, अलग-अलग उम्र सीमा और दिलचस्पी से जुड़े विभिन्न लोगों के समूह के बीच शैक्षणिक फ़ार्मिंग काफी मददगार साबित हुई है. शहरी स्थिति के अनुसार जो सकारात्मकता की सीमा शहरी कृषि लाती है वो काफी उत्साहवर्धक है.
अंत में, चूंकि शहरें वेस्ट मैनेजमेंट और उसके निष्पादन की समस्या से जूझ रही हैं, शहरी कृषि इससे निपटने में कुछ मदद कर सकती हैं. उपयुक्त रूप से उपचारित अपशिष्ट जल की मदद से किए गए शहरी कृषि ताज़ा स्वच्छ जल की मांग को कम कर सकता है और अपशिष्ट जल के निष्पादन में मदद कर सकती है. उसके अलावा, शहरों से प्राप्त होने वाले जैविक कचरों से खाद बनाया जा सकता है और खाद्य और फूल के उत्पादन मे इनका इस्तेमाल किया जा सकता है, जो कि कचरों के कुल मात्रा को कम कर सकता है और उसे ज़मीन पर डंप करने से रोका जा सकता है और लैंडफिल की ज़रूरत को क्रमशः कम किया जा सकता है. ये, भविष्य में शहरों में कचरों को रिसाइकल करने का सबसे सलाहजनक तरीका बन सकता है.
यूएलबी की भूमिका
शहरी स्थानीय निकाय तीन तरीकों से, सक्रिय रूप से इस गतिविधि में सहायता कर सकती हैं. पहला कि वे न इस्तेमाल किए जाने वाले ज़मीन के टुकड़ों को, जिसका भविष्य में विकास हेतु इस्तेमाल नहीं किया जाना है, उसे शहरी कृषि के लिए इस्तेमाल में दे सकते हैं. इन्हें एक दूसरे की सहूलियत और शर्तों के आधार पर एक समझौते के तहत निजी स्वामित्व के तहत लोगों को लीज़ पर दिया जा सकता है. भारतीय शहरों में खुले जगहों को सजावटी वनस्पतियों के लिए उपयुक्त माना जाता हैं. हालांकि, शहरी कृषि को प्रोत्साहित करने के लिए, सार्वजनिक स्थलों में आंशिक तौर पर खाद्य परिदृश्य भी बनाया जा सकता है. फल देने वाले वृक्ष हो सकते हैं और पठारी ज़मीनों कन्टेनर या फिर वर्टिकल फ्रेम में में सब्ज़ियां उगाई जा सकती है.
इसके अलावे, शहरी निकाय उन ज़मीनो को शहरी कृषि के विकास/मास्टर प्लान के तौर पर तब तक अधिकृत कर सकते हैं जब तक कि इन ज़मीनो का किसी और सेवा अथवा उद्देश्य के लिए इस्तेमाल में लिया जाना तय नहीं है. ऐसे रास्ते ढूँढे जाने चाहिए जिससे कि यूएलबी के राजस्व के इनफ्लो पर बग़ैर किसी अतिरिक्त आर्थिक दबाव के ऐसी किसी गतिविधियों को प्रोत्साहित किया जा सके. उसी तरह से, जहां जहां निजी प्लॉट आदि को बग़ैर किसी विकास के रखा गया हो और उसका कोई इस्तेमाल नहीं हैं और न ही कृषि के तौर पर इस्तेमाल हो रहा है, उसे ग़ैर प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से, वहाँ खाली जमीन के टैक्स रूपी कर का प्रावधान किया जाना चाहिए. उसके विपरीत, अगर उन प्लॉटस का इस्तेमाल शहरी कृषि के तौर पर हो रहा हो, तो उसे और भी रचनात्मक तरीके से प्रोत्साहित किया जाना चाहिए.
शहरी प्लानिंग को अपने ख़ाली जमीनों के इस्तेमाल के लिए शहरी कृषि को भी प्लानिंग आइटम के तौर पर शामिल किए जाने की ज़रुरत है. ऐसे संकेत मिलते हैं की भविष्य में शहरी कृषि ना सिर्फ़ एक हाशिये पर रहने वाली गूढ़ रुचि ही न बनकर रह जाए बल्कि ये महत्वपूर्ण शहरी कार्य व्यवस्था बनकर ख़ड़ी हो.
मिट्टी और जल परीक्षण लेबोरेट्री के ज़रिए यूएलबी टेक्नॉलजी एक्सटेंशन सर्विस प्रदान कर सकती हैं. उसके साथ ही, यूएलबी प्राइवेट /कोऑपरेटिव हाउज़िंग सोसाइटी के कंपाउन्ड में छतों, बालकनी, खुले क्षेत्र आदि में शहरी कृषि करने के लिए ज़रूरी मानक मुहैया करा सकती हैं. रूफटॉप फार्मिंग में काफी संभावनाएं हैं. उदाहरण के लिए, सिंगापूर पहले से ही अपने कुल खाद्य पदार्थों का 10 प्रतिशत उत्पादन रूफटॉप फार्मिंग के ज़रिए पैदा कर रही है. घनी आबादी वाले शहरों में, जहां ज़मीन की उपलब्धता काफी कम है, वहाँ शहरी कृषि एक साथ वर्टिकल फ़ार्मिंग के लिए ज़रुरी शहरी क्षेत्रों की कमी से उबरने लिए अलग नज़रिए की ज़रूरत पड़ेगी.
हमें पहले से ज्ञात है कि पर्यावरण में बदलाव काफी चुनौतियां पेश करती हैं, जिसमें बाढ़ और गरम हवा प्रमुख हैं. उसके अलावा, गांवों में होने वाली अकाल भी ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को शहरों की ओर पलायन करने को मजबूर कर रही है. इसके परिदृश्य में, म्यूनीसिपल कार्यप्रणाली में शहरी कृषि का समावेश एक महत्वपूर्ण पड़ाव साबित हो सकता है. उसी तरह से, शहरी प्लानिंग को अपने ख़ाली जमीनों के इस्तेमाल के लिए शहरी कृषि को भी प्लानिंग आइटम के तौर पर शामिल किए जाने की ज़रुरत है. ऐसे संकेत मिलते हैं की भविष्य में शहरी कृषि ना सिर्फ़ एक हाशिये पर रहने वाली गूढ़ रुचि ही न बनकर रह जाए बल्कि ये महत्वपूर्ण शहरी कार्य व्यवस्था बनकर ख़ड़ी हो.
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