-
CENTRES
Progammes & Centres
Location
यूपी के चुनाव, पहचान की राजनीति की केंद्रीयता को मज़बूत करते हैं क्योंकि पार्टियां जाति और समुदाय के आधार पर अपनी रणनीति बनाती हैं.
पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं, वहीं उत्तर प्रदेश (यूपी) का चुनाव स्पष्ट कारणों से सबसे अधिक लोगों की उत्सुकता का केंद्र बना हुआ है. कहते हैं कि 80 लोकसभा सीटों के साथ, दिल्ली की सत्ता की सभी सड़कें लखनऊ से होकर जाती हैं. सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने राज्य में पिछले दो आम चुनावों (2014 और 2019) और 2017 के विधानसभा चुनावों में ज़बर्दस्त चुनावी जीत हासिल की थी. बीजेपी की इस शानदार जीत के पीछे असरदार सोशल इंजीनियरिंग का फ़ॉर्मूला था, जिसे बेहद सावधानीपूर्वक व्यापक जाति आधारित गठबंधन, जिसमें उच्च जातियां, गैर यादव पिछड़ी जाति (ओबीसी) और गैर जाटव अनुसूचित जाति (एससी) शामिल थीं, के जरिए पार्टी ने तैयार किया था.
1990 में संक्षिप्त कामयाबी के बाद से ही भगवा पार्टी (बीजेपी) का असर यूपी में कम होने लगा था लेकिन 2014 के बाद से व्यापक जनाधार के साथ ,जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के साथ आई, पार्टी सूबे में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति में तब्दील हो गई.
1990 में संक्षिप्त कामयाबी के बाद से ही भगवा पार्टी (बीजेपी) का असर यूपी में कम होने लगा था लेकिन 2014 के बाद से व्यापक जनाधार के साथ ,जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के साथ आई, पार्टी सूबे में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति में तब्दील हो गई. यूपी में बीजेपी के फिर से एक सियासी ताक़त के रूप में उभरने से सूबे की प्रमुख राजनीतिक पार्टियां जैसे समाजवादी पार्टी (एसपी), बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) राज्य के चुनावी परिदृश्य में हाशिये पर चली गई हैं, बावजूद इसके कि इन पार्टियों के साथ इनका कोर वोटर, यादव, मुसलमान और जाटव हमेशा से समर्थन में खड़ा रहा है. जबकि यूपी में बेहद कम वोट शेयर के साथ कांग्रेस साल दर साल अपनी राजनीतिक ज़मीन खोती जा रही है. हालांकि, बीते कुछ हफ्त़े पहले बीजेपी खेमे से दिग्गज़ ओबीसी समुदाय के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान, धरम सिंह सैनी की विदाई से पार्टी में हड़कंप मचा हुआ है क्योंकि यूपी में कुल वोटरों में ओबीसी समुदाय के वोटर करीब 39-40 फ़ीसदी हैं जो किसी भी चुनाव में नतीजों को बदलने की ताक़त रखते हैं लेकिन दिलचस्प बात तो यह है कि इस तरह की पहचान की राजनीति कल्याण और विकास के अहम संसाधनों तक पहुंच के साथ मज़बूती से जुड़ी हुई है.
उत्तर प्रदेश की राजनीति ने 1990 के दशक में सामाजिक न्याय के संदर्भों की सियासत में उभार देखा जो पिछड़े और समाज के हाशिये पर पड़ी जातियों के राजनीतिक दावों पर आधारित थी. इससे एसपी जैसी पार्टियों का विकास हुआ जिन्हें यादव ओबीसी समुदाय का समर्थन प्राप्त है और बीएसपी जिनका प्रभाव दलितों, ख़ास कर जाटवों के बीच मज़बूत है. इसके चलते एक प्रमुख धारणा ने लोगों के मन में जगह बनाई कि जहां यादव और जाटव समुदायों को सपा और बसपा के राज में काफी हद तक फायदा हुआ, वहीं अन्य गैर-प्रमुख ओबीसी और दलितों को कथित तौर पर हाशिए पर डाल दिया गया जिससे कई छोटी जातियों को अपनी पार्टियां बनाने का मौका मिल गया. यही वज़ह है कि भाजपा ने 2014 के बाद से, गैर-प्रभावी ओबीसी और गैर-जाटव अमुसूचित जातियों को लामबंद करना शुरू किया और इसके लिए पार्टी ने हिंदुत्व और विकास के चुनावी सम्मोहन का इस्तेमाल करते हुए छोटी-छोटी राजनीतिक पार्टियों के साथ गठबंधन तैयार किया.
भाजपा ने 2014 के बाद से, गैर-प्रभावी ओबीसी और गैर-जाटव अमुसूचित जातियों को लामबंद करना शुरू किया और इसके लिए पार्टी ने हिंदुत्व और विकास के चुनावी सम्मोहन का इस्तेमाल करते हुए छोटी-छोटी राजनीतिक पार्टियों के साथ गठबंधन तैयार किया.
हाल में हुए दल-बदल इस संदर्भ में – कि भाजपा से दिग्गज गैर-यादव ओबीसी नेताओं के अखिलेश यादव के नेतृत्व वाले एसपी में जाना – सूबे की सियासत में बड़ी हलचल पैदा की है. एक ओर विश्लेषक इसे सत्तारूढ़ भाजपा के साथ ओबीसी नेताओं के मोहभंग होने और राज्य में पार्टी अपने व्यापक सामाजिक गठबंधन को बनाए रखने में नाकाम रही है, उस तौर पर देखा जा रहा है. तो दूसरी ओर, जो ओबीसी नेता बीजेपी और बीएसपी का दामन छोड़ रहे हैं वो इस चुनाव में समाजवादी पार्टी के साथ खड़े दिख रहे हैं और इसे समाजवादी पार्टी के गैर-यादवों के बीच में पार्टी के समर्थन को बढ़ाने के प्रबंधन के तौर पर देखा जा रहा है. इससे समाजवादी पार्टी की छवि ज़्यादा उदार और समावेशी होती जा रही है जो बीजेपी को सियासी चुनौती देने की क्षमता रखता है.
यूपी के 2007, 2012 और 2017 का चुनावी इतिहास इस बात का गवाह है कि कैसे क्रमशः बीएसपी, एसपी और भाजपा की जीत में गैर-प्रमुख ओबीसी वोटरों का समर्थन महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है. रिपोर्टों के आधार पर कहा जा सकता है कि भाजपा से हाल में दल-बदल करने वाले – ख़ास तौर पर स्वामी, राजभर और सैनी – जिनके अपने समुदाय के अंदर मज़बूत समर्थन का आधार है, इन चुनावों में कई निर्वाचन क्षेत्रों में चुनाव को प्रभावित करने की ताक़त रखते हैं. ऐसा भी माना जा रहा है कि भेदभाव का आरोप लगाते हुए, जिन ओबीसी नेताओं ने भाजपा का साथ छोड़ा है उसके चलते कुछ हद तक यह धारणा भी बना सकती है कि सत्तारूढ़ बीजेपी बड़े पैमाने पर “उच्च जातियों के समर्थन” वाली राजनीतिक पार्टी है. यहां ध्यान रखना लाज़िमी होगा कि केंद्र और राज्य दोनों में भाजपा सरकारों ने ओबीसी नेताओं को मंत्रियों के रूप में प्रतिनिधित्व देने की कोशिश की है लेकिन जैसा कि राजनीतिक विश्लेषक असीम अली ने बताया है, ऐसे कदम केवल प्रतिनिधित्व का एक ‘वर्णनात्मक’ स्वरूप बताते हैं. ओबीसी के प्रति कथित रूप से बीजेपी द्वारा किए गए भेदभाव की धारणा के विस्तार के लिए यह तर्क दिया जाता है कि पार्टी अपने शासन के दौरान ओबीसी समुदाय को ‘प्रतीकात्मक’ के साथ-साथ ‘वास्तविक’ प्रतिनिधित्व या समाज के सशक्तिकरण करने में नाकाम रही है. ऐसे आरोप लगते रहे हैं कि मंत्री होने के बावजूद, ओबीसी नेताओं को प्रशासन में वास्तविक अधिकार नहीं दिया गया था और प्रशासन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की केंद्रीकृत कमान और उनके पसंदीदा नौकरशाहों की टीम द्वारा नियंत्रित था. यह भी तर्क दिया जाता है कि स्थानीय प्रशासन में अधिकांश महत्वपूर्ण पदों पर उच्च जातियों का वर्चस्व था जो अक्सर ओबीसी मंत्रियों और विधायकों को नज़रअंदाज़ करते थे.
ओबीसी के प्रति कथित रूप से बीजेपी द्वारा किए गए भेदभाव की धारणा के विस्तार के लिए यह तर्क दिया जाता है कि पार्टी अपने शासन के दौरान ओबीसी समुदाय को ‘प्रतीकात्मक’ के साथ-साथ ‘वास्तविक’ प्रतिनिधित्व या समाज के सशक्तिकरण करने में नाकाम रही है.
आरक्षण के उप-वर्गीकरण के अधूरे वादे जैसे मुद्दे ; जाति जनगणना का गैर-कार्यान्वयन; और आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के लिए कोटा को लागू करना, जिसे उच्च जातियों की बेहतरी के तौर पर एक कदम के रूप में देखा जाता है, बीजेपी के ओबीसी समर्थन के आधार को ख़त्म कर सकता है. यही नहीं शिक्षा क्षेत्र का निजीकरण, शिक्षक भर्ती में ओबीसी का घटता प्रतिनिधित्व, और पिछड़ी जातियों के ख़िलाफ़ अत्याचार के मामलों में बढ़ोत्तरी को, बीजेपी शासन के तहत ओबीसी के बीच असुरक्षा और विश्वासघात की भावना को बढ़ाने के तौर पर भी देखा जा रहा है. इसके अलावा कृषि संकट; तीन कृषि कानून (हालांकि बाद में जिसे निरस्त कर दिया गया); उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गोहत्या और गैर-प्रबंधित गौशालाओं पर पाबंदी की वजह से पशुओं की समस्या बढ़ती जा रही है, जो खुलेआम घूम रहे हैं और ज़्यादातर छोटे किसानों की फसल को ख़राब कर रहे हैं. इनमें से कई किसान ओबीसी समुदाय के हैं ; इन कारणों से भी बीजेपी के साथ इस समुदाय का मोहभंग हो सकता है. ओबीसी समुदाय की शिकायतों के अलावा, व्यापक मुद्दे जैसे दूसरी लहर के दौरान कोरोना को लेकर कुप्रबंधन, मुद्रास्फीति, मूल्य वृद्धि और समाजवादी पार्टी द्वारा लगातार उठाई जा रही बेरोज़गारी का मुद्दा भी मौजूदा भाजपा सरकार के ख़िलाफ़ लोगों की भावनाओं को बढ़ा सकती है. इतना ही नहीं, अखिलेश यादव की राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) जैसे छोटे जाति-आधारित दलों, जिन्हें पश्चिमी यूपी में जाटों का समर्थन प्राप्त है, के साथ सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी और महान दल जैसी पार्टियों के साथ गठबंधन ने भी भाजपा के ख़िलाफ़ चुनौतियां बढ़ाने में अपनी भूमिका निभाई है. सामाजिक समूहों का ऐसा ही ‘इंद्रधनुषीय गठबंधन’ सपा को इन चुनावों में फायदा पहुंचा सकता है.
हालांकि सूबे में सामाजिक गठबंधन के संभावित पुनर्गठन के संकेत इस चुनाव और उसके बाद के राजनीतिक परिणामों को नया आकार दे सकते हैं लेकिन भाजपा के राजनीतिक वापसी की क्षमता को कम कर नहीं आंका जा सकता है. यहां यह ध्यान देने योग्य है कि सात साल सत्ता में रहने के बावजूद सर्वे बताते हैं कि राज्य में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ़ कम नहीं हुआ है. सत्ताधारी बीजेपी ने प्रशासन और विकास के नैरेटिव को बेहद ही मज़बूती से जनता के सामने रखा है. समाजवादी पार्टी के शासन के दौरान कानून व्यवस्था की बदहाली के मुक़ाबले बीजेपी ने योगी आदित्यनाथ की एक कुशल प्रशासक के तौर पर जो कानून व्यवस्था को कायम रखने में सक्षम छवि हैं, खूब प्रचारित किया है जो बेहतर प्रशासक होने के संदेश को जनता तक पहुंचाता है. यही नहीं, राज्य सरकार द्वारा आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को लक्षित करने वाले कल्याणकारी उपायों की एक बड़ी फेहरिस्त, जिसमें कोरोना के दौरान खाद्यान्न वितरण जैसी बड़ी योजना के साथ-साथ आवास, शौचालय और स्वास्थ्य सेवाओं जैसी मुफ्त या सब्सिडी वाली सुविधाएं शामिल हैं, इन योजनाओं ने भाजपा की लोकप्रियता को बढ़ाने में मदद की है.
ओबीसी समुदाय की शिकायतों के अलावा, व्यापक मुद्दे जैसे दूसरी लहर के दौरान कोरोना को लेकर कुप्रबंधन, मुद्रास्फीति, मूल्य वृद्धि और समाजवादी पार्टी द्वारा लगातार उठाई जा रही बेरोज़गारी का मुद्दा भी मौजूदा भाजपा सरकार के ख़िलाफ़ लोगों की भावनाओं को बढ़ा सकती है.
ख़ास तौर से, यूपी में केंद्र और राज्य दोनों सरकारों ने ढांचागत विकास को बढ़ाने की दिशा में काफी मज़बूती से प्रयास किए हैं. पिछले कुछ सालों में कई बड़ी परियोजनाएं शुरू की गई हैं, जिनमें से कुछ का उद्घाटन हाल के महीनों में पीएम मोदी ने किया है और कई पूरा होने के विभिन्न चरणों में हैं. ऐसी परियोजनाओं में प्रमुख नोएडा अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा, गोरखपुर में एम्स, कानपुर मेट्रो परियोजना, यूपी रक्षा औद्योगिक गलियारा, कुशीनगर हवाई अड्डा, हिंदुस्तान उर्वरक रसायन लिमिटेड का उर्वरक संयंत्र और बीआरडी मेडिकल कॉलेज में आईसीएमआर की क्षेत्रीय इकाई क्षेत्रीय चिकित्सा अनुसंधान केंद्र (आरएमआरसी) में एक उच्च तकनीक प्रयोगशाला शामिल हैं. इसके साथ ही आजमगढ़, अलीगढ़ और सहारनपुर में विश्वविद्यालय स्थापित करने की योजना, पूर्वांचल में आयुष विश्वविद्यालय और खेल विश्वविद्यालय के साथ नौ मेडिकल कॉलेज की स्थापना करना और अयोध्या, मथुरा और वाराणसी में पर्यटन विकास की पहल को आगे बढ़ाना भी शामिल है. इसके अलावा सड़क संपर्क को बढ़ावा देने के लिए 594 किलोमीटर लंबे गंगा एक्सप्रेसवे के साथ-साथ “पूर्व (पूर्वांचल) और दक्षिण (बुंदेलखंड) में लगभग 640 किलोमीटर तक एक्सप्रेसवे निर्माण” सत्तारूढ़ बीजेपी शासन द्वारा शुरू किया गया है. ये विकास और कल्याणकारी योजनाएं जातिगत पहचान से परे जाकर मतदाताओं को भाजपा के पक्ष में सीधे लामबंद करने में मदद कर सकती हैं.
2013 के मुज़फ़्फरनगर दंगों का बीजेपी द्वारा बार-बार ज़िक्र करना, जिसके लिए बीजेपी का यह आरोप लगाना कि समाजवादी पार्टी “मुस्लिम तुष्टीकरण” की नीति पर चलती है; हिंदू वोटरों के ध्रुवीकरण को बीजेपी के पक्ष में कर सकती है. साथ ही वाराणसी में काशी-विश्वनाथ कॉरिडोर का भव्य उद्घाटन और राम मंदिर निर्माण की शुरुआत चुनाव में हिंदुत्व-आधारित वोटरों की लामबंदी की संभावना को बल देती है. नतीज़तन, ओबीसी के कुछ वर्गों का समर्थन भी भाजपा को मिल सकता है, जो ओबीसी नेताओं के हाल में दलबदल से होने वाले राजनीतिक नुकसान की भरपाई कर सकता है. इस दल-बदल के बावजूद, बीजेपी के अपने कई कद्दावर ओबीसी नेता और उनकी की पिछड़ी जातियों के राजनीतिक सहयोगी जैसे अपना दल (एस) और निषाद पार्टी, भाजपा के लिए ओबीसी वोटों के पार्टी से दूर होने को कुछ हद तक रोक सकती है.
हिंदू वोटरों के ध्रुवीकरण को बीजेपी के पक्ष में कर सकती है. साथ ही वाराणसी में काशी-विश्वनाथ कॉरिडोर का भव्य उद्घाटन और राम मंदिर निर्माण की शुरुआत चुनाव में हिंदुत्व-आधारित वोटरों की लामबंदी की संभावना को बल देती है.
इसलिए, इस चुनाव में विकास पर प्रतिस्पर्द्धी नैरेटिव के साथ मज़बूती से जुड़ी पहचान की राजनीति यूपी के इस चुनावी परिदृश्य पर हावी होते दिख रहे हैं. ज़ाहिर है सभी की निगाहें चुनावों पर टिकी हुई हैं और सवाल बड़ा यह है कि क्या अखिलेश यादव के नेतृत्व में मंडल की राजनीति की वापसी होगी या हिंदुत्व की व्यापक अपील, जो कि कल्याणवादी नीतियों और ध्रुवीकरण के साथ बेहद सावधानी से जुड़ी हुई है.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.
Ambar Kumar Ghosh is an Associate Fellow under the Political Reforms and Governance Initiative at ORF Kolkata. His primary areas of research interest include studying ...
Read More +