Unilateral Economic Sanctions: एकतरफ़ा आर्थिक प्रतिबंधों की वैधता पर उठते सवाल!
इसमें कोई शक नहीं है कि एकतरफा आर्थिक प्रतिबंध थोपना आज के दौर में किसी भी भू-राजनीतिक चुनौती का जवाब देने के लिए प्राथमिक हथियार बन गया है. शिनजियांग और म्यांमार में मानवाधिकारों की स्थिति हो या फिर ईरान और उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रम, कथित तौर पर नियम विरुद्ध और गलत कार्य करने वाले देशों पर लगाम लगाने और उन्हें सही रास्ते पर लाने के लिए मजबूर करने की पहली प्रतिक्रिया, उन पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगाना ही रही है. यूक्रेन पर हमला करने के लिए रूस के ख़िलाफ़ हाल ही में लगाए गए प्रतिबंध द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात दुनिया के एक शीर्ष ताक़तवर देश के विरुद्ध सबसे व्यापक और समन्वित कार्रवाई है.
एकतरफा आर्थिक प्रतिबंध व्यवस्था का सबसे ज्य़ादा परेशानी पैदा करने वाला पहलू तीसरे या तटस्थ देशों पर भी निशाना साधना है, जो किसी टार्गेटेड यानी लक्षित देश के साथ किसी भी प्रकार की व्यापारिक या वाणिज्यिक कार्रवाई में संलग्न है.
इस प्रकार के एकतरफा आर्थिक प्रतिबंधों के अन्य उदाहरणों में व्यापार प्रतिबंध और पारस्परिक व्यापरिक संबंधों वाले देशों के बीच होने वाले वित्तीय और निवेश से जुड़े लेन-देन को रोकना भी शामिल है. एकतरफा आर्थिक प्रतिबंध व्यवस्था का सबसे ज्य़ादा परेशानी पैदा करने वाला पहलू तीसरे या तटस्थ देशों पर भी निशाना साधना है, जो किसी टार्गेटेड यानी लक्षित देश के साथ किसी भी प्रकार की व्यापारिक या वाणिज्यिक कार्रवाई में संलग्न है. आर्थिक प्रतिबंधों को लेकर बना अमेरिका का क़ानून, यानी काउंटरिंग अमेरकाज एडवर्सरीज थ्रो सैंक्संस एक्ट, 2017 (CAATSA), ऐसे किसी भी तीसरे देश पर प्रतिबंध लगाने की अनुमति देता है, यदि वह देश लक्षित देशों के साथ कोई भी महत्त्वपूर्ण लेन-देन करता है या संबंध रखता है, जैसे कि ईरान, उत्तर कोरिया या रूस.
इस आर्थिक हथियार का व्यापक उपयोग अंतर्राष्ट्रीय क़ानून के अंतर्गत उसकी वैधता से संबंधित जांच-पड़ताल किए जाने की ज़रूरत पर ज़ोर देता है. अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के पूरे इतिहास को खंगालें तो पता चलेगा कि इस तरह के क़दमों का उपयोग हमेशा से होता रहा है और यह सच्चाई है कि युद्धों के दौरान तो इसका बहुतायत में बलपूर्वक इस्तेमाल इसकी खासियतों में से एक रहा है. समय के साथ-साथ सशस्त्र संघर्ष के दौरान इस्तेमाल उठाए जाने वाले ज़बरदस्त क़दमों, जैसे नाकाबंदी, प्रतिशोध, प्रतिबंध, दुश्मन देश की रसद काटकर आबादी के लिए खाने-पीने का संकट पैदा करना, आदि को कई अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनी उपकरणों द्वारा नियमित किया जाने लगा.[i]
आर्थिक रूप से बड़े देश अपेक्षाकृत कमज़ोर अर्थव्यवस्थाओं को लक्षित देशों के साथ संबंध स्थापित करने से रोकने के लिए मज़बूर करते हैं. इस तरह से लक्षित देशों की विदेश और व्यापार नीतियों को प्रभावित किया जाता है, जो कि किसी देश का अपना एक विशेषाधिकार है और इसमें कोई बाहरी हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए.
अक्सर देखा गया है कि युद्ध के दौरान भोजन और दवाओं जैसी बुनियादी ज़रूरतों की बेरोक-टोक आपूर्ति की अनुमति देने पर सभी सहमत हैं, हलांकि कभी-कभार इस मुद्दे पर अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों का उल्लंघन ज़रूर देखने को मिलता है.[ii] यद्यपि, एकतरफा आर्थिक प्रतिबंधों जैसे आक्रामक उपायों का अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनी अधिनियम, जो कि शांतिकाल में भी ज़ारी है, देखा जाए तो यह अभी भी अपने प्रारंभिक चरण में ही है. हालांकि, संयुक्त राष्ट्र चार्टर का चैप्टर VII प्रतिबंधों को लागू करने की अनुमति देता है, लेकिन ये प्रतिबंध संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) की अगुवाई में की गई सामूहिक कार्रवाई के तौर पर हैं, ताकि किसी देश को धमकी देने वाले और अंतर्राषट्रीय शांति व सुरक्षा को नुकसान पहुंचाने वाले अपने ऐसे सभी कार्यों को खत्म करने के लिए मज़बूर किया जा सके. संयुक्त राष्ट्र चार्टर एक अंतरिम उपाय के रूप में आत्मरक्षा के अधिकार को छोड़कर किसी भी सदस्य देश द्वारा या तो ज़बरन या गैर-ज़बरदस्ती लागू किए जाने वाले एकतरफा प्रतिबंधों को मान्यता नहीं देता है.
प्रतिबंध से कोई हल नहीं
अंतर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा आमतौर पर एकतरफा आर्थिक प्रतिबंधों को अंतर्राष्ट्रीय क़ानून द्वारा निर्धारित किए गए ढांचे के बाहर मनमानी कार्रवाई माना जाता है. उदाहरण के लिए वर्ष 2018 के यूएनजीए के प्रस्ताव में क्यूबा पर अमेरिकी प्रतिबंधों की निंदा की गई, जो वर्ष 1962 से लागू चल रहे हैं. इस प्रस्ताव के पक्ष में 189 देशों (बहुसंख्यक) ने मतदान किया और केवल दो देशों ने इसके ख़िलाफ़ मतदान किया, यानी स्वयं अमेरिका और इज़राइल ने. प्रस्तावों में इसका स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि एक-तरफा बलपूर्वक प्रतिबंधों को लागू करना संयुक्त राष्ट्र चार्टर के तहत किसी देश के अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों का उल्लंघन है और उसके विरुद्ध है.
ऐसा इसलिए है क्योंकि संयुक्त राष्ट्र चार्टर का आर्टिकल 2(3) सदस्य देशों पर अपने विवादों को शांतिपूर्ण ढंग से हल करने के लिए बाध्य करता है. ज़ाहिर है कि ऐसे प्रतिबंध जो आमतौर पर कभी-कभी विभिन्न मुद्दों पर मतभेद के बावज़ूद लगाए जाते हैं, किसी भी तरह से विवादों के शांतिपूर्ण समाधान में योगदान नहीं करते हैं. उदाहरण के लिए, ईरान के परमाणु कार्यक्रम का मुक़ाबला करने के लिए अमेरिका द्वारा ईरान पर लगाए गए कड़े प्रतिबंधों का कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकला है और दोनों पक्ष अभी भी आपस में उलझे हुए हैं. आर्थिक प्रतिबंध जिस देश पर लगाए जाते हैं, वे वहां के नागरिकों की परेशानियों को बढ़ाने के सिवा और कुछ नहीं करते हैं. और ज़ाहिर है कि ऐसे प्रतिबंधों को लगाकर किसी विवाद को शांतिपूर्ण ढंग से हल करने की उम्मीद नहीं की जा सकती है.
अंतर्राष्ट्रीय क़ानून में ऐसा कहीं भी कुछ नहीं लिखा है, जो किसी देश पर शासन के किसी खास मॉडल को अपनाने के लिए क़ानूनी तौर पर बाध्य करता हो. ज़ाहिर है कि इस प्रकार मनगढ़ंत आधारों पर प्रतिबंध लगाना स्पष्ट रूप से राजनीतिक वजहों से प्रेरित है.
इसके अलावा, विशेष रूप से ऐसे आर्थिक प्रतिबंध, जिनकी प्रकृति क्षेत्रीय होती है, यानी जो पूरे एक क्षेत्र को प्रभावित करते हैं, वो संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 2(7) का सरासर उल्लंघन करते हैं, क्योंकि यह अनुच्छेद किसी देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने पर रोक लगाता है. ये हस्तक्षेप कुछ इस तरह के होते हैं, जब एक देश किसी दूसरे देश को “अपनी नीति या काम करने के तरीक़े को बदलने के लिए मज़बूर करता है, वो भी अपने प्रभाव या फिर समझाने-बुझाने के माध्यम से नहीं, बल्कि बात नहीं मानने पर दुष्परिणामों और ख़तरों का भय दिखाने के लिए प्रतिबंधों को लागू करने के माध्यम से.”[iii] आर्थिक रूप से बड़े देश अपेक्षाकृत कमज़ोर अर्थव्यवस्थाओं को लक्षित देशों के साथ संबंध स्थापित करने से रोकने के लिए मज़बूर करते हैं. इस तरह से लक्षित देशों की विदेश और व्यापार नीतियों को प्रभावित किया जाता है, जो कि किसी देश का अपना एक विशेषाधिकार है और इसमें कोई बाहरी हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए. यह राष्ट्रों की संप्रभु समानता के सिद्धांत पर हमला करता है, जो कि अंतर्राष्ट्रीय क़ानून का एक प्रमुख मानदंड है.
व्यापक स्तर पर एकतरफा आर्थिक प्रतिबंध एक देश के पूरे वित्तीय ढांचे पर असर डालते हैं और ज़्यादातर उस देश के आम लोगों को ध्यान में रखे बगैर मनमाने तरीक़े से लगाए जाते हैं. ज़ाहिर है कि ऐसे प्रतिबंधों का असर दूरगामी होता है और बुहत मारक भी होता.[iv] यूनाइटेड नेशन्स हाई कमिश्नर फॉर ह्यूमन राइट्स (ओएचसीएचआर) ने दफ़्तर ने एकतरफा बलपूर्वक उठाए गए क़दमों के नकारात्मक प्रभाव को लेकर अपनी रिपोर्टों में बार-बार इस मुद्दे को उठाया है, साथ ही मानवाधिकारों पर एकतरफा प्रतिबंधों के ‘अत्यधिक’ नकारात्मक असर की ओर इंगित किया है.
एकतरफा प्रतिबंधों में नागरिकों को उनके जीवन निर्वहन के साधनों से वंचित करने की क्षमता होती है. उदाहरण के लिए, ईरान के हेल्थकेयर सेक्टर की स्थित की बात करते हैं, जो कि अमेरिका द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों की वजह से बुरी तरह से प्रभावित हुआ है. जैसा कि ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट में स्पष्ट तौर पर उल्लेख किया गया है कि अमेरिकी प्रतिबंधों की वजह से ईरान की मानवीय आयातों को वित्तपोषित करने की क्षमता को काफ़ी कम कर दिया है. इतना ही नहीं इसने ईरानी नागरिकों के स्वास्थ्य, दवाओं और चिकित्सा देखभाल तक पहुंच के अधिकार को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है.
मानवाधिकार पर हमला
आर्थिक प्रतिबंध विदेशी निवेशकों, अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और विदेशी कंपनियों के लिए टार्गेटेड देश के साथ व्यापारिक और वाणिज्यिक गतिविधियों में संलग्न होने के लिए निराशाजनक होते हैं, क्योंकि उन्हें इन प्रतिबंधों की जद में आने का ख़तरा लगातार बना रहता है, जो जाने-अंजाने में उन्हें भी प्रभावित कर सकते हैं. यह आर्थिक गतिरोध प्रत्येक व्यक्ति के जीवन और मानवाधिकारों को प्रभावित करता है, खासतौर पर आबादी के वंचित वर्ग और हाशिए पर पड़े लोगों के जीवन को. यह आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय समझौता (ICESCR) और नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध (ICCPR) जैसे मानवाधिकार समझौतों का उल्लंघन करता है. इन दोनों समझौतों के कॉमन अर्टिकल 1 में उल्लेख किया गया है कि “किसी भी स्थिति में लोगों को अपनी आजीविका या रोजी-रोटी के साधनों से वंचित नहीं किया जा सकता है.”
हालांकि, एक स्थिति ऐसी भी है, जब किसी देश पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाने की पूरी अनुमति है. वह स्थित है, जब कोई देश अंतर्राष्ट्रीय क़ानून के तहत अपने दायित्वों का, अपनी ज़िम्मेदारियों का उल्लंघन करता है और “अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कोई ऐसा गलत कार्य” करता है, जिसकी वजह से वह देश सवालों के घेरे में आ सकता है. ऐसा कृत्य करने के दोषी देश को अपने दायित्वों का पालन करने के लिए मज़बूर करने के लिए और सवालों के घेरे में आने वाले गलत कार्य को करने से रोकने के लिए, प्रतिबंधों के रूप में जवाबी कार्रवाई करने की अनुमति है.[v] हालांकि, इस जवाबी कार्रवाई का मकसद सिर्फ़ उस देश के गलत कार्य को रोकना होना चाहिए, ना कि उसे सज़ा देने के लिए. इसके अलावा, जवाबी कार्रवाई इस प्रकार की होनी चाहिए उसे कुछ समयावधि तक ही अमल में लाया जाए[vi] और एक बार गलत कार्य के समाप्त होने पर इस जवाबी कार्रवाई को भी खत्म कर दिया जाना चाहिए.[vii] इसके अतिरिक्त, जवाबी कार्रवाई किसी भी लिहाज़ से मौलिक मानवाधिकारों को प्रभावित नहीं करनी चाहिए और साथ ही वह अंतर्राष्ट्रीय क़ानून के अनुशासनात्मक मानदंडों का उल्लंघन करने वाली नहीं होनी चाहिए, यानी वो मानदंड जिनसे किसी भी परिस्थिति में डिगना संभव नहीं है.[viii]
देश की ज़िम्मेदारियों और जवाबी कार्रवाइयों से जुड़े इन नियमों के अस्तित्व के बावज़ूद, अक्सर थोपे गए अधिकांश एकतरफा आर्थिक प्रतिबंध किसी देश के गलत कार्य के विरुद्ध नहीं होते हैं. उदाहरण के लिए, ईरान और उत्तर कोरिया के ख़िलाफ़ उनके परमाणु हथियार कार्यक्रम को लेकर लगाए गए प्रतिबंध. इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस ने अपने परमाणु हथियार एडवाइजरी ओपिनियन में स्पष्ट रूप से माना है कि परमाणु हथियारों का प्रसार और यहां तक कि उनका उपयोग भी अपने आप में गैरक़ानूनी नहीं है. इस निर्णय के मुताबिक़ परमाणु प्रसार को लेकर एक देश के अधिकार को ध्यान में रखते हुए ना तो ईरान और ना ही उत्तर कोरिया ने कोई गलत कार्य किया है, विशेष तौर पर तब, जबकि परमाणु अप्रसार संधि स्वयं “देश के सर्वोच्च हितों की सुरक्षा” के आधार पर आर्टिकल X के अंतर्गत वापसी की अनुमति देती है. इसलिए, इन देशों पर लगाए गए प्रतिबंध एक लिहाज़ से दंडात्मक कार्रवाई के तहत आते हैं. क्यूबा पर थोपे गए प्रतिबंधों के साथ भी इसी प्रकार की स्थिति है. 1992 के क्यूबा लोकतंत्र अधिनियम में कहा गया है कि क्यूबा में प्रतिबंध लगाने का उद्देश्य उसे लोकतंत्रीकरण की ओर बढ़ने के लिए मज़बूर करना है. अंतर्राष्ट्रीय क़ानून में ऐसा कहीं भी कुछ नहीं लिखा है, जो किसी देश पर शासन के किसी खास मॉडल को अपनाने के लिए क़ानूनी तौर पर बाध्य करता हो. ज़ाहिर है कि इस प्रकार मनगढ़ंत आधारों पर प्रतिबंध लगाना स्पष्ट रूप से राजनीतिक वजहों से प्रेरित है.
इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस (आईसीजे) ने ईरान-अमेरिका प्रतिबंधों के मामले में अपने हाल के एक निर्णय में कहा है कि उसे इस मामले की मेरिट यानी योग्यता पर निर्णय लेने का पूरा अधिकार है. इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि अपने देश के क़ानूनों के अंतर्गत किसी दूसरे देश लगाए गए आर्थिक प्रतिबंध न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर नहीं हैं.
इन प्रतिबंधों और जवाबी क़दमों का कभी भी न्यायिक परीक्षण नहीं हुआ है, यानी क़ानूनी तौर पर इस तरह की कार्रवाई की वैधता को नहीं जांच-परखा गया है, इस वजह से अब राष्ट्रों की तरफ से इनके ज़रिए अपनी ताक़त का मनमाने तरीक़े से इस्तेमाल करना आम होता जा रहा है. यदि कोई देश उपर्युक्त शर्तों के साथ-साथ निर्धारित सीमाओं का पालन करने में विफल रहा है, तो स्पष्ट है कि जवाबी कार्रवाई गैर-क़ानूनी हो सकती हैं.
निष्कर्ष
इस आर्थिक हथियार से पैदा होने वाले ख़तरों नज़रअंदाज नहीं किया जाना चाहिए. अंधाधुंध तरीक़े से किसी देश पर थोपे गए भांति-भांति के प्रतिबंध सामूहिक विनाश के हथियार बनने की क्षमता रखते हैं. यह कहना अतिशियोक्ति नहीं होगी कि प्रतिबंध रूपी ये हथियार ना सिर्फ़ किसी देश की नींव को ही हिला देने की क्षमता रखते हैं, बल्कि उस देश के केंद्रीय संस्थानों, फर्मों, जीवन और यहां तक कि नागरिकों की आजीविका को नष्ट करने की भी क्षमता रखते हैं. इन हालातों में इन प्रतिबंधों को लेकर कोई ध्यान नहीं देना और इनके असर की उपेक्षा करना एक हिसाब से न्याय का मज़ाक उड़ाने के अलावा और कुछ नहीं है.
ज़ाहिर है कि प्रतिबंधों को लागू करने से होने वाले व्यापक नुकसान की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए, बाक़ायदा न्यायिक जांच के रूप में इनका एक उचित नियंत्रण और संतुलन बहुत ज़रूरी है. इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस (आईसीजे) ने ईरान-अमेरिका प्रतिबंधों के मामले में अपने हाल के एक निर्णय में कहा है कि उसे इस मामले की मेरिट यानी योग्यता पर निर्णय लेने का पूरा अधिकार है. इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि अपने देश के क़ानूनों के अंतर्गत किसी दूसरे देश लगाए गए आर्थिक प्रतिबंध न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर नहीं हैं.
[i] Lance E. Davies, Stanley L. Engerman, Naval Blockades in Peace and War: An Economic History since 1750 (Cambridge: Cambridge University Press, 2006) p. 2.
[ii] Article 54, Protocol Additional to the Geneva Conventions of 12 August 1949, and Relating to the Protection of Victims of International Armed Conflicts, 1977 [“Additional Protocol I”].
[iii] Dire Tladi, The Duty Not to Intervene in Matters Within Domestic Jurisdiction, in THE UN FRIENDLY RELATIONS DECLARATION AT 50: AN ASSESSMENT OF THE FUNDAMENTAL PRINCIPLES OF INTERNATIONAL LAW 87, 92 (Jorge E. Viñuales ed., 2020).
[iv] Ioannis Prezas, From targeted states to affected populations: exploring accountability for the negative impact of comprehensive unilateral sanctions on human rights in Charlotte Beaucillon (ed.), Research Handbook on Unilateral and Extraterritorial Sanctions 385 (1st ed. Elgar 2021).
[v] ILC, Articles on Responsibility of States for Internationally Wrongful Acts, U.N. Doc. A/RES/56/83 (2002), Art. 49, available at https://legal.un.org/ilc/texts/instruments/english/draft_articles/9_6_2001.pdf. [“ARSIWA”]
[vi] ARSIWA, Art. 51.
[vii] ARSIWA, Art. 53.
[viii] ARSIWA, Art. 50.
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