Author : Kamal Malhotra

Published on Apr 17, 2023 Updated 0 Hours ago

तुर्की के आने वाले चुनाव इस मध्यम दर्जे की शक्ति की घरेलू नीति में बदलाव ला सकते हैं और उसकी दूरगामी विदेश की दशा-दिशा भी बदल सकते हैं.

दोराहे पर खड़ा तुर्की: मतदान का मक़सद क्या? यथास्थिति या बदलाव…

 

प्रस्तावना

14 मई 2023 को तुर्की में होने वाले चुनाव, निश्चित रूप से इस देश के आधुनिक इतिहास में सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं. क्योंकि, इसके नतीजे इस मध्यम भू-राजनीतिक शक्ति वाले देश के दूरगामी मिज़ाज और दशा-दिशा को तय करेंगे. इस चुनाव के नतीजों का असर न केवल घरेलू स्थिति पर पड़ेगा बल्कि भू-राजनीतिक परिणाम भी देखने को मिलेंगे, क्योंकि मोटे तौर पर ये बात तो सब मानते हैं कि अपनी सामरिक भौगोलिक स्थिति के कारण तुर्की, भू-राजनीतिक मामलों में अपनी हैसियत से ज़्यादा असर रखता है. इसीलिए, तुर्की के गणराज्य की सौवीं सालगिरह पर हो रहे इन चुनावों पर पूरी दुनिया की नज़र रहेगी. इस चुनाव के नतीजे सिर्फ़ यही तय नहीं करेंगे कि तुर्की का नेतृत्व कौन करेगा, बल्कि ये भी तय होगा कि देश को कैसे शासित किया जाएगा, इसकी अर्थव्यवस्था किस दिशा में जा रही है और क्या तुर्की, पश्चिम और यूरोपीय संघ (EU) के और क़रीब जाएगा या दूर होगा. पिछले दो दशको के दौरान रेचेप तैयप अर्दोआन के नेतृत्व में तुर्की अलगाववादी इस्लामिक रास्ते पर चलता आ रहा है. चुनाव के नतीजों से ये तय होगा कि क्या अब तुर्की के लिए इस रास्ते से लौट पाना असंभव होगा या फिर वो आंशिक रूप से ही सही, धर्मनिरपेक्षता की अपनी उन जड़ों की ओर लौटेगा, जिसकी पौध 1923 में गणराज्य के संस्थापक के तौर पर मुस्तफ़ा कमाल अतातुर्क ने लगाई थी.

अर्दोआन के पिछले दो दशकों के शासनकाल के दौरान तुर्की, धर्मनिरपेक्षता की ये राह छोड़कर बहुसंख्यकवादी शासन की राह पर चल रहा था. अर्दोआन ने चुनावी तानाशाही के ज़रिए बड़ी सख़्ती से राज करते हुए सत्ता पर अपनी पकड़ मज़बूत की है

कमाल अतातुर्क के नेतृत्व में तुर्की एक आधुनिक और आक्रामक रूप से धर्मनिरपेक्ष गणराज्य था और वो तमाम मुस्लिम बहुल देशों के बीच में आधुनिकता का प्रकाश स्तंभ बनकर उभरा था. अर्दोआन के पिछले दो दशकों के शासनकाल के दौरान तुर्की, धर्मनिरपेक्षता की ये राह छोड़कर बहुसंख्यकवादी शासन की राह पर चल रहा था. अर्दोआन ने चुनावी तानाशाही के ज़रिए बड़ी सख़्ती से राज करते हुए सत्ता पर अपनी पकड़ मज़बूत की है. शुरुआत में इस बहुसंख्यकवाद के साथ सामाजिक कल्याण की सेवाओं में वृद्धि के माध्यम से ग़रीबी उन्मूलन और हिजाब पहनने वाली मुस्लिम महिलाओं को उच्च शिक्षा प्राप्त करने और सरकार के लिए काम करने की आज़ादी भी जुड़ी थी. इससे पहले तुर्की गणराज्य में इन बातों पर पाबंदी लगी हुई थी. लेकिन हाल के दौर में दूसरी बुराइयों ने इन फ़ायदों पर ग्रहण लगा दिया है. अर्थव्यवस्था तेज़ी से पतन की ओर बढ़ रही है. एक के बाद एक भूकंपों ने मुल्क में भयंकर तबाही मचाई है. इसके अलावा ख़राब प्रशासन और मानव अधिकारों के उल्लंघन की अनगिनत शिकायतें मिल रही हैं. इन परेशानियों ने विपक्षी दलों के बीच अभूतपूर्व एकता क़ायम करने में योगदान दिया है. इसका नतीजा ये हुआ है कि मई महीने में एक ऐसे वास्तविक बदलाव के लिए अवसर दिख रहा है, जिसकी हाल के दिनों तक कल्पना तक नहीं की जा सकती थी. इन चुनावों में अदालत वे कलकिनमा पार्टिसी (AK Party) और अर्दोआन की निजी तौर पर हार की संभावनाएं जताई जा रही हैं.

तुर्की की अर्थव्यवस्था का हाल

तुर्की के नागरिक पिछले कई वर्षों से अर्थव्यवस्था के बुरे हाल को झेल रहे हैं और ग़रीबी भी बढ़ गई है. हालांकि, आंकड़े सटीक तरीक़े से इन मुश्किलों को पेश नहीं कर सकते कि तकलीफ़ या मुनाफ़ा किस स्तर तक लोगों के बीच बंटा है. लेकिन, तुर्की की अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति क्या है इसे आंशिक रूप से दो आंकड़ों में समेटा जा सकता है. 2022 में महंगाई दर 85 प्रतिशत से भी ऊपर थी. उसके बाद से इसमें गिरावट आई है और 2023 के शुरुआती महीनों में आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक़, तुर्की की महंगाई दर 55 प्रतिशत मापी गई थी. हालांकि, ज़्यादातर लोग ये मानते हैं कि वास्तविक महंगाई दर इससे कहीं ज़्यादा है. पिछले पांच वर्षों में तुर्की की मुद्रा लीरा की क़ीमत 80 प्रतिशत तक गिर गई है. इसके अलावा, तुर्की में क़ानून लागू करने को लेकर अप्रत्याशित और असमानत स्थिति को देखते हुए निवेशकों का भरोसा तुर्की में घटा है, और इस खाई को पाटना बहुत मुश्किल है. बहुत से भरोसेमंद पर्यवेक्षकों का ये भी मानना है कि तुर्की की अर्थव्यवस्था उधार के वक़्त पर चल रही है.

तबाही मचाने वाले भूकंप

हो सकता है कि बर्बाद हो चुकी अर्थव्यवस्था ही तुर्की के विपक्ष को एकजुट करने के लिए काफ़ी न होती. हालांकि, हो सकता है कि इस वजह से संसदीय चुनावों में  जम्हूरियत हल्क पार्टिसी (CHP) को जीत मिली हो. लेकिन, फ़रवरी 2023 में आए भयंकर भूकंप से मची भारी तबाही और लोगों की जान जाने से शायद, विपक्ष के बीच अलगाव की दीवार पूरी तरह गिर गई. इस साल आए भूकंप में मरने वालों की संख्या दिसंबर 1939 में आए भयंकर भूकंप से भी ज़्यादा रही है. लोगों का मानना है कि इस साल आए ज़लज़ले के पहले दो हफ़्तों के दौरान ही 50 हज़ार से अधिक लोगों की जान जा चुकी थी. चुनावों से लगभग तीन महीने पहले आए इन भूकंपों की डरावनी यादें, मतदान करते वक़्त लोगों के ज़हन में ताज़ा होंगी और इससे अर्दोआन और उनकी एकेपी पार्टी को शायद ही कोई मदद मिल पाए.

सरकार चलाने के तौर तरीक़े से नाख़ुशी

इसी साल आए भयंकर भूकंप ने जिस तरह तबाही मचाई, वो इस बात का साफ़ उदाहरण है कि इसके लिए ख़राब प्रशासन सीधे तौर पर ज़िम्मेदार है. पिछले कई दशकों से ठेकेदारों द्वारा इमारतें बनाने के मानकों का पालन नहीं किया जा रहा था और इसमें सरकार की भी मिलीभगत थी. 2018 के आम चुनाव से ठीक पहले, निर्माण करने वालों को अपराध से माफ़ी जैसी रियायतें पारित किए जाने से बस जुर्माना भरकर, बिना लाइसेंस वाली संपत्तियों का रजिस्ट्रेशन कराया जा सकता था. अगर इन ठेकेदारों से इमारतें बनाने के नियमों का सख़्ती से पालन कराया जाता और उन्हें जुर्म से माफ़ी नहीं दी जाती, तो भूकंप से इमारतों और लोगों की जान के नुक़सान को काफ़ी कम किया जा सकता था.

एक वक़्त में तुर्की का सांख्यिकी दफ़्तर, आर्थिक विकास एवं सहयोग संगठन (OECD) का सबसे प्रतिष्ठित संस्थान माना जाता था. लेकिन, आज ये दफ़्तर सरकार का मुखपत्र बनकर रह गया है और इसकी विश्वसनीयता देश और विदेश दोनों ही जगह ख़त्म हो गई है.

पिछले कई वर्षों से तुर्की की अर्थव्यवस्था में ख़राब प्रशासन साफ़ तौर नज़र आने लगा था. पहले प्रधानमंत्री और फिर राष्ट्रपति के तौर पर अर्दोआन की आदत थी कि वो अपने सबसे वरिष्ठ और सम्मानित आर्थिक सलाहकारों के आर्थिक और वित्तीय मशविरों को नहीं मानते थे. इसके बहुत दूरगामी और व्यापक दुष्प्रभाव पड़े. केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता और नीतियों से लगातार और भयंकर रूप से समझौता किया जाता रहा, जिसके कारण बैंक के कई गवर्नरों ने पद छोड़ दिया या उनकी जगह किसी और को नियुक्त कर दिया गया. इससे अर्दोआन को कम ब्याज दरों वाली अपरंपरागत नीतियों को लागू करने में आसानी हुई, जिसका सीधा असर महंगाई में उछाल आने, तुर्की की लीरा के मूल्य में गिरावट और फिर उसकी साख बचाने के लिए बार बार और निष्प्रभावी प्रयासों के कारण केंद्रीय बैंक के रिज़र्व भंडार में भारी गिरावट के रूप में देखने को मिला. एक वक़्त में तुर्की का सांख्यिकी दफ़्तर, आर्थिक विकास एवं सहयोग संगठन (OECD) का सबसे प्रतिष्ठित संस्थान माना जाता था. लेकिन, आज ये दफ़्तर सरकार का मुखपत्र बनकर रह गया है और इसकी विश्वसनीयता देश और विदेश दोनों ही जगह ख़त्म हो गई है. अर्दोआन की आर्थिक टीम के पूर्व वरिष्ठ अधिकारियों, अली बाबाकन और मेहमत सिमसेक को निवेशक भरोसेमंद मानते थे. लेकिन वो बरसों पहले सरकार छोड़ चुके हैं और राष्ट्रपति उन्हें राज़ी करके दोबारा अपने साथ लाने में नाकाम रहे हैं. हाल के दिनों में अर्दोआन बार बार ये संकेत देने की कोशिश कर रहे हैं कि अगर वो फिर से चुनाव जीते, तो मुक्त बाज़ार की अधिक पारंपरिक नीतियों पर चलेंगे. लेकिन, लोग उन पर यक़ीन नहीं कर पा रहे हैं और न ही वो सिमसेक को भविष्य में एक अहम आर्थिक भूमिका में वापस आने के लिए राज़ी कर पाए हैं.

मानव अधिकारों का उल्लंघन

मानव अधिकारों के बार बार हो रहे उल्लंघन ने ज़्यादातर न्यायिक व्यवस्था को मुश्किल में डाल दिया है. तुर्की के हज़ारों नागरिकों को जेल में डाल दिया गया है. इनमें से बहुत से ऐसे हैं जो बरसों से बिना मुक़दमे के जेल में हैं, ख़ास तौर से जुलाई 2016 में तख़्तापलट की नाकाम कोशिश के बाद. तख़्तापलट की साज़िश रचने के आरोपी, पत्रकार और कुर्द नागरिक, इस परेशानी को सबसे ज़्यादा झेल रहे हैं.

विपक्ष की अभूतपूर्व एकजुटता

तुर्की में इस वक़्त बिल्कुल अलग अलग विचारधाराओं वाले विपक्षी दलों के बीच एकजुटता बढ़ती जा रही है. यहां तक कि कुर्द समर्थक धर्मनिरपेक्ष पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (HDP) ने भी हाल ही में CHP के नेता कमाल कुलुचदारोलू के सम्मान में राष्ट्रपति पद के लिए अपना कोई उम्मीदवार उतारने से इनकार कर दिया. कुलुचदारोलू की उम्मीदवारी को अब तुर्की के लगभग हर प्रमुख विपक्षी दल का समर्थन हासिल है. तुर्किए रैपोरू की रिपोर्ट के मुताबिक़, मार्च महीने के शुरुआती दिनों में कमाल कुलुचदारोलू, अर्दोआन से आठ अंकों से आगे चल रहे थे. दूसरे सर्वे उन्हें अर्दोआन पर दस अंकों से ज़्यादा बढ़त लेते दिखा रहे थे. जबकि बहुत के पर्यवेक्षकों का मानना है कि अर्दोआन के ख़िलाफ़ कमाल कुलुचदारोलू की उम्मीदवारी विपक्ष की सबसे बड़ी कमज़ोरी है और ऐसे कई बेहतर उम्मीदवार हैं, जिन्हें चुनाव जीतने के लिए अर्दोआन के ख़िलाफ़ चुनाव मैदान में उतारा जा सकता था.

निष्कर्ष

तुर्की गणराज्य के सौवीं सालगिरह वाले साल में हो रहे इन चुनावों पर बारीक़ी से नज़र रखी जाएगी. इसके नतीजों की चर्चा दुनिया के तमाम मुस्लिम बहुल देशों में ही नहीं, बल्कि पश्चिमी दुनिया और ख़ास तौर से तुर्की के पड़ोसी यूरोप में भी होगी. चुनाव के नतीजों का असर नेटो गठबंधन पर भी पड़ेगा, क्योंकि नेटो देशों में तुर्की के पास दूसरी सबसे बड़ी सेना है. यूक्रेन संकट के कारण, तुर्की के चुनाव की भू-राजनीतिक अहमियत और भी बढ़ गई है. क्योंकि तुर्की, रूस और यूक्रेन दोनों का नज़दीकी है और पुतिन से तो अर्दोआन की निजी तौर पर दोस्ती है. मई महीने में अगर कोई वास्तविक बदलाव होता है, तो इससे नेटो और तुर्की के लिए सकारात्मक भू-राजनीतिक निष्कर्ष निकल सकते हैं, जिसमें यूरोपीय संघ में शामिल होने की उसकी अटकी पड़ी प्रक्रिया भी शामिल है. इसके अलावा पश्चिम के साथ रिश्ते और यूक्रेन और मध्य पूर्व के संघर्ष कम करने में तुर्की, भविष्य में क्या भूमिका अदा कर सकता है, इसका फ़ैसला भी चुनाव के नतीजों से ही होगा. वैसे ऐसा बदलाव, तुर्की और पुतिन के रिश्तों के लिहाज़ से अच्छे संकेत देने वाला नहीं होगा. लेकिन, ये ज़रूर होगा कि इससे सुन्नी मुसलमानों के नेतृत्व के लिए तुर्की और सऊदी अरब के बीच चल रही क्षेत्रीय रस्साकशी ज़रूर कम होगी. क्योंकि अगर तुर्की में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनती है, तो वो इस मामले में अर्दोआन की तरह महत्वाकांक्षी नहीं होगी.

अगर ब्राज़ील के जायर बोल्सोनारो के बाद, तुर्की के रेचेप तैयप अर्दोआन भी चुनाव हार जाते हैं, तो ये नतीजे चुनावी तानाशाही कर रहे नेताओं के लिए सीधी चेतावनी होंगे, और ये दुनिया के लिए सकारात्मक संदेश भी होगा. इससे तुर्की गणराज्य का मिज़ाज बदलकर उसे एक संप्रदायवादी नई इस्लामिक उस्मानिया सल्तनत बनाने और राष्ट्रपिता के तौर पर कमाल अतातुर्क की जगह लेने की अर्दोआन की महत्वाकांक्षा पर भी पूर्ण विराम लग जाएगा. ये महत्वाकांक्षा आज के तुर्की में साफ़ तौर पर दिखती है. पूरे तुर्की गणराज्य में अतातुर्क के बैनर हटाकर अर्दोआन की तस्वीरें ही दिखाई देती हैं.

हालांकि, इतने मुश्किल हालात में भी अगर अर्दोआन निष्पक्षता से, या फिर सरकारी मशीनरी और अपने प्रति हमदर्दी रखने वाले ‘डीप स्टेट’ की मदद से, या कुर्द मतदाताओं को दबाकर, या फिर अपवित्र राजनीतिक गठबंधन की मदद से एक बार फिर चुनाव जीत जाते हैं, तो फिर तुर्की के लिए अपनी मौजूदा इस्लामिक राह से पलट पाना लगभग असंभव हो जाएगा. इसका नकारात्मक असर न सिर्फ़ तुर्की और उसके पड़ोसी देशों जैसे कि सीरिया और यूक्रेन पर पड़ेगा, बल्कि मुस्लिम बहुल देशों में भी होड़ और तनाव बढ़ेगा और, अन्य पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों और यूरोपीय संघ के साथ भी तुर्की के संबंध और तनावपूर्ण हो जाएंगे. ऐसी जीत से दुनिया भर में बढ़ रही तानाशाहों और चुनावी स्वेच्छाचारी शासकों की तादाद को भी ग़लत संकेत जाएगा और वो अर्दोआन की जीत से राहत महसूस करते हुए, अपने अपने देश की सत्ता पर भी अपना शिकंजा और मज़बूत करेंगे. इसके क्षेत्रीय और वैश्विक भू-राजनीतिक नतीजे भी विपरीत ही निकलेंगे.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.