Author : Sangeet Jain

Published on Feb 05, 2021 Updated 0 Hours ago

इस बजट के ज़रिए हमें इस बात का विश्वास दिलाने की कोशिश भी की गई है कि देश का विकास, संगठित क्षेत्र और देश के एक छोटे से तबक़े की खपत की अगुवाई में ही होता रहेगा. जो सबको साथ लेकर चलने वाली सोच से मेल नहीं खाता है.

भारत के वर्ष 2021 के बजट की प्राथमिकताएं समझने की कोशिश

भारत के वर्ष 2021 के केंद्रीय बजट पर उम्मीदों का एक अनूठा बोझ था. इससे अपेक्षा थी कि ये घरेलू बाज़ार में मांग को बढ़ावा देने वाला होगा और अस्त-व्यस्त व चोटिल अर्थव्यवस्था को तरक़्क़ी की तेज़ रफ़्तार वाली पटरी पर लौटाएगा. मगर, बजट से ये उम्मीद भी की गई थी कि वो महामारी के मौजूदा दौर से मुक़ाबला करने के लिए भी पर्याप्त इंतज़ाम करेगा और वित्तीय घाटे के भारी बोझ को भी कम करने का प्रयास करेगा.

सामाजिक क्षेत्र, शिक्षा और रोज़गार सृजन को इस साल के बजट में कोई तवज्जो नहीं दी गई है. ये हाल तब है, जब भारत इस समय लोगों की रोज़ी-रोटी के सबसे भयंकर संकट वाले दौर से गुज़र रहा है. 

पिछले कुछ महीनों के दौरान, भारत की अर्थव्यवस्था में संगठित क्षेत्र की मुनाफ़ा वसूली वाली रिकवरी को होते देखा जा रहा है. शेयर बाज़ार पर तेज़ी का बोलबाला रहा है. शेयर बाज़ार में उछाल के कारण भारत की बड़ी कंपनियों की तेज़ विकास दर और कोविड-19 के टीकाकरण अभियान की शुरुआत रहे हैं. बजट ने भी शेयर बाज़ार को निराश नहीं किया. बजट में बुनियादी ढांचे के विकास, निजीकरण, स्वास्थ्य और वित्तीय पारदर्शिता पर ज़ोर देने के चलते, बजट पेश किए जाने वाले दिन सेंसेक्स में 2315 अंकों का दूसरा सबसे ऐतिहासिक उछाल देखा गया. मगर, बजट कई नीतिगत मामलों पर पूरी तरह ख़ामोश रहा है. ये ऐसा विरोधाभास है, जो किसी से छुपा नहीं है. सामाजिक क्षेत्र, शिक्षा और रोज़गार सृजन को इस साल के बजट में कोई तवज्जो नहीं दी गई है. ये हाल तब है, जब भारत इस समय लोगों की रोज़ी-रोटी के सबसे भयंकर संकट वाले दौर से गुज़र रहा है. असंगठित क्षेत्र का दायरा सिमटने और इसके कारण स्व-रोज़गार की तादाद में बढ़ोत्तरी होने के साथ ही साथ देश में ग़रीबी और असमानता का स्तर काफ़ी बढ़ गया है. अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय द्वारा किए गए CMIE डेटा के विश्लेषण से पता चलता है कि अगस्त 2020 में देश में स्व-रोज़गार में 64 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. 15 से 24 वर्ष की उम्र वाले 59 प्रतिशत कामगारों की नौकरी चली गई. वहीं, दिसंबर 2019 में देश में जितनी कामकाजी महिलाएं थीं, उनमें से केवल 15 प्रतिशत महिलाओं को ही अपनी नौकरी बचाने में सफलता मिल सकी. इस नज़रिए से देखें, तो बजट से ये उम्मीद की जा रही थी कि वो लोगों को वित्तीय संकट से उबरने में मदद करेगा और वित्तीय स्टिमुलस के ज़रिए तुरंत ग़रीबों के हाथ में कुछ पैसा देने की व्यवस्था भी करेगा. लेकिन, बजट ने एक अलग ही रास्ता अख़्तियार किया है.

सारे क़दम सराहनीय, मगर दूरगामी

इस बजट में पूंजीगत व्यय पर ज़ोर दिया गया है. इसके अलावा, बजट में निर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए उत्पादन आधारित प्रोत्साहन, टेक्सटाइल पार्क की स्थापना, सौर ऊर्जा के उपकरण बनाने वालों को प्रोत्साहन व जहाज़ों की रिसाइकिलिंग करने वाले उद्योगों के लिए ख़ास व्यवस्था की गई है. इनका मक़सद, लंबी अवधि की संपत्तियों और रोज़गार के मौक़ों का निर्माण करना है. ये सारे क़दम सराहनीय हैं, मगर दूरगामी हैं. क्योंकि, इनके ज़रिए अगले पांच सालों में रोज़गार सृजन और खपत बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है. बजट के ये प्रावधान तात्कालिक और आवश्यक राजस्व व्यय की ज़रूरतों की अनदेखी की क़ीमत पर किए गए हैं.

बजट में वित्तीय घाटा कुल GDP का 9.5 प्रतिशत रहने का अनुमान है, जो इस तथ्य की अनदेखी करता है कि वित्तीय वर्ष 2021-22 में जिस अतिरिक्त व्यय का अनुमान लगाया गया है, वो वर्ष 2020-21 के फिर से किए गए आकलनों से महज़ 33 हज़ार करोड़ रुपए ही ज़्यादा है. इसके अलावा, बजट में सामाजिक क्षेत्र में वर्ष 2021-22 में सीमित व्यय करने का ही प्रावधान है. दुर्भाग्य की बात ये है कि ये रक़म भी उन योजनाओं पर ही ख़र्च की जाएगी, जो पहले भी अपने लक्ष्य पाने में असफल रही हैं. जबकि तरज़ीह मनरेगा जैसी योजनाओं को दी जानी चाहिए थी, जिन्होंने अपनी उपयोगिता साबित की है. कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय को इस वित्तीय वर्ष में आवंटित किए गए 1 लाख, 31 हज़ार, 531 करोड़ रुपए का लगभग आधा हिस्सा PM-किसान योजना के खाते में डाला गया है. मगर, जल्दबाज़ी में लागू की गई इस योजना का सही से क्रियान्वयन न होने से उन लोगों को मदद नहीं मिल पा रही है, जो इसके सबसे वाजिब हक़दार हैं; ज़मीन के मालिकाना हक़ वाले किसानों पर ज़ोर देने के कारण, ये योजना उन लोगों की अनदेखी करती है, जो साझे में खेती करते हैं, ठेके पर खेत लेकर किसानी करते हैं या भूमिहीन किसान हैं. जबकि ये लोग कृषि क्षेत्र के कुल कामकाजी लोगों का 55 प्रतिशत हैं. पीएम-किसान योजना की एक ख़ामी ये भी है कि इसके लिए अच्छी गुणवत्ता वाले आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं. इसकी एक वजह ज़मीन के पुराने पड़ चुके रिकॉर्ड और आधे-अधूरे व आधार के ग़लत आंकड़े हैं. इसी तरह, बजट में उज्जवला योजना को और प्रोत्साहन देने का प्रस्ताव किया गया है. इसके लिए अकेले इस वित्तीय वर्ष में उज्जवला योजना में एक करोड़ नए लाभार्थी जोड़ने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है. मगर, सच तो ये है कि उज्जवला योजना भी वास्तविक नतीजों के पैमानों पर खरी नहीं उतरती है. रिसर्च से पता चलता है कि उज्जवला योजना के लाभार्थियों ने नियमित रूप से LPG का इस्तेमाल करना नहीं शुरू किया है. इसकी वजह, सिलेंडर दोबारा भराने की भारी क़ीमत (नक़दी की कमी के शिकार घरों को देर से सिलेंडर ख़रीदने पर सब्सिडी देने का फ़ायदा नहीं मिलता) और इस्तेमाल को प्रोत्साहन देनी कोशिशों का अभाव है. ऐसे में इन दोनों ही योजनाओं को नए सिरे से ढालकर लागू किए जाने की ज़रूरत थी. तभी इनका विस्तार करना उचित होता.

ऐसे में ये बात समझ से परे है कि आख़िर क्यों मनरेगा के लिए इस साल के बजट में केवल 73 हज़ार करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है. जबकि, रोज़ी-रोज़गार के संकट के चलते ही सरकार को पिछले साल के राजस्व अनुमानों को बढ़ाना पड़ा था और अभी ये संकट ख़त्म भी नहीं हुआ है. 

वहीं दूसरी ओर, मनरेगा योजना को तुरंत नक़दी की सख़्त ज़रूरत थी. पिछले साल जब देश पर महामारी ने हमला बोला, तो इसी योजना ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था के उन लोगों की मदद की, जिन पर महामारी की सबसे गहरी चोट पड़ी थी. पीपुल्स एक्शन ऑफ एम्प्लॉयमेंट गारंटी द्वारा चलाए जाने वाले ट्रैकर के मुताबिक़, अप्रैल से सितंबर महीने के दौरान 83 लाख नए मनरेगा कार्ड जारी किए गए, जो अभूतपूर्व था. क़रीब दो लाख लोगों ने साल में 100 दिनों की रोज़गार गारंटी का पूरा लाभ जुलाई महीने में ही उठा लिया था. मांग इतनी ज़्यादा थी कि मनरेगा का बजट प्रावधान इसके लिए कम पड़ गया. इस योजना के तहत, वित्तीय वर्ष 2019-20 के दौरान सरकार पर बकाया देनदारी लगभग 6430 करोड़ रुपए थी. वर्ष 2020-21 के दौरान इस योजना पर वास्तविक व्यय बढ़कर एक लाख, ग्यारह हज़ार, पांच सौ करोड़ रुपए पहुंच चुका था. ऐसे में ये बात समझ से परे है कि आख़िर क्यों मनरेगा के लिए इस साल के बजट में केवल 73 हज़ार करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है. जबकि, रोज़ी-रोज़गार के संकट के चलते ही सरकार को पिछले साल के राजस्व अनुमानों को बढ़ाना पड़ा था और अभी ये संकट ख़त्म भी नहीं हुआ है. यहां तक कि प्रधानमंत्री रोज़गार प्रोत्साहन योजना-जिसका मक़सद संगठित क्षेत्र में नए रोज़गार और इसके साथ कामगारों की सामाजिक सुरक्षा को बढ़ावा देना है-उसके बजट प्रावधान भी पिछले साल के 2550 करोड़ रुपयों से घटाकर इस वित्तीय वर्ष में केवल 900 करोड़ रुपए कर दिए गए हैं.

प्रधानमंत्री रोज़गार सृजन योजना और सूक्ष्म, लघु व मध्यम उद्योगों (MSMEs) के लिए ऐसी ही क़र्ज़ आधारित योजनाओं को काफ़ी बढ़ावा दिया गया है. इस साल के बजट में इनके लिए 12 हज़ार 499.70 करोड़ रुपयों का प्रावधान किया गया है. जबकि पिछले साल इस मद में दोबारा अनुमानित व्यय 2227.45 करोड़ रुपए था. MSME सेक्टर भारतीय अर्थव्यवस्था में रोज़गार देने का बहुत बड़ा क्षेत्र है. इसलिए, उसके बजट प्रावधानों में ये इज़ाफ़ा हौसला बढ़ाने वाला है. हालांकि, प्रधानमंत्री रोज़गार सृजन कार्यक्रम के आवंटन में इज़ाफ़ा और MSME सेक्टर में उद्यमिता व कौशल विकास के लिए आवंटन बढ़ाने के पीछे का तर्क अभी सही साबित होना बाक़ी है. क्योंकि, वर्ष 2020-21 में इन प्रावधानों को सही तरीक़े से लागू नहीं किया जा सका था. यही कारण है कि उनके अनुमानित व्यय को दोबारा तय किए गए अनुमानों में घटाना पड़ा था. इस बीच क़र्ज़ से जुड़ी पूंजी आधारित सब्सिडी और तकनीक अपग्रेड करने की जो योजनाएं MSMEs की मुक़ाबला करने की ताक़त बढ़ाने के लिए लाई गई थीं, उनके लिए बजट में निराशाजनक तरीक़े से महज़ 315.31 करोड़ रुपए के प्रावधान किए गए हैं.

ज़ाहिर है नई शिक्षा नीति के तहत जो समावेशी दृष्टिकोण पेश किया गया था, उसे भी बजट प्रावधानों से तगड़ा झटका लगा है. जब पिछले साल पूरे देश के स्कूल लगभग साल भर बंद रहे थे और इस दौरान भारत में ग़रीब और अमीर के बीच की वो डिजिटल खाई खुलकर सामने आ गई थी, जिसके चलते शिक्षा की उपलब्धियों में भारी गिरावट आई. उस साल बजट में शिक्षा के क्षेत्र की ऐसी अनदेखी असली त्रासदी है

बजट में वन नेशन, वन राशन कार्ड का बस ज़िक्र करके छोड़ दिया गया. इसके अलावा असंगठित क्षेत्र के कामगारों और प्रवासी मज़दूरों के लिए विशेष तौर पर किसी योजना का ज़िक्र नहीं था. तमाम वर्गों के लिए न्यूनतम मज़दूरी और कर्मचारी राज्य बीमा निगम (ESIC) के अंतर्गत कवरेज को बढ़ाने की तारीफ़ की जानी चाहिए. वित्त मंत्री ने इसका पहले भी ज़िक्र किया था. असंगठित क्षेत्र के कामगारों के लिए डेटा पोर्टल का निर्माण एक महत्वपूर्ण शुरुआत है. हमारे देश की कल्याणकारी व्यवस्था असंगठित क्षेत्र के भरोसेमंद आंकड़ों के अभाव की शिकार है. लेकिन, ये डेटा पोर्टल लंबी अवधि के लिए है. अभी इसका आकार भी सुस्पष्ट नहीं है.

बजट में शिक्षा और स्वास्थ्य क्या?

इस साल के बजट में शिक्षा के लिए प्रावधान में कोई ख़ास बदलाव नहीं हुआ है. नई शिक्षा नीति के तहत देश में 15 हज़ार स्कूलों के काम-काज को बेहतर बनाने का जो सुझाव दिया गया था, बजट में उसका भी कोई ज़िक्र नहीं है. ज़ाहिर है नई शिक्षा नीति के तहत जो समावेशी दृष्टिकोण पेश किया गया था, उसे भी बजट प्रावधानों से तगड़ा झटका लगा है. जब पिछले साल पूरे देश के स्कूल लगभग साल भर बंद रहे थे और इस दौरान भारत में ग़रीब और अमीर के बीच की वो डिजिटल खाई खुलकर सामने आ गई थी, जिसके चलते शिक्षा की उपलब्धियों में भारी गिरावट आई. उस साल बजट में शिक्षा के क्षेत्र की ऐसी अनदेखी असली त्रासदी है. इसी तरह पोषण के मद में आवंटन में की कई कटौती भी निराशाजनक है. पिछले साल 3700 करोड़ के मुक़ाबले इस साल पोषण के मद में केवल 2700 करोड़ रुपयों का प्रावधान रखा गया है. ऐसे समय में जब नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 में बच्चों के कुपोषण के आंकड़ों से सारा देश सन्न रह गया था, तब मिड-डे मील योजनाओं और एकीकृत बाल विकास सेवा (ICDS) के मद में आवंटन बढ़ने की अपेक्षा की जा रही थी.

2021 के बजट में निश्चित रूप से भारत के आर्थिक विकास और निवेश के लायक़ माहौल को बढ़ावा देने का प्रावधान किए गए हैं, और साथ साथ विनिवेश को भी प्रोत्साहन देने के प्रावधान भी हैं. लेकिन, इस बजट के ज़रिए हमें इस बात का विश्वास दिलाने की कोशिश भी की गई है कि देश का विकास, संगठित क्षेत्र और देश के एक छोटे से तबक़े की खपत की अगुवाई में ही होता रहेगा. जो सबको साथ लेकर चलने वाली सोच से मेल नहीं खाता है. ये बात देश की लंबी अवधि की उम्मीदों के भी ख़िलाफ़ जाती है.

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