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इस लेख में कृषि क्षेत्र की ख़राब मौसम और दूसरे झटके सहने की ताक़त बढ़ाने के लिए तीन सूत्री एजेंडे के तहत ये लक्ष्य हासिल करने के लिए अहम सुधार सुझाए गए हैं.
आज के अनिश्चितता के दौर में खाद्य सुरक्षा बेहद ज़रूरी है. जलवायु परिवर्तन से संबंधित जोखिमों में इज़ाफ़े, भू-राजनीतिक तनाव और व्यापक आर्थिक उथल-पुथल से लगने वाले झटकों ने आज खाद्यान्न के आयात को महंगा बना दिया है. फिर चाहे वो हमें महसूस होने वाला हो या महंगाई का अदृश्य झटका. भारत के कृषि क्षेत्र की GDP साल 2018-19 में 262 अरब अमेरिकी डॉलर थी. जिससे पता चलता है कि हमारा कृषि क्षेत्र आयातों पर बहुत कम निर्भर है. कृषि क्षेत्र को टिकाऊ और आत्मनिर्भर बनाने का लक्ष्य हासिल करने के लिए, नीतियों में बेहद अहम बदलाव किए गए हैं. इस वजह से सिर्फ़ खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ाने के बजाय आज किसानों की आमदनी बढ़ाने पर ज़ोर दिया जा रहा है. इससे किसानों के कल्याण को भी प्रोत्साहन दिए जाने की उम्मीद है, ताकि किसान खेती बाड़ी के मौजूदा तरीक़ों में सुधार के लिए नई तकनीकों की मदद ले सकें. ख़ास तौर से कृषि तकनीक पर आधारित समाधानों की मदद से फ़सलों को होने वाले नुक़सान की भरपाई की जा सके और इन तकनीकों से कृषि उत्पादों की उपज से लेकर खपत के बीच होने वाले नुक़सान को भी कम किया जा सके.
किसानों के कल्याण पर ध्यान देने की इस नीति से घरेलू बाज़ार के सामने आज एक अभूतपूर्व अवसर खड़ा है. इस मौक़े का फ़ायदा उठाकर जलवायु संबंधी जोखिमों, उपज के बाद होने वाले नुक़सान और भारत के कोल्ड स्टोरेज सुविधा में इज़ाफ़ा करने के लिए कृषि क्षेत्र के मूलभूत ढांचे का विस्तार ग्रामीण क्षेत्र में भी किया जा सकता है. भारत की सामाजिक सुरक्षा योजना के एक महत्वपूर्ण स्तंभ के तौर पर देश की 80 फ़ीसद आबादी, खाद्यान्नों और राशन की आपूर्ति पर निर्भर करती है. जबकि भारत के कुल अनाज उत्पादन का 5 से 7 फ़ीसद हिस्सा प्रक्रिया संबंधी अकुशलताओं के चलते बर्बाद हो जाती है. खेती के ताज़ा उत्पादों जैसे सब्ज़ियों और फलों के मामले में ये बर्बादी और बढ़कर 11 प्रतिशत तक पहुंच जाती है. कोल्ड स्टोरेज के मूलभूत ढांचे और आपूर्ति श्रृंखलाओं का निर्माण, कुछ ऐसी बुनियादी ज़रूरतें हैं जिन्हें बेहतर बनाकर फूड प्रॉसेसिंग उद्योग को बढ़ावा दिया जा सकता है और इसके साथ साथ फ़सलों में विविधता लाकर किसानों को अपनी ताज़ा फ़सलों की मियाद बढ़ाने में भी मदद मिल सकती है. इसी तरह, बिजली आपूर्ति की कमियों और कृषि तकनीक जैसे उत्पादों के लिए वित्तीय मदद के अभाव जैसी कृषि क्षेत्र की मुश्किलें बढ़ाने वाली चुनौतियों से पार पाने पर और अधिक ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है.
कृषि क्षेत्र को टिकाऊ और आत्मनिर्भर बनाने का लक्ष्य हासिल करने के लिए, नीतियों में बेहद अहम बदलाव किए गए हैं. इस वजह से सिर्फ़ खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ाने के बजाय आज किसानों की आमदनी बढ़ाने पर ज़ोर दिया जा रहा है.
लंबे समय तक पड़ने वाली भयंकर गर्मी और बाढ़ सूखा और चक्रवातों जैसी भयंकर मौसम वाली घटनाएं, कृषि क्षेत्र को होने वाले नुक़सान पर ख़र्च को बढ़ा रही हैं. आम तौर पर भारत की गर्म और नमी वाली आब-ओ-हवा कोल्ड स्टोरेज बनाने और उनके रख-रखाव के ख़र्च को और बढ़ा देती है. इसीलिए कृषि क्षेत्र को झटके सहने लायक़ बनाने के लिए, बिजली, पानी और फ़सल तैयार होने के बाद होने वाली बर्बादी को रोकने पर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है. इस लेख में सुधारों के उन तीन बिंदुओं पर ज़ोर दिया गया है, जिन्हें अपनाकर कृषि तकनीक में आविष्कारों के ज़रिए कृषि उत्पादों के फ़सल तैयार होने से खपत के दौरान होने वाले नुक़सान को कम से कमतर किया जा सके.
पिछले कई वर्षों से बिजली की खपत के सटीक अनुमान न लगाए जा सकने के कारण बिना लक्ष्य के ही बिजली सेक्टर का अधिकतम इस्तेमाल करने पर ज़ोर दिया जा रहा है. इसका नतीजा ये हुआ है कि बिना मीटर के बिजली की खपत, कृषि और औद्योगिक क्षेत्र की फीडर लाइनों को अलग करने और कुल तकनीकी और कारोबारी नुक़सान (AT&C) में इज़ाफ़ा ही होता गया है. वैसे तो ग्रामीण विद्युतीकरण योजनाओं से देश के लगभग हर गांव और घर तक बिजली पहुंच गई है. लेकिन अब ज़ोर इस बात पर है कि लोगों को भरोसेमंद और अच्छी बिजली आपूर्ति चौबीसों घंटे की जाए. ये बात न केवल घरों के लिए ज़रूरी है, बल्कि कृषि क्षेत्र के लिए भी अहम है. क्योंकि भरोसेमंद और कम वोल्टेज वाली बिजली आपूर्ति से कृषि क्षेत्र को ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई व्यवस्था को अपनाने में दिक़्क़तें आ रही हैं. जहां तक खेती की बात है जिन इलाक़ों में बिजली की आपूर्ति अनियमित है, वहां पर अभी भी फ़सलों की बुवाई पारंपरिक तरीक़े से ही हो रही है. नतीजा ये कि खेती करने में पानी के संसाधनों की बर्बादी हो रही है. जब हम बिजली सेक्टर के नुक़सान को कम करके अच्छी बिजली आपूर्ति सुनिश्चित कर सकेंगे, तभी किसान पूरे यक़ीन के साथ ड्रिप सिंचाई को बिना नुक़सान उठाए इस्तेमाल कर सकेंगे. एक एकड़ में ड्रिप सिंचाई सिस्टम लगाने में 50 हज़ार रुपए प्रति एकड़ का ख़र्च आता है और इसके लिए सीधे पाइप से खेत में कई दिनों तक पानी भरने की तुलना में लगातार आठ घंटे तक बिजली आपूर्ति की दरकार होती है. भारत में आज भी सिंचाई व्यवस्था खेत में पानी भरने वाली परंपरा को ढो रही है. इससे भूगर्भ जल का स्तर लगातार गिरता जा रहा है और सूखे की स्थितियों में इज़ाफ़ा हो रहा है. सूक्ष्म सिंचाई व्यवस्था अपनाने से लंबी अवधि में किसानों का पानी और बिजली का ख़र्च कम हो जाएगा और वो इस बचत की रक़म को फ़सल तैयार होने के बाद इस्तेमाल होने वाली तकनीकों में लगा सकेंगे.
जब हम बिजली सेक्टर के नुक़सान को कम करके अच्छी बिजली आपूर्ति सुनिश्चित कर सकेंगे, तभी किसान पूरे यक़ीन के साथ ड्रिप सिंचाई को बिना नुक़सान उठाए इस्तेमाल कर सकेंगे.
भारत में कोल्ड चेन के विकास की संभावनाओं को समझकर, ख़ास तौर से फ़सल तैयार होने के बाद होने वाले कृषि उत्पादों का नुक़सान कम करने में इसकी भूमिका को देखते हुए, केंद्र सरकार ने हाल ही में प्रधानमंत्री किसान संपदा योजना (PMKSY) के तहत 27 परियोजनाओं को मंज़ूरी देकर बेहद ज़रूरी मदद का हाथ बढ़ाया है. इन परियोजनाओं ने एकीकृत कोल्ड चेन और मूल्य संवर्धन के मूलभूत ढांचे का विकास होगा. अनुमान लगाया जा रहा है कि इससे 16,200 किसानों को सीधे और अप्रत्यक्ष तौर पर रोज़गार मिलेगा. कोल्ड स्टोरेज सुविधा की शुरुआती कामयाबी के बावजूद इस व्यवस्था को और प्रोत्साहन, ख़ास तौर से बाज़ार आधारित ऐसे नज़रिए को बढ़ावा दिए जाने की ज़रूरत है, जो सरकार की कोशिशों में पूरक की भूमिका अदा करे. इस मामले में एक सेवा के तौर पर उत्पादों को ठंडा रखने को एक वैश्विक आविष्कार माना जाता है. इस व्यवस्था में स्थानीय कोल्ड स्टोरेज तकनीक देने वाले अपनी अपनी कोल्ड चेन के मालिक होते हैं. उनका रख-रखाव करते हैं और एक विकेंद्रीकृत तरीक़े से उन्हें ख़ुद ही संचालित भी करते हैं. भारत में इस आविष्कार को योर वर्चुअल कोल्ड चेन असिस्टेंट कार्यक्रम के ज़रिए परखा गया है. इसकी परिकल्पना, फ़सल तैयार होने के बाद होने वाली बर्बादी रोकने के लिए विकेंद्रीकृत कोल्ड स्टोरेज सुविधाओं को बढ़ावा देने के लिए की गई है. इस कार्यक्रम में ये सुनिश्चित किया जाता है कि कोल्ड स्टोरेज के कमरे कम बिजली खाने वाले उपकरणों से लैस हों और वो किसानों को वहां रखे उनके उत्पादों के बारें में ये जानकारी भी दे सकें कि उस फ़सल को वहां कब तक रखा जा सकता है. यही नहीं, e-NAM व्यवस्था और अन्य मुक्त स्रोतों का इस्तेमाल करते हुए किसान अपनी उपज की किसी ख़ास वक़्त में क़ीमत की जानकारी भी हासिल कर सकते हैं. इससे किसानों को (i) एक तो अपनी फ़सल रखने और बेचने की योजना बनाने में मदद मिलती है और दूसरे (ii) कोल्ड स्टोरेज को लगातार आमदनी भी होती रहती है.
रेज़िलिएंस बॉन्ड की व्यवस्था को तुरंत लागू करना होगा, ताकि स्थानीय निकायों के स्तर पर खाद्यान्न सुरक्षा के ढांचे को लचीला बनाया जा सके और जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुक़सान व क्षति को कम करने के लिए ज़रूरी बदलाव लाए जा सकें.
आज जब खाद्य सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन के आपसी रिश्ते खुलकर उजागर हो रहे हैं, तो ऐसे में विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को, अपने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के लक्ष्य हासिल करने के लिए, फ़सलों की बर्बादी कम करने पर ध्यान देने की ज़रूरत है. चूंकि जलवायु परिवर्तन से फ़सलों को नुक़सान की समस्या विकासशील देशों में अधकि है, तो ये ज़रूरी हो जाता है कि (i) दुनिया के अमीर देशों से विकाशील देशों को मदद के तौर पर पूंजी का प्रवाह बढ़ाने के लिए विश्व के वित्तीय ढांचे की रूप-रेखा बदलने का प्रयास किया जाए. घरेलू स्तर पर मध्यम से दूरगामी अवधि के लिए निवेश के लिए क़र्ज़ उपलब्ध कराने की सेवाओं में सुधार लाया जाना चाहिए. इससे फ़सल तैयार होने के बाद उपज के उचित प्रबंधन के लिए ज़रूरी मूलभूत ढांचे की कारगर परियोजनाओं और सामुदायिक कृषि संसाधनों जैसे कि नए एग्रीकल्चर इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड (AIF) को विकसित किया जाना चाहिए, तभी पूंजी का प्रवाह इस दिशा में मोड़ना मुमकिन हो सकेगा. रेज़िलिएंस बॉन्ड की व्यवस्था को तुरंत लागू करना होगा, ताकि स्थानीय निकायों के स्तर पर खाद्यान्न सुरक्षा के ढांचे को लचीला बनाया जा सके और जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुक़सान व क्षति को कम करने के लिए ज़रूरी बदलाव लाए जा सकें. ऐसे कम जोखिम वाले उपाय करके निवेशकों के बीच नुक़सान को बराबरी से बांटा जा सकेगा और इसके साथ साथ ऐसे निवेश के लिए पूंजी जुटाई जा सकेगी, जो खेती के तौर-तरीक़ों में सुधार ला सकें. कृषि तकनीक में नए आविष्कारों को बढ़ावा दे सकें और एक मज़बूत मूलभूत ढांचे का निर्माण किया जा सके.
अगर हम पिछले पांच वर्षों के दौरान भारत में भयंकर मौसम के पैटर्न को देखें तो पता चलता है कि हमें भंडारण की सुविधाओं में (ख़ास तौर से ग्रामीण क्षेत्र में) बहुत इज़ाफ़ा और सुधार करने की ज़रूरत है. तभी जाकर बिजली, पानी और फ़सल तैयार होने के बाद होने वाले उपज के नुक़सान को कम किया जा सकेगा. इसके लिए जलवायु परिवर्तन से निपट सकने लायक़ तकनीक अपनाने के लिए पूंजी मुहैया करानी होगी. हमें निजी क्षेत्र के आविष्कारों का लाभ उठाने के नए रास्ते भी खोलने होंगे, जो कृषि क्षेत्र की झटके सहने लायक़ क्षमता को बेहतर बनाएंगे और सार्वजनिक क्षेत्र के प्रयासों में भी मददगार साबित होंगे. अब समय आ गया है जब खाद्य असुरक्षा, पोषण की उपलब्धता और दूरगामी अवधि के लिए खाद्य क्षेत्र के टिकाऊपन को बढ़ाने जैसी चुनौतियों से पार पाने में आधुनिक समाधानों की अहमियत को स्वीकार कर लें.
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Charmi Mehta is a Research Consultant with the Asian Development Bank and the Chennai Mathematical Institute. Her research interests lie at the intersection of public ...
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