Author : Kabir Taneja

Expert Speak Raisina Debates
Published on Oct 04, 2025 Updated 0 Hours ago

बग़राम सैन्य हवाई अड्डे को फिर से अपने कब्ज़े में लेने की ट्रंप की मांग सिर्फ एक रणनीतिक कदम नहीं है. ये अफ़ग़ानिस्तान को वैश्विक प्रतिस्पर्धाओं और क्षेत्रीय शक्तियों की सुरक्षा में एक संघर्ष स्थल के रूप में फिर से स्थापित करती है.

ट्रंप की बगराम रणनीति: वैश्विक शक्ति समीकरण में अफ़ग़ानिस्तान की नई भूमिका

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अमेरिकी राष्ट्रपति राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बग़राम सैन्य हवाई अड्डे को वापस किए जाने की अपनी पुरानी मांग फिर दोहराई है. ट्रंप ने कहा कि बग़राम एयरबेस को एक बार फिर अमेरिकी नियंत्रण में लाया जाना चाहिए. बगराम हवाई अड्डा अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल से करीब 65 किमी दूर स्थित है. ट्रंप ने सोशल मीडिया पोस्ट के ज़रिए कहा कि अगर तालिबान इसे सौंपने से इनकार करता है, तो इसके 'बुरे अंजाम' हो सकते हैं.

ट्रंप ने तर्क दिया है कि बग़राम सैन्य हवाई अड्डा चीन के परमाणु हथियार सुविधाओं के करीब स्थित है, इसलिए अमेरिका की सुरक्षा के दृष्टिकोण से यह मांग बिल्कुल सही है, और ज़रूरी भी. 

ट्रंप की धमकी के जवाब में, तालिबान के प्रवक्ता जबीहुल्लाह मुजाहिद ने कहा कि अफ़ग़ानिस्तान कभी भी बग़राम या किसी भी अफ़ग़ान क्षेत्र को किसी विदेशी शक्ति को नहीं सौंपेगा, फिर चाहे वो अमेरिका हो या चीन. ट्रंप ने तर्क दिया है कि बग़राम सैन्य हवाई अड्डा चीन के परमाणु हथियार सुविधाओं के करीब स्थित है, इसलिए अमेरिका की सुरक्षा के दृष्टिकोण से यह मांग बिल्कुल सही है, और ज़रूरी भी. 

महत्वपूर्ण क्यों है बग़राम सैन्य अड्डा?

वैसे सच यही है कि बग़राम वास्तव में 20 साल तक अमेरिकी सेना के बेस का केंद्र था. 9/11 को ट्विन टावर पर आतंकी हमले के बाद, जब अमेरिकी सेना अल-क़ायदा और उसके साथ-साथ तालिबान के खिलाफ़ जंग कर रही थी, तब अमेरिकी ऑपरेशन का संचालन बग़राम से ही हो रहा था. हालांकि, बग़राम एयरबेस का मूल निर्माता  सोवियत संघ था, 1950 के दशक में काबुल में राजशाही के दौरान जाहिर शाह के शासन में इसका निर्माण हुआ था. 1980 के दशक में ही सोवियत संघ ने अफ़ग़ानिस्तान से पीछे हटने का फैसला किया. 2001 में अमेरिका के 'आतंकवाद के खिलाफ युद्ध' अभियान की शुरुआत के बाद, बग़राम एयरबेस अफ़ग़ानिस्तान में उसकी सैन्य शक्ति का केंद्रीय स्थल बन गया.

हालांकि, बग़राम को वापस हासिल करना सिर्फ ट्रंप के इस स्वयं घोषित दृष्टिकोण के बारे में नहीं है कि, इस कदम के जरिए चीन के ख़तरे से निपटा जाए. ये उन व्यापक क्षेत्रीय चुनौतियों को भी सामने लाता है, जो अगस्त 2021 से चल रही हैं. अगस्त 2021 में तत्कालीन राष्ट्रपति जो बाइडेन के शासनकाल में बग़राम से बहुत ही नाटकीय और अराजक परिस्थितियों में अमेरिकी सेना की वापसी का आयोजन किया गया था. 30 अगस्त 2021 को अमेरिका का आखिरी सैनिक अमेरिकी वायु सेना के C-17 परिवहन विमान से स्वदेश रवाना हुआ. ये वही समय था, जब अफ़ग़ानिस्तान को दोबारा तालिबान के हाथों सौंप दिया गया. अमेरिका सेना ने अफ़ग़ानिस्तान में करीब दो दशक लंबा युद्ध लड़ा, लेकिन ये जंग किसी निर्णायक मुकाम तक नहीं पहुंची.

हालांकि, अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका का बाहर निकलना ईरान, चीन और रूस के लिए भौगोलिक और राजनीतिक लाभ का अवसर था. अब जबकि ट्रंप ने कहा है कि बग़राम एयरबेस पर उनकी रुचि का मुख्य कारण चीन का परमाणु प्रोग्राम है, लेकिन एक हकीक़त ये भी है कि अमेरिका अब तालिबान पर दबाव डालने वाला सबसे प्रभावशाली देश नहीं रह गया है. हालांकि, ट्रंप प्रशासन अफ़ग़ानिस्तान के विदेश में फंसे वित्त और उस पर लगे प्रतिबंधों को लेकर महत्वपूर्ण प्रभाव रखता है. इस बीच तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता में लगभग आधे दशक से ज़्यादा समय में देश पर करीब-करीब पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया है. ऐसा करने में तालिबान को ना तो कोई बड़ा झटका लगा, ना ही किसी तरह की आंतरिक राजनीतिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा. इसके बावजूद, उसका घरेलू ताना-बाना नाजुक बना हुआ है, और पड़ोसियों के साथ लगातार तनाव बना हुआ है.

तालिबान को घेर रहे हैं अमेरिका-पाकिस्तान?

पाकिस्तान और उसके प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ के साथ ट्रंप के दोस्ताना बर्ताव ने भी तालिबान के लिए चुनौती पेश की है. पाकिस्तान भी अपनी तरफ से अमेरिका को खुश करने की कोशिश कर रहा है. दोनों देशों के ये मैत्रीपूर्ण संबंध आंशिक रूप से अफ़ग़ानिस्तान को भी लक्षित करते हैं. तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी), जो तालिबान आंदोलन का एक रूप है, पिछले कई साल से लगातार पाकिस्तानी सुरक्षा हितों को निशाना बनाता रहा है. दूसरी तरफ, अफ़ग़ानिस्तान का तालिबानी शासन कहता है कि टीटीपी पाकिस्तान का आंतरिक सुरक्षा मामला है. पाकिस्तान की खुफ़िया एजेंसी आईएसआई,  एक ज़माने में तालिबान के उस्ताद की भूमिका निभाती थी, लेकिन आज वो अपने ही शागिर्द के साथ संघर्ष में है.

अगर अमेरिका बगराम हवाई अड्डे को वापस पाने में सफल होता है, तो ईरानी सुरक्षा सीधे ख़तरे में रहेगी, जैसा कि रूस और चीन की सुरक्षा भी होगी. इसके अलावा, ईरान ऐसा होने से रोकने के लिए अपनी पूरी शक्ति का इस्तेमाल करेगा.

अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के बीच इस झड़प के बीच, ईरान भी एक महत्वपूर्ण स्थिति रखता है. आज तेहरान की भू-राजनीतिक क्षमताएं मध्य पूर्व पर केंद्रित है. इस समय इरान की 'अन्य सीमाएं' आम तौर पर शांत हैं. ये शांति ईरान को अपनी सीमित सैन्य क्षमताओं को इज़राइल, ग़ाज़ा और पश्चिम के साथ उसके परमाणु राजनीति जैसे मुद्दों की तरफ ध्यान लगाने की अनुमति देती है. अफ़ग़ानिस्तान में पश्चिमी सैन्य बलों की कोई भी वापसी तेहरान के हितों के लिए नुकसानदेह साबित होगी. ईरान ने पिछले दो दशकों में तालिबान के साथ संबंध मज़बूत करके इस तरह की आकस्मिक स्थितियों के लिए तैयारी की है. हालांकि, कुछ मुद्दों पर ईरान की तालिबान के साथ मौलिक असहमति रही है. ऐसे में अगर अमेरिका बगराम हवाई अड्डे को वापस पाने में सफल होता है, तो ईरानी सुरक्षा सीधे ख़तरे में रहेगी, जैसा कि रूस और चीन की सुरक्षा भी होगी. इसके अलावा, ईरान ऐसा होने से रोकने के लिए अपनी पूरी शक्ति का इस्तेमाल करेगा.

तालिबान में उभरेंगे आंतरिक मतभेद?

खुद तालिबान के लिए, किसी विदेशी शक्ति को अफगानिस्तान में सैनिक अड्डा स्थापित करने की मंजूरी देना लगभग नामुमकिन होगा, क्योंकि इससे तालिबान के बीच मतभेद बढ़ जाएंगे. 20 साल के खून-खराबे के बाद तालिबान इस बात पर गर्व करता है कि, उसने दुनिया की इकलौती महाशक्ति को मात दी. ऐसे में अमेरिका को फिर एयरबेस के इस्तेमाल की इजाज़त देना अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा. काबुल के पतन से पहले इस तरह की कई रिपोर्ट और अफवाहें हवा में तैर रहीं थीं कि तालिबान कुछ अशांत प्रांतों में इस्लामिक स्टेट खोराासान (आईएसकेपी) के उदय को ख़त्म करने के लिए अमेरिकी से मदद ले रहा था, और इस समूह को अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक चुनौती के रूप में देखा जा रहा था. ये एक तथ्य कि आईएसकेपी ने तालिबान का खुलकर विरोध किया. इस बात ने तालिबान को खुद को एक आतंकवाद विरोधी समूह के रूप में पेश करने का मौका दे दिया. यही वजह है कि इससे तत्कालीन राष्ट्रपति अशरफ गनी की सरकार के अंदर पहले ही कुछ असुविधा पैदा हो गई थी. गनी सरकार ने खुद को एक अजीबोगरीब स्थिति में पाया, क्योंकि अमेरिका और तालिबान ने पहले ट्रंप के पहले कार्यकाल के दौरान एक ऐसे समझौते पर हस्ताक्षर किए थे, जिसमें अमेरिकी सेना के अफ़ग़ानिस्तान से वापस जाने की बात थी.

रणनीतिक जागरूकता और संभावित आर्थिक लाभ की परवाह किए बिना लगभग दो साल की आंतरिक कलह के बाद तालिबान के विभिन्न गुटों में समन्वय बना है. तालिबान ये समझ चुका है कि जब उग्रवाद से शासन की तरफ बढ़ा जाता है, तो आंतरिक शक्ति का बंटवारा कैसे होना चाहिए. तालिबान पर वैचारिक नियंत्रण कंधार स्थित अमीर हिबतुल्लाह अखुंदज़ादा का है. विदेश नीति समेत प्रशासन के ज्यादातर मामलों में वही फैसला करता है, जबकि पहले ये शक्ति काबुल के हाथ में होती थी और विदेश नीति का नेतृत्व कुख्यात हक्कानी नेटवर्क के सिराजुद्दीन हक्कानी करते थे. अखुंदज़ादा गुट ने अफगानिस्तान के विकास के लक्ष्य को आगे बढ़ाने के लिए विचारधारा की बजाय व्यावहारिकता की संभावना वाले दृष्टिकोण को खारिज़ कर दिया है. विचारधारा से कोई समझौता नहीं होगा.

अगर ट्रंप प्रशासन बग़राम को सुरक्षित करने के लिए किसी सैन्य विकल्प को अपनाने का फैसला करता है, तो कई क्षेत्रीय शक्तियां सीधे तौर पर अमेरिका के खिलाफ चुनौती पेश करेंगी. इन शक्तियों को कुछ लोग 'अशांति का धुरी' कहते हैं.

ऐसे में बग़राम को फिर से हासिल करने ट्रंप के बयान का तब तक कोई मतलब नहीं है, जब तक इसके लिए सैन्य शक्ति का इस्तेमाल ना किया जाए. सैन्य विकल्प मौजूदा अमेरिकी राजनीति के लिए अस्वीकार्य है, खासकर, ये देखते हुए कि फिलहाल उसकी कूटनीतिक क्षमताएं रूस-यूक्रेन युद्ध और ग़ाज़ा जैसे संघर्षों में फंसी हुई है. हालांकि, अगर ट्रंप प्रशासन बग़राम को सुरक्षित करने के लिए किसी सैन्य विकल्प को अपनाने का फैसला करता है, तो कई क्षेत्रीय शक्तियां सीधे तौर पर अमेरिका के खिलाफ चुनौती पेश करेंगी. इन शक्तियों को कुछ लोग 'अशांति का धुरी' कहते हैं. ये क्षेत्रीय शक्तियां  अफ़ग़ानिस्तान को फिर से एक गुटीय और जातीय संघर्ष की रणभूमि बना देगी. ऐसा करके, वो ये तय कर देंगे कि अफ़ग़ानिस्तान राजनीतिक रूप से अनुपलब्ध रहे, साथ ही अफगान युद्ध के आघात को हथियार बनाकर आखिरकार पश्चिमी जनता के लिए तालिबान के पक्ष में माहौल सुनिश्चित कर देंगे. 


कबीर तनेजा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में डिप्टी डायरेक्टर और फेलो हैं.

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