निचले तबक़े की घटती आमदनी: लैंगिक नज़रिए से असमानता की धारणा का ‘विश्लेषण’
2022 की विश्व असमानता रिपोर्ट ने दुनिया भर में संपत्ति और आमदनी को लेकर सबसे बड़ी चुनौतियों को हमारे सामने रखा है. ये रिपोर्ट 100 से ज़्यादा उन रिसर्च के आधार पर तैयार की गई है, जिसका लेखा–जोखा विश्व असमानता प्रयोगशाला रखती है, और जो विश्वविद्यालयों, सांख्यिकी संस्थानों, कर अधिकारियों और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के विशाल और समृद्ध नेटवर्क का इस्तेमाल करके दुनिया भर में असमानता पर विश्लेषण आधारित आंकड़े जुटाती है. वैसे तो ये रिपोर्ट ‘अमीरों के और अमीर होते जाने’ जैसे पहले से कही जा रही बातों पर व्यापक बहस का सामान मुहैया कराती है. लेकिन, इस रिपोर्ट से हमें दुनिया भर में सामाजिक आर्थिक आधार पर आमदनी और संपत्ति के जमाव के स्तर के बारे में भी गहरी जानकारी हासिल होती है.
इस रिपोर्ट से हमें दुनिया भर में सामाजिक आर्थिक आधार पर आमदनी और संपत्ति के जमाव के स्तर के बारे में भी गहरी जानकारी हासिल होती है.
दक्षिण एशिया की तस्वीर
कोविड-19 महामारी ने दुनिया में मौजूद तमाम सामाजिक आर्थिक असमानताओं को न सिर्फ़ उजागर किया है, बल्कि उन्हें और बढ़ा दिया है. ऑक्सफैम की असमानता के वायरस की ग्लोबल रिपोर्ट 2021 के मुताबिक़, महामारी के बाद दुनिया भर के अरबपतियों को महामारी के पूर्व की अपनी आमदनी के स्तर पर पहुंचने में महज़ नौ महीने लगे. वहीं, दुनिया के सबसे ज़्यादा ग़रीब लोगों को इस आर्थिक सुस्ती से उबरने में शायद एक दशक से भी ज़्यादा वक़्त लग जाए. आज दक्षिण एशिया, दुनिया के सबसे ज़्यादा असमानता वाले भौगोलिक क्षेत्रों में से एक है. महामारी के बाद से दक्षिण एशिया दुनिया के पांच सबसे ज़्यादा प्रभावित इलाक़ों में शुमार हो गया है, क्योंकि इस क्षेत्र की अर्थव्यवस्थाएं आपसी संपर्क पर आधारित कारोबार और असंगठित क्षेत्र पर बहुत अधिक निर्भर हैं. महामारी के चलते इन्हीं सेक्टरों पर सबसे ज़्यादा बुरा असर पड़ा है. लोगों की नौकरियां और रोज़गार के दूसरे ज़रिए छिन गए हैं, और सामाजिक आर्थिक असमानता भी व्यापक स्तर पर बढ़ गई है. विश्व बैंक की रिपोर्ट कहती है कि, ‘दक्षिण एशिया में करोड़ों लोग एक बार फिर से भयंकर ग़रीबी की ओर धकेल दिए गए हैं, क्योंकि इस क्षेत्र में जहां दुनिया की एक चौथाई आबादी रहती है, वहां के लोगों ने कोरोना वायरस महामारी के चलते आर्थिक सुस्ती का सबसे ख़राब दौर झेला है.’
‘दक्षिण एशिया में करोड़ों लोग एक बार फिर से भयंकर ग़रीबी की ओर धकेल दिए गए हैं, क्योंकि इस क्षेत्र में जहां दुनिया की एक चौथाई आबादी रहती है, वहां के लोगों ने कोरोना वायरस महामारी के चलते आर्थिक सुस्ती का सबसे ख़राब दौर झेला है.’
आज भारत के हालात को दुनिया में ‘संपत्ति और आमदनी में असमानता के सबसे बुरे मामलों वाला देश’ के रूप में बताया जा रहा है. हम इसे 1990 के देश के सरकारी नियंत्रण से मुक्त की गई अर्थव्यवस्था के लिए तैयार की गई उदारवादी नीतियों की विरासत के बजाय, ये कह सकते हैं कि ये एक राजनीतिक विकल्प के चुनाव का नतीजा है. लेकिन, इन नीतियों ने देश के भीतर भी आबादी के अलग अलग वर्गों पर अलग तरह से असर डाला है. रिपोर्ट के आंकड़े बताते हैं कि भारत की आबादी के सबसे अमीर दस फ़ीसद लोग, सबसे निचले तबक़े के पचास प्रतिशत लोगों की आमदनी से बीस गुना अधिक कमाते हैं. कुल आमदनी में, निचले वर्ग के पचास प्रतिशत लोगों का हिस्सा घटते हुए 13 प्रतिशत हो गया है. वहीं, सबसे ज़्यादा आमदनी वाले एक प्रतिशत लोग कुल राष्ट्रीय आमदनी का 22 प्रतिशत कमा रहे हैं. ऐसे में, ‘भारत एक ग़रीब और बहुत ग़ैर बराबरी वाले देश के तौर पर भी सबसे ख़राब स्थिति में है.’ लैंगिक आधार पर होने वाला भेदभाव, सामाजिक आर्थिक असमानता का एक अहम आयाम है. इस अभूतपूर्व दौर में इसने महिलाओं की आमदनी और उनकी आर्थिक स्थिति पर बहुत बुरा असर डाला है. संयुक्त राष्ट्र की 2020 की महिलाओं पर रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2021 में भारत में पुरुषों की तुलना में महिलाओं के भयंकर ग़रीबी में रहने की आशंका दस फ़ीसद ज़्यादा है. हालांकि, ‘महिलाओं’ से मतलब ऐसे लोगों के व्यापक दायरे से है, जो अलग अलग सामाजिक आर्थिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक पृष्ठभूमि से आती हैं और जिनके लिए उपलब्धता एक जैसी नहीं होती है. महिलाओं को पढ़ाई के अवसर, पूंजी तक पहुंच, मज़दूरी में अंतर और अन्य सामाजिक पाबंदियों जैसी चुनौतियां पहले ही झेलनी पड़ रही थीं. इस महामारी ने उनके लिए संसाधनों की उपलब्धता का अनुपात और भी घटा दिया है.
लैंगिक असमानता और मज़दूरी की आमदनी में हिस्सा
लैंगिक असमानता, दुनिया भर में ग़ैर बराबरी की सबसे पुरानी और व्यापक समस्या रही है. इसका नतीजा ये हुआ है कि कोविड-19 महामारी का भी लैंगिक रूप से अलग अलग तरह का असर देखने को मिला है. असमानता रिपोर्ट ने आमदनी और संपत्ति के स्तर का आलोचना के नज़रिए से विश्लेषण किया है, और पहली बार दुनिया में आमदनी के लिहाज़ से लैंगिक असमान का लेखा–जोखा पेश किया है. इस रिपोर्ट में आमदनी में अंतर को आधार बनाकर 1990 से 2020 के दौरान महिला मज़दूरों की आमदनी में हिस्सेदारी को लैंगिक आधार पर अंतर के रूप में उजागर किया है. वैसे तो लैंगिक आधार पर मज़दूरी के फ़र्क़ पर पहले से ही बहुत से आंकड़े और लेख उपलब्ध हैं. लेकिन, कुल मज़दूरी में महिलाओं और पुरुषों की हिस्सेदारी पर ये रिपोर्ट लैंगिक असमानता की ज़्यादा साफ़ तस्वीर पेश करती है. इससे किसी देश में संस्थागत असमानता के बारे में भी बेहतर जानकारी मिलती है; इस रिपोर्ट में किसी ख़ास देश के भीतर पुरुषों की तुलना में मज़दूरी के बाज़ार तक महिलाओं की पहुंच और उनके नौकरी पर रखे जाने की संभावनाओं के बारे में आंकड़े जुटाए गए हैं. यहां पर भारत की स्थिति 18 फ़ीसद के साथ बेहद ख़राब है. ये एशियाई देशों में सबसे कम है, और महिलाओं के साथ मज़दूरी के मामले में भेदभाव में भारत सिर्फ़ पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान से आगे है. इन दोनों देशों में श्रम बाज़ार तक महिलाओं की पहुंच दस प्रतिशत से भी कम है. एशिया फाउंडेशन की रिपोर्ट संकेत देती है कि कुछ दक्षिण एशियाई देशों के भीतर एक चलन ये भी देखने को मिलता है कि महिलाओं को अपने पुरुष सहकर्मियों की तुलना में कम तनख़्वाह के लिए भी पुरुषों से ज़्यादा देर तक काम करना पड़ता है.
भारत की स्थिति 18 फ़ीसद के साथ बेहद ख़राब है. ये एशियाई देशों में सबसे कम है, और महिलाओं के साथ मज़दूरी के मामले में भेदभाव में भारत सिर्फ़ पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान से आगे है. इन दोनों देशों में श्रम बाज़ार तक महिलाओं की पहुंच दस प्रतिशत से भी कम है.
इस महामारी ने महिलाओं जैसे कमज़ोर और हाशिए पर पड़े सामाजिक वर्गों की आर्थिक स्थिरता और किसी चुनौती से निपटने की क्षमता पर कई तरह से बुरा असर डाला है. महामारी का ये विपरीत प्रभाव ऐसे विकासशील देशों की महिलाओं पर ज़्यादा देखने को मिला है, जहां पर वो ऐसे सामाजिक सांस्कृतिक माहौल से ताल्लुक़ रखती हैं, जहां पर श्रमिक बाज़ार तक महिलाओं के पहुंचने की राह में क़ुदरती तौर पर बाधाएं खड़ी होती हैं. लैंगिक समानता के लिए भारत की लड़ाई बहुत लंबी है और ये बहुत धीमी रफ़्तार से चल रही है. ये बात विश्व आर्थिक मंच की 2021 की ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट से और भी साफ़ हो जाती है. रिपोर्ट में भारत को आर्थिक भागीदारी और अवसरों के मामले में सबसे ज़्यादा लैंगिक अंतर वाले देश के रूप में चिह्नित किया गया है. क्योंकि, जहां 2010 में भारत के श्रमिक बाज़ार में महिलाओं की हिस्सेदारी 27 फ़ीसद थी. वहीं, 2020 में महिलाओं की भागीदारी घटकर 22 प्रतिशत ही रह गई है. अज़ीम प्रेमजी की स्टेट ऑफ़ वर्किंग इंडिया रिपोर्ट 2021 में भी भारत में पुरुषों और महिलाओं के लिए कामकाज के हालात पर एक ज़्यादा वास्तविक तस्वीर पेश की गई है. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि, ‘लॉकडाउन और उसके बाद के महीनों में जहां 61 प्रतिशत पुरुष अपने रोज़गार पर लगे रहे थे और इस दौरान केवल सात फ़ीसद पुरुष कामगारों की नौकरी गई थी. वहीं, केवल 19 प्रतिशत कामकाजी महिलाएं अपना रोज़गार बचाने में कामयाब हो सकी थीं. जबकि 47 प्रतिशत कामगार महिलाओं की नौकरी हमेशा के लिए छिन गई थी.’
असमानता रिपोर्ट 2022 के मुताबिक़, महिलाएं वैसे तो आबादी का पचास प्रतिशत हिस्सा होती हैं. लेकिन, श्रम करके की गई आमदनी में उनका हिस्सा एक तिहाई ही होता है. जो महिलाएं कामगार वर्ग का हिस्सा बन जाती हैं, उन्हें अक्सर असंगठित क्षेत्र में ही काम मिल पाता है और इन क्षेत्रों में श्रम क़ानूनों का संरक्षण नहीं मिलता है. न ही पेंशन, तनख़्वाह के साथ बीमारी की छुट्टी और मैटरनिटी लीव जैसी सुविधाएं नहीं मिलती हैं. असंगठित क्षेत्र शायद ही कभी बाज़ार की उठा–पटक से निपटने की ताक़त देता हो; इससे कामगार महिलाएं और भी कमज़ोर स्थिति में पहुंच जाती हैं और वो ग़रीबी की शिकार बनी रहती हैं और श्रमिक तबक़े का हिस्सा बनने से कतराती हैं. महामारी के दौरान, बेहतर अवसर न होने पर बहुत से पुरुषों ने असंगठित क्षेत्र का रुख़ किया था. वहीं, महिलाओं ने तो अपना काम ही छोड़ दिया था, क्योंकि उनके ऊपर घर के काम का बोझ भी बढ़ गया था, और उनके लिए सामाजिक सुरक्षा के ढांचे की भी भारी कमी थी.
महामारी के दौरान, बेहतर अवसर न होने पर बहुत से पुरुषों ने असंगठित क्षेत्र का रुख़ किया था. वहीं, महिलाओं ने तो अपना काम ही छोड़ दिया था, क्योंकि उनके ऊपर घर के काम का बोझ भी बढ़ गया था, और उनके लिए सामाजिक सुरक्षा के ढांचे की भी भारी कमी थी.
देख-रेख के बिना तनख़्वाह वाला काम
आमदनी के अंतर के चलते, देशों के भीतर और तमाम देशों के बीच, लैंगिक असमानता बहुत अधिक है. महिलाएं जिस तरह का काम करती हैं और उनके कामकाजी होने की राह में आने वाली सांस्कृतिक बाधाएं, फ़र्क़ की इस खाई को और भी चौड़ा कर देती हैं. लैंगिक असमानता को बढ़ाने के पीछे बहुत से कारण होते हैं. समय का उपयोग करने के सर्वेक्षण बताते हैं कि महिलाओं को साफ़–सफ़ाई करने, खाना पकाने, बुज़ुर्गों और बच्चों की देख–रेख करने और पानी लाने जैसे बिना मज़दूरी वाले कई कामों में पुरुषों की तुलना में दोगुना समय देना पड़ता है. ‘अलग अलग क्षेत्रों, वर्गों और संस्कृतियों की महिलाओं को अपने दिन का एक अहम हिस्सा अपनी घरेलू और बच्चों संबंधी ज़िम्मेदारियों को निभाने में देना पड़ता है.’ ऐसे में महिलाओं को तनख़्वाह वाले और बिना वेतन वाले काम करने का ‘दोहरा बोझ’ उठाना पड़ता है. OECD केंद्र द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के मुताबिक़ किसी देश में उपलब्ध संपत्ति का देख–रेख वाले बिना आमदनी वाले काम की लैंगिक असमानता से उल्टा संबंध होता है. यानी जहां पर संपत्ति कम होती है, वहां महिलाओं को ऐसे कामों में ज़्यादा समय देना पड़ता है. ऐसे में लैंगिक आधार पर किए जाने वाले काम के बंटवारे के चलते महिलाओं के लिए श्रमिक बाज़ार में घुस पाना और वहां बने रहना बहुत चुनौतीपूर्ण होता है. देख–रेख का बिना तनख्वाह वाला काम करने की पहेली भारत में इसलिए भी तेज़ी से बढ़ रही है, क्योंकि यहां परिवारों के आकार घट रहे हैं, और इसके नतीजे में समय की कमी बढ़ रही है, जिसका सबसे ज़्यादा सामना महिलाओं को करना पड़ रहा है. डेलॉय ग्लोबल सर्वे वुमेन ऐट वर्क कहता है कि दुनिया भर में केवल 39 प्रतिशत महिलाएं ये महसूस करती हैं कि महामारी की शुरुआत के बाद से, उन्हें रोज़गार देने वाले, दफ़्तर में महिलाओं के सहयोग के लिए पर्याप्त क़दम उठा रहे हैं; LGBTQ समुदाय के बीच तो ऐसा मानने वालों की संख्या और भी कम है.
अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट, ‘स्टेट ऑफ़ वर्किंग इंडिया’ के मुताबिक़, लॉकडाउन लगाने से महिला कामगारों वाले काम–धंधों पर असर पड़ा है. जैसे कि देख–रेख वाली अर्थव्यवस्था और गिग इकॉनमी पर इसका उन क्षेत्रों की तुलना में ज़्यादा बुरा असर पड़ा है, जहां पर पुरुष ज़्यादा संख्या में काम करते हैं. केवल 19 फ़ीसद कामगार महिलाएं अपनी नौकरी जारी रखने में सफल रही थीं. वहीं, 47 प्रतिशत कामकाजी महिलाओं का रोज़गार हमेशा के लिए छिन गया. ग्लोबल जेंडर रिपोर्ट 2021 ‘श्रम बाज़ार के झटके’ की परिकल्पना को इस तरह बयां करती है कि जहां पर व्यक्तिगत स्तर पर पहुंचकर काम करने पर अस्थायी रोक ने महिलाओं के भविष्य में रोज़गार हासिल कर पाने की संभावना पर स्थायी और दूरगामी असर डाला है.
लैंगिक आधार पर किए जाने वाले काम के बंटवारे के चलते महिलाओं के लिए श्रमिक बाज़ार में घुस पाना और वहां बने रहना बहुत चुनौतीपूर्ण होता है.
वर्चुअल दुनिया में भी महिलाओं को ग़ैर बराबरी के माहौल का सामना करना पड़ता है. डेलॉय वुमेन ऐट वर्क रिपोर्ट सर्वे में शामिल आधे से ज़्यादा महिलाओं ने कहा कि उन्हें अपने काम–काज में शोषण का शिकार होना पड़ा. 51 प्रतिशत महिलाएं अपने करियर की संभावनाओं को लेकर बहुत सकारात्मक सोच नहीं रखती हैं.
इस बात को ख़ारिज करना बहुत मुश्किल होगा कि महिलाओं के काम करने को लेकर मौजूद सामाजिक और सांस्कृतिक नियमों के चलते दक्षिण एशिया इन कारणों से सबसे बुरी तरह प्रभावित है. सार्वजनिक स्थानों या फिर नौकरी के लिए आने–जाने के दौरान महिलाओं के साथ होने वाले बुरे बर्ताव और हिंसा के चलते ये तस्वीर और भी बिगड़ जाती है. महिलाओं का अन्य लोगों से संवाद बेहद सीमित हो जाता है और बुनियादी सामाजिक और आर्थिक आज़ादियों पर भी पाबंदी लगी रहती है. इससे उनके अस्तित्व पर भी बुरा असर पड़ता है. डेलॉय ग्लोबल सर्वे संकेत देता है कि LGBT+ महिलाओं को अपने दफ़्तरों में यौन उत्पीड़न और भद्दे मज़ाक़ का ज़्यादा शिकार बनाया जाता है.
नीतिगत बदलावों पर पर्याप्त रूप से ध्यान दिए बग़ैर, भारत के सामने चुनौती इस बात की है कि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की कोशिश में कहीं उसकी आधी आबादी पीछे न रह जाए. ऐसा होने पर महिलाओं को असमानता का और भी भारी बोझ उठाना पड़ेगा.
अंतर और रिकवरी का रास्ता
भारत आज एक मजबूत क्षेत्रीय और राजनीतिक खिलाड़ी बनकर उभरा है, जो न केवल दक्षिणी एशिया की विकास संबंधी नीतियों की दशा–दिशा तय करने में अहम भूमिका निभाता है, बल्कि पूरे विकासशील विश्व में अग्रणी है. असमानता पर 2022 की रिपोर्ट ने भारत की सामजाकि आर्थिक कमियों को उजागर करके, इसकी व्यवस्था में एक बड़ी खामी को पकड़ा है. वैसे तो ये बात दक्षिण एशिया के अन्य देशों पर भी लागू होती है कि महिलाओं को संपत्ति और आमदनी की निचली पायदान पर ही जकड़कर रखा गया है. तमाम रीति रिवाजों और बर्ताव जैसे कि भेदभाव भरी नीतियों और सामाजिक बनावट, अच्छी नौकरी तक महिलाओं की पहुंच न होने और श्रमिक बाज़ार से उन्हें दूर रखने या फिर तनख्वाह वाले काम के साथ बिना मज़दूरी वाले काम में उन्हें उलझाकर महिलाओं को उनकी मेहनत का उचित मूल्य देने का वादा करके उसे निभाने के बजाय, उसका बस एक तिहाई हिस्सा दिया जा रहा है. नीतिगत बदलावों पर पर्याप्त रूप से ध्यान दिए बग़ैर, भारत के सामने चुनौती इस बात की है कि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की कोशिश में कहीं उसकी आधी आबादी पीछे न रह जाए. ऐसा होने पर महिलाओं को असमानता का और भी भारी बोझ उठाना पड़ेगा. हमें अपने देश में श्रम के वितरण के बारे में नए सिरे से सोचने की ज़रूरत है. नीतिगत स्तर पर महिलाओं को ख़ास तौर से ध्यान में रखकर संगठित और असंगठित क्षेत्र को लेकर भी विचार करने की ज़रूरत है. महिलाओं पर विशेष ज़ोर देते हुए असंगठित क्षेत्र की सामाजिक सुरक्षा के लिए और अधिक मज़बूत व्यवस्था बनाने की आवश्यकता है. ‘सख़्त कामों’ के लिए महिलाओं के कौशल विकास और देख–भाल में उनके योगदान पर ख़ास नज़र रखना ज़रूरी है, तभी देख–भाल के काम का पूरा बोझ महिलाओं पर डालने से बचा जा सकेगा. इस ज़िम्मेदारी को परिवार के सभी सदस्यों के बीच बराबरी से बांटना होगा, फिर चाहे वो पुरुष हों या महिलाएं. इसके अलावा लैंगिक रूप से संवेदनशील वित्तीय नीतियां बनाने के साथ–साथ जनता को तेज़ी से बढ़ रही असमानता को लेकर जागरूक किए जाने की भी दरकार है. इसके अलावा श्रम क़ानूनों का एक ऐसा ढांचा भी बनाया जाना चाहिए, जिससे नई उदारवादी व्यवस्था को टिकाऊ बनाया जा सके.
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