आज जब दुनिया महामारी के दौर से जूझ रही है, तो डिजिfटल प्लेटफॉर्म उम्मीद की किरण बनकर उभरे हैं. हालांकि कई तकनीकी तरक़्क़ियों ने साबित किया है कि तकनीक बिना रोक-टोक के हमारी ज़िंदगियों का हिस्सा बन सकती है. लेकिन, सब तक इस तकनीक की अर्थपूर्ण और समावेशी पहुंच, इस दौड़ में पीछे ही रह गई है. 11 जून 2020 को संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरस ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा उठाए जाने वाले कुछ क़दमों का प्रस्ताव सामने रखा था. इन प्रस्तावों का मक़सद सब तक डिजिटल संसाधन पहुंचाना था. इसके लिए ऑनलाइन दुनिया में डिजिटल क्षमता को मज़बूत बनाने के साथ-साथ मानव अधिकारों को भी सुनिश्चित करने की बातें कही गई थीं. इस काम के लिए 2030 की समयसीमा निर्धारित की गई थी. जिससे सभी भागीदारों को नौ साल का समय मिला है. इस दौरान वो एक स्वस्थ डिजिटल दुनिया का विकास कर सकते हैं, जिसमें सबकी भागीदारी हो. फिर चाहे वो किसी भी जाति, राष्ट्रीयता, लिंग या दिव्यांगता से ताल्लुक़ रखने वाला क्यों न हो.
सबकी भागीदारी बढ़ाना 2.0 एक ऐसा काम है, जो अभी जारी है. इसीलिए ये समय ऐसा भी है जब हम सवाल पूछें कि उभरते हुए बाज़ारों में लोगों के लिए सामाजिक आर्थिक अवसर पैदा करने के लिए आख़िर हम किस तरह का इंटरनेट चाहते हैं.
सबकी भागीदारी बढ़ाना 2.0 एक ऐसा काम है, जो अभी जारी है. इसीलिए ये समय ऐसा भी है जब हम सवाल पूछें कि उभरते हुए बाज़ारों में लोगों के लिए सामाजिक आर्थिक अवसर पैदा करने के लिए आख़िर हम किस तरह का इंटरनेट चाहते हैं. अगर हम सब तक पहुंच वाली, अच्छी और सस्ती इंटरनेट सेवा जैसे मुख्य चुनौतियों से निपट लेते हैं, तो जब इंटरनेट पर एक अरब नए यूज़र आएंगे, तो उन्हें ऑनलाइन दुनिया में क्या मिलेगा? क्या उन्हें इसमें दिलचस्पी होगी? क्या इससे उनकी ज़िंदगी में कोई सुधार होगा? क्या वो ये सुनिश्चित कर सकेंगे कि इंटरनेट उनकी ज़िंदगी को बेहतर बनाए?
समावेशी तकनीक की राह में बाधाएं
‘समावेशी तकनीक’ इसे इस्तेमाल करने वालों को लाभ पहुंचाती है, और डिजिटल दुनिया में उनकी ख़ास ज़रूरतें पूरी करने के लिए इस तकनीक के इस्तेमाल से उनके हित सधते हैं.
बुनियादी सेवाएं हासिल करने के लिए कनेक्टिविटी पहली शर्त है. ये आम तौर पर मोबाइल तकनीक पर निर्भर होती है. जैसे कि पढ़ाई लिखाई के लिए. युवा प्रतिभाओं को प्रशिक्षण देने के लिए ऑनलाइन स्कूलों की स्थापना करने से उन्हें असरदार तरीक़े से डिजिटल दुनिया का सामना कर पाने में मदद मिलती है. वहीं, महत्वाकांक्षी उद्यमियों को तमाम सामाजिक आर्थिक बाधाओं को पार करके डिजिटल सेवाएं हासिल करने में सहयोग के लिए भी ये सेवाएं मुहैया कराना ज़रूरी है. सबकी भागीदारी तय करने की राह में एक और बड़ी चुनौती ये आती है कि समावेश का मतलब ये नहीं है कि सबको एक ही तरह की गतिविधियां करनी होती हैं. जब सबसे ज़्यादा ज़रूरी होता है, तब ऐसा कर पाना सबसे मुश्किल होता है- जब विकासशील देश जिस समय अपने सीमित संसाधनों के ज़रिए विकास के तमाम लक्ष्य हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं. एक और अहम बात कमज़ोर तबक़े के समूहों या भागीदारों की पहचान करना है, जिन्हें डिजिटल सुविधाओं की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है.
आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से लैस सिस्टम के लिए ये ज़रूरी हो जाता है कि वो पूर्वाग्रह के शिकार हो रहे कुछ ख़ास समूहों और समुदायों के लोगों को इससे बचाए. इसके लिए सबकी भागीदारी को नए सिरे से परिभाषित करने की ज़रूरत है.
ऑनलाइन विरोध का सामान करने से जुड़ी चिंताएं भी बहुत से लोगों को इससे दूर रखती हैं. ऑनलाइन दुनिया में ग़लत बातों की फ्लैगिंग का तरीक़ा बेअसर साबित हुआ है और इसे बड़े पैमाने पर लागू भी नहीं किया जा सकता है. वहीं, ऐसा करने वाले इंसानों के अपने पूर्वाग्रहों के चलते इन क़दमों से नाइंसाफ़ी होने की आशंका भी रहती है. इसीलिए, दुनिया भर में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI) से लैस कॉन्टेंट मॉडरेशन के औज़ारों की लोकप्रियता बढ़ रही है, जो ख़ुद से ऑनलाइन नफ़रत भरे तत्वों की पहचान कर सकते हैं. हालांकि, AI पर आधारित ऐसी सेवाओं की किसी व्यक्ति द्वारा नियमित निगरानी, शिकायतों का निपटारा करने की व्यवस्था भी इन आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस पर आधारित औज़ारों को यूज़र की ख़ास ज़रूरतें पूरी करने के लिए और बेहतर बनाती हैं. शर्त बस यही है कि वो अभिव्यक्ति पर कुछ ज़्यादा ही सख़्ती न करें. नफ़रत भरा कॉन्टेंट होता क्या है, इसकी भी कोई एक जैसी परिभाषा नहीं है. ऐसे में तमाम सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध डेटा का परीक्षण करने के लिए कोई असरदार मॉडल विकसित नहीं हो सका है. इससे रिसर्च करने वालों के लिए मुश्किलें खड़ी होती हैं. क्योंकि उनके पास किसी मॉडल के विकास का हुनर नहीं होता, जबकि वो व्याख्या कर सकने वाले ऑनलाइन नफरत से जुड़े रिसर्च (OHR) में दिलचस्पी रखते हैं. इसके अलावा, कुछ ख़ास लोगों द्वारा डिजिटल प्लेटफॉर्म पर डाले गए कॉन्टेंट पर सीमित प्रतिबंध लगाने के लिए तकनीक का इस्तेमाल होता है, इसमें भी एकरूपता लाने की ज़रूरत है. पिछले साल, टिक-टॉक को अश्वेत लोगों की तरफ़ से विरोध का सामना करना पड़ा था. उनका आरोप था कि ब्लैक लाइव्स मैटर से जुड़े उनके द्वारा डाले गए कॉन्टेंट को टिक-टॉक से हटाया जा रहा है, म्यूट किया जा रहा है या फिर उनके फॉलोअर्स से छुपाया जा रहा है. इस घटना से पहले ख़ुद टिक-टॉक ने माना था कि वो दिव्यांगों, मोटापे के शिकार और LGBTQ समुदाय के लोगों द्वारा डाली जा रही पोस्ट को सेंसर कर रहा था, क्योंकि उसके मुताबिक़ ये लोग ‘साइबर दादागीरी का शिकार हो सकते थे.’ इन घटनाओं को देखते हुए आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से लैस सिस्टम के लिए ये ज़रूरी हो जाता है कि वो पूर्वाग्रह के शिकार हो रहे कुछ ख़ास समूहों और समुदायों के लोगों को इससे बचाए. इसके लिए सबकी भागीदारी को नए सिरे से परिभाषित करने की ज़रूरत है.
डिजिटल प्लेटफॉर्म विकसित करने वालों को नियामक व्यवस्थाएं भी साथ साथ बनानी चाहिए. इससे नियंत्रित माहौल में कारोबारियों को असली ग्राहकों से मिलने वाले इनोवेटिव प्रस्तावों को शामिल करने में मदद मिलेगी
समावेश के लिए एक मज़बूत ढांचे का निर्माण
इनोवेशन के फ़ायदों को और बराबरी से साझा करने की ज़रूरत है. इसके लिए ये ख़याल रखना होगा कि इनोवेशन से किसकी ज़रूरतें ज़्यादा पूरी हो रही हैं और किस तरह अलग थलग पड़े सामाजिक समूहों को अधिक लाभ पहुंचाया जा सकता है. साथ-साथ इस पर भी ध्यान केंद्रित करना होगा कि इनोवेशन, प्राथमिकताएं तय करने और इनोवेशन के प्रशासन में अधिक से अधिक लोगों की भागीदारी हो. समावेशी डिजिटल औज़ारों का मज़बूत ढांचा तैयार करने के लिए तीन अहम तत्व पर ध्यान देने की ज़रूरत है:
–सुनना और सीखना: यूज़र्स के समुदाय, लिंग और जातीयता के हवाले से लगातार निगरानी करने और उनके सुझावों को डिजिटल टूल्स में शामिल किया जाना चाहिए. शिकायत दर्ज करने और भाषा संबंधी निर्देशों के लिए एक आसान यूज़र गाइड होनी चाहिए जिससे किसी शिकायत को सही तरीक़े से परिभाषित करके, ऑनलाइन दुनिया में नफ़रत भरे कॉन्टेंट से निपटा जा सके. डिजिटल प्लेटफॉर्म विकसित करने वालों को नियामक व्यवस्थाएं भी साथ साथ बनानी चाहिए. इससे नियंत्रित माहौल में कारोबारियों को असली ग्राहकों से मिलने वाले इनोवेटिव प्रस्तावों को शामिल करने में मदद मिलेगी. यहां मुख्य लक्ष्य ये होना चाहिए कि कुछ ख़ास समूहों को नाराज़ करने वाले तत्वों को या तो पूरी तरह हटाया जा सके, या फिर कम से कम किया जा सके.
–सहयोगियों का निर्माण: इससे अलग अलग पक्षों के साथ असरदार तरीक़े से सहयोग करने और भरोसा बनाने में मदद मिलती है. ‘दोस्ताना ताल्लुक़’ का मतलब हाशिये पर पड़े कमज़ोर तबक़े के लोगों के साथ, ज़िंदगी भर के लिए भरोसे, नियमितता और जवाबदेही वाला रिश्ता क़ायम करना होता है. बुनियादी स्तर पर ऐसे रिश्ते बनाने का मतलब ये होगा कि अलग अलग जातीयताओं और समुदायों व जेंडर के लोगों को किसी डिजिटल संसाधन के डिज़ाइन, विकास और प्रबंधन में साझीदार बनाया जा सकेगा. वर्ष 2018 में माइक्रोसॉफ्ट ने एक्सबॉक्स एडैप्टिव कंट्रोलर (XAC) को विकसित किया था. इससे गेमिंग की दुनिया में दिव्यांगों की भागीदारी को बढ़ावा मिला. ये लोगों का वो समूह है, जिसकी अक्सर बहुत कम नुमाइंदगी होती है या जिसकी अनदेखी की जाती है. अनुवांशिक स्पैस्टिक पैराप्लेजिया के शिकार दो बच्चों के पिता रोरी स्टील ने इस XAC की मदद से आर्केड की तरह के कंट्रोलर और निन्टेंडो स्विच का आविष्कार किया. इस मिसाल से माइक्रोसॉफ्ट ने न केवल एक समावेशी उत्पाद लॉन्च किया बल्कि स्टील जैसे लोगों तक पहुंच बनाकर इस विशाल कंपनी ने दोस्ताना ताल्लुक़ बनाने की अपनी इच्छा भी जताई जिससे वो ऐसे लोगों के साथ मिलकर अपने XAC कंट्रोलर का और बेहतर डिज़ाइन विकसित कर सके.
डिजिटल स्तर पर मज़बूत स्वीकार्यता बनाने के लिए ज़रूरी ये है कि कि लोगों के डिजिटल तजुर्बे को अच्छी तरह से समझा जाए, जिससे ये पता लग सके कि लोग चाहते क्या हैं और किस तरह के बदलाव को आसानी से स्वीकार कर लेंगे
–संदर्भ के साथ संवाद: अगर किसी टूल के ज़रिए लाए गए बदलावों को यूज़र स्वीकार नहीं करते या समझ नहीं पाते तो वो नाकाम हो जाएगा. डिजिटल स्तर पर मज़बूत स्वीकार्यता बनाने के लिए ज़रूरी ये है कि कि लोगों के डिजिटल तजुर्बे को अच्छी तरह से समझा जाए, जिससे ये पता लग सके कि लोग चाहते क्या हैं और किस तरह के बदलाव को आसानी से स्वीकार कर लेंगे. इंसानों के बर्ताव पर आधारित नज़रिए को समझने के लिए मानवीय बर्ताव समझ सकने वाले तरीक़े अपनाए जाने चाहिए. इससे अल्पसंख्यकों को सश्कत किया जा सकेगा और उन्हें यूज़र्स के तजुर्बे के हर मोड़ पर उपयोगी अनुभव दिया जा सकेगा. उदाहरण के लिए भाषा की बाधाओं को स्वीकार करके उन्हें दूर करने के तरीक़े अपनाना ज़रूरी है. इस साल की शुरुआत में एप्पल ने सिरी के अंग्रेज़ी वर्ज़न के दो नए विकल्प उपलब्ध कराए थे और अपने नए ऑपरेटिंग सिस्टम से सिर्फ़ महिला की आवाज़ के विकल्प को ख़त्म कर दिया था. ये विकल्प जुड़ने का मतलब ये हुआ कि हर व्यक्ति अपने हिसाब से सिरी की आवाज़ चुन सकता था. अब वॉयस असिस्टेंट की आवाज़ सिर्फ़ महिला हो, ये ज़रूरी नहीं रह गया. ये एक ऐसा मसला है जो पिछले कई साल से वॉयस असिस्टेंट से जुड़े पूर्वाग्रहों में चर्चा का विषय बना हुआ है. सिरी में एक अश्वेत आवाज़ को भी तब शामिल किया गया, जब स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन में पता चला कि वॉयस असिस्टेंट सिस्टम को गोरे लोगों की तुलना में अश्वेतों की आवाज़ समझने में ज़्यादा दिक़्क़तें आती हैं.
समावेश 2.0 तभी हासिल किया जा सकता है, जब पहुंच के माध्यम शोषण के इतिहास, नारीवादी नज़रिए और जातीय दृष्टिकोण के प्रति अपनी समझ को बढ़ाएं और साथ-साथ यूज़र के फीडबैक को भी शामिल करते चलें.
ये लेख लिखने में AI पॉलिसी लैब की संपादक स्वाति सुधाकरण ने भी लेखक की मदद की है.
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