Author : Pratnashree Basu

Published on Nov 17, 2025 Updated 0 Hours ago

यह मामला सिर्फ़ चीन-जापान का बयानबाज़ी वाला झगड़ा नहीं बल्कि पूरे क्षेत्र की शांति को हिला सकता है. जापान मानता है कि ताइवान पर कोई भी सैन्य दबाव उसके ख़ुद के अस्तित्व के लिए ख़तरा बन सकता है- यही बात इसे इतना बड़ा मुद्दा बनाती है.

ताइवान नहीं, पूरा एशिया दांव पर! जापान ने बजाया ‘अस्तित्व अलर्ट’

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जापानी प्रधानमंत्री साने ताकाइची की हालिया टिप्पणी के बाद ताइवान को लेकर बीजिंग की ओर से आई प्रतिक्रिया सिर्फ़ कूटनीतिक विवाद नहीं बल्कि उससे भी अधिक बड़ा गंभीर मसला है. असल में, पिछले दिनों (नवंबर 2025 की शुरुआत में) प्रधानमंत्री ताकाइची ने जापान की संसद को बताया कि ताइवान के आसपास चीन की सैन्य नाकेबंदी या बल का प्रयोग हर तरह से (जापान) के अस्तित्व को ख़तरे में डालने वाली स्थिति बन सकता है. इसके साथ ही, जापान के 2015 के सुरक्षा कानून का हवाला भी दिया गया, जिसमें जापान के आत्मरक्षा बलों (JSDF) को सामूहिक परिस्थितियों में आत्मरक्षा का अधिकार दिया गया है. इसके बाद बीजिंग की प्रतिक्रिया आश्चर्यजनक रूप से तीखी और असभ्य थी. ओसाका में चीनी महावाणिज्य दूत ने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट किया (हालांकि बाद में इसे हटा लिया गया), जिसमें मोटे तौर पर कहा गया था- वह गंदी गर्दन, जो खुद आगे आ गई, उसे बिना एक पल गंवाए  काट देना चाहिए. 

  • यह चीन-जापान विवाद सीमित नहीं, क्षेत्रीय शांति को प्रभावित कर सकता है.
  • जापान के अनुसार ताइवान पर सैन्य दबाव सीधे उसके अस्तित्व के लिए खतरा है.

जापान की पहली चिंता

टोक्यो ने इसका औपचारिक रूप से विरोध किया. बीजिंग की यह गैर-राजनयिक भाषा बताती है कि अगर उसके रणनीतिक हितों पर किसी तरह की कोई टिप्पणी की जाती है तो वह किसी भी हद तक जवाब दे सकता है. चीन के विदेश मंत्रालय ने जापान पर 1972 की कम्युनिक के उल्लंघन का आरोप लगाया और टोक्यो से चीन के आंतरिक मामलों में दख़ल न देने की सलाह दी.

“बीजिंग की यह गैर-राजनयिक भाषा बताती है कि अगर उसके रणनीतिक हितों पर किसी तरह की कोई टिप्पणी की जाती है तो वह किसी भी हद तक जवाब दे सकता है.”

 जापान की रणनीतिक स्थिति कितनी तनावपूर्ण है, यह प्रकरण उसका संकेत दे रहा है. जापान एक ऐसा देश है जो अपने सुरक्षा परिवेश को लेकर बेहद चिंतित है, लेकिन वह संवैधानिक और कूटनीतिक मजबूरियों से भी बंधा हुआ है. बेशक, टोक्यो की नज़र में ताइवान के आसपास होने वाले घटनाक्रम उसके राष्ट्रीय अस्तित्व पर सीधा प्रभाव डालते हैं, लेकिन वह किस सीमा तक इसका जवाब दे सकता है, यह उसके संविधान के अनुच्छेद 9 (यह विवादों को सुलझाने के लिए बल-प्रयोग या युद्ध को हमेशा के लिए प्रतिबंधित करता है) और चीन के साथ 1972 में हुई कम्युनिक से तय होता है. विवादों को दूर करने की ज़रूरतों और शांति बनाए रखने की राह की बाधाओं के बीच का यह द्वंद्व JSDF की भूमिका, उसकी सीमा और विस्तार से जुड़ी बहसों के केंद्र में रहा है. बहरहाल, यह भी ध्यान रखना ज़रूरी है कि टोक्यो ताइवान जलडमरूमध्य और उसके आसपास की सुरक्षा को लेकर काफी गंभीर हो रहा है, और वह इसे अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण मानता है.

टोक्यो की नज़र से देखें, तो ताकाइची की टिप्पणियां रणनीतिक हक़ीक़तों पर आधारित हैं. ताइवान जलडमरूमध्य के किसी भी उथल-पुथल से उसका दक्षिण-पश्चिमी द्वीप समूह सबसे पहले प्रभावित होता है, क्योंकि यहां का योनागुनी द्वीप ताइवान से केवल 110 किलोमीटर दूर है. चीन नौसैनिकों की नाकेबंदी या अमेरिका की फिलीपीन सागर तक पहुंच को सीमित करने से आगे के ठिकानों पर पहुंचने की जापान की क्षमता और समुद्री संचार लाइनें तुरंत प्रभावित हो सकती हैं. 2015 के कानून की संवैधानिक व्याख्या के मुताबिक, इससे जापान के राष्ट्रीय अस्तित्व के लिए ख़तरा पैदा हो सकता है. इसलिए, ताकाइची का अस्तित्व के लिए ख़तरा वाली बात गलत नहीं लगती. टोक्यो साफ़-साफ़ कह भी रहा है कि ताइवान से जुड़ा कोई सैन्य तनाव किसी और के लिए भले एक मसला हो, पर जापान के लिए उसकी सुरक्षा से जुड़ी चिंताएं हैं.

“यह जापान के मुख्य कैबिनेट सचिव मिनोरू किहारा की प्रतिक्रिया से भी स्पष्ट होता है, जिसमें उन्होंने 1972 के चीन-जापान संयुक्त कम्युनिक की चर्चा की, जो पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना को ‘एकमात्र वैध सरकार’ के रूप में मान्यता देती है.”

हालांकि, ताकाइची ने बाद में अपनी टिप्पणी में सुधार करते हुए उसे संभावित परिस्थिति बताया, लेकिन टोक्यो की सांविधानिक मजबूरियां इस तरह हैं कि उसके लिए शांति और स्थिरता को महत्व देने वाला रवैया अपनाने के साथ-साथ चीन के साथ पारस्परिक निर्भरता वाला आर्थिक संबंध बनाए रखना भी ज़रूरी है. यह जापान के मुख्य कैबिनेट सचिव मिनोरू किहारा की प्रतिक्रिया से भी स्पष्ट होता है, जिसमें उन्होंने 1972 के चीन-जापान संयुक्त कम्युनिक की चर्चा की, जो पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना को एकमात्र वैध सरकार के रूप में मान्यता देती है. किहारा ने ज़ोर देकर कहा कि ताइवान को लेकर जापान के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया है, और टोक्यो को उम्मीद है कि जलडमरूमध्य के आर-पार का यह तनाव बातचीत के ज़रिये शांतिपूर्ण तरीके से सुलझा लिया जाएगा. उनके बयान से लगता है कि जापान अपनी कानूनी और कूटनीतिक प्रतिबद्धताओं को बढ़ती सुरक्षा चिंताओं के साथ संतुलित करना चाहता है. यह संकेत है कि टोक्यो क्षेत्रीय स्थिरता और शांति पर पारंपरिक रुख़ रखते हुए तनाव को कम करने का इरादा रखता है.

इस पूरे प्रकरण में टोक्यो का सुरक्षा ढांचा महत्वपूर्ण बन गया है, जिसमें आत्मरक्षा बलों की स्थापना से लेकर संविधान की फिर से व्याख्या करने तक कई बदलाव हो चुके हैं. इन बदलावों से सामूहिक आत्मरक्षा के लिए राष्ट्र की क्षमता का विस्तार हुआ है. दरअसल, जापान ने बाहरी ख़तरों से खुद को बचाने के लिए 1954 में आत्मरक्षा बलों (JSDF) का गठन किया था. उसका कब इस्तेमाल हो सकेगा, इसके लिए बाद की सरकारों ने तीन परिस्थितियां तय कीं. जापान के मुताबिक ये शर्तें उसकी आत्मरक्षा से जुड़ी हैं. इनमें पहली हैं, जब देश के सामने किसी आक्रमण का ख़तरा हो या बेवज़ह की आक्रामकता का सामना उसे करना पड़े, दूसरी- जब ख़तरे को टालने के लिए कोई दूसरा विकल्प न बचा हो, और तीसरी- जब न्यूनतम आवश्यक स्तर तक बल का प्रयोग अनिवार्य हो जाए.

अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने संविधान के अनुच्छेद 9 की फिर से व्याख्या करने के लिए एक आयोग की स्थापना की, जिसने 2014 में अपनी रिपोर्ट दी. उस रिपोर्ट में व्यापक सामूहिक आत्मरक्षा के लिए भी सुरक्षा बल के प्रयोग की सिफारिश की गई. तमाम विचार-विमर्शों के बाद, आबे मंत्रिमंडल ने 1 जुलाई, 2014 को इस पुनर्व्याख्या को मंजूरी दे दी. इसमें आत्मरक्षा के लिए तीनों मूल शर्तों को बनाए रखते हुए जो बदलाव किए गए, वे हैं-  सहयोगियों की सहायता के लिए भी जापान द्वारा बल प्रयोग करना. हालांकि, यह तभी किया जा सकेगा, जब वह हमला जापान के अस्तित्व या उसके नागरिकों के मौलिक अधिकारों के लिए ख़तरा हो. 2014 की इस व्याख्या ने जापान की नीतियों को एक महत्वपूर्ण मोड़ दिया, क्योंकि इसमें न सिर्फ़ सीमित सामूहिक रक्षा की बात कही गई, बल्कि सुरक्षा बल का प्रयोग केवल अंतिम विकल्प के रूप में करने के सांविधानिक सिद्धांत को भी बनाए रखा गया.

“टोक्यो की नज़र से देखें, तो ताकाइची की टिप्पणियां रणनीतिक हक़ीक़तों पर आधारित हैं. ताइवान जलडमरूमध्य के किसी भी उथल-पुथल से उसका दक्षिण-पश्चिमी द्वीप समूह सबसे पहले प्रभावित होता है, क्योंकि यहां का योनागुनी द्वीप ताइवान से केवल 110 किलोमीटर दूर है.”

टोक्यो को इसी के मुताबिक अपना जवाब देना चाहिए, लेकिन साथ ही, परिस्थिति के अनुसार अपनी कूटनीति भी तय करनी चाहिए. टोक्यो को अपने रक्षा उद्योग को भी आगे बढ़ाना चाहिए, और अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया व दक्षिण पूर्व एशियाई राष्ट्र संघ (आसियान) के साझेदारों के साथ आपसी सहयोग मज़बूत करना चाहिए. उसे हिंद-प्रशांत (जापान-भारत समुद्री सहयोग सहित) के हिसाब से अपनी क्षमता बढ़ाने के साथ-साथ ताइवान को लेकर किसी सैन्य संघर्ष की आशंका के अनुसार रणनीति बनानी चाहिए. 

सुरक्षा ढाँचा बदल रहा

भारत के लिए यह वक़्त जापान की सुरक्षा संबंधी चिंताओं के साथ तालमेल बिठाने का है. इसके लिए न सिर्फ़ ताइवानी तनाव से पड़ने वाले असर को परखना ज़रूरी है, बल्कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में क्षेत्रीय समुद्री क्षमताओं, लॉजिस्टिक संबंधों और साझा निवारक ढांचों को भी मज़बूत बनाना अनिवार्य है.

ताइवान को लेकर होने वाले सैन्य तनाव के समय जापान क्या रवैया अपनाएगा, यह उसके भूगोल और रणनीतिक हक़ीक़तों के आधार पर तय होगा. दक्षिण-पश्चिम जापानी द्वीप ताइवान से कुछ ही दूरी पर हैं, जिस कारण जापान की राष्ट्रीय सुरक्षा जलडमरूमध्य के आर-पास के किसी भी तनाव से सबसे पहले प्रभावित होती है. ताइवान जलडमरूमध्य में संकट बढ़ने से फिलीपीन सागर में समुद्री मार्ग, महत्वपूर्ण संचार केबल और आपूर्ति मार्ग पर ख़तरा बढ़ सकता है, साथ ही, आगे के ठिकानों तक जापान के पहुंचने की क्षमता भी प्रभावित होगी. ये सभी ऐसे परिणाम हैं, जिनको टोक्यो अपने अस्तित्व पर सीधे प्रभाव डालने वाला मानता है.

वास्तव में, जापानी नेतृत्व ने ताइवान के भाग्य के साथ जापानी आत्मरक्षा के जुड़े होने की जो बात कही है, वह असामान्य नहीं है, बल्कि यह उसके आत्मरक्षा ढांचे में सैद्धांतिक बदलाव के विस्तार से मेल खाता है. टोक्यो ने ताइवान जलडमरूमध्य में स्थिरता को अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ज़रूरी माना है. वह इसके लिए अपने सुदूर के द्वीप समूह में सुरक्षा से जुड़े निवेश कर रहा है और उसी के अनुसार अपना समुद्री रुख़ अपना रहा है. ताइवान को लेकर जापान की सक्रियता बताती है कि अब ऐसी परिस्थितियों में अस्पष्टता उसे अधिक स्वीकार नहीं है. इसलिए ताजा विवाद केवल एक बयानबाजी नहीं है, बल्कि यह क्षेत्रीय भू-राजनीति का तेज़ी से कमज़ोर होने का भी संकेत है.


(प्रत्नश्री बसु ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में एसोसिएट फेलो हैं)

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