अंतर्राष्ट्रीय मामले, पड़ोस, रूस और यूरेशिया, सामरिक अध्ययन, अमेरिकी विदेश नीति, अमेरिका और कनाडा, अफगानिस्तान,
ये लेख लिखे जाने तक, अफ़गानिस्तान में स्थिति इस कदर तेज़ी से बदल चुकी है, की ज़मीनी तौर पर जब तक ये लेख प्रकाशित होगी, ये पुरानी हो चुकी होगी. अभी से सिर्फ़ एक महीने पहले अगस्त 2021 तक की वस्तुस्थिति ऐसी थी कि, तालिबान ने काबुल पर कब्जा कर लिए था, और अफ़ग़ानी राष्ट्रपति देश छोड़ कर भाग चुके थे. एक हफ्त़ा पहले तक तो तालिबान ने पूरे देश के सिर्फ़ आधे हिस्से पर ही नियंत्रण कर पाया था.
19वीं शताब्दी के दौर में ब्रिटिश राज के ज़माने से, 20वीं शताब्दी के सोवियत रूस गणराज्य के दौर तक, अफ़ग़ानिस्तान को ‘ साम्राज्यों का कब्रिस्तान’ कहा जाता था. कोई भी अंतरराष्ट्रीय ताकत उस देश पर अपनी मर्ज़ी थोपने में असफ़ल रहा था. 21वीं शताब्दी में अब जब संयुक्त राष्ट्र अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान से अपने कदम पीछे किये हैं, उसके तत्काल बाद से देश के भीतर लोकतंत्र भी कब्र में दफ़न होने की प्रक्रिया में पहुंच गया है. अफ़ग़ानिस्तान की धरती से अमेरिकी फौज के घर वापसी की घोषणा के मात्र दो महीने के भीतर ही, दो से भी ज्य़ादा दशक में तैयार हुए लोकतांत्रिक अफ़ग़ानिस्तान, ताश के पत्ते की तरह भरभरा कर ढह गया है. अब अगर कनाडा ख़ुद से अफ़ग़ानिस्तान में लोकतंत्र को सुरक्षित रखना चाहता है तो, उसे ख़ुद से आगे आना होगा. अफ़ग़ानिस्तान मे कनाडा की उपस्थिति सन् 2001 से 2014 तक रही, जहां वे तालिबानी कट्टर चरमपंथी शासक द्वारा पैदा किये गये गंभीर और सीमित नागरिक अधिकार के खिलाफ़ लगातार युद्ध लड़ रहे थे. अफ़ग़ानिस्तान मे 40,000 से भी ज्य़ादा कनाडियाई सैन्य बल के पुरुष और महिला सैनिकों ने अपनी सेवा दी जिनमें से कुल 158 सैनिक युद्ध में लड़ते हुए शहीद हुए. यहां ये बताना भी ज़रूरी है कि, अफ़ग़ानिस्तान का युद्ध क्षेत्र ही वो जगह थी जहां कनाडा की पहली महिला सैनिक की मौत हुई थी, शहीद होने वाली महिला सैनिका का नाम कैप्टन निकोल गोड्डार्ड था, वे कनाडा की पहली महिला सैनिक थीं जो सन् 2006 मे अफ़ग़ानिस्तान मे शहीद हुई थीं.
दो से भी ज्य़ादा दशक तक, अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका के नेतृत्व में जारी इस मिशन में, अब तक 1,70,000 जानें जा चुकी हैं. अकेले अमेरिका के लिए – इस मिशन मे कुल खर्च 2.2 ट्रिलियन डॉलर का आ चुका है. इसके अलावा, इस रकम से दोगुना मूल्य का खर्च तो बाकी अन्य राष्ट्रों ने, इस मिशन में मिलकर कर दिए हैं
दो से भी ज्य़ादा दशक तक, अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका के नेतृत्व में जारी इस मिशन में, अब तक 1,70,000 जानें जा चुकी हैं. अकेले अमेरिका के लिए – इस मिशन मे कुल खर्च 2.2 ट्रिलियन डॉलर का आ चुका है. इसके अलावा, इस रकम से दोगुना मूल्य का खर्च तो बाकी अन्य राष्ट्रों ने, इस मिशन में मिलकर कर दिए हैं. और इस सब के बावजूद, वित्तीय सेवाओं, मानव और मिलिट्री संसाधनों को नकारते हुए, तालिबान, अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता पर क़ाबिज हो चुका है. सवाल ये उठता है कि आख़िर ये सब कैसे संभव हो सका? इन सारे सवालों का जवाब पाकिस्तान के पास है. वो राष्ट्र जो बहुसांस्कृतिक भारत से धर्म के बहुतायत के आधार पर अलग राष्ट्र बना, और जो अपने जन्म के लगभग साल भर बाद से ही भारत के साथ किसी न किसी स्तर पर लड़ता रहा है. पाकिस्तान तब से, प्रूशिया के संबंध में दिए गए मुहावरे का 20वीं सदी का वर्ज़न बन चुका है. जिसके अनुसार – प्रूशिया एक समर्थ सेना से लैस देश न होकर एक ऐसी समर्थ सेना है जिसके पास एक देश की सत्ता है, यानी एक सेना जिसके साथ एक राष्ट्र है.
50 साल पहले पुराना इतिहास
सन 1971 में हुए भारत – पाक युद्ध में, अमेरिका के पाकिस्तान की पैरवी करने के बाद से दोनों ही देशों के आपसी रिश्ते काफ़ी गर्मजोशी से परिपूर्ण होते गये, जिसका फ़ायदा अगले ने (पाकिस्तान), सोवियत रूस-अफ़गान युद्ध के दरम्यान, खूब उठाया. इस युद्ध में केन्द्रीय भूमिका निभाते हुए पाकिस्तान ने, अपने मित्र अमेरिका से प्राप्त होने वाले कोष का इस्तेमाल इन कट्टरपंथी इस्लामिक आतंकियों का पोषण करने और अपने गुप्त परमाणु कार्यक्रम को बढ़ाने मे किया. 1988 में, अफ़ग़ान की धरती पर से रूसी सेना की वापसी के पश्चात, चंद सालों में ही, पाकिस्तान-प्रशिक्षित तालिबान ने सत्ता पर काबू कर लिया और एक अन्य आतंकी गुट अल-क़ायदा, को अपना समर्थन देना शुरू किया, जिसने अमेरिका में 9/11- (11 सितंबर 2001) के हमले को अंजाम दिया था. 1980 के दशक के बाद से, पाकिस्तान आतंकवादिओं को बहाल करता और उन्हें प्रशिक्षित करता आ रहा है, जो भारत अधिकृत कश्मीर मे घुसपैठ कर अराजकता फैलाते आ रहे हैं. तब से अब-तक, पाकिस्तान से आने वाले आतंकवादियों की वजह से, सदा शांत और खुशहाल रहने वाला कश्मीर घाटी भी लगातार हिंसा का शिकार होता आ रहा है.
अमेरिका और उसके नाटो सहयोगियों ने कभी भी पाकिस्तान को इस बात की मंजूरी नहीं दी थी कि वो अमेरिका के लिए या फिर उसके साथ में काम करते हुए, तालिबान को अपना समर्थन, आश्रय ,शस्त्र एवं ज़रूरी संसाधन मुहैया करवाए. लेकिन अबकी स्थिति की गंभीरता को देखते हुए, इस विषय पर दोबारा से सोचे जाने का वक्त आ चुका है.
9/11 के हमले के बाद वापस – पाकिस्तान के दोहरे चरित्र की जानकारी होने के बावजूद – अमेरिका और पाकिस्तान के बीच सैन्य समझौता स्थापित हुआ. अमेरिका और उसके नाटो सहयोगियों ने कभी भी पाकिस्तान को इस बात की मंजूरी नहीं दी थी कि वो अमेरिका के लिए या फिर उसके साथ में काम करते हुए, तालिबान को अपना समर्थन, आश्रय ,शस्त्र एवं ज़रूरी संसाधन मुहैया करवाए. लेकिन अबकी स्थिति की गंभीरता को देखते हुए, इस विषय पर दोबारा से सोचे जाने का वक्त आ चुका है. यहीं तक की कई अफ़ग़ानी नेताओं ने पाकिस्तान के तालिबानी आतंकियों का समर्थन करने के लिए खुल कर विरोध व्यक्त किया है. इसकी को देखते हुए सोशल मीडिया पर हैशटैग “#सैंक्शनपाकिस्तान” पिछले कुछ दिनों से काफी ट्रेंड कर रहा है. कनाडा को इस युद्ध मे मारे गए अपने पुरुष और महिला सैनिकों की शहादत को याद रखना चाहिए और इस बात को मान लेना चाहिए की अगर हमने इस वर्तमान स्थिति के लिए दोषी लोगों को समय रहते ज़िम्मेदार नहीं बनाया, तो उनके सैनिकों द्वारा किए गए सारे प्रयास व्यर्थ जाएंगे. ऐसे चंद भटकाने वाले राजनेता जो वोट बैंक की राजनीति मे विश्वास करते है, वो आगामी चुनाव के वक्त़ वोट मांगने के दौरान देश में टैक्स भरने वाली उस जनता के पैसों को ज़रूर याद करेंगे, जिसका इस्तेमाल अफ़ग़ानिस्तान मे तैनात किए गए सैनिकों पर खर्च करके किया गया, इसके साथ ही वे इस युद्ध की भेंट चढ़े सैनिकों की शहादत को भी याद करेंगे ताकि देश की जनता का ध्यान उस ओर लगाया जा सके. इस मुद्दे पर, किसी भी तार्किक सोच के आधार पर ये बड़े आसानी से समझा जा सकता है कि अफ़ग़ानिस्तान में शांति स्थापित करने की एकमात्र चाबी पाकिस्तान पर लगाम लगाना ही है. अफ़ग़ानिस्तान में, पूर्व कनाडाई राजदूत क्रिस अलेक्जेंडर इस विषय पर पहले ही काफ़ी मुखर रहे हैं और इस वजह से उन्हें काफी प्रतिक्रिया भी झेलनी पड़ी है.
वास्तव मे कई टिप्पणीकारों और अफ़ग़ानियों ने पाकिस्तान-विरोधी अभियान के तहत “सैंक्शन पाकिस्तान” के समर्थन मे 3,00,000 से भी ज्य़ादा ट्वीट किए है. अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति पहले से ही बहुत अच्छी नहीं थी, परंतु अमेरिकी सेना की घर वापसी के बाद से स्थिति और भी ज्य़ादा दयनीय हो गई है. सैन्क्शन पाकिस्तान मात्र एक हैशटैग नहीं है बल्कि अमेरिका में हुए 9/11 हमलों के बाद के हिंसक हालातों, 1990 के बाद से भारत प्रशासित कश्मीर और अफ़ग़ानिस्तान मे लगातार हो रहे आतंकी हमलों मे वृद्धि के विरुद्ध इस्तेमाल की गई गलत नीतियों की पहचान है, जिसके कि अमेरिकी सेना की वापसी के बाद और भी गंभीर होने के आसार हैं. ये आतंकी संगठन जिन्होंने भारत और अफ़ग़ानिस्तान और कनाडा समेत अन्य पश्चिमी सैन्य संगठनों के सैंकड़ों मारे गए लोगों को सीधे-सीधे प्रभावित किया है, संभवतः अंतिम मील संचालक हैं, जो की पाकिस्तान, उनकी सेना और उनके आका द्वारा पाला और पोषित किया गया है और जिसे वहीं से सभी तरह की सुरक्षा प्रदान की गई है. और इन सब के बावजूद, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान की ये मिलीभगत अब तक ना तो चिन्हित की गई है ना ही किसी बड़ी ताक़त का ध्यान इस ओर दिलाने में सफ़ल हो पायी है.
ये आतंकी संगठन जिन्होंने भारत और अफ़ग़ानिस्तान और कनाडा समेत अन्य पश्चिमी सैन्य संगठनों के सैंकड़ों मारे गए लोगों को सीधे-सीधे प्रभावित किया है, संभवतः अंतिम मील संचालक हैं, जो की पाकिस्तान, उनकी सेना और उनके आका द्वारा पाला और पोषित किया गया है और जिसे वहीं से सभी तरह की सुरक्षा प्रदान की गई है.
इस मुद्दे का सारांश ये है कि, इस बात की पहचान तय कर ली जानी चाहिए कि, एक अस्थिर अफ़ग़ानिस्तान या वहां की शासन व्यवस्था को ये अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि एक स्थिर और शांत अफ़ग़ानिस्तान का पाकिस्तान के लिए क्या मायने है, और उनके दिए गए हर वक्तव्य के विपरीत, पाकिस्तान अपना हर नीतिगत निर्णय अफ़ग़ानिस्तान मे शांति स्थापना के अलावे बाकी हर चीजों पर केंद्रित रखती है. पाकिस्तान को ये कतई गवारा नहीं है कि अफ़ग़ानिस्तान में आंतकवाद का अंत हो, या फिर वहां किसी प्रकार से भी कोई अक्षम ही सही किंतु स्थिर नेतृत्व का राज हो. पाकिस्तान को अपने सामरिक और नीतिगत फायदे के लिए, खुद की सीमा की रक्षा करने के लिहाज़ से एक अक्षम और राजनीतिक रूप से विभाजित अफ़ग़ानिस्तान काफी सहायक होगी. पाकिस्तान के पास इस बात का भी मौका है कि अफ़ग़ानिस्तान में कोई भी एकीकृत सरकार डुरंड रेखा न तो स्वीकार करेगी और न ही उसकी दूसरी तरफ पश्तूनी क्षेत्रों पर दावा करेगी. इसके साथ ही 2018 से अपने देश के फाइनेंसियल सिस्टम को टेरर फंडिंग और मनी लॉन्ड्रिंग की गतिविधियों को बढ़ावा देने के वजह से फाइनेंशियल टास्क फोर्स (FATF)’ की प्रतिबंधित ग्रे श्रेणी मे नाम होने की वजह से, पाकिस्तान को अपने आतंकी सहयोगियों को अफ़ग़ानिस्तान स्थानांतरित करके वहां से ऑपरेशन चलाने में मदद मिलेगी.
दोहा वार्ता — लीपा-पोती वाली बातचीत
इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि दोहा मे आयोजित तथाकथित ‘शांति वार्ता’ सिवा उम्मीद की मिथ्या भ्रम के अलावा और कुछ भी ठोस निर्णय पर नही आ सकी थी. ऐसी खबरें आ रही थी कि अशरफ ग़नी को सत्ता से उतारने की स्थिति मे तालिबान संभवतः शांति समझौते के लिए राजी हो सकती है, लेकिन उनके अफ़ग़ानिस्तान से पलायन के पश्चात तो अब इस संवाद पर भी विराम लग गया है और अफ़ग़ानिस्ता में आज तालिबान का शासन है. इस पूरे घटनाक्रम के दौरान एक तरफ जहां तालिबान ने हिंसा का रास्ता कभी नही छोड़ा तो दूसरी तरफ अमेरिका भी उनके साथ वार्ता करने की कोशिश में लगा रहा, लेकिन अब ये किसी से भी छिपा नहीं है कि वो वार्ता असर में अमेरिका के द्वारा तालिबान के साथ एक सौदा करने भर की स्थिति थी, जिसके ज़रिए वे इस कभी न ख़त्म होने वाले युद्ध रूपी नीतिगत दलदल – जो सीधे-सीधे पाकिस्तान के साथ टकराव के हालात उत्पन्न कर रही थी, उससे सुरक्षित बाहर निकलने भर का रास्ता था.
पाकिस्तान के इस पुराने राग पर की उनका देश काफी अरसे से खुद आतंकवाद से पीड़ित रहा है, इस पर भी एक रहस्यमयी अंतरराष्ट्रीय चुप्पी छायी रही, जो उनलोगों के लिए एक अत्यंत ही निराशाजनक स्थिति है जिन्होंने पाकिस्तान पोषित आतंकवाद के खिलाफ़ के जंग मे अपनी जान गंवाई है.
इतिहास में, ये कम ही सुना गया है कि वो राज्य या देश जिसने अपनी विदेश नीति के उद्देश्य प्राप्ति के लिए, आतंक को हथियार की तरह इस्तेमाल किया है, वो ज्य़ादा देर तक खड़ा रह पाया है. यहां तक कि किसी का सहयोगी होने का नाटक कर भी उसे सफ़लता हासिल नहीं हुई है. पाकिस्तान – जो की एक परमाणु अस्त्र से लैस स्वतंत्र राष्ट्र है, उसने न केवल आतंकवाद को पनपने में योगदान दिया बल्कि इसे अपनी दूरस्त नीति भी बनाया कि अपनी संप्रभुता की आड़ में वो लंबे समय से चली आ रही कट्टरपंथी संगठनों के आतंक के संचालन का न सिर्फ़ बचाव किया बल्कि उसे किसी भी तरह के अंतरराष्ट्रीय जांच से भी बचाने का काम किया, और इस तरह से उन्होंने संप्रभुता के नाम पर देश के भीतर अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी संगठनों के बनने की प्रक्रिया को और भी हवा दी. और इसके बाद भी, पाकिस्तान के इस पुराने राग पर की उनका देश काफी अरसे से खुद आतंकवाद से पीड़ित रहा है, इस पर भी एक रहस्यमयी अंतरराष्ट्रीय चुप्पी छायी रही, जो उनलोगों के लिए एक अत्यंत ही निराशाजनक स्थिति है जिन्होंने पाकिस्तान पोषित आतंकवाद के खिलाफ़ के जंग मे अपनी जान गंवाई है.
पाकिस्तान ने शुरू से ही अपनी विदेश-नीति के तहत, अपने यहां परमाणु प्रोग्राम की छत्रछाया में पल रहे आतंकवाद के आरोपों को नकारता आ रहा है और अब भी वो अपने स्टैंड पर कायम ही है. उसके वक्तव्यों में, खुले तौर पर बेवजह घुसपैठ करना और दूसरे देश के अंदरूनी मुद्दों मे दख़ल देने की नीति रही है, जैसे की उनके इस वक्तव्य में जहां पर उसने कहा कि, “अफ़ग़ानिस्तान में भारत की किसी प्रकार की भूमिका उसे मान्य नही है.” या फिर ये कि “भारत में आवश्यकता से अधिक वाणिज्य दूतावास है.” स्पष्ट तौर पर उसके रक्षात्मक सुरक्षा-हित के बजाय एक आक्रामक सुरक्षा हित की ओर इशारा करती है. वे इस हद तक जा चुका है कि, जहां पर वो तालिबानी आतंकियों को ‘आम नागरिक’ का दर्जा देने से भी नहीं हिचकता, जबकि ये लोग रोज़ना कत्लेआम मचाते फिरते हैं. विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों पर, पाकिस्तानी विदेशमंत्री ने अनौपचारिक तौर पर तालिबानी प्रवक्ता के तौर पर ओसामा बिन लादेन को आतंकवादी मानने से भी इनकार कर दिया है.
कनाडा का ये नैतिक दायित्व है कि वो अफ़ग़ान के युद्ध में शहिद हुए अपने सैनिकों और अफ़ग़ानी नागरिकों, जिन्हें उनकी मदद की ज़रूरत है उनकी मदद करे. अगर कनाडा अंतरराष्ट्रीय मंच पर लोकतंत्र को लेकर अपनी प्रतिबद्धता को साबित करना चाहता है तो, उनके राजनीतिक नेताओं को समय रहते हुए पाकिस्तान के खिलाफ़ न सिर्फ़ मिलकर आवाज उठाना चाहिये बल्कि ठोस निर्णय भी लेना चाहिये.
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