वैश्वीकरण की परिकल्पना 20वीं सदी के आख़िरी वर्षों में सामने आई थी और इसके मूल में वैश्विक स्तर पर निष्पक्ष एवं बराबरी वाले विकास को प्रोत्साहित करने की भावना थी. हालांकि, उस दौरान अर्थशास्त्रियों द्वारा ग्लोबलाइजेशन के माध्यम से जिस प्रकार से पूरी दुनिया के एकजुट होने का अनुमान जताया गया था, वो उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाया. देखा जाए तो वैश्वीकरण का विचार आर्थिक मोर्चे पर पूरी दुनिया को एक साथ लाने के मकदस से सामने आया था, लेकिन वास्तविकता में यह सिर्फ़ राजनीतिक दांव पेंच का ज़रिया बन कर रह गया. ग्लोबलाइजेशन की शुरुआती ऐतिहासिक परिस्थितियों, तमाम विरोधाभासी नज़रियों और इसकी दिशा निर्धारित करने वाली अहम घटनाओं पर गहराई से नज़र डाले जाने पर इसकी राह में आने वाली तमाम मुश्किलों एवं वैश्विक अर्थव्यवस्था में इसके प्रभावों के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है.
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के कालखंड में विकास के विषय पर जो भी अध्ययन किए गए, उन्हें काफ़ी सराहा गया. ज़ाहिर है कि इन अध्ययनों का मकसद ब्रिटिश शासन के समय जिन देशों को शोषण के दौर से गुजरना पड़ा था
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के कालखंड में विकास के विषय पर जो भी अध्ययन किए गए, उन्हें काफ़ी सराहा गया. ज़ाहिर है कि इन अध्ययनों का मकसद ब्रिटिश शासन के समय जिन देशों को शोषण के दौर से गुजरना पड़ा था, उनमें आर्थिक प्रगति की असमानताओं के बारे में पता लगाना और उन्हें दूर करना था. यह वो समय था, जब दुनिया के कुछ ही देशों ने पारस्परिक व्यापार एवं आर्थिक साझेदारियों को प्रोत्साहित करने के लिए कूटनीतिक नज़रिए से आधुनिक तरीक़ों का उपयोग किया और इस प्रक्रिया में वहां की सरकारें भी शामिल हुईं. हालांकि, उस समय कई नए-नए स्वतंत्र हुए ग़रीब देश ऐसे भी थे, जो ऐसा करने में असमर्थ थे और उन्हें पारंपरिक बाज़ार प्रणालियों को ही अपनाना पड़ा. कहीं न नहीं भूमंडलीकरण के प्रति इस अविश्वास और संदेह के पीछे राष्ट्रवादी भावनाएं भी थीं, जिन्हें इससे होने वाले विभिन्न प्रकार से फायदों के गैर बराबरी वाले विभाजन या विस्तार से बल मिला था. ख़ास तौर पर भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान जैसे ग्लोबल साउथ के देशों में ग्लोबलाइजेशन के प्रति इस तरह की विचारधारा ज़्यादा प्रबल थी.
वैश्वीकरण की अवधारणा
प्रख्यात अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन का कहना है कि वैश्वीकरण की प्रक्रिया का विरोध करना भविष्य में एक बहुत बड़ी ग़लती साबित होगी. वह अपने तर्क के समर्थन में कुछ ऐतिहासिक उदाहरण भी प्रस्तुत करते हैं. जैसे कि चीनी सभ्यता द्वारा प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी यानी मुद्रण तकनीक़ का आविष्कार और प्राचीन भारतीय साहित्य का चीनी भाषा में अनुवाद. ये उदाहरण इस विचार को सिरे से ख़ारिज कर देते हैं कि आधुनिकीकरण की शुरुआत पश्चिम से ही हुई है. सच्चाई यह है कि विश्व की सबसे प्राचीन पुस्तक मानी जाने वाली वज्रच्छेदिका प्रज्ञापारमिता सूत्र (जिसे ‘डायमंड सूत्र’ भी कहा जाता है) भारत की है. बौद्ध धर्म की इस पुस्तक में संस्कृत भाषा में भगवान बुद्ध एवं उनके शिष्यों के बीच हुए संवाद को लिखा गया था. इस पुस्तक का चीनी भाषा में अनुवाद 5वीं शताब्दी AD में कुमारजीव नाम के एक इंडियन-टर्किश व्यक्ति ने किया था. अमर्त्य सेन इस बात पर ज़ोर देते हुए कहते हैं कि वैश्वीकरण का समय से कोई लेना देना नहीं है, यह हमेशा से होता आया है और हर क्षेत्र में यह दिखाई देता रहा है. सांस्कृतिक आदान-प्रदान और विकास को आगे बढ़ाने में जिस प्रकार से भूमंडलीकरण ने अपना योगदान दिया है, वो इसकी ताक़त व क्षमता को ज़ाहिर करता है.
दूसरी ओर, विश्व के जाने-माने अर्थशास्त्री जोसेफ स्टिग्लिट्ज़ का स्पष्ट तौर पर कहना है कि वर्तमान में वैश्वीकरण से संबंधित सभी नीतियों को पूरी तरह से बदला जाना चाहिए . उनका कहना है कि आर्थिक एकीकरण और सामाजिक समानता को प्रोत्साहित करने के लिए जो मौज़ूदा प्रणाली है, उसमें हर हाल में विभिन्न सुधारों को आगे बढ़ाना चाहिए. उन्होंने आगे कहा कि निरक्षरता, स्वास्थ्य देखभाल से जुड़ी चुनौतियां, भ्रष्टाचार और समुचित आपदा प्रबंधन की कमी, ऐसी बुनियादी समस्याएं हैं, जिनका वैश्वीकरण की धुरी बने विभिन्न देश और उनकी कार्यप्रणालियां प्रभावशाली समाधान तलाशने में नाक़ाम रही हैं.
वैश्वीकरण का समय से कोई लेना देना लेनादेना नहीं है, यह हमेशा से होता आया है और हर क्षेत्र में यह दिखाई देता रहा है. सांस्कृतिक आदान-प्रदान और विकास को आगे बढ़ाने में जिस प्रकार से भूमंडलीकरण ने अपना योगदान दिया है, वो इसकी ताक़त व क्षमता को ज़ाहिर करता है.
1990 के दशक में इस मुद्दे पर ज़बरदस्त बदलाव तब देखने को मिला था, जब वाशिंगटन कंसेंसस फ्रेमवर्क सामने आया था. इस फ्रेमवर्क ने देशों के नियंत्रण को कम करने एवं वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा को बढ़ाने और घरेलू अर्थव्यवस्थाओं के विकास को तेज़ करने के लिए पूंजी व कमोडिटी मार्केट्स को बंधनों से मुक्त करने पर बल दिया. भारत जैसे देशों ने बढ़ती आर्थिक असमानता और पर्यावरण के नुक़सान को लेकर तमाम आलोचनाओं का सामना करते हुए व्यापक स्तर पर आर्थिक खुलेपन को अपनाया और तीव्र विकास हासिल किया. कनाडा, अमेरिका और मेक्सिको के बीच वर्ष 1994 में नॉर्थ अमेरिकन फ्री ट्रेड एग्रीमेंट (NAFTA) की स्थापना वैश्विक स्तर पर व्यापार के खुलेपन का पुख्ता प्रमाण था. पिछले दशक में ग्लोबलाइजेशन को लेकर जो हताशा और निराशा का माहौल था, NAFTA की स्थापना ठीक उसके उलट थी.
हालांकि, वर्ष 1997 में एशियन करेंसी संकट वैश्वीकरण के नकारात्मक और हानिकारक पक्ष को सामने लेकर आया. ज़ाहिर है कि ग्लोबलाइजेशन का सबसे ज़्यादा असर दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में दिखाई दिया था, जो कि ग्लोबल मार्केट्स के साथ नज़दीकी से जुड़े हुए थे. उस समय ख़ास तौर पर वित्तीय बाज़ार को एक करने एवं विदेशी निवेश के संबंध में अंतर्राष्ट्रीय नीतियों को लेकर जताए गए सैद्धांतिक अनुमानों एवं व्यावहारिक नतीज़ों में विरोधाभासों को लेकर ज़बरदस्त आलोचना हुई थी. वर्ष 2007-08 में अमेरिकी हाउजिंग बुलबुले के फूटने से अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को ज़बरदस्त वैश्विक आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा था. उस समय जून 2007 और नवंबर 2008 के बीच ही अमेरिकी नागरिकों ने अपनी औसत नेट वर्थ का एक तिहाई से ज़्यादा गंवा दिया था. इस वैश्विक आर्थिक संकट के बाद शेयर बाज़ारों में बिकवाली का दौर चला और बेतहाशा बेरोज़गारी का वातावरण बन गया. फलस्वरूप पूरे विश्व में आपस में जुड़ी हुई अर्थव्यवस्थाएं गंभीर तौर पर प्रभावित हुईं, जो कि आगे चलकर यूरोपियन सॉवरेन ऋण संकट की वजह भी बना.
वर्तमान परिदृश्य
हाल-फिलहाल की बात करें तो कोविड-19 संकट के दौरान वैश्विक स्तर पर आर्थिक प्रगति प्रभावित हुई थी. इसकी प्रमुख वजह यह थी कि पूरी दुनिया चीनी मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों एवं आपूर्ति श्रृंखलाओं पर बहुत ज़्यादा निर्भर थी और उसमें दिक़्क़त आते ही पूरा विश्व आर्थिक संकट में घिर गया था. लॉकडाउन, तमाम पाबंदियों एवं संसाधनों की कमी ने मार्केट की परेशानी को और बढ़ा दिया, साथ ही रिकवरी की प्रक्रिया में भी रोड़े अटकाए. लॉकडाउन को सख़्ती के साथ लागू करने जैसी चीन की जीरो-कोविड पॉलिसी और ग्लोबल इकोनॉमी पर इसके असर की चीन में ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में आलोचना की गई.
इस वैश्विक आर्थिक अर्थिक संकट के बाद शेयर बाज़ारों में बिकवाली का दौर चला और बेतहाशा बेरोज़गारी का वातावरण बन गया. फलस्वरूप पूरे विश्व में आपस में जुड़ी हुई अर्थव्यवस्थाएं गंभीर तौर पर प्रभावित हुईं, जो कि आगे चलकर यूरोपियन सॉवरेन ऋण संकट की वजह भी बना.
आख़िर में बात यूक्रेन-रूस युद्ध की, इसका भी ग्लोबलाइजेशन पर बेहद गंभीर असर पड़ा है. इस युद्ध से वैश्विक स्तर पर अस्थिरता के जो हालात पैदा हुए हैं और उनकी वजह से वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं में जो रुकावटें आ गई हैं, इन सब हालातों ने वैश्विक व्यापार से होने वाले ख़तरों को उजागर कर दिया है. इस युद्ध ने दुनिया भर की कंपनियों को कुशलता एवं सुरक्षा के बीच संतुलन का फिर से मूल्यांकन करने के लिए मज़बूर कर दिया है. इसके अलावा, रूस-यूक्रेन संघर्ष ने एक तरफ तमाम आर्थिक दुश्वारियां पैदा की हैं, वहीं दूसरी तरफ यह शरणार्थी संकट का भी कारण बना है. इसकी वजह से यूक्रेन और रूस के अलावा पूरी दुनिया के श्रम बाज़ार में उथल-पुथल मच गई है और सामाजिक व्यवस्था पर भी असर पड़ा है. इस युद्ध ने तमाम ज़रूरी वस्तुओं के दामों को बढ़ाया है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापार को प्रभावित किया है. इसके चलते जहां ग्लोबल इकोनॉमी को वृद्धि सुस्त हुई है, वहीं दुनिया को उच्च खाद्य एवं ऊर्जा मुद्रास्फ़ीति जोख़िम से भी जूझना पड़ा रहा है. आपूर्ति श्रृंखलाओं में व्यवधान के कारण अब वैश्विक की जगह क्षेत्रीय सोर्सिंग पर निर्भरता बढ़ी है. युद्ध ने वैश्विक आर्थिक गतिशीलता के लचीलेपन और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पारस्परिक आर्थिक निर्भरता के भविष्य को सवालों के घेरे में ला दिया है.
इस युद्ध ने दुनिया भर की कंपनियों को कुशलता एवं सुरक्षा के बीच संतुलन का फिर से मूल्यांकन करने के लिए मज़बूर कर दिया है. इसके अलावा, रूस-यूक्रेन संघर्ष ने एक तरफ तमाम आर्थिक दुश्वारियां पैदा की हैं, वहीं दूसरी तरफ यह शरणार्थी संकट का भी कारण बना है.
इसके अतिरिक्त, वर्तमान में दक्षिण एशियाई रीजन उल्लेखनीय रूप से व्यापक आर्थिक चुनौतियों से जूझ रहा है. श्रीलंका और पाकिस्तान को बेहद कठिन आर्थिक हालातों को झेलना पड़ा है. श्रीलंका जहां विपरीत आर्थिक परिस्थितियों से गुजर रहा है और उसकी अर्थव्यवस्था एक हिसाब से ज़मीदोज़ हो चुकी है, वहीं पाकिस्तान फिलहाल बेतहाशा विदेशी कर्ज़, बिजली की कमी और ज़बरदस्त मुद्रास्फ़ीति के दुष्चक्र में फंसा हुआ है. ये दोनों ही देश फिलहाल अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) से मिलने वाली वित्तीय मदद पर निर्भर हैं. बांग्लादेश भी कहीं न कहीं आर्थिक दिक़्क़तों का सामना कर रहा है. वहां आर्थिक स्थित डांवाडोल है और ऐसे में उच्च मुद्रास्फ़ीति एवं बांग्लादेशी टका में लगातार उतार-चढ़ाव होने की वजह से IMF ने बांग्लादेश के लिए 4.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर का एहतियाती ऋण मंज़ूर किया है. म्यांमार में भी हालात बेहद ख़राब हैं, वहां फरवरी 2021 में सैन्य तख़्तापलट होने के बाद से कारोबारी गतिविधियां ठप हैं और बेरोज़गारी चरम पर पहुंच चुकी है. नेपाल की आर्थिक स्थिति भी ठीक नहीं है, बढ़ते व्यापार घाटे और लगातार कम होते विदेशी मुद्रा भंडार समेत, उसे कई विपरीत हालातों से जूझना पड़ रहा है.
निष्कर्ष
निसंदेह तौर पर फिलहाल पूरी दुनिया कोविड-19 महामारी की वजह से पैदा हुई ऐसी चुनौतियों का मुक़ाबला कर रही है, जो बहुत गंभीर और गहरी हो चुकी है. इसके साथ ही वैश्विक समुदाय द्वारा भूमंडलीकरण के ख़तरों और उसकी कमज़ोर कड़ियों को भी जांचा-परखा जा रहा है. ज़ाहिर है कि इन हालातों में वैश्वीकरण को लेकर पुराने दृष्टिकोण के स्थान पर नई सोच को अपनाना ज़रूरी हो जाता है. इसलिए, अधिक बराबरी वाले और स्थाई ग्लोबलाइजेशन के लिए न केवल स्टिग्लिट्ज़ जैसे आलोचकों द्वारा ज़ाहिर की गईं चिंताओं को दूर करने की ज़रूरत है, बल्कि अमर्त्य सेन जैसे अर्थशास्त्रियों द्वारा सुझाए गए संभावित फायदों के महत्व को भी स्वीकारा जाना आवश्यक है. उल्लेखनीय है कि नीतियों में व्यापक सुधार के ज़रिए, ज़िम्मेदार ग्लोबल इकोनॉमिक गवर्नेंस को प्रोत्साहन देकर और विश्व के तमाम देशों के बीच आपसी सहयोग को बढ़ावा देकर ग्लोबलाइजेशन के कार्यों को बेहतर तरीक़े से संचालित किया जा सकता है. यानी कि वैश्वीकरण को एक ऐसे मार्ग पर अग्रसर किया जा सकता है, जो न सिर्फ़ समावेशी विकास व सामाजिक बराबरी को प्रमुखता देते हुए तालमेल स्थापित करने वाला हो, बल्कि टिकाऊ पर्यावरण को भी प्राथमिकता दे. वर्तमान में लगातार परिवर्तित होते वर्ल्ड ऑर्डर के बीच इस प्रकार का नज़रिया वैश्वीकरण के इर्द गिर्द उलझे हुए विभिन्न मसलों को सुलझाने और उनका सटीक समाधान तलाशने में सहायक सिद्ध हो सकता है.
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