अगर अर्थशास्त्र वो मुद्रा है जिससे किसी देश के अंतरराष्ट्रीय संबंधों को ताक़त मिलती है, तो भारत को तमाम देशों के साथ अपने संबंधों के कारणों को नए सिरे से परिभाषित करने की ज़रूरत है. अगर वैश्विक प्रभुत्व के लिए जीडीपी का अहम रोल है, तो भारत को चाहिए कि वो अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए पूरी क्षमता से इस के लिए काम करे. और अगर दुनिया के तमाम देशों की ये ख़्वाहिश है कि भारत अपने बाज़ार दुनिया को कारोबार करने के लिए खोले, तो भारत को ये सुनिश्चित करना चाहिए कि कि परिचर्चा में उस के अपने हित सर्वोपरि हों.
2020 के दशक में भारत, अमेरिका और चीन के बाद दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने जा रहा है. 10 फ़ीसद सालाना की धीमी विकास दर से प्रगति के बावजूद, भारत अगले पांच सालों में जर्मनी को और सात वर्षों बाद जापान को अर्थव्यवस्था के मामले में पीछे छोड़ देगा.
2020 के दशक में भारत, अमेरिका और चीन के बाद दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने जा रहा है. 10 फ़ीसद सालाना की धीमी विकास दर से प्रगति के बावजूद, भारत अगले पांच सालों में जर्मनी को और सात वर्षों बाद जापान को अर्थव्यवस्था के मामले में पीछे छोड़ देगा. इस दशक के अंत तक भारत की अर्थव्यवस्था के 7 ख़रब डॉलर की होने की संभावना है. अगर भारत की विकास दर 8 प्रतिशत सालाना रहती है, तो भी भारत इस दशक के आख़िर तक दुनिया की तीसरे नंबर की अर्थव्यवस्था बन जाएगा. हालांकि, पिछली तिमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर घट कर बेहद कमज़ोर स्तर यानी 6.1 फ़ीसद ही रह गई थी. लेकिन, हमें भरोसा है कि विकास दर में आयी ये गिरावट अस्थायी है और आगे चल कर इस में सकारात्मक बदलाव आएगा. इस की एक वजह ये है कि विश्व अर्थव्यवस्था सुस्ती से उबरेगी. साथ ही साथ, घरेलू मोर्चे पर भी हमें बदलाव देखने को मिलेंगे.
ऊंची जीडीपी और तेज़ विकास दर से अंतरराष्ट्रीय संवाद बदलते हैं और बदले भी हैं. इस की वजह से कूटनीतिक समीकरण भी बदलते हैं. 1998 में जब भारत ने पोखरण का परमाणु परीक्षण किया था, तो भारत का सकल घरेलू उत्पाद (GDP) 421 अरब डॉलर था. परमाणु परीक्षण के बाद अमेरिका और जापान ने भारत पर प्रतिबंध लगा दिए थे. चीन ने इस की आलोचना की थी. जब कि ब्रिटेन, फ्रांस और रूस ने इतनी तीखी प्रतिक्रिया नहीं दी थी. सात वर्ष बाद, 2005 में उसी अमेरिका ने भारत के साथ नागरिक परमाणु समझौता किया था. इन सात वर्षों में भारत की जीडीपी 1998 के मुक़ाबले दो गुना से भी ज़्यादा बढ़ कर 940 अरब डॉलर के स्तर तक पहुंच चुकी थी. और, एटमी टेस्ट के बाद भारत पर प्रतिबंध लगाने वाले उसी जापान ने इस सिविल न्यूक्लियर डील का समर्थन किया था. अमेरिका और भारत के बीच इस समझौते का समर्थन करने वाले देशों में ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और जर्मनी जैसे देश भी शामिल थे, जिन्होंने भारत के परमाणु परीक्षण करने की आलोचना की थी. हालांकि, इस क़दम से नाख़ुश चीन ने समझौते की भी आलोचना की थी.
अब भारत की जीडीपी 2.7 ख़रब डॉलर के स्तर तक पहुंच चुकी है. ऐसे समय में जब भारत ने अपने संविधान में जम्मू-कश्मीर के लिए विशेष प्रावधान वाले अनुच्छेद 370 को ख़त्म किया, तो, संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में इस की आलोचना करने वाला एकमात्र देश चीन था. इस का नतीजा ये हुआ कि विश्व स्तर पर भारत का विरोध करने में चीन अलग-थलग पड़ गया. क्योंकि, अमेरिका, रूस, ब्रिटेन और फ्रांस ने कहा कि ये भारत का अंदरूनी मसला है. यहां तक कि महत्वपूर्ण मुस्लिम देशों जैसे कि सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात भी भारत को छेड़ने से बचने की कोशिश करते दिखे. यहां हम तुर्की और मलेशिया जैसे अप्रासंगिक देशों की बात नहीं कर रहे हैं.
विश्व स्तर पर किसी देश का प्रभुत्व बढ़ाने के लिए उस के पास उच्च स्तर की जीडीपी होना आवश्यक है. लेकिन, वैश्विक प्रभुत्व के लिए ये पर्याप्त शर्त नहीं है. इस मक़सद को पूरा करने के लिए भारत की विदेश नीति को इस का इस्तेमाल करने के साथ-साथ, भारत की आर्थिक नीति को भी सशक्त करना चाहिए. भारत की विकास दर में आई हालिया गिरावट को जल्द ही दूर कर लिया जाएगा. फिर चाहे ये काम मौजूदा सरकार करे या फिर राजनीतिक परिवर्तन के बाद आने वाली नई सरकार. एक तेज़ी से विकसित होती अर्थव्यवस्था अपने लिए नए रास्ते ख़ुद निकाल लेगी. चूंकि, भारत एक लोकतांत्रिक देश है, तो इस के विकास के रास्तों में उतार चढ़ाव भी आएंगे. ये उठा-पटक दूसरे लोकतांत्रिक देशों से कुछ ख़ास अलग नहीं होंगे. ये ठीक वैसे ही होंगे, जैसे हालात इस समय अमेरिका, ब्रिटेन, जापान और जर्मनी जैसे देशों में हैं.
अब जब कि भारत 2020 के दशक में ऐसी आर्थिक परिस्थितियों के साथ प्रवेश कर रहा है, तो ऐसे छह मोर्चे हैं, जिन पर भारत को अगले एक दशक में ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है. भारत के लिए सभी देशों से संबंध महत्वपूर्ण हैं. लेकिन, हमारा ये मानना है कि ये छह सब से अहम मोर्चे ही अगले एक दशक के दौरान, हमारे देश की कूटनीति के केंद्र में होंगे. इन भौगोलिक दायरों में भारत को एक साथ कई पेचीदा मसलों पर संवाद करना होगा. मसलन व्यापार और राष्ट्रवाद, तकनीक और उन पर नियंत्रण, ऊर्जा और सुरक्षा. और इन सब से अहम बात ये है कि भारत को दुनिया को कुछ ऐसा देना होगा, जिस से सब का भला हो. और साथ ही साथ हमें घरेलू मोर्चे पर भी ग़रीबी को ख़त्म करना होगा.
भारत और अमेरिका के संबंध हमेशा सौहार्दपूर्ण होंगे, ये भी ज़रूरी नहीं है. अमेरिका चाहेगा कि भारत अपने बाज़ार का उदारीकरण करे. भारत, अमेरिका से मांग करेगा कि वो अपने देश में भारतीयों के काम करने के और मौक़े मुहैया कराए.
अमेरिका: संबंध सही दिशा में हैं, इन्हें उड़ान के पंख देने की ज़रूरत है
स्पष्ट है कि भारत के लिए सब से अहम अंतरराष्ट्रीय संबंध अमेरिका से रिश्ते हैं. जो कि बेहद व्यापक भी हैं और जिन में काफ़ी गहराई भी है. अमेरिका से हमारा कारोबारी रिश्ता भी है, तो सुरक्षा और रक्षा मामलों में भी हम सहयोगी हैं. हालांकि, अमेरिका हमारे लिए हमेशा भरोसेमंद साथी साबित नहीं हुआ है. लेकिन, आने वाले वक़्त में भारत और अमेरिका के संबंधों की अहमियत बनी रहेगी. फिर चाहे ये एशिया में चीन की दादागीरी की चुनौती देने के लिए हो. या भी व्यापार के बाज़ार को लेकर हो. ये संबंध दोनों ही साझीदारों के लिए अहम हैं. भारत और अमेरिका के संबंध हमेशा सौहार्दपूर्ण होंगे, ये भी ज़रूरी नहीं है. अमेरिका चाहेगा कि भारत अपने बाज़ार का उदारीकरण करे. भारत, अमेरिका से मांग करेगा कि वो अपने देश में भारतीयों के काम करने के और मौक़े मुहैया कराए. अमेरिका चाहेगा कि उस के बोइंग विमान भारत की उड़ान भरें. वहीं, भारत एयरबस के ज़रिए इस में संतुलन स्थापित करना चाहेगा. भारत और अमेरिका के रिश्ते मज़बूत करने में सब से महत्वपूर्ण भूमिका कारोबार में आपसी सहयोग की होगी. साथ ही भारत और अमेरिकी नागरिकों के संपर्क का भी इस में अहम रोल होगा. भारत की सरकार को इन को पालना-पोसना चाहिए.
चीन: जो न एक दोस्त है, न अभी एक दुश्मन ही है
भारत के कूटनीतिज्ञों के लिए इस दशक की सब से बड़ी चुनौती चीन ही होगा. भारत की कोशिश होगी कि जब वो 5G तकनीक को अपने यहां लॉन्च करे तो चीन की हुवावे और ज़ेटीई (ZTE) जैसी कंपनियों को इस से दूर रखे. ये कंपनियां मीडिया और सुरक्षा के हलकों में अपने लिए ज़बरदस्त लॉबीइंग कर रही हैं. क्योंकि इन सब से आशा है कि ये भारत को सुरक्षित करेंगे. इस दौरान हम देखेंगे कि चीन को लेकर कई तरह की चर्चाएं होंगी. अंत में सुरक्षा की ही जीत होगी. और हुवावे रेस से बाहर होगी. लेकिन, वहां तक पहुंचने के सफ़र के दौरान हमें कई तरह की चुनौतियों का सामना करना होगा. चीन के साथ सीमा का प्रबंधन एक और चुनौती होगी. बालाकोट के हवाई हमले के बाद चीन का आतंकवादी सहयोगी देश पाकिस्तान, कमोबेश क़ाबू में है. चीन के साथ असंतुलित व्यापार से भारत को घाटा होता है, तो चीन भारी मुनाफ़ा कमा रहा है. भारी फ़ायदे के बावजूद, हमारा पड़ोसी देश चीन गाहे-बगाहे भारत के प्रति ज़बरदस्त नाराज़गी का इज़हार करता रहा है. आने वाले दशक में चीन की कोशिश होगी कि वो भारत के कूटनीतिज्ञों और घरेलू नीति नियंताओं से संवाद के माध्यम से ज़्यादा से ज़्यादा फ़ायदा निकाल सके. फिलहाल, भारत में ऐसा कोई नहीं है, जो चीन को लेकर सकारात्मक रुख़ रखता हो. लेकिन, अगर चीन, भारत के प्रति अपने नकारात्मक रवैये में सुधार लाता है, तो हम ये उम्मीद कर सकते हैं कि भारतीय विशेषज्ञों की ये सोच इस दशक के आख़िर तक बदल भी सकती है.
भारत भी अपनी रक्षा ज़रूरतों को अलग-अलग देशों से पूरी करने पर ज़ोर दे रहा है. इस सामरिक संबंध के दायरे से इतर, भारत के पास रूस और फ्रांस दोनों से संबंधों का दायरा बढ़ाने के काफ़ी अवसर हैं.
रूस और फ्रांस: संबंध बेहतर हुए हैं, मगर इन्हें विस्तार देने की ज़रूरत है
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के ये दोनों सदस्य देश भारत के साथ अपने संबंध निभाने में बड़े पक्के रहे हैं. दोनों ही देशों ने हाल के दिनों में भारत के कई फ़ैसलों का समर्थन किया है. और, इस के लिए वो चीन के ख़िलाफ़ भी गए हैं. ऐतिहासिक रूप से देखें, तो रूस ने भारत को बहुत से हथियार मुहैया कराए हैं. फ्रांस भी अब उसी क़तार में खड़ा हो रहा है. रूस और फ्रांस का भारत को समर्थन, एक तरफ़ तो अमेरिका से मुक़ाबले के लिए है. वहीं, दूसरी तरफ़ भारत भी अपनी रक्षा ज़रूरतों को अलग-अलग देशों से पूरी करने पर ज़ोर दे रहा है. इस सामरिक संबंध के दायरे से इतर, भारत के पास रूस और फ्रांस दोनों से संबंधों का दायरा बढ़ाने के काफ़ी अवसर हैं. रूस के साथ भारत ऊर्जा के मोर्चे पर और नज़दीकी बढ़ा सकता है. इस के लिए हम अपने गैस आयात के रूट को नए सिरे से परिभाषित कर सकते हैं. वहीं, फ्रांस के साथ नागरिक एटमी सहयोग के फ्रेमवर्क एग्रीमेंट के बाद, इस दशक में हम दोनों देशों के बीच और एटमी पावर प्लांट लगाने के समझौते होते देख सकते हैं.
पड़ोसी देश: नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका पर ध्यान देने की ज़रूरत है
हम ये देख रहे हैं कि भारत, अपने तीन पड़ोसियों-भूटान, म्यांमार और मालदीव के साथ संबंधों को सही रास्ते पर ले आया है. ऐसे में आने वाले दशक में भारत को आगे बढ़ कर नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका के साथ अपने संबंध सुधारने पर ध्यान देना चाहिए. चूंकि भारत एक बड़ी अर्थव्यवस्था है और ज़्यादा प्रभावशाली देश है, तो भारत को चाहिए कि वो इन देशों के साथ संबंधों पर नए सिरे से विचार करे और इन देशों से हुए हालिया विवाद को ख़त्म करने की कोशिश करे. हम ने बेवजह ही चीन को इन देशों के साथ अपने विवाद का फ़ायदा उठाने का मौक़ा दिया है. थोड़ी सी कूटनीतिक विनम्रता से हम इन देशों के साथ पहले जैसे बेहतर संबंध फिर से बना सकते हैं. क्योंकि, इन में से किसी भी देश के लिए चीन या भारत में से एक को चुनने वाली मजबूरी नहीं है. दोनों साथ-साथ इन देशों से अच्छे संबंध रख सकते हैं. लेकिन, अगर चीन के पास ज़्यादा सामरिक और आर्थिक शक्ति है, तो भारत भी कोई कमज़ोर खिलाड़ी नहीं है. इस के अलावा, अगर भारत के पास चीन से कम शक्ति है, तो इस की भरपायी हम अपनी तकनीकी क्षमता से कर सकते हैं. आधार या फिर ऑनलाइन भुगतान के प्लेटफ़ॉर्म जैसे यूपीआई (Unified Payments Interface) ऐसे उत्पाद हैं जिन्हें हम न केवल अपने पड़ोसियों को तोहफ़े में दे सकते हैं, बल्कि दुनिया के अन्य देशों को भी इन्हें मुहैया करा सकते हैं. ख़ास तौर से अफ्रीका और दक्षिणी अमेरिका के देशों को. यहां तक कि इस मामले में अमेरिका और ब्रिटेन को भी भारत के सहयोग से फ़ायदा ही होगा.
जापान और जर्मनी: संबंधों को और मज़बूत बनाने की ज़रूरत
जापान और जर्मनी, दुनिया की तीसरी और चौथी बड़ी अर्थव्यवस्थाएं हैं. हमें इन देशों के साथ अपने संबंधों का दायरा और बढ़ाने की ज़रूरत है. जापान के साथ हमारे संबंध आर्थिक भी हैं और सामरिक भी. चार देशों के बीच होने वाले सुरक्षा संवाद (Quadrilateral Security Dialogue) के ज़रिए जापान से हमारे रणनीतिक संबंध हैं. तो, निवेश और व्यापार के ज़रिए हमारे और जापान के आर्थिक संबंध भी हैं. भारत और जापान के रिश्ते दोस्ताना हैं. मगर, दोनों ही देश इस संबंध को और बेहतर बनाने की गुंजाईश रखते हैं. क्योंकि दोनों ही देशो को दादागीरी दिखाने वाले चीन से मुक़ाबला करना है. भारत और जर्मनी के संबंध ज़्यादा साधारण हैं. दोनों ही देशों के बीच कारोबार, निवेश और तकनीकी आदान-प्रदान जैसे रोबोटिक्स के क्षेत्र में सहयोग होता है, न कि सुरक्षा के मोर्चे पर. अब जबकि घरेलू मोर्चे पर बढ़ती लागत की मुश्किलें होने की वजह से जर्मनी की कंपनियां निवेश के नए ठिकाने तलाश रही हैं, तो भारत को चाहिए कि वो जर्मनी की कंपनियों के अपने यहां काम करने की राह हमवार बनाए. ताकि भारत में मैन्यूफैक्चरिंग के क्षेत्र को बढ़ावा दिया जा सके. भारत को अपने क़ानूनों में ऐसे बदलाव करने की ज़रूरत है, जो राह में बाधाएं खड़ी करने के बजाय निवेशकों का स्वागत करते दिखें.
पश्चिमी एशिया: संबंधों में विविधता से नई ऊंचाई हासिल करने की ज़रूरत
भारत को 10 ख़रब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने के लिए पहले से कहीं ज़्यादा ऊर्जा की ज़रूरत होगी. भारत पहले ही दुनिया का तीसरा बड़ा तेल आयातक देश है. आने वाले वक़्त में भारत की ऊर्जा ज़रूरतें बढ़नी तय ही हैं. भौगोलिक रूप से क़रीब होने की वजह से हम अपनी ऊर्जा ज़रूरतों के लिए सब से ज़्यादा पश्चिमी एशिया पर ही निर्भर रहते हैं. वहीं, दूसरी तरफ़ पश्चिमी एशियाई देशों में भारत के काफ़ी लोग काम भी करते हे हैं. खाड़ी देशों से हमारे संबंधों को इसलिए और मज़बूत बनाने की ज़रूरत है, ताकि हमारी ऊर्जा ज़रूरतें भी पूरी हों. और वहां रहने वाले भारतीय कामगार लगातार कमाई कर के भारत भेजते रहें. इन हितों की पूर्ति के लिए भारत और खाड़ी देशों के बीच सामरिक संबंधों को सुदृढ़ बनाने की आवश्यकता है. इस का नतीजा ये होगा कि अगले एक दशक में भारत को इन देशों के साथ मज़बूत सुरक्षा संबंध विकसित करने पर ध्यान देना होगा. ठीक उसी तरह जैसे कि भारत-प्रशांत क्षेत्र में हम जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के साथ कर रहे हैं. अगर भारत ऐसा करता है, तो भारत की ऊर्जा ज़रूरतों के लिए बेहद महत्वपूर्ण खाड़ी देशों के सुरक्षा समीकरणों में भारत की अहमियत और बढ़ेगी और हम इस में सक्रिय रूप से भागीदारी निभा सकेंगे.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.