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महामारी से लेकर राज्यों में होने वाले चुनावों व नए राष्ट्रपति को चुनने तक, भारत के लिए साल 2022 की गतिविधियां हर रूप में एक महत्वपूर्ण साल का तानाबाना रचती हैं.
साल 2021 अगर उम्मीदों और अपेक्षाओं का साल रहा है तो साल 2022 उम्मीदों और अनिश्चितताओं का साल रहेगा. अलग अलग राज्यों में होने वाले चुनावों से लेकर नए राष्ट्रपति को चुनने तक, महामारी से लेकर सिद्धांतों पर आधारित बहस तक, साल 2022 संभावनाओं, आशंकाओं यहां तक की निराशा का साल भी होगा, लेकिन हर क़दम पर और हर हाल में यह भारत जैसा ही साबित होगा यानी—एक रोमांचक यात्रा, एक लगातार जारी काम और उम्मीदों का भूगोल.
भारत में पांच राज्यों की विधानसभाएं साल 2022 में अपने सदस्यों का चुनाव करेंगी. यह चुनावी चक्र गोवा से शुरू होगा (जहां सदन का कार्यकाल 15 मार्च 2022 को समाप्त होगा), जिसके बाद मणिपुर (19 मार्च); उत्तराखंड (23 मार्च); पंजाब (27 मार्च); और उत्तर प्रदेश (14 मई) में चुनावी बयार चलेगी. जहां एक ओर उत्तर प्रदेश में होने वाला चुनाव सबसे बड़ी टक्कर के रूप में घमासान की तरह हमारे सामने होगा वहीं, अन्य चार राज्यों में होने वाले चुनाव देश की मन: स्थिति को भांपने का काम करेंगे. इन पांच राज्यों के चुनाव दो अन्य महत्वपूर्ण रुझानों की ओर भी इशारा करेंगे. पहला रुझान है, गैर-भाजपा दलों की एकजुटता और एक साथ चुनाव लड़ने की क्षमता, और दूसरा- अलग अलग दलों के अहंकार के सामंजस्य के बीच उस पार्टी का निर्धारण व उदय जो गठबंधन का केंद्र बनेगी- भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस या अलग अलग राज्यों के विशिष्ट क्षेत्रीय दल. हालांकि इस सब के मद्देनज़र जो कुछ भी, संरचनाएं विकसित होती हैं और जो भी परिणाम सामने आएं, यह चुनावी लेखाजोखा पोस्टमार्टम के रूप में उस एक शब्द को ज़रूरी सामने रखेगा जिसे भारतीय मतदाताओं ने लगातार साबित किया है: “आश्चर्य!” इस मायने में इन पांच चुनावों से पहले, पांच बहस भी होंगी जो शासन के परिणामों को प्रभावित करेंगी.
एक ओर उत्तर प्रदेश में होने वाला चुनाव सबसे बड़ी टक्कर के रूप में घमासान की तरह हमारे सामने होगा वहीं, अन्य चार राज्यों में होने वाले चुनाव देश की मन: स्थिति को भांपने का काम करेंगे.
उपरोक्त चुनावों के परिणाम के रूप में, भारत अंतर्निहित रूप से विकास और समृद्धि बनाम मुफ्त उपहार और बयानबाज़ी पर बहस करेगा. इस परिप्रेक्ष्य में हम मतदाताओं की आकांक्षाओं को बढ़ते हुए देखेंगे. साल 1991 से पहले होनी वाली ‘रोटी-कपड़ा-मकान’ की बहस, 2010 के दशक तक ‘बिजली-सड़क-पानी’ की बहस तक पहुंची है और साल 2020 में इसमें वाई-फाई जैसी सुविधाएं जुड़ गई हैं. बदलती आकांक्षाओं को अपनाने वाली पार्टियों की जीत हुई है; और जो अतीत में रुके रहे वे खो गए हैं. सोशल मीडिया पार्टियों को ज़मीनी सच्चाई का आभास कराती है, लेकिन चुनाव लड़ने वालों के लिए यह ज़रूरी है कि वह असमानताओं और मतदाताओं की बदलती आकांक्षाओं को भांप सकें. भारत में दशकों से चला आ रहा ग़रीबी का कथानक क्या काम करेगा? क्या मुफ़्त सामान का वादा वोट खरीदने के लिए काफ़ी होगा? क्या अब तक की गई प्रगति को भुला दिया जाएगा या उसकी सराहना की जाएगी? क्या मतदाता नकदी, प्रेशर कुकर और टीवी सेट से मिलने वाली अस्थाई संतुष्टि के बजाय विकास के हक में अपना वोट डालेंगे? या वे बिजली, पानी, सब्सिडी, और न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसे लंबे समय तक चलने वाली सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए लिए मतदान करेंगे जिन्हें अब क़ानूनी रूप से भारत की व्यवस्था का हिस्सा बना दिया गया है? भारत में इस साल होने वाले ये पांच चुनाव साल 2024 के आम चुनावों के संकेत के रूप में इन सवालों के जवाब देंगे.
सोशल मीडिया पार्टियों को ज़मीनी सच्चाई का आभास कराती है, लेकिन चुनाव लड़ने वालों के लिए यह ज़रूरी है कि वह असमानताओं और मतदाताओं की बदलती आकांक्षाओं को भांप सकें.
भारत के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का कार्यकाल क्रमशः 24 जुलाई 2022 और 10 अगस्त 2022 को खत्म हो रहा है. दोनों ही कार्यालयों के खत्म होने पर इनके लिए चुनाव होंगे. दोनों का चुनाव एक इलेक्टोरल कॉलेज (Electoral College) यानी निर्वाचन मंडल द्वारा किया जाता है, जिसमें लोकसभा और राज्यसभा के निर्वाचित सदस्यों के साथ-साथ राज्य की विधानसभाओं और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली और केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी के निर्वाचित सदस्य शामिल होते हैं. ये सभी सदस्य मिलकर मतदान के माध्यम से देश के राष्ट्रपति का चुनाव करते हैं जो कि जनता द्वारा ही अप्रत्यक्ष रूप से चुना गया माना जाता है. ऐसे में दोनों कार्यालयों के उम्मीदवारों को राष्ट्रीय दलों, क्षेत्रीय दलों और राज्य दलों तक पहुंचने और प्रचार करने की आवश्यकता होगी. यह कहना कि इस तरह का प्रचार अब काम नहीं करेगा, साल 2012 में प्रणब मुखर्जी के चुनाव से अस्वीकृत हो चुका है. इस बात की बहुत हद तक संभावना है कि राष्ट्रपति पद के लिए तीन उम्मीदवारों की घोषणा की जाएगी, जिनकी उम्मीदवारी पर बहस होगी और चुनाव लड़ा जाएगा, और अंत में, इनमें से एक निर्वाचित होगा. साल 2022 के राष्ट्रपति चुनावों में, लड़ाई कठिन होगी, दावेदारी मज़बूत होगी और बहस लगातार तेज़ होगी.
. 2022 के राष्ट्रपति चुनावों में, लड़ाई कठिन होगी, दावेदारी मज़बूत होगी और बहस लगातार तेज़ होगी.
चीन में पैदा हुई और सारे विश्व में फैली यह महामारी अभी ख़त्म नहीं हुई है. वुहान में पैदा हुआ यह वायरस जिस तेज़ी और अनिश्चितता के साथ खुद को म्यूटेट यानी उत्परिवर्तित कर रहा है, उसे लेकर इसकी रोकथाम और नियंत्रण से जुड़ी नीतिगत बहस साल 2022 में भी जारी रहेगी. डेटा-संचालित समाधानों की कमी नीतिगत दहशत पैदा कर रही है. वहीं चुनिंदा लॉकडाउन से लेकर अप्रभावी और अतार्किक नीतियों तक, राज्य सरकारें समस्या का डटकर मुकाबला करने के बजाय केवल सांकेतिक भूमिका निभा रही हैं. इस सब के बीच बुद्धिजीवी वर्ग उन देशों के उदाहरण पेश कर रहा है जिनका न तो आकार और न ही भूगोल भारत से किसी भी मायने में तुलनात्मक है. पिछली लहर में जहां न्यूज़ीलैंड एक मानक देश के रूप में सामने आया वहीं साल 2022 में कौन सा देश इसकी जगह लेगा, यह देखना बाक़ी है. इस रूप में दहशत विमर्श का दूसरा रूप बनकर उभरेगी. इसमें से कुछ राजनीति से प्रेरित होगा, कुछ नीतियों से और कुछ खुद को महत्वपूर्ण समझने वाले निकायों द्वारा बनाए जाएंगे. इस दौरान महामारी से मुक्त दुनिया लगभग मध्यम अवधि में साकार होती नहीं दिखती है. बहुत हद तक मुमकिन है कि साल 2022 में हम इस सच का सामना आखिरकार कर लें.
महामारी से मुक्त दुनिया लगभग मध्यम अवधि में साकार होती नहीं दिखती है. बहुत हद तक मुमकिन है कि साल 2022 में हम इस सच का सामना आखिरकार कर लें.
साल 2021 में, हमने ग़रीबी और बदहाली की जगह धन और समृद्धि का एक नया आख्यान देखा. साल 2022 में, यह समेकित होकर और अधिक रूप से सामने आएगा. साल 2021 में 39 मेड इन इंडिया यूनिकॉर्न कंपनियां सामने आईं. यह संख्या 2022 में दोहराई जाए यह ज़रूरी नहीं, लेकिन यूनिकॉर्न केवल एक वित्तीय आंकड़ा है. मज़बूत व्यापार मॉडल द्वारा समर्थित हज़ारों आकांक्षाएं, विशेष रूप से प्रौद्योगिकी से संबंधित आकांक्षाएं इस साल में फलीभूत होंगीं. इस साल 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक के मूल्यांकन वाले उद्यमों की संख्या में लगातार वृद्धि होगी. जो कंपनियां शीर्ष पर हैं वो अपने व्यापार को और बढ़ाएंगी और और समेकित करेंगी. साल 2021 की 39 यूनिकॉर्न कंपनियों ने कई वित्तीय उम्मीदें पैदा की हैं और निवेशकों, वेंचर फंड और निजी इक्विटी कंपनियों की संख्या नई उम्मीदों को हवा देती रहेगी — याद रहे 10 में से सिर्फ़ एक की सफलता दर भी नौ कंपनियों को हो रहे नुकसान की भरपाई के लिए काफ़ी है. पैसे को नए विचारों की ज़रूरत है, विचारों को दिमाग़ की ज़रूरत है और दिमाग़ लगातार नया सोच रहे हैं. यह पुण्य चक्र (virtuous cycle) साल 2022 में भी जारी रहेगा.
साल 2021 की तरह संविधान के ‘रखवालों’ यानी न्यायपालिका द्वारा संविधान के संस्थागत उल्लंघन का दुर्भाग्यवश चक्र साल 2022 में भी जारी रहेगा. सुप्रीम कोर्ट ने तीन बहुत ज़रूरी और बहुचर्चित कृषि कानूनों को एक झटके में स्थगित कर दिया. अमीर किसानों और व्यापारियों के हक में किए या यह फैसला एक संवैधानिक उल्लंघन है जो आगे चलकर कई मायनों में एक मिसाल बन सकता है. इसके तहत एक अनिर्वाचित और स्व-चयनित न्यायपालिका संविधान के तहत क़ानून बनाने के लिए ज़िम्मेदार लोगों पर शासन करेगी. वह उन फैसलों को बदल देगी जो संसद द्वारा मान्यता प्राप्त हों. हालांकि, कृषि क़ानूनों के मामले में कार्यपालिका (केंद्र सरकार) या विधायिका (संसद) के बजाय, किसान संघों ने ही न्यायपालिका से हटने के लिए कहा — उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त समिति से मिलने से इनकार कर दिया. इस आदेश को लिखते समय पत्रकारों की दीर्घा से प्रभावित होकर व अपनी संवैधानिक ज़िम्मेदारी से हटते हुए न्यायिक अतिरेक ने कई हदों को पार कर किया.
इस मायने में न्यायपालिका को आत्म-सुधार की आवश्यकता है और न्यायपालिका में सुधारों की सख़्त ज़रूरत है. लेकिन इस तरह के उल्लंघनों को मिलने वाले भारी समर्थन को देखते हुए, इस तरह के सुधार की संभावना लगभग नहीं है. एक संस्था जो आलोचना को बर्दाश्त नहीं कर सकती है और सार्वजनिक रूप से ऐसा कहने का साहस रखती है — तब जब वह हर समय दूसरों को और अधिक सहिष्णु रहने का पाठ पढ़ाती हो — एक बुलबुले में रह रही है, जो दुख़द रूप से बड़ा होता जा रहा है. ऐसे में यह देखना बाक़ी है कि दो बड़ी संस्थाओं का आमना-सामना साल 2022 में होगा फिर कभी. आज, भारत के लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा ख़तरा गतिशील विधायिका या कार्यपालिका नहीं है; यह भारत की गैर-जवाबदेह न्यायपालिका है जो अब सत्तावादी चीन की विशेषताओं को प्रतिबिंबित कर रही है. सही है कि साल 2022 में इसमें सुधार नहीं होगा.
अमीर किसानों और व्यापारियों के हक में किए या यह फैसला एक संवैधानिक उल्लंघन है जो आगे चलकर कई मायनों में एक मिसाल बन सकता है.
हालांकि, एक बहस जो अभी तक नहीं हुई है, वह एक सिद्धांत-आधारित तर्क के आधार पर होने वाली बहस. यानी किसी घटना, नीति, व्यक्ति, विचार, किताब या यहां तक कि बुनियादी बातों के आधार पर सकारात्मक या नकारात्मक आलोचना करना. यानी यह पूरी तरह से उदासीन संवाद पर आधारित जांच-परख है. दूसरे शब्दों में कहें तो वैचारिक और राजनीतिक जुड़ाव या झुकाव से अलग हटकर डेटा, तर्क और संदर्भ के आधार पर एक रुख़ तय करना. वह लोग जो उन पदों पर आसीन हैं जिनका हम सम्मान करते हैं या फिर वह लोग जिन्हें हम बौद्धिक रूप से सम्मानजनक दृष्टि से देखते हैं उनका यह रुख़ साल 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आने के साथ लगातार बढ़ा है और लगातार तेज़ हो रहा है.
इस बात की बहुत कम संभावना है कि साल 2022 में भी इस संबंध में बदलाव देखने को मिले. लेकिन ज़िम्मेदार विचारकों के लिए एक संदेश के रूप में इस साल इस बात पर बहस होना लाज़मी है. कुल-मिलाकर तीन ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था में कम से कम 300 ऐसे विचारक ज़रूर होने चाहिए.
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Gautam Chikermane is Vice President at Observer Research Foundation, New Delhi. His areas of research are grand strategy, economics, and foreign policy. He speaks to ...
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