Author : Bibek Debroy

Published on Jul 30, 2021 Updated 0 Hours ago

संविधान में सत्ता के तीन अंग यानी कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका बताए गए हैं, रिफॉर्म का मतलब इनकी और इनके कामकाज की समीक्षा है 

आर्थिक सुधारों से आगे की दुनिया: क्या संस्थानों में रिफॉर्म का वक्त आ गया?

अधिकतर लोगों ने ‘रिफॉर्म एंड प्रोग्रेस इन इंडिया’ यानी भारत में सुधार और प्रगति नाम की किताब नहीं पढ़ी होगी. इसे लिखने वाले ने अपना नाम ज़ाहिर नहीं किया, इसलिए कहा जाता है कि ‘एक आशावादी’ ने यह किताब लिखी है. इस किताब का सब-टाइटल (उप-शीर्षक) है, ‘देश और लोगों से जुड़े कुछ प्रशासनिक और अन्य प्रश्न.’ शायद इसे पढ़कर आपको लगा हो कि यह किताब बहुत पुरानी है. अगर आपको ऐसा लगता है तो आप ठीक हैं क्योंकि यह किताब 1885 में प्रकाशित हुई थी. सुधारों पर कई किताबें, मोनोग्राफ़, अकादमिक शोधपत्र मौजूद हैं और मीडिया में इन्हें लेकर काफी आलेख भी छपे हैं. 1991 के बाद ऐसे पब्लिकेशंस की संख्या बढ़ी है तो उसकी वजह समझना भी मुश्किल नहीं. अब तो ऐसी चीजें और भी अधिक छप रही हैं, जब हम 1991 के आर्थिक सुधारों के 30वें साल में पहुंच गए हैं.

इन आलेखों में या तो बताया जाता है कि ‘सरकार सुधार कर रही है’ या ‘सरकार सुधार नहीं कर रही.’ इनमें लेखक यह भी बताते हैं कि ‘सुधार’ क्या होते हैं, लेकिन स्वाभाविक तौर पर यह व्यक्ति विशेष की राय होती है. इस विषय पर अलग-अलग लोगों की राय अलग-अलग हो सकती है. यह बात भी सही है कि अगर एक व्यक्ति जिसे ‘सुधार’ बता रहा है, ज़रूरी नहीं है कि दूसरा शख्स़ उसका मतलब बिल्कुल उलटा बताए. इसके बावजूद अगर आप किसी से सवाल करें कि उसकी नज़र में ‘सुधार’ क्या हैं और उससे लिस्ट बनाने को कहें तो उसकी राय इस बारे में दूसरे के मत से अलग होगी. जिसे हम ‘सुधार’ कह रहे हैं, वह अंग्रेजी का ‘Reform (रिफॉर्म)’ शब्द है. यह लैटिन के reback + formare – से बना है यानी किसी चीज को फिर से एक रूप देना. यानी उसे वास्तविक रूप में लाना. इसलिए हम यह समझने की कोशिश करेंगे कि कौन सा रूप सही है. वास्तविक रूप या आज का रूप या कोई और वैकल्पिक रूप? यह कहना गलत नहीं होगा कि क्षेत्रवार सुधारों का मकसद कृषि, उद्योग, सेवा, बुनियादी ढांचा (इंफ्रास्ट्रक्चर), विवादों का निपटारा, वित्तीय बाजार, टैक्स, सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां, सब्सिडी को लक्ष्य करना था और इस पर एक हद तक आम सहमति भी है. एक हद तक यह बात समझ में आती है, लेकिन ये सारी चीजें तो ‘सुधार’ के उदाहरण हैं. इनसे यह पता नहीं चलता कि ‘सुधार’ असल में क्या है.

1991 से पहले विदेश व्यापार नीति के तहत वाणिज्य मंत्रालय के पास पॉज़िटिव (सकारात्मक) और नेगेटिव (नकारात्मक) लिस्ट होती थी. आज भी ऐसी लिस्ट दिखती हैं, लेकिन कभी-कभार और अब उनकी पहले जैसी अहमियत नहीं रह गई. यह कहना भी ग़लत नहीं होगा कि नेगेटिव लिस्ट किसी पॉज़िटिव लिस्ट की तुलना में अधिक उदार होती है. जब तक कि किसी नेगेटिव लिस्ट में स्पष्ट रूप से आयात करने सहित किसी कार्य पर रोक नहीं लगाई जाती, तब तक यह माना जाता है कि वह कार्य किया जा सकता है. दूसरी ओर, पॉज़िटिव लिस्ट में स्पष्ट रूप से किसी कार्य की अनुमति दी जाती है. यह बात आयात पर भी लागू होती है. इसलिए अगर इस लिस्ट में स्पष्ट रूप से किसी कार्य की इजाज़त नहीं दी जाती तो उसे नहीं किया जा सकता. अब आप ज़रा ऐसी स्थिति की कल्पना करिए, जहां देश में काम करने वाले निजी क्षेत्र के एक बैंक के निजीकरण के राष्ट्रीयकरण के समर्थन में कोई तर्क देता है. इस पर ज्य़ादातर लोग अपना सिर हिलाते हुए कहेंगे, ‘यह तो सुधार नहीं है.’ अब ज़रा 1960 के आख़िर या 1970 के दशक की शुरुआत में चलें और यही सवाल करें, तब अधिकतर लोगों ने कहा होता, ‘हां, यह सुधार है.’ मैं यहां दो मुद्दे उठा रहा हूं. पहली बात तो यह कि सुधार की परिभाषा किसी खास संदर्भ और समय से जुड़ी है. दूसरा, सुधारों के उदाहरण पॉज़िटिव लिस्ट की तरह हैं. हमने 1991 के बाद से यही रास्ता चुना है. पसंदीदा रास्ता नेगेटिव लिस्ट का होता, जिसमें इस पर एक राय बनाई जाती कि सरकार को क्या करना चाहिए और क्या नहीं.\

1991 से पहले विदेश व्यापार नीति के तहत वाणिज्य मंत्रालय के पास पॉज़िटिव (सकारात्मक) और नेगेटिव (नकारात्मक) लिस्ट होती थी. आज भी ऐसी लिस्ट दिखती हैं, लेकिन कभी-कभार और अब उनकी पहले जैसी अहमियत नहीं रह गई. यह कहना भी ग़लत नहीं होगा कि नेगेटिव लिस्ट किसी पॉज़िटिव लिस्ट की तुलना में अधिक उदार होती है.

अगर हम ‘सुधार’ शब्द का प्रयोग करने जा रहे हैं तो अभी इसे जिस तरह से हासिल किया जा रहा है, शायद हम उससे खुश नहीं हैं. कई साल पहले पूर्व सोवियत संघ में जब गोर्बाचोफ बड़ी हस्ती थे, तब पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोस्त जैसे शब्द खूब चलन में थे. पेरेस्त्रोइका का मतलब ‘पुनर्निर्माण’ था और इसका प्रयोग राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था को नए सिरे से खड़ा करने के संदर्भ में होता था. ग्लासनोस्त का मतलब ‘खुलापन’ था और इसका इस्तेमाल सोवियत नागरिकों के अधिकारों पर ज़ोर देने की ख़ातिर किया जाता था. ये शब्द इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि सुधारों का बड़ी आसानी से सामान्यीकरण कर दिया जाता है.

उदाहरण के लिए, कहा जाता है कि अगर औद्योगिक विवाद अधिनियम के चैप्टर V-B को खत्म कर दिया जाए तो वह बहुत बड़ा सुधार होगा. अगर ऐसा नहीं किया गया तो सुधार से अपेक्षित लक्ष्य हासिल नहीं होंगे और वह निराशाजनक होगा. सुधारों को लेकर यह सोच ठीक नहीं है. सुधार का मतलब सिर्फ़ यही नहीं है और वे इससे कहीं आगे की चीज हैं. यह भी कहा जाता है कि अगर सरकार का आकार ‘छोटा’ हुआ है तो इसका मतलब है कि ‘बिग बैंग’ रिफॉर्म्स हुए हैं. अगर ऐसा नहीं हुआ है तो वे फेल हो गए हैं. लेकिन सरकार का आकार छोटा होने का क्या मतलब है? इस देश में ऐसे गांव हैं, जहां आजादी के सात दशकों बाद भी सरकार का नामोनिशान नहीं था. अगर आज उन गांवों में सरकार की कोशिशों से बिजली पहुंची है तो क्या उसे सुधार नहीं कहा जाना चाहिए, भले ही सरकार का आकार और बड़ा हो गया हो.

संविधान और रिफ़ार्म’ 

पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोस्त जैसे शब्दों का मतलब कहीं व्यापक है. हमारे संविधान में सरकार के तीन अंग- कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका को बताया गया है. रिफॉर्म का मतलब इनकी समीक्षा करना और यह देखना है कि वे किस तरह से काम कर रहे हैं. खुलकर बात करें तो मौजूदा संविधान को लेकर सवाल करना भी सुधार है. सुधार का मतलब यह है कि हम जो सरकार से उम्मीद करते हैं, उसे लेकर एक सर्वसम्मति बने. इसी तरह से हम सरकार से जो चीजें नहीं चाहते, उन पर अलग-अलग पक्षों को रज़ामंद किया जाए. सुधारों का मतलब यह भी है कि सरकार का कौन सा हिस्सा (केंद्र, राज्य और निकाय या स्थानीय प्रशासन) किस काम को करे. किसी ख़ास काम की ज़िम्मेदारी उनमें से किस पर हो? पेरेस्त्रोइका का लेना-देना पार्टी और सरकार के ढांचे से था और ग्लासनोस्त का संदर्भ सोवियत नागरिकों के लिए था. हमारे यहां भी सुधारों को नागरिकों के दायित्व से जोड़ने की ज़रूरत है, न कि सिर्फ़ उनकी मांगों से. सुधारों का दायरा व्यापक है.

2008 के विश्व बैंक के एक शोधपत्र में यह तर्क दिया गया कि ‘अलग-अलग देशों के बीच जो फर्क़ है, वह उनके आर्थिक संस्थानों के कारण है’, इसका विकास पर असर होता है. इसे दूर करने के लिए इन संस्थानों को बेहतर बनाना होगा, उनमें सुधार लाना होगा. अगर संस्थानों के कारण ही सुधार होते हैं तो भारत में सभी संस्थानों की बुनियाद संविधान है. दूसरी जो भी चीजें हैं, वे संविधान से ही निकली हुई हैं. संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को संविधान को स्वीकार किया था, उसे मान्यता दी थी, लेकिन यह लागू हुआ 26 जनवरी 1950 से. उस वक्त हमें जो संविधान मिला था, उसके बाद से उसमें कई संशोधन हो चुके हैं.

2008 के विश्व बैंक के एक शोधपत्र में यह तर्क दिया गया कि ‘अलग-अलग देशों के बीच जो फर्क़ है, वह उनके आर्थिक संस्थानों के कारण है’, इसका विकास पर असर होता है. इसे दूर करने के लिए इन संस्थानों को बेहतर बनाना होगा, उनमें सुधार लाना होगा. अगर संस्थानों के कारण ही सुधार होते हैं तो भारत में सभी संस्थानों की बुनियाद संविधान है.

यह बात भी याद रखनी चाहिए कि बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था की बुनियाद संपत्ति का अधिकार है. हालांकि, संपत्ति का अधिकार कोई बुनियादी अधिकार नहीं है. अब संविधान की ओर चलें तो उसकी प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ शब्द है, जिसे बाद में जोड़ा गया. जब संविधान बना था, तब उसमें यह शब्द नहीं था. और क्या प्रस्तावना को संविधान का हिस्सा मानना चाहिए, इस बारे में शीर्ष अदालत के अलग-अलग फैसलों के अर्थ और मीन-मेख निकालने की बात रहने दें, इसके तकनीकी पहलू पर न जाएं तो भी यह बात माननी होगी कि प्रस्तावना का अदालती फैसलों पर असर होता है. डॉ बीआर आंबेडकर ने 15 नवंबर 1948 को संविधान सभा में एक बहस में भाग लेते हुए यह कहा था. वह प्रस्तावना में समाजवादी शब्द डालने के लिए किए जा रहे संशोधन का विरोध कर रहे थे. उन्होंने कहा था, ‘सरकार की नीति क्या होनी चाहिए? सोसाइटी के सामाजिक और आर्थिक ढांचे को किस तरह से तय किया जाना चाहिए, इसका फैसला लोगों को करना चाहिए. वे वक्त और हालात के मुताबिक इसके बारे में निर्णय लें. इनके बारे में संविधान में नहीं लिखा जाना चाहिए क्योंकि अगर ऐसा किया गया तो इससे लोकतंत्र ही पूरी तरह से तबाह हो जाएगा.’

इसका मतलब है कि संविधान एक जिंदा दस्तावेज होना चाहिए. आंबेडकर के ऐसा कहने के बावजूद समाजवादी शब्द अब भी प्रस्तावना में है. इसी तरह से किसी राजनीतिक दल के पंजीकरण के लिए 1951 का जनप्रतिनिधि कानून है. इसमें कहा गया है कि अन्य बातों के अलावा संबंधित राजनीतिक दल को ‘समाजवाद के सिद्धांत’ को मानना होगा. लेकिन अगर समाजवाद की परिभाषा तय करने चलें तो काफी माथापच्ची करने के बाद भी हम कहीं नहीं पहुंचेंगे. इस पर अलग-अलग लोगों के अलग-अलग मत होंगे. खैर, मैंने इन बातों का जिक्र किया, इसका मतलब यह नहीं है कि मैं संविधान पर, उसके हर अनुच्छेद पर यहां कोई चर्चा करने जा रहा हूं. यह बात भी आपको याद होगी कि साल 2000 में संविधान का किस तरह से प्रयोग हो रहा है, इसकी समीक्षा के लिए एक राष्ट्रीय आयोग बनाया गया था. इस आयोग ने दो खंडों में अपनी रिपोर्ट साल 2002 में सौंपी थी. लेकिन इस रिपोर्ट में समस्या की जड़ पर प्रहार नहीं किया गया था. वैसे, संविधान में उत्तरोतर संशोधन किया जाता रहा.

इंसाफ़ एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें निजी क्षेत्र का दख़ल नहीं होना चाहिए और ना ही उसे इसमें आने देना चाहिए, भले ही आज अमीर लोगों ने निजी सुरक्षा गार्ड रखे हुए हैं और हमारे सामने फिल्मी या वास्तविक गुंडों की ओर से इंसाफ़ करने के मॉडल मौजूद हैं और ये लोग सुरक्षा की भी गारंटी लेते हैं. कानून का राज स्थापित करने के लिहाज़ से दो बातें महत्वपूर्ण हैं. पहला तो कानून ही है और दूसरा उसे लागू करना.

अब अगर रिफॉर्म की बात करें तो आप चाहे इसकी कोई भी परिभाषा चुनें, एक बात जरूर सामने आएगी कि इसमें बाज़ार की कितनी बड़ी भूमिका होती है और एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट कमिटी (एपीएमसी) की मंडियों की तरह मार्केट नहीं होते. बाजार एक अवधारणा है, जिसका अर्थशास्त्री प्रयोग करते हैं. उसका एक सांस्थानिक संदर्भ होता है. सुधार के मामले में यह संदर्भ संविधान है. मुझे नहीं लगता है कि संविधान के समाजवादी स्वरूप में बदलाव किए बगैर अगर अर्थशास्त्री जमीन, श्रम और पूंजी बाजार के कानूनों की बेहतरी की सिफ़ारिश करते हैं तो उसका कोई मतलब होगा. इस मामले में संविधान से समाजवादी शब्द हटाने के साथ नए बदलावों को लागू करने के लिए न्यायशास्त्र की बात भी करनी होगी.

कानून का राज

अब चूंकि न्यायशास्त्र का ज़िक्र हुआ है तो मैं कानून के राज की बात करना चाहूंगा. हमारे आदिम ग्रंथों में कहा गया है कि राजा (आज के संदर्भ में इसे सरकार कह सकते हैं) पर कुछ कार्यों का दायित्व होता है. इनमें देश और भले लोगों की रक्षा, दुष्टों को सजा देना और जल्द न्याय देने जैसी बातें शामिल हैं. अगर आप आज सरकार की प्राथमिकता तय करने की बात कहें तो ज्य़ादातर लोग इन्हीं चीजों पर ज़ोर देंगे. ज्य़ोदातर लोग इसमें बाहरी और अंदरूनी दुश्मनों से देश की रक्षा और इंसाफ़ दिलाने की बात भी कहेंगे. इसके बावजूद जब हम सुधारों की बात करते हैं तो इनका ज़िक्र शायद ही होता है. उसका एक कारण यह है कि सुधारों का एजेंडा अर्थशास्त्री तैयार करते हैं, जो दुनिया को लेकर एक संकीर्ण नज़रिया रखते हैं.

इंसाफ़ एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें निजी क्षेत्र का दख़ल नहीं होना चाहिए और ना ही उसे इसमें आने देना चाहिए, भले ही आज अमीर लोगों ने निजी सुरक्षा गार्ड रखे हुए हैं और हमारे सामने फिल्मी या वास्तविक गुंडों की ओर से इंसाफ़ करने के मॉडल मौजूद हैं और ये लोग सुरक्षा की भी गारंटी लेते हैं. कानून का राज स्थापित करने के लिहाज़ से दो बातें महत्वपूर्ण हैं. पहला तो कानून ही है और दूसरा उसे लागू करना. इसमें पुलिस और न्यायपालिका की भूमिका होती है. किसी भी सुधार की बात हो तो इसे प्राथमिकता में सबसे ऊपर होना चाहिए. संविधान में सत्ता के तीन अंगों- कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका का ज़िक्र है. फिर जब सुधारों पर चर्चा होती है तो सारा फोकस केंद्र सरकार पर होता है. इसमें राज्य सरकारों की भूमिका की बात क्यों नहीं होती. हम न्यायिक सुधारों के बारे में बात क्यों नहीं करते, जिसका ज़िक्र मैंने ऊपर किया है. हम विधायिका यानी संसद और राज्यों की विधानसभा के स्तर पर रिफॉर्म की बात क्यों नहीं करते?

गवर्नेंस (सुशासन या सरकारी सेवाओं को लोगों तक पहुंचाने में) में हम राज्यों और उसकी प्रशासनिक इकाइयों की भूमिका की बात क्यों नहीं करते? देश में आज तक एक राज्य पुनर्गठन आयोग (एसआरसी) बना है. वह भी 1953 में और उसने 1955 में अपनी रिपोर्ट सौंपी. यह बात सही है कि अलग राज्य बनाना एक भावनात्मक मामला है और इसकी अपनी जायज़ वजहें हैं. यह भी सच है कि देश में ऐतिहासिक और भाषाई आधार पर राज्य बनाए गए हैं. एसआरसी की रिपोर्ट में भी इसके लिए कुछ आधार दिए गए हैं. इसमें ये सिद्धांत कुछ इस तरह से दिए गए हैं, ‘1. देश की अखंडता को बनाए रखना और उसकी एकता व सुरक्षा को मज़बूत करना, 2. भाषाई और सांस्कृतिक एकता, 3. वित्तीय, आर्थिक और प्रशासनिक आधार, 4. राष्ट्रीय योजना पर सफ़लतापूर्वक अमल.’

पंचवर्षीय योजनाओं का चक्र भी टूट चुका है. यहां जिस ‘योजना’ की बात हो रही है, वह वस्तुओं और सेवाओं पर सरकारी खर्च से जुड़ा है ताकि कई वर्षों के बाद इससे मानवीय विकास में मदद मिले. इसे ही पूर्व योजना आयोग ‘भविष्य की ख़ातिर योजना बनाना’ कहा करता था.

ये सिद्धांत तार्किक हैं, लेकिन नए राज्य बनाने में शायद ही कभी इन पर अमल हुआ है और यहां ‘योजना’ का क्या मतलब है? नए राज्य बनाने में ‘योजना’ के सिद्धांत को इसलिए नहीं छोड़ा जा रहा है क्योंकि योजना या गैर-योजनागत का भेद मिट चुका है. पंचवर्षीय योजनाओं का चक्र भी टूट चुका है. यहां जिस ‘योजना’ की बात हो रही है, वह वस्तुओं और सेवाओं पर सरकारी खर्च से जुड़ा है ताकि कई वर्षों के बाद इससे मानवीय विकास में मदद मिले. इसे ही पूर्व योजना आयोग ‘भविष्य की ख़ातिर योजना बनाना’ कहा करता था. खास वस्तु या सेवा के स्तर के आधार पर यह तय होता है कि किस हद तक गवर्नेंस मुहैया कराया जा सकता है. उस स्तर से ऊपर आकार या दायरे की वजह से वह फायदेमंद नहीं रह जाता. उस ख़ास स्तर से नीचे भी यही दिक्कत पेश आती है.

उदाहरण के लिए, रक्षा या दूसरे देशों से रिश्ते का लोकल लेवल से कोई लेना-देना नहीं होता. वहीं, लोगों के लिए वस्तुओं की आपूर्ति और सेवाओं की डिलीवरी राज्य के स्तर पर की जाती है. क्या राज्यों का निर्माण तार्किक आधार पर होना चाहिए? इस सवाल पर शायद ज्य़ादा लोग कहेंगे कि इसके लिए एक ख़ास आबादी तय की जानी चाहिए और भौगोलिक क्षेत्र भी निश्चित किया जाए. अगर सुशासन का पैमाना वस्तुओं और सेवाओं को लोगों तक पहुंचाना हो तो 20 करोड़ (उत्तर प्रदेश) की आबादी को ठीक नहीं माना जा सकता. इसी तरह से इस लिहाज से 6.11 लाख (सिक्किम) की आबादी भी काफी कम मानी जाएगी. इस मामले में अगर भौगोलिक क्षेत्र को लें तो 3,42,269 वर्ग किलोमीटर (राजस्थान) को ठीक नहीं माना जाएगा और ना ही गोवा के 3,702 वर्ग किलोमीटर को.

वस्तुओं और सेवाओं की डिलीवरी के लिहाज़ से तय आबादी और भौगोलिक क्षेत्र का कोई पैमाना हमारे पास नहीं है, इसलिए इस बारे में कुछ भी कहना ठीक नहीं होगा, लेकिन ऐसा लगता है कि कुछ राज्य सक्षम गवर्नेंस के लिहाज़ से बहुत बड़े हैं तो कुछ बहुत छोटे. आज गवर्नेंस को आर्थिक आधार पर भी परखा जाने लगा है. मेरे कहने का मतलब यह है कि अगर मुझे रिफॉर्म का एजेंडा तैयार करना हो तो मैं उसमें दूसरे राज्य पुनर्गठन आयोग को भी शामिल करूंगा.

ऊपर मैंने जिन बातों का ज़िक्र किया है, उनका आधार यही है कि मुझे रिफॉर्म के ऐसे एजेंडा से कोई आपत्ति नहीं है, जिसमें मार्केट्स को बेहतर बनाने की बात होती है. लेकिन इसके साथ मैं यह भी कहना चाहूंगा कि यह सही सोच नहीं है. यह एक संकीर्ण एजेंडा है. मुझे लगता है कि वह वक्त़ आ गया है, जब हमें संस्थानों को लेकर रिफॉर्म एजेंडा लागू करना चाहिए.

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