पानी के बाज़ार का विरोध अब तक दो प्रमुख विवादित मसलों से उठा है. पहला, ये माना जाता है कि पानी के बाज़ार बहुत से लोगों को जीवन के इस बुनियादी संसाधन से दूर कर देंगे और इसीलिए इन बाज़ारों का विचार समानता और सबको समान वितरण के न्याय के सिद्धांतों के ख़िलाफ़ जाता है. दूसरा, बाज़ार के प्रति वामपंथी विरोध की जड़ असल में उत्पादन के संसाधनों पर निजी मालिकाना हक़ और निजी संपत्ति के विरोध में निहित है. इसकी शुरुआत मार्क्सवादी समाजवादी रुख़ से हुई थी, जो वैचारिक रूप से सभी तरह के अधिग्रहण और प्रतिद्वंदी सामाजिक रिश्तों के ख़िलाफ़ है.
अगर कोई संसाधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध और मुफ़्त है, तो किसी बाज़ार की कोई ज़रूरत ही नहीं है, और ऐसी प्रचुरता की स्थिति में बाज़ार तब तक नहीं पैदा होते, जब तक कोई बाहरी ताक़त उसमें बाहर से दख़ल न दे.
हमें शुरुआत से ही ये समझना होगा कि बाज़ार, पारंपरिक रूप से सोच समझकर नहीं, बल्कि परिस्थितियों से निपटने के लिए अपने आप ही जन्मते हैं. ऐतिहासिक रूप से देखें, तो बाज़ार किसी तरह की क़िल्लत से निपटने के लिए एक संस्थागत प्रतिक्रिया के रूप में उभरते रहे हैं: अगर कोई संसाधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध और मुफ़्त है, तो किसी बाज़ार की कोई ज़रूरत ही नहीं है, और ऐसी प्रचुरता की स्थिति में बाज़ार तब तक नहीं पैदा होते, जब तक कोई बाहरी ताक़त उसमें बाहर से दख़ल न दे. बाज़ारों के बारे में आम सोच है कि ये असमानतावादी होते हैं. पर इस सोच के उलट बाज़ार एक संस्थान के तौर पर कुशल आवंटन में मददगार साबित हो सकते हैं. इसका ये मतलब नहीं होता है कि इंसानों की भलाई बाज़ार की बेलगाम ताक़तों के लगातार उबाऊ तरीक़े से काम के विकास में होती है. इसके बजाय, बाज़ार निर्मम होते हैं और उन पर नियामक व्यवस्थाओं से लगाम लगाने की ज़रूरत होती है.
सच्चाई तो ये है कि पानी के बाज़ारों को पानी की किल्लत की रूप-रेखा के तहत समझने की ज़रूरत है. दक्षिणी एशिया (भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश) में पानी के असंगठित बाज़ार और अमेरिका जैसे पश्चिमी देश में पानी के बाज़ार, आम तौर पर पानी की किल्लत की वजह से उभरे और फिर उन्हें संगठित रूप दिया गया. वैश्विक स्तर पर बाज़ारों को दुनिया भर में क़िल्लतों से निपटने के लिए खड़ा किया जाता रहा है. इसने क़ुदरती तौर पर पानी का आवंटन उसकी आर्थिक अहमियत के अनुपात में पड़ने वाली ज़रूरत के हिसाब से करने में मदद मिलती है. इस प्रक्रिया में बाज़ार का सबसे बड़ा योगदान बाज़ार के मूल्य के माध्यम से पानी का मूल्य पता करने में होता है.
पानी की क़ीमत ये दिखाती है कि किसी व्यक्ति, किसी समुदाय, या फिर किसी अर्थव्यवस्था के लिए ये संसाधन कितना महत्वपूर्ण है.
पानी का मूल्य क्यों तय किया जाए?
पानी की क़ीमत ये दिखाती है कि किसी व्यक्ति, किसी समुदाय, या फिर किसी अर्थव्यवस्था के लिए ये संसाधन कितना महत्वपूर्ण है. इसे देखने के दो तरीक़े हो सकते हैं. पहला, पानी अंतिम उत्पाद नहीं है- ये उत्पादन की प्रक्रिया या इंसान की उपयोगिता में एक माध्यम वाली चीज़ है. इसलिए, पानी की क़ीमत उस अंतिम उत्पाद के हिसाब से तय होती है, जिसके लिए पानी का इस्तेमाल किया जाता है. दूसरे शब्दों में, अगर पानी को मूल्यवान काम में इस्तेमाल किया जाता है या फिर ऊंची क़ीमत वाली सेवाओं या उत्पादों को बनाने में होता है, तो उसकी क़ीमत बढ़ जाती है. दूसरा, पानी की क़ीमत इसकी तुलनात्मक उपलब्धता या फिर क़िल्लत से भी निर्धारित की जाती है. अगर हम बेंजामिन फ्रैंकलिन के शब्दों में कहें, तो ‘…जब कुआं सूखा होता है, तब हमको पानी की असली क़ीमत पता चलती है.’ दोनों ही मामलों में पानी की अनुपलब्धता से बेशक़ीमती नुक़सान होता है. आर्थिक और अकादमिक साहित्य में इस नुक़सान की क़ीमत को पानी की क़िल्लत के मूल्य के तौर दर्शाया जाता है.
पानी का मूल्य तय करने की अहमियत इन बिंदुओं से पैदा होती है:
- परियोजनाओं का फ़ैसला सटीक आधार पर करना: जब सामने पानी की कई परियोजनाएं हों, तो मूल्य तय करने से मात्रा के आधार पर रैंकिंग मिलती है. इससे निर्णय लेने की प्रक्रिया बेहद आसान हो जाती है.
- संसाधनों के समान आवंटन में संतुलन बिठाना: पानी के संसाधनों के आवंटन में कुशलता और समानता के बीच नाज़ुक संतुलन को बहुत सावधानी से साधने की ज़रूरत होती है. मूल्य से रास्ता दिखता है, जिससे वितरण का तार्किक नज़रिया मिलता है और खपत और उत्पादन में अधिकतम सामाजिक लाभ पाने में मदद मिलती है
- मूल्य तय होने से क़ुदरती संसाधनों का महत्व पता चलता है: मूल्य तय होने से पानी के बारे में लोगों की जागरूकता बढ़ जाती है. मूल्य निर्धारण से न केवल उन संसाधनों की अहमियत रेखांकित होती है, बल्कि इससे समुदायों को इन अहम संसाधनों को पहचानने और सजग रहने में भी मदद मिलती है.
- क़ानूनी क्षेत्र में मूल्य निर्धारण; नुक़सान का मूल्यांकन: क़ानूनी लड़ाइयों में दाम तय करने की भूमिका केंद्रीय हो जाती है. जब कोई एक पक्ष दूसरे पर क्षति पहुंचाने का इल्ज़ाम लगाता है, तब मूल्य निर्धारण से नुक़सान का अंदाज़ा लगता है. अब वित्तीय क्षतिपूर्ति हो या फिर पर्यावरण को हुए नुक़सान की भरपाई, मूल्य तय होने से क़ानूनी प्रक्रिया को निष्पक्ष समाधान की दिशा में आगे बढ़ने में मदद मिलती है.
- टैक्स और सब्सिडी से आगे: मूल्य निर्धारण केवल टैक्स और सब्सिडी के बारे में नहीं है; इसका मतलब कुशल प्रबंधन की व्यवस्थाएं तैयार करना है. आर्थिक संसाधनों से लेकर सरकारी नियंत्रण तक, मूल्य तय होने से अधिकतम खपत और उत्पादन हासिल करने के लिए विकल्पों का ख़ज़ाना खुल जाता है.
- निवेश में संशोधन: एक हरित नज़रिया: पानी का दाम तय होने पर निवेश के फ़ैसले, ख़ास तौर से जनहित के कामों जैसे कि बांध बनाने के दौरान आर्थिक लाभ की तुलना में पर्यावरण को होने वाली क्षति पर विचार सुनिश्चित होता है, जिससे टिकाऊ भविष्य बनाने में मदद मिलती है.
- मूल्य निर्धारण से बाज़ार का निर्माण: पानी जैसे जिन संसाधनों के पास बाज़ार नहीं है, उनका मूल्यांकन करने से बाज़ार के निर्माण की राह खुलती है. दाम तय होने से संसाधनों का बेहतर प्रबंधन और बाज़ार को गति मिलती है.
इसीलिए, मूल्य निर्धारण पानी के आवंटन, उत्पादन, वितरण और खपत की धुरी बनकर उभरता, जो अधिकतम लाभ वाली निर्णय प्रक्रिया और प्राथमिकता तय करने की राह खोलता है. सीमित बजटों वाली दुनिया में पानी के दाम तय होने से न्यायोचित वितरण और संरक्षण के लक्ष्य हासिल करने में भी सहायता मिलती है.
मूल्य निर्धारण के लिए बाज़ार
पानी के लिए बाज़ार की अहमियत तमाम नज़रियों से पैदा होती है. इसके केंद्र में पानी के दाम का निर्धारण है. बाज़ार से मांग और आपूर्ति के आयामों के ज़रिए क़ीमतों का संतुलन बनाने में मदद मिलती है. मांग के प्रबंधन की व्यवस्था और पानी के कुशल और टिकाऊ प्रशासन के एक विकल्प तौर पर इनको पूरी दुनिया में अपनाया गया है. उदाहरण के तौर पर, पश्चिमी अमेरिका के कैलिफोर्निया में पानी का जो बाज़ार है, उसमें भाग लेने वाले फौरी और दूरगामी पट्टे के माध्यम से पानी का लेन-देन करते हैं. इसके अलावा, पानी के अधिकार स्थायी तौर पर भी ख़रीदे और बेचे जाते हैं. व्यापार की इस व्यवस्था से पानी के प्रबंधन में लचीलापन बढ़ता है. कम अवधि का लेन-देन एक रणनीतिक दांव का काम करता है, जिससे पानी को इसकी क़िल्लत वाले उन इलाक़ों और कामों के लिए भेजा जाता है, जहा इसकी क़िल्लत से भारी आर्थिक नुक़सान होता है. इस तरह पानी के कारोबार से इसकी क़िल्लत से बढ़ने वाला वित्तीय बोझ कम होता है. वहीं लंबी अवधि के लिए पानी की ख़रीद फ़रोख़्त और अधिकारों की स्थायी बिक्री से पानी की लगातार बदलती मांग से तालमेल बिठाना आसान होता है. कुछ नदियों के बेसिन के ख़ास प्रबंधन के ज़रिए भूगर्भ जल का व्यापार भी होता है. भूगर्भ जल के व्यापार में विस्तार की उम्मीद लगाई जा रही है. ख़ास तौर से जब दूसरी नदियों के बेसिन में रहने वाले उपभोक्ता, भूगर्भ जल के टिकाऊ प्रबंधन के क़ानून (SGMA) के तहत निर्धारित नियमों का पालन करते हैं. अब शिकागो मर्केंटाइल एक्सचेंज के मंच के ज़रिए कैलिफोर्निया में पानी की फ्यूचर ट्रेडिंग भी शुरू हो गई है, ताकि स्पॉट मार्केट के भागीदार, जलीय और बाज़ार के जोखिमों के ख़िलाफ़ दांव लगा सकें.
ऑस्ट्रेलिया में मरे और डार्लिंग नदियों के बेसिन का प्राधिकरण बाज़ार का नियमन करता है. इससे किसानों को पानी की उत्पादकता बढ़ाने और पानी के स्थायी प्रबंधन में योगदान करने में सहायता मिलती है. चिली में 1981 के नेशनल वाटर कोड ने पानी के अधिकारों के तबादले की व्यवस्था स्थापित की थी, जिसका ज़मीन के इस्तेमाल और मालिकाना हक़ से कोई संबंध नहीं होता. चिली के पानी के बाज़ारों में पास पड़ोस के किसा अपनी अलग अलग ज़रूरतों के मुताबिक़ अक्सर पानी को ‘किराए पर’ लेने जैसे लेन-देन करते हैं. हालांकि, भारत के संदर्भ में पानी के ऐसे बाज़ार की व्यवस्था को अब तक तो नहीं अपनाया गया है.
कुशल बाज़ार पर आधारित मूल्य निर्धारण के चलन को एक ऐसी मिसाल के तौर पर उभरकर आगे आना होगा, जो हमें ऐसे भविष्य की राह दिखाए, जहां हर एक बूंद क़ीमती हो.
जहां तक अकादमिक साहित्य की बात है, तो उनमें भारत जैसे पानी की क़िल्लत वाले देश में मांग के प्रबंधन के एक अहम संस्थान के तौर पर पानी के बाज़ारों की अहमियत रेखांकित की गई है. वहीं, भारत के हालात में पानी के फ्यूचर बाज़ार के संभावित लाभों को लेकर भी बहस चल रही है. सितंबर 2022 में नीति आयोग की उस योजना की ख़बरें सामने आईं, जिनमें वो पानी के कारोबार के तमाम संसाधनों को लेकर सुझावों का प्रस्ताव जनता से सलाह मशविरे के लिए जारी करने वाला था. इसके उदाहरणों में स्पॉट ट्रेडिंग, डेरिवेटिव औज़ारों जैसे कि पानी की फ्यूचर ट्रेडिंग और ऐसे लाइसेंस शामिल हैं, जिनका कारोबार किया जा सकता है. जहां नीति आयोग की बात है, तो उसने शोधित किए गए गंदे पानी के अधिकारों को एक पारदर्शी प्लेटफॉर्म के ज़रिए आदान-प्रदान करने का दस्तावेज़ सार्वजनिक रूप से सामने रखा है. वहीं, पानी की असली क़ीमत तय करने में पानी के बाज़ारों की भूमिका महत्वपूर्ण है. हमें यहां ये समझने की ज़रूरत है कि सरकारों या फिर नियामकों द्वारा अस्थायी तौर पर तय की जाने वाली पानी की क़ीमतें, अक्सर इसकी क़िल्लत के मूल्य को नहीं दर्शाती हैं. क्योंकि ये क़ीमतें बाज़ार की व्यवस्थाओं पर आधारित नहीं होती हैं. पानी की मांग का कुशल प्रबंधन, बाज़ार की क़ीमतों के भरोसे रहता है, जो पानी की उपलब्धता या फिर भविष्य में होने वाली क़िल्लत की तरफ़ इशारा करते हैं. इससे भारत में पानी के कुशल प्रशासन के लिए ऐसे बाज़ारों पर विचार करने का एक मज़बूत तर्क बनता है.
इसीलिए, बुनियादी बात ये है कि पानी का मूल्य निर्धारित होने से इसके बेहतरीन संभव आवंटन, और उत्पादन की कुशलता में मदद मिलती है, और स्थायित्व के लक्ष्य भी अधिकतम और कुशल नहीं हो सकते हैं, अगर बाज़ार की ताक़तों को इनसे दूर रखा जाता है. हमें ये समझने की ज़रूरत है कि बाज़ारों को अलग थलग करने वाला बताकर इसकी वामपंथी आलोचना से पार पाया जा सकता है, अगर पीने के पानी और पानी की अन्य मानवीय और इकोसिस्टम की ज़रूरतों को बाज़ार के ढांचे से अलग रखा जाए. बल्कि ये बुनियादी इस्तेमाल, तो पानी की कुल मांग का एक मामूली सा हिस्सा भर है. पानी की सबसे ज़्यादा मांग तो खेती में होती है. इस मामले में भारत समेत कई विकासशील देशों में सब्सिडी दिए जाने से क़िल्लत के बावजूद पानी की निंदनीय बर्बादी होती है. इन हालात में पानी के बाज़ार के उभरने की ज़रूरत सबसे अधिक है, जो संसाधन के मूल्य पर कुशल क़ीमत के ज़रिए इसकी वर्तमान और भविष्य में होने वाली क़िल्लत का संकेत देंगे. इसीलिए, मूल्य केवल संख्या के बारे में नहीं है; ये एक परिवर्तनकारी शक्ति है, जिसका पानी के टिकाऊ प्रबंधन पर बहुत व्यापक असर पड़ सकता है. कुशल बाज़ार पर आधारित मूल्य निर्धारण के चलन को एक ऐसी मिसाल के तौर पर उभरकर आगे आना होगा, जो हमें ऐसे भविष्य की राह दिखाए, जहां हर एक बूंद क़ीमती हो.
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