यह लेख निबंध श्रृंखला ‘ये दुनिया का अंत नहीं है: विश्व पर्यावरण दिवस 2024’ का एक हिस्सा है.
क़ुदरत हमें बेशक़ीमती वस्तुएं और सेवाएं (जिन्हें सामूहिक रूप से इकोसिस्टम की सेवाएं कहा जाता है) मुहैया कराती है, जो इंसान के जीवन और रोज़ी-रोज़गार की बुनियाद है. वैसे तो ये सेवाएं अपने आप ही प्रकृति से मिलती हैं. फिर भी, हमें मूलभूत पूंजी के इस भंडार को स्वीकार करना चाहिए, जो ऐसे संसाधनों के प्रवाह को सुनिश्चित करता है. पूंजी का ये भंडार जो प्रकृति पर निर्भर है, उसे ‘प्राकृतिक पूंजी’ कहा जाता है. ये धरती के मूलभूत क़ुदरती संसाधों से मिलकर बनती है, जिसमें मिट्टी, पानी, हवा, पेड़ पौधे और जीव-जंतु शामिल हैं.
अर्थशास्त्र के पारंपरिक पैमानों में इस क़ुदरती पूंजी की महत्ता की अनदेखी की जाती है और पारिस्थितिकी या इकोसिस्टम की सेवाओं का हिसाब किताब नहीं किया जाता है. हालांकि, अलग-अलग आर्थिक रूप-रेखाओं, विशेष रूप से इकोलॉजिकल इकॉनमिक्स से तैयार किए गए आर्थिक विश्लेषण में इकोसिस्टम की सेवाओं को ‘ग़रीबों की GDP’ कहा जाता है.
अर्थशास्त्र के पारंपरिक पैमानों में इस क़ुदरती पूंजी की महत्ता की अनदेखी की जाती है और पारिस्थितिकी या इकोसिस्टम की सेवाओं का हिसाब किताब नहीं किया जाता है. हालांकि, अलग-अलग आर्थिक रूप-रेखाओं, विशेष रूप से इकोलॉजिकल इकॉनमिक्स से तैयार किए गए आर्थिक विश्लेषण में इकोसिस्टम की सेवाओं को ‘ग़रीबों की GDP’ कहा जाता है. क्योंकि, ग़रीबों के रोज़ी-रोज़गार, इकोसिस्टम की सेवाओं से बहुत नज़दीकी से जुड़े होते हैं. इन सेवाओं में खाना, पानी, मछली पालन, हवा और पानी का शुद्धिकरण, मिट्टी का निर्माण, पौधों का परागीकरण और जलवायु संबंधी नियमन शामिल है. अफ़सोस की बात है कि पारंपरिक आर्थिक मूल्यांकनों में इकोसिस्टम की सेवाओं का कम मूल्यांकन या पूरी तरह अनदेखी किए जाने से लंबे समय तक न चल सकने वाला दोहन होता है और हमारे प्राकृतिक संसाधनों का क्षरण भी होता है.
भारत समेत विकासशील विश्व के बड़े हिस्से, जहां ऐसी प्रक्रियाओं के ज़रिये कम विकास से विकास की ओर बढ़ा जा रहा है, जिनमें ज़मीन के इस्तेमाल का तरीक़ा बदल जाता है, वो इस चलन का एक उदाहरण हैं. ज़मीन के इस्तेमाल में बदलाव का भारत जैसी अर्थव्यवस्थाओं की प्राकृतिक पूंजी पर गहरा असर पड़ता है. राष्ट्रीय स्तर पर हिसाब किताब लगाने वाली पारंपरिक व्यवस्थाओं, जैसे कि सिस्टम ऑफ नेशनल एकाउंट्स (SNA) में इसको शामिल नहीं किया जाता है. इस वजह से प्राकृतिक संसाधनों के छीजने और पर्यावरण को होने वाली क्षति को स्वीकार नहीं किया जाता है. इस अनदेखी की वजह से अनजाने में पर्यावरण को होने वाले नुक़सान को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिससे आर्थिक स्थायित्व और जनता की सेहत के लिए बड़े जोख़िम खड़े हो रहे हैं.
प्राकृतिक पूंजी के अमूल्यन से जुड़ी समस्याएं
ज़मीन के इस्तेमाल में होने वाले बदलाव से प्राकृतिक पूंजी को नुक़सान होता है. इस वजह से बेहद अहम इकोसिस्टम की सेवाओं को भी चोट पहुंचती है. मूल्यांकन न किए जाने से आर्थिक विकास और प्रगति में प्राकृतिक पूंजी की अहमियत की अनदेखी हो जाती है. आर्थिक रूप से इसके भयंकर परिणाम निकलते हैं. प्राकृतिक संसाधन पहले जो सेवाएं देते थे, उनको हटाने की वजह से उत्पादकता में कमी और भारी लागत तो अभी शुरू ही हो रहे हैं. कोस्टांज़ा और उनके साथियों द्वारा किए गए एक ऐतिहासिक अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि 1997 से 2011 में ज़मीन के इस्तेमाल में बदलाव की वजह से इकोसिस्टम की सेवाओं में दुनिया भर में जो नुक़सान हुआ है, वो सालाना लगभग 4.3 ट्रिलियन डॉलर से लेकर 20.2 ट्रिलियन डॉलर की भारी रक़म हो सकती है, इसके अतिरिक्त प्राकृतिक पूंजी में कमी से प्राकृतिक आपदाओं के प्रति लचीलापन घट जाता है और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर हर सेक्टर की आर्थिक कमज़ोरी भी बढ़ जाती है.
हमें ये समझने की ज़रूरत है कि क़ुदरती पूंजी का कम मूल्यांकन या क़ीमत न लगाने की समस्या के पीछे इकोसिस्टम की सेवाओं के बाज़ार का अभाव होना है. इसकी वजह से कई समस्याएं पैदा हो जाती हैं.
हमें ये समझने की ज़रूरत है कि क़ुदरती पूंजी का कम मूल्यांकन या क़ीमत न लगाने की समस्या के पीछे इकोसिस्टम की सेवाओं के बाज़ार का अभाव होना है. इसकी वजह से कई समस्याएं पैदा हो जाती हैं. पहला, तो इकोसिस्टम की सेवाओं के मूल्यांकन से रोज़ी-रोज़गार और मानव समुदायों का काम चलने में अलग अलग स्तरों पर प्रकृति की भूमिका समझने में मदद मिलती है. पर, मूल्यांकन न होने से हिसाब किताब में इन्हें शामिल नहीं किया जाता है. दूसरा, मूलभूत ढांचे के विकास की जिन परियोजनाओं में ज़मीन के इस्तेमाल में बदलाव शामिल रहता है, उनकी वजह से पर्यावरण को होने वाली क्षति इतनी ज़्यादा होती है, जो शायद इन परियोजनाओं से होने वाले फ़ायदों से कहीं अधिक हो. ऐसे हालात में निवेश के फ़ैसलों में बदलाव किए जाने चाहिए. नुक़सान के मूल्याकंन के अभाव से निर्णय लेने वाली संस्था, ऐसे फ़ैसले निरपेक्षता और तार्किक आधार पर नहीं ले पाती है. तीसरा, इकोसिस्टम की सेवाओं के मूल्यांकन का ये अभाव किसी बाज़ार के निर्माण की संभावना को इतना कमज़ोर कर देता है कि पर्यावरण के संसाधनों को लेकर मौजूदा बाज़ार नाकाम साबित होते हैं. चौथा, इकोसिस्टम की सेवाएं विकासशील देशों में मानव समुदायों के रोज़ी-रोटी जुटाने में काफ़ी अहम भूमिका निभाती हैं.
मिसाल के तौर पर जंगलों के काटने से दवाएं बनाने में काम आने वाले वो पौधे ग़ायब हो जाते हैं, जो सेहत के पारंपरिक व्यवहार का अहम हिस्सा होते हैं. इसी तरह तटीय इलाक़ों के इकोसिस्टम, जैसे कि मूंगे की चट्टानों और दलदली इलाक़ों को नुक़सान होने से तटीय इलाक़ों में रहने वाले समुदायों के लिए समुद्र तल में बढ़ोत्तरी और समुद्री तूफ़ानों का ख़तरा बढ़ जाता है, जिससे उनके विस्थापित होने और सामाजिक आर्थिक अस्थिरता की आशंका बढ़ जाती है. वैसे तो पैसे से इस नुक़सान की भरपाई करने की एक व्यवस्था स्थापित की जा सकती है. पर, मूल्यांकन का अस्तित्व न होने से ये उम्मीद भी ख़त्म हो जाती है. पांचवां, प्राकृतिक पूंजी का उचित मूल्यांकन न किए जाने की वजह से संसाधनों का अक्सर असमान वितरण होता है, जहां कुछ लोग तो फ़ायदे हासिल करते हैं, वहीं बाक़ी लोग संसाधनों के इस दोहन के लाभ से महरूम रह जाते हैं. इसकी क़ीमत व्यापक समाज उठाता है, और उसमें भी विशेष रूप से हाशिए पर पड़ा वो तबक़ा, जो अपनी रोज़ी-रोटी और सांस्कृतिक पहचान के लिए इन संसाधनों के भरोसे होता है. ये पाया गया है कि विकासशील और अविकसित विश्व के कुछ हिस्सों में इकोसिस्टम पर निर्भरता का अनुपात (जिसे इकोसिस्टम से सीधे प्राप्त होने वाली सेवाओं की क़ीमत और लाभार्थी समुदाय की आमदनी के अनुपात के तौर पर परिभाषित किया जाता है) एकजुटता से कहीं अधिक है. इसका मतलब ये निकलता है कि तमाम स्रोतों से होने वाली आमदनी की तुलना में ये समुदाय इकोसिस्टम से कहीं ज़्यादा आर्थिक लाभ हासिल करते हैं.
ये पाया गया है कि विकासशील और अविकसित विश्व के कुछ हिस्सों में इकोसिस्टम पर निर्भरता का अनुपात एकजुटता से कहीं अधिक है. इसका मतलब ये निकलता है कि तमाम स्रोतों से होने वाली आमदनी की तुलना में ये समुदाय इकोसिस्टम से कहीं ज़्यादा आर्थिक लाभ हासिल करते हैं.
हरित लिखा-पढ़ी की ज़रूरत
प्राकृतिक पूंजी के मूल्यांकन की दिशा में तेज़ी से बढ़ने के लिए ग्रीन एकाउंटिंग या पर्यवरण का लेखा-जोख़ा बहुत ज़रूरी है. इसमें पर्यावरण को होने वाले नुक़सान और फ़ायदों का हिसाब होता है, जो निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों में बेहतर निर्णय प्रक्रिया में मददगार साबित होते हैं. मिसाल के तौर पर भारत के नीतिगत ढांचे में हरित लिखा-पढ़ी को शामिल करने से अनदेखी की जाने वाली कृषि और उद्योग की उन व्यापक गतिविधियों से निपटने में मदद मिल सकती है, जो खाद्य सुरक्षा और जनता की सेहत के लिए दूरगामी ख़तरा बन सकती हैं. यही नहीं, ग्रीन एकाउंटिंग से संयुक्त राष्ट्र द्वारा तय किए गए स्थायी विकास के लक्ष्यों (SDGs), विशेष रूप से पर्यावरण संरक्षण से जुड़े लक्ष्यों जैसे कि SDG 13 (जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपाय), SDG 14 (पानी के नीचे जीवन), और SDG 15 (ज़मीन पर जीवन) के संरक्षण जैसे लक्ष्यों को हासिल करने में मदद मिल सकती है. ग्रीन एकाउंटिंग करने का एक बढ़िया उदाहरण वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर (WWF) द्वारा उत्तराखंड के तराई इलाक़े में इकोसिस्टम की सेवाओं का मूल्यांकन करना है. 2017 में किए गए इस अध्ययन ने प्राकृतिक दृश्यों के स्तर पर इकोसिस्टम की सेवाओं के मूल्यांकन का एक निरपेक्ष तरीक़े मुहैया कराया था. इससे पता चला था कि इन सेवाओं का कुल मूल्य, इस क्षेत्र की कुल आमदनी से 19 प्रतिशत अधिक था. ये गणनाएं इकोसिस्टम की बेशक़ीमती सेवाओं को रेखांकित करती हैं और मज़बूती से तर्क पेश करती हैं कि इन सेवाओं का संरक्षण और टिकाऊ प्रबंध किया जाना चाहिए.
(NPV) के पैमाने के अनुसार जंगल की ज़मीन का गैर-वनीय कामों में इस्तेमाल
विकासशील दुनिया में संरक्षण और विकास की प्राथमिकताओं के बीच वर्षों से टकराव चला आ रहा है और भारत भी इसका अपवाद नहीं है. मूल्यांकन करने से ये संघर्ष और लेन-देन स्पष्ट हो जाता है. 2006 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रोफ़ेसर कंचन चोपड़ा की अध्यक्षता में गठित एक समिति ने जंगलों की भूमि का अन्य कार्यों में इस्तेमाल किए जाने पर जंगलों से मिलने वाली इकोसिस्टम की सेवाओं को होने वाले नुक़सान की भरपाई के लिए उनके कुल वर्तमान मूल्य (NPV) के आकलन पर एक रिपोर्ट दी थी. इसके आधार पर केंद्रीय सशक्त समिति (CEC) ने 2007 में अलग अलग जंगलों के कुछ मूल्यों का सुझाव दिया था. हाल के दिनों तक इन मूल्यों को स्वीकार करके लागू किया गया था. इनके तहत विकास करने वालों को जंगलों की ज़मीन लेने के बदले में इन्हीं मूल्यों के आधार पर मुआवज़ा देना था.
2014 में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेस्ट मैनेजमेंट की एक और आधुनिक रिपोर्ट सामने आई थी, जिसमें मुआवज़े के लिए मूल्य निर्धारण में काफ़ी बढ़ोत्तरी की गई थी. हालांकि, अधिक NPV से विकास की गतिविधियों को नुक़सान पहुंचने की आशंका को देखते हुए, NPV का ये फॉर्मूला स्वीकार नहीं किया गया था. ये सरकार की प्राथमिकताओं को दिखाता है कि वो संरक्षण की प्राथमिकताओं की क़ीमत पर विकास को तरज़ीह देगा. आख़िरकार जनवरी 2022 में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के वन संरक्षण विभाग द्वारा जारी एक अधिसूचना के ज़रिये, NPV को थोक मूल्य सूचकांक या WPI (जो 2022 और 2007 में चलन में था) के 1.53 ‘फिटमेंट फैक्टर’ के आधार पर संशोधित किया गया था. थोक मूल्य सूचकांक के आधार जनवरी 2022 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त विशेषज्ञ समिति ने ये तर्क दिया था कि पर NPV में बढ़ोत्तरी वैज्ञानिक रूप से ग़लत है.
विकासशील दुनिया में संरक्षण और विकास की प्राथमिकताओं के बीच वर्षों से टकराव चला आ रहा है और भारत भी इसका अपवाद नहीं है. मूल्यांकन करने से ये संघर्ष और लेन-देन स्पष्ट हो जाता है.
किसी भी स्थिति में ये पूरी परिचर्चा अभी भी चल रही है. लेकिन, जो बात ज़्यादा महत्वपूर्ण है, वो ये है कि इकोसिस्टम की सेवाओं का मूल्य तय करने से संरक्षण और विकास के बीच समझौता करने वाला बेहद अहम लेन-देन सामने आएगा, जिससे इस मुद्दे पर बहस और परिचर्चा का का एक निरपेक्ष आधार मिलने के साथ साथ, मूल्यांकन और निर्णय प्रक्रिया की मूल्य आधारित बुनियाद आधारित होगी. हालांकि, हमें ये समझना होगा कि ये आंकड़े न तो बिल्कुल सही हैं और न ही ये सभी समस्याओं का समाधान ही हैं! नीतिगत प्राथमिकताओं को तय करने में बहुत से अन्य गुणात्मक और सांस्कृतिक विचार अपनी भूमिका निभाते हैं.
निष्कर्ष
हालांकि, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि प्राकृतिक पूंजी का मूल्यांकन एक व्यापक आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरण संबंधी आवश्यकता है. ग्रीन एकाउंटिंग को राष्ट्रीय खाता-बही में जोड़ने से अधिक समझभरी और टिकाऊ आर्थिक योजना निर्माण और नीति निर्माण को मदद मिलती है. विशेष रूप से इस साल के विश्व पर्यावरण दिवस पर जब इसकी थीम ज़मीन के संरक्षण के इर्द गिर्द घूमती है, तो ज़मीन के इस्तेमाल में होने वाले बदलाव की वजह से इकोसिस्टम को होने वाले नुक़सान और ज़मीन एवं इकोसिस्टम के संरक्षण से इकोसिस्टम के लाभों को परिचर्चा के केंद्र में लाने की ज़रूरत है. पर्यावरण के बाज़ारों की लगातार ग़लतियों में सुधार, संरक्षण और विकास के बीच समझौते को समझने और संस्थागत दख़ल के ज़रिये इस लेन-देन को बदलना महत्वपूर्ण है. प्रकृति का मूल्यांकन निश्चित रूप से इसमें मदद कर सकता है.
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