Authors : Vivek Mishra | Ria Nair

Expert Speak Raisina Debates
Published on Oct 22, 2024 Updated 0 Hours ago

अमेरिका व वेनेज़ुएला के बीच रिश्तों की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि दोनों ही देश अपने फायदे और अपने मक़सद को पूरा करने के लिए हर हथकंडा अपनाते हैं और संसाधनों का खुलकर इस्तेमाल करते हैं.

अमेरिका — वेनेज़ुएला संबंधों में लगातार आती गिरावट

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बोलिवेरियन रिपब्लिक ऑफ वेनेज़ुएला लंबे अर्से से राजनीतिक उथल-पुथल से जूझ रहा है. ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो यहां अस्थिरता के हालात हमेशा से बने रहे हैं. आधिकारिक रूप से वेनेज़ुएला एक फेडरल प्रेसिडेंशियल रिपब्लिक है, यानी राष्ट्रपति के हाथ में सारी शक्तियां होती हैं. वर्तमान में वेनेज़ुएला में राष्ट्रपति निकोलस मादुरो का तानाशाही शासन है. ज़ाहिर है कि मादुरो वर्ष 2013 में अपने मार्गदर्शक ह्यूगो चावेज़ की मौत के बाद देश की सत्ता पर कबिज हुए थे. राष्ट्रपति मादुरो का शासन तमाम विवादों से घिरा हुआ है. देश की अर्थव्यवस्था तबाह हो चुकी है, देश में मानवाधिकारों का जमकर उल्लंघन हो रहा है, बड़ी संख्या में लोग पलायन करने को मज़बूर हैं, देश में खाद्य वस्तुओं और दवाओं की बेहद कमी है, लोगों के बोलने पर पहरा है और राजनीतिक विरोधियों पर शिकंजा कसा जा रहा है. वेनेज़ुएला में इसी साल 28 जुलाई को हुए विवादास्पद चुनावों के बाद देश में मादुरो फिर से क़ाबिज़ हो गए. चुनावों में मादुरो की जीत को लेकर देश में ही सवाल नहीं उठाए गए, बल्कि दूसरे देशों ने भी संशय ज़ाहिर किया है. मादुरो की इस जीत का सबसे अधिक विरोध अमेरिका द्वारा किया गया है.

 वेनेज़ुएला में इसी साल 28 जुलाई को हुए विवादास्पद चुनावों के बाद देश में मादुरो फिर से क़ाबिज़ हो गए. चुनावों में मादुरो की जीत को लेकर देश में ही सवाल नहीं उठाए गए, बल्कि दूसरे देशों ने भी संशय ज़ाहिर किया है. मादुरो की इस जीत का सबसे अधिक विरोध अमेरिका द्वारा किया गया है.

वेनेज़ुएला में पूर्व राष्ट्रपति ह्यूगो चावेज़ की वामपंथी विचारधारा को मानने वाले लोगों यानी चाविस्टा प्रशंसकों की संख्या में कमी आ रही है, लेकिन राष्ट्रपति मादुरो इन्हीं बचे-खुचे समर्थकों के दम पर चावेज़ की विरासत को आगे बढ़ाने में जुटे हुए हैं. इसके लिए मादुरो नए-नए हथकंडे अपना रहे हैं और ख़ास तौर पर अमेरिका के विरुद्ध कड़ा रुख़ अपनाए हुए हैं और हर स्तर पर उसका विरोध कर रहे हैं. अमेरिका के तीन पूर्व राष्ट्रपतियों के शासन पर नज़र डालें, तो इस दौरान वॉशिंगटन और कराकास के आपसी रिश्तों में गिरावट आई है, साथ ही दोनों देशों के बीच अविश्वास का माहौल पैदा हुआ है और तमाम प्रतिबंधों को लगाया गया है. वर्ष 2015 में राष्ट्रपति बराक ओबामा के शासन के दौरान अमेरिका ने मादुरो सरकार को प्रमुख सदस्यों और सैन्य अधिकारियों पर प्रतिबंध लगा दिया था. अमेरिका ने इन पर भ्रष्टाचार में लिप्त होने, मानवाधिकारों का उल्लंघन करने और लोगों को बेवजह गिरफ्तार करने जैसे आरोप लगाए थे. राष्ट्रपति ओबामा ने देखा जाए तो मादुरो के ख़िलाफ़ थोड़ा लचीला रुख़ अपनाया था, लेकिन 2019 में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इसके उलट मादुरो सरकार के विरुद्ध आक्रामक रुख़ अख़्तियार किया. ट्रंप प्रशासन ने सिर्फ़ अमेरिका में मौजूद मादुरो की संपत्तियों पर ही प्रतिबंध नहीं लगाए, बल्कि उससे भी आगे बढ़ते हुए उनकी सरकार के साथ तेल का कारोबार करने वाली ईरान, चीन और रूस की विदेशी कंपनियों पर भी प्रतिबंध थोप दिए थे. इसके अलावा, अमेरिका ने वेनेज़ुएला की सरकारी तेल कंपनी पेट्रोलियोस डी वेनेज़ुएला एस.ए. (PdVSA) पर भी प्रतिबंध लगा दिया. ऐसा करके अमेरिका ने एक लिहाज़ से राष्ट्रपति मादुरो की आय के प्रमुख स्रोत को ही समाप्त कर दिया था. इतना ही नहीं, तब अमेरिका द्वारा कहा गया था कि वो हर हाल में वेनेज़ुएला के लोगों के लिएसराकारी संपत्तियों की हिफ़ाजत करेगा.

 

अमेरिका ने यह भी कहा था कि अगर वेनेज़ुएला में लोकतंत्र की बहाली होती है, तो वो उस पर थोपे गए प्रतिबंधों को हटा लेगा. गौरतलब है कि वेनेज़ुएला में वर्ष 2018 में हुए राष्ट्रपति चुनावों के पश्चात वर्ष 2019 में विपक्षी नेता जुआन गुएडो ने अपनी जीत का दावा किया था. अमेरिका समेत कई देशों ने जुआन गुएडो को वेनेज़ुएला के अंतरिम राष्ट्रपति के रूप में मान्यता भी दे दी थी, साथ ही आरोप लगाया गया था कि चुनावों में मादुरो ने धोखाधड़ी और गड़बड़ी की है. इतना सब होने के बावज़ूद, मादुरो ने सत्ता नहीं छोड़ी और सरकार व सेना पर अपना नियंत्रण बनाए रखा. इसके लिए जुआन गुएडो को व्यापक स्तर पर आलोचना भी झेलनी पड़ी. तमाम लोगों का कहना था कि इतना अच्छा अवसर मिलने के बाद भी गुएडो देश में लोकतंत्र की बहाली और सत्ता हस्तांतरण करने में नाक़ाम साबित हुए. आख़िरकार 2022 में ज़्यादातर विपक्षी दलों को गुएडो के नेतृत्व में बनी अंतरिम सरकार का विलय करना पड़ा.

 

ट्रंप के बाद जो बाइडेन अमेरिका के राष्ट्रपति बने और उनके शासन में भी अमेरिका ने वेनेज़ुएला पर प्रतिबंध जारी रखे. बावज़ूद इसके, वेनेज़ुएला में इस साल हुए चुनावों के बाद राष्ट्रपति मादुरो का देश की सरकार पर कब्ज़ा बना हुआ है. ज़ाहिर है कि मादुरो का तीसरी बार राष्ट्रपति पद पर जीतना अमेरिका के लिए शर्मिंदगी की तरह है. अमेरिका ने आरोप लगाया है कि मादुरो ने तीसरी बार राष्ट्रपति बनने के लिए चुनावों के दौरान व्यापक स्तर पर अनियमितिताएं की हैं. आरोप है कि मादुरो ने चुनाव जीतने के लिए जहां एक तरफ विपक्षी नेताओं पर शिकंजा कसा, उन्हें देश से निर्वासित किया, वहीं दूसरी ओर व्यापक रूप से मानवाधिकारों का भी हनन किया है. कुल मिलाकर, जो ताज़ा हालात हैं उनमें राष्ट्रपति मादुरो को जहां देश में बढ़ती राजनीतिक उथल-पुथल का सामना करना पड़ रहा है, वहीं दूसरे देशों द्वारा उन पर नए-नए प्रतिबंध भी लगाए जा रहे हैं.

 

वेनेज़ुएला के चुनाव: डील या नो डील?

 

वेनेज़ुएला में निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनावों के लेकर हुआ बारबाडो समझौता देखा जाए तो एक उम्मीद की किरण की तरह था. इस समझौते में कहा गया था कि अगर वेनेज़ुएला में निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव होते हैं, तो अमेरिका न केवल देश पर लगाए गए प्रतिबंधों से राहत प्रदान करेगा, बल्कि कच्चे तेल के व्यापार और तेल निर्यात को भी बहाल करेगा. हालांकि, जिस प्रकार से मादुरो की वेनेज़ुएला की सत्ता पर वापसी हुई है, उसने एक लिहाज़ से इस समझौते को समाप्त कर दिया है. वेनेज़ुएला में चुनाव के दौरान लोकप्रिय विपक्षी नेता मारिया कोरिना मचाडो की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी को अयोग्य घोषित कर दिया गया था. मारिया मचाडो पर मादुरो सरकार के विरुद्ध साज़िश रचने का आरोप लगाया गया था. गौरतलब है कि वर्ष 2023 में राष्ट्रपति पद के लिए हुए प्राथमिक चुनावों में मचाडो ने 90 प्रतिशत से अधिक वोटों के साथ जीत हासिल की थी. वॉशिंगटन स्थित ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ अमेरिकी स्टेट्स (OAS) ने मारिया की उम्मीदवारी को अयोग्य बताने वाले फैलसे को ख़ारिजकर दिया था, वहीं कि मचाडो ने भी कोर्ट के इस निर्णय तो दुर्भावना से प्रेरित बताया था. अमेरिका ने कहा कि मादुरो सरकार ने मचाडो को अयोग्य घोषित करके चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों के बीच स्वस्थ्य प्रतिस्पर्धा बनाए रखने के वादे को तोड़ा है. अमेरिका ने इसे वेनेज़ुएला सरकार द्वारा बारबाडोस समझौते की शर्तों का भी उल्लंघन बताया. नतीज़तन, अमेरिका ने वेनेज़ुएला पर प्रतिबंधों को दोबारा से लागू कर दिया और तेल व्यापार पर भी रोक लगा दी.

 वेनेज़ुएला में चुनाव के दौरान लोकप्रिय विपक्षी नेता मारिया कोरिना मचाडो की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी को अयोग्य घोषित कर दिया गया था. मारिया मचाडो पर मादुरो सरकार के विरुद्ध साज़िश रचने का आरोप लगाया गया था.

वेनेज़ुएला में 28 जुलाई को हुए चुनावों के नतीज़ों का ऐलान करते हुए नेशनल इलेक्टोरल काउंसिल (CNE) ने मादुरो को 51.2 प्रतिशत वोटों के साथ विजेता घोषित किया था, जबकि मारिया कोरिना मचाडो की जगह पर चुनाव लड़ने वाले विपक्षी प्रत्याशी एडमंडो गोंजालेज उरुतिया को 44.2 प्रतिशत वोट के साथ उपविजेता बताया था. लेकिन विपक्षी दलों द्वारा की गई मतगणना के आंकड़ों के मुताबिक़ माचाडो के स्थान पर लड़ने वाले विपक्षी प्रत्याशी गोंजालेज को 67 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि मादुरो को केवल 30 प्रतिशत वोट ही हासिल हुए थे. गोंजालेज के ख़िलाफ़ गिरफ्तारी वारंट जारी किया गया था और उसके बाद वे स्पेन भाग गए. अमेरिका के अलावा उरुग्वे, अर्जेंटीना और पेरू जैसे तमाम दूसरे देशों ने वेनेज़ुएला के चुनावी नतीज़ों की आलोचना की है, साथ ही राष्ट्रपति पद के विपक्षी उम्मीदवार गोंजालेज को ही वास्तविक विजेता माना है.

 

अमेरिका-वेनेज़ुएला द्विपक्षीय रिश्तों का गिरता ग्राफ

 

अमेरिका की ओर से वेनेज़ुएला पर पिछले कुछ वर्षों में लगाए गए प्रतिबंधों और अब दोबारा से थोपी गई पाबंदियों ने ज़ाहिर तौर पर कराकास और वॉशिंगटन के बीच रिश्तों में तनाव बढ़ाने और उनमें ज़बरदस्त गिरावट लाने का काम किया है.

 

वेनेज़ुएला ऐसा देश है, जहां दुनिया का सबसे अधिक तेल का भंडार मौज़ूद है. वेनेज़ुएला की 90 प्रतिशत से अधिक अर्थव्यवस्था तेल के निर्यात पर निर्भर है. यानी ऐसे में वेनेज़ुएला एक ऐसा देश बन गया है, जो विदेशों से आय के लिए तेल के निर्यात पर निर्भर है, या कहें कि एक पेट्रोस्टेट बन चुका है. वेनेज़ुएला पर समय के साथ-साथ अमेरिका द्वारा लगाए गए प्रतिबंध अलग-अलग क्षेत्रों में फैलते गए, साथ ही कड़े भी होते गए. अमेरिका द्वारा वेनेज़ुएला की सरकारी तेल कंपनी PdVSA पर भी पाबंदी लगा दी गई. ज़ाहिर है कि PdVSA वेनेज़ुएला की आय का सबसे प्रमुख स्रोत है. इतना ही नहीं PdVSA पूरी दुनिया में जिन देशों के साथ बिजनेस करती है, उनमें से अधिकतर में इसके बिजनेस पर रोक लगा दी गई है. 

 

ज़ाहिर है कि अमेरिका की इन पाबंदियों से कहीं न कहीं दूसरे देशों की कंपनियों पर भी असर पड़ा. इसके चलते राष्ट्रपति मादुरो की सरकार को देश के आर्थिक हालात संभालने के लिए ईरान, रूस और चीन जैसे अमेरिका विरोधी देशों की ओर हाथ बढ़ाने पर मज़बूर होना पड़ा. प्रतिबंध लगने से पहले वेनेज़ुएला से निर्यात होने वाले क्रूड ऑयल का सबसे बड़ा ख़रीदार देश अमेरिका था. आंकड़ों के मुताबिक़ अमेरिका  वेनेज़ुएला से 5,00,000 बैरल प्रतिदिन (bpd) से ज़्यादा तेल का आयात करता था. अमेरिका द्वारा प्रतिबंध लगाए जाने के बाद तेल कंपनी PdVSA की उत्पादन क्षमता पर असर पड़ा, साथ ही उसके तेल निर्यात में भी कमी दर्ज़ की गई है. वर्ष 2001 में वेनेज़ुएला 3 मिलियन bpd क्रूड ऑयल का उत्पादन करता था, जिसके वर्ष 2024 के अंत तक लगभग 9,00,000 bpd तक पहुंचने की उम्मीद है. ऐसे में ज़ाहिर तौर पर मादुरो सरकार वेनेज़ुएला के आर्थिक संकट के लिए अमेरिका को ज़िम्मेदार बताती है. इतना ही नहीं राष्ट्रपति मादुरो ने विभिन्न सेक्टरों में थोपे गए प्रतिबंधों की तुलना "मिसाइल हमलों" से की है. ये प्रतिबंध न केवल देश की अर्थव्यवस्था पर, बल्कि लोगों की आजीविका के साधनों पर भी बुरा असर डालते हैं.

 

गौरतलब है कि विपक्षी उम्मीदवार मचाडो को राष्ट्रपति पद के चुनाव में शिरकत करने से रोकने के बाद अमेरिका द्वारा वेनेज़ुएला पर विभिन्न प्रतिबंधों को नए सिरे से लगा दिया गया. इसको लेकर मादुरो सरकार ने कहा कि अमेरिका प्रतिबंध हटाने के नाम पर वेनेज़ुएला को ब्लैकमेल करने का काम कर रहा है. राष्ट्रपति मादुरो ने अमेरिका पर वेनेज़ुएला की अर्थव्यवस्था बर्बाद करने और उसके आंतरिक मसलों में दख़लंदाज़ी का आरोप भी लगाया है. इसके साथ ही मादुरो ने सख़्त लहजे में कहा है कि वॉशिंगटन को "वेनेज़ुएला के अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप करने से बाज आना चाहिए!"

 

इन प्रतिबंधों से वेनेज़ुएला और अमेरिका के संबंधों में तो खटाई आई ही है, लेकिन इसका असर इससे भी बहुत व्यापक है. प्रतिबंध लगाए जाने से पहले और बाद के आंकड़ों को देखें, तो वेनेज़ुएला से होने वाले कच्चे तेल के निर्यात में अपेक्षाकृत कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ है, यानी तेल निर्यात क़रीब-क़रीब स्थिर बना हुआ है. लेकिन, जो सबसे बड़ा झटका कराकस को लगा है, वो तेल के निर्यात से होने वाली कमाई में कमी आना है. वेनेज़ुएला पर प्रतिबंध लगे होने के बावज़ूद चीन द्वारा उससे तेल ख़रीदा जा रहा है और कहीं न कहीं वो वेनेज़ुएला का सबसे प्रमुख तेल ख़रीदार राष्ट्र भी बन गया है. ज़ाहिर है कि जो हालात बन गए हैं, चीन उनका फायदा उठाएगा और कम क़ीमत में तेल ख़रीदने के लिए वेनेज़ुएला से मोलभाव करेगा, देखा जाए तो इससे वेनेज़ुएला को तेल निर्यात से होने वाली इनकम प्रभावित होगी. इसके अलावा, अमेरिकी प्रतिबंधों की वजह से कराकास के वॉशिंगटन के साथ होने वाले व्यापार में गिरावट आती है, साथ ही दूसरे देशों व अंतरराष्ट्र्रीय  कंपनियों को भी काराकास के साथ व्यापारिक रिश्ते क़ायम रखने में सौ बार सोचना पड़ता है, क्योंकि अगर वे वेनेज़ुएला से कच्चे तेल की ख़रीद का विकल्प चुनते हैं, तो उन्हें अमेरिकी प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है.

 वेनेज़ुएला में हुए विवादित चुनावों के परिणाम घोषित होने के बाद से ही देशवासी विरोध प्रदर्शन करने के लिए सड़कों पर आ गए हैं, जिससे देश में अंदरूनी संकट और व्यापक हो गया है.

वेनेज़ुएला में हुए विवादित चुनावों के परिणाम घोषित होने के बाद से ही देशवासी विरोध प्रदर्शन करने के लिए सड़कों पर आ गए हैं, जिससे देश में अंदरूनी संकट और व्यापक हो गया है. ज़ाहिर है कि वर्ष 2013 में राष्ट्रपति मादुरो को मिली जीत और उनके सत्ता कब्ज़ाने के बाद से 77 लाख से अधिक लोग वेनेज़ुएला से पलायन कर चुके हैं. इनमें से 65 लाख से अधिक लोगों ने पड़ोसी लैटिन अमेरिकी एवं कैरिबियाई देशों में शरण ली है, जबकि क़रीब 6 लाख नागरिक अमेरिका चले गए हैं. गौरतलब है कि अमेरिका में अवैध विदेशी प्रवासियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. गहराते प्रवासी संकट को देखते हुए बाइडेन प्रशासन ने गौरक़ानूनी तरीक़े से अमेरिका में रहने वाले वेनेज़ुएला के नागरिकों को वापस उनके देश भेजने का निर्णय लिया है. हालांकि, अमेरिका द्वारा वेनेज़ुएला पर दोबारा से तेल प्रतिबंध थोपे जाने के बाद से मादुरो की सरकार ने जवाबी कार्रवाई करते हुए अमेरिका में गैरक़ानूनी तरीक़े से रहने वाले नागरिकों को लेकर आने वाले अमेरिकी विमानों को अपने देश में उतरने की अनुमति नहीं दी है. ज़ाहिर है कि इन परिस्थितियों में वॉशिंगटन के सामने अवैध प्रवासियों का मुद्दा और ज़्यादा उलझ गया है.

 

अब आगे क्या?

 

वेनेज़ुएला एवं अमेरिका के बीच चल रही तनातनी से ज़ाहिर हो चुका है कि वेनेज़ुएला पर लगाए गए प्रतिबंधों का मक़सद सिर्फ़ उसकी आर्थिक एवं क़ानूनी तौर पर घेराबंदी करना नहीं है, बल्कि इससे कहीं ज़्यादा है. इन क़दमों के ज़रिए अमेरिका कहीं न कहीं कराकास के साथ चल रही खींचतान में राजनीतिक लाभ हासिल करना चाहता है. यानी दोनों ही देश एक चीज़ के बदले दूसरी चीज़ हासिल करना चाहते हैं. कहने का मतलब है कि दोनों देश अपने फायदे के लिए या कहा जाए कि अपने मक़सद को पूरा करने के लिए अपने संसाधनों की खुलकर सौदेबाज़ी करने में जुटे हुए हैं, यानी हालातों का अपने पक्ष में लाभ उठाना चाहते हैं. जैसे कि प्रतिबंधों के पीछे अमेरिका का मक़सद वेनेज़ुएला में लोकतंत्र की बहाली है, जबकि दूसरी ओर राष्ट्रपति मादुरा सत्ता छोड़े बिना आर्थिक प्रतिबंधों को हटवाना चाहते हैं. कहा जा सकता है कि वेनेज़ुएला एवं अमेरिका के बीच जो भी उठापटक चल रही है, उसमें कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशानाजैसी स्थिति पैदा हो गई है, यानी हर कोई अपने फायदे एवं दूसरे को नुक़सान पहुंचाने की जुगत में है. फिर चाहे इसके लिए तेल के कारोबार पर पाबंदी लगाना हो, विपक्षी दलों के नेताओं पर कार्रवाई करके विरोध की आवाज़ को दबाना हो, या फिर देश छोड़कर गए अपने ही नागरिकों की स्वदेश वापसी में अड़ंगा लगाना हो.

 

इतिहास पर नज़र डालें तो अमेरिका और लैटिन अमेरिकी देशों के बीच रिश्ते बेहद पेचीदा रहे हैं. हमेशा से ही अमेरिका द्वारा अपने लाभ के लिए दख़ल देने वाली एवं अलग-थलग कर देने वाली नीतियों का सहारा लिया गया है, जिसका प्रभाव पूरे क्षेत्र में स्पष्ट रूप से दिखाई भी देता है. क्षेत्र में वर्चस्व स्थापित करने की अमेरिकी विदेश नीति के तहत उठाए गए क़दमों की वजह से अक्सर देखने में आया है कि लैटिन अमेरिकी देश असहज स्थिति में फंस जाते हैं. वेनेज़ुएला में हाल में हुए चुनावों के ही लें, तो जहां एक ओर अर्जेंटीना, चिली, कोस्टा रिका समेत तमाम लैटिन अमेरिकी देशों ने राष्ट्रपति मादुरो की जीत के दावे को मानने से इनकार कर दिया है, लेकिन वहीं दूसरी ओर क्यूबा ने राष्ट्रपति मादुरो को जीत के लिए शुभकामनाएं दी हैं. इससे साफ ज़ाहिर होता है कि लैटिन अमेरिकी देशों के बीच इस मसले पर एक राय नहीं और उनके विचार, मक़सद व लक्ष्य अलग-अलग हैं. इन हालातों में रूस और चीन के लिए इस क्षेत्र में अपने पैर जमाने के लिए ज़मीन तैयार दिखाई देती है, यानी इस क्षेत्र में उनका दख़ल बढ़ने के लिए अनुकूल परिस्थितियां बनी हुई हैं. हालांकि, वास्तविकता यह है कि रूस और चीन पहले ही इस क्षेत्र में अपना दख़ल बढ़ा चुके हैं. वॉशिंगटन इन सारे घटनाक्रमों से अच्छी तरह से वाक़िफ़ है और इनका समाधान निकालने में जुटा हुआ है. हालांकि, यह देखना दिलचस्प होगा कि अमेरिका में चुनाव के बाद कौन सत्ता में आता है और वेनेज़ुएला के साथ बिगड़ते द्विपक्षीय रिश्तों को सुलझाने के लिए क्या रुख अपनाता है.


विवेक मिश्रा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में डिप्टी डायरेक्टर हैं.

रिया नायर ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च इंटर्न हैं.

 

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